Listen जीव ईश्वरका अंश है, इसलिये वह जिस मतको पकड़ लेता है, वही
उसको सत्य दीखने लग जाता है । अतः साधकको चाहिये कि वह
अपने मतका अनुसरण तो करे, पर उसको पकड़े नहीं अर्थात् उसका आग्रह न रखे । न
ज्ञानका आग्रह रखे, न प्रेमका । वह अपने मतको श्रेष्ठ और दूसरे मतको निकृष्ट न
समझे, प्रत्युत सबका समानरूपसे आदर करे । गीताके अनुसार जैसे ‘मोहकलिल’ का त्याग
करना आवश्यक है, ऐसे ही ‘श्रुतिविप्रतिपत्ति’ का भी त्याग करना आवश्यक है (गीता‒दूसरे अध्यायका बावनवाँ-तिरपनवाँ
श्लोक); क्योंकि ये दोनों ही
साधकको अटकानेवाले हैं । इसलिये साधकको जबतक अपनेमें दार्शनिक मतभेद दीखे,
सम्पूर्ण मतोंमें समान आदरभाव न दीखे, तबतक उसको सन्तोष नहीं करना चाहिये ।
अपनेमें मतभेद दीखनेपर वह साधन-तत्त्वतक तो पहुँच सकता है, पर साध्यतक नहीं पहुँच
सकता । साध्यतक पहुँचनेपर अपने मतका आग्रह नहीं रहता और सभी मत समान दीखते हैं‒ पहुँचे
पहुँचे एक मत, अनपहुँचे मत और । ‘संतदास’
घड़ी अरठकी, ढुरे एक ही ठौर ॥ नारायण
अरु नगरके, ‘रज्जब’ राह अनेक । कोई आवौ कहीं दिसि, आगे अस्थल एक ॥ मतभेदको लेकर आचार्योमें लड़ाई नहीं होती, प्रत्युत उनके
अनुयायियोंमें लड़ाई होती है । कारण कि अनुयायियोंको मुक्तावस्थाका अनुभव तो हुआ
नहीं, पर मतका आग्रह (पक्षपात) रह गया, जबकि आचार्योंको अनुभव हो चुका है !
आचार्योंके मतभेदसे अनुयायियोंमें अपने मतके प्रति राग और दूसरे मतके प्रति द्वेष
पैदा हो जाता है । राग-द्वेष होनेसे सत्यकी खोजमें बड़ी भारी
बाधा लग जाती है । परन्तु राग-द्वेष न होनेपर साधक सत्यकी खोज करता है कि
जब वास्तविक तत्त्व एक ही है, तो फिर मतभेद क्यों है ? इसलिये वह मुक्तिमें भी
सन्तोष नहीं करता । सत्यकी खोज करते-करते वह खुद खो जाता
है और ‘वासुदेवः सर्वम्’ शेष रह जाता है ! जिस साधकमें पहले भक्तिके संस्कार रहे हैं, उसको मुक्तिमें
सन्तोष नहीं होता । इसलिये जब उसको मुक्तिका रस भी फीका लगने लगता है, तब उसको
प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है । भक्ति साधन भी है और साध्य भी‒‘भक्त्या सञ्जातया भक्त्या’ (श्रीमद्भा॰ ११ । ३ । ३१) । साधन-भक्तिमें साधन और साध्य दोनों भगवान् होनेसे अपने
मतका आग्रह सुगमतासे छूट जाता है और साध्य-भक्ति अर्थात् प्रतिक्षण वर्धमान
प्रेमकी प्राप्ति स्वतः हो जाती है । प्रेमकी प्राप्ति
होनेपर ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’‒ऐसे भगवान्के समग्र स्वरूपका साक्षात् अनुभव हो
जाता है और साध्यमें अगाध प्रियता जाग्रत् हो जाती है । प्रियता जाग्रत् होनेपर किसी एक मतमें आग्रह नहीं रहता,
सभी मतभेद गलकर एक हो जाते हैं । मुक्तिमें तो अखण्डरस, एकरस मिलता है, पर
भक्तिमें अनन्तरस, प्रतिक्षण वर्धमान रस मिलता है । प्रेम
सम्पूर्ण साधनोंका अन्तिम फल अर्थात् साध्य है । प्रत्येक साधकको अपने-अपने
साधनके द्वारा इसी साध्यकी प्राप्ति करनी है । इसलिये मनुष्ययोनि वास्तवमें
साधनयोनि अथवा प्रेमयोनि है; क्योंकि मनुष्यजन्म परमात्मप्राप्तिके लिये ही हुआ
है और परमात्मप्रेमकी प्राप्तिमें ही मनुष्यजन्मकी
सफलता है । मनुष्य और साधक पर्याय हैं । जो
साधक नहीं है, वह वास्तवमें मनुष्य भी नहीं है । जो साधक है, वही वास्तवमें
मनुष्य है । मनुष्यका खास कर्तव्य है‒सत्यको स्वीकार करना । परमात्मा हैं‒यह सत्य है और संसार नहीं है‒यह भी सत्य है । सत्यको सत्य मानना भी सत्यको स्वीकार करना है और असत्यको
असत्य मानना भी सत्यको स्वीकार करना है । जिसके साथ हमारा सम्बन्ध है, उसके साथ
सम्बन्ध मानना भी सत्यको स्वीकार करना है और जिसके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है,
उसके साथ सम्बन्ध न मानना भी सत्यको स्वीकार करना है । मूलमें
एक ही सत्य है । वह यह है कि एक समग्र भगवान्के सिवाय और कुछ है ही नहीं‒‘वासुदेवः सर्वम् ।’
नारायण ! नारायण ! नारायण !
नारायण ! |