।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
चैत्र कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७९, शनिवार

मैंपनसे रहित स्वरूपका अनुभव



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स्वरूपमें जाग्रत्‌, स्वप्‍न, सुषुप्‍ति, मूर्च्छा और समाधि‒ये पाँचों ही अवस्थाएँ नहीं हैं । ये पाँचों अवस्थाएँ अनित्य हैं और स्वरूप नित्य है । अवस्थाएँ प्रकाश्य हैं और स्वरूप प्रकाशक है । अवस्थाएँ अलग-अलग (पाँच) हैं, पर उनको जाननेवाले हम स्वयं एक ही हैं । इन पाँचों अवस्थाओंके परिवर्तन, अभाव तथा आदि-अन्तका अनुभव तो हमें होता है, पर अपने (स्वरूपके) परिवर्तन, अभाव तथा आदि-अन्तका अनुभव हमें नहीं होता; क्योंकि स्वरूपमें ये हैं ही नहीं । जैसे स्वप्‍नावस्थामें देखे गये पदार्थ मिथ्या (अभावरूप) हैं, ऐसे ही उन पदार्थोंका अनुभव करनेवाला (स्वप्‍नको देखनेवाला) अहंकार भी मिथ्या है । स्वप्‍नावस्थामें तो जाग्रत्‌-अवस्था दबती है, मिटती नहीं, पर जाग्रत्‌-अवस्थामें स्वप्‍नावस्था मिट जाती है । अतः स्वप्‍नावस्थाके साथ-साथ उसका अहंकार भी मिट जाता है । इसी तरह जाग्रत्‌-अवस्थामें जो अहंकार दीखता है, वह भी शरीर छूटनेपर मिट जाता है; परन्तु तादात्मयके कारण दूसरे देहकी प्राप्‍ति होनेपर पुनः अहंकार जाग्रत्‌ हो जाता है । यद्यपि जाग्रत्‌, स्वप्‍न आदि अवस्थाओंका अहंकार भी अलग-अलग होता है, तथापि उनमें अपनी सत्ता एक रहनेके कारण अहंकार भी एक दीखता है ।

एक तुरीयावस्था (चतुर्थ अवस्था) होती है, जिसको जाग्रत्‌, स्वप्‍न और सुषुप्‍तिके बादकी अवस्था कहते हैं । परन्तु वास्तवमें तुरीयावस्था कोई अवस्था नहीं है, प्रत्युत तीन अवस्थाओंकी अपेक्षासे उसको तुरीयावस्था अर्थात्‌ चतुर्थ अवस्था कह देते हैं । इसको बद्धावस्थाकी अपेक्षासे मुक्तावस्था भी कह देते हैं । निर्वाण पद भी इसीका नाम है‒

पद निरवाण लखे कोई विरला,

तीन लोकमें काल समाना,

चौथे लोकमें नाम निसाण, लखे कोई विरला ।

तुरीयावस्था, मुक्तावस्था अथवा निर्वाण पद कोई अवस्था या पद नहीं है, प्रत्युत हमारा स्वरूप है ।

मैंपनको मिटानेका उपाय

‘मैंपन कैसे मिटे ?’ यह प्रश्‍न यदि हरदम जाग्रत्‌ रहे तो अहंकार मिट जायगा । वास्तवमें अहंकार मिटा हुआ ही है । परन्तु सच्‍ची और उत्कट लगन न होनेके कारण इसका अनुभव नहीं हो रहा है । एक सन्तके चरित्रमें आया है कि गरमीका समय था, जोरसे प्यास लग रही थी और कमण्डलुमें ठण्डा जल भी पासमें रखा था; परन्तु लगन लगी थी कि जबतक अनुभव नहीं होगा, तबतक पानी नहीं पीऊँगा ! ऐसी लगन लगते ही चट अनुभव हो गया ! ऐसा अनुभव एक बार हो जायगा तो फिर वह सदाके लिये, युग-युगान्तरतकके लिये हो जायगा‒‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव’ (गीता ४ । ३५) ।

अहंकारको मिटानेके तीन उपाय बताये गये हैं‒कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग । कर्मयोगमें निष्कामभावसे दूसरोंकी सेवा करें, दूसरोंको सुख पहुँचाएँ तो अपने भोग और संग्रहकी इच्छा मिट जायगी । भोगेच्छा सर्वथा मिटनेपर अहंकार नष्‍ट हो जायगा; क्योंकि भोगेच्छापर ही अहंकार टिका हुआ है । ज्ञानयोगमें विवेकके द्वारा यह समझें कि असत्‌के साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है, प्रत्युत हमारा सम्बन्ध सर्वव्यापक सत्‌-स्वरूपके साथ है । ऐसा समझकर सत्‌-स्वरूपका अनुभव कर लें तो अहंकार नष्‍ट हो जायगा । भक्तियोगमें ‘भगवान्‌ ही मेरे हैं, संसार मेरा नहीं है’‒ऐसा मानकर संसारसे विमुख और भगवान्‌के सम्मुख हो जायँ तो अहंकार नष्‍ट हो जायगा । कर्मयोगमें अहंकार शुद्ध होता है, ज्ञानयोगमें अहंकार मिटता है और भक्तियोगमें अहंकार बदलता है । शुद्ध होना, मिटना और बदलना‒तीनोंका परिणाम एक (अभाव) ही है ।

अहंकार अनित्य और परिवर्तनशील है‒यह सबका अनुभव है । एक दिनमें कई बार अहंकार बदलता है । बापके सामने हम कहते हैं कि मैं बेटा हूँ और बेटेके सामने कहते हैं कि मैं बाप हूँ । अगर कोई हमसे पूछे कि आप एक बात बताओ कि आप बाप हो या बेटा हो तो हम क्या बताएँगे ? एक बात सच्‍ची हो तो बतायें ! इस बनावटीपनको छोड़कर जब हम वास्तविकताको देखेंगे तभी सच्‍ची बात मिलेगी । हम माँके सामने बेटे बन जाते हैं, बहनके सामने भाई बन जाते हैं, स्‍त्रीके सामने पति बन जाते हैं‒यह जो हमारा बहुरूपियापना है अर्थात्‌ बदलनेवालेको सत्य मानना है, यही अहंकारके मिटनेमें बाधक है । वास्तवमें हम न बाप हैं, न बेटे हैं, न भाई हैं, न पति हैं, प्रत्युत इन सबमें रहनेवाली एक सत्ता है । वह सत्ता ही हमारा स्वरूप है । अगर अपना स्वरूप बाप होता तो वह कभी बेटा नहीं बनता और बेटा होता तो कभी बाप नहीं बनता । परन्तु बेटेके सामने वह कहता है कि मैं बाप हूँ और बापके सामने कहता है कि मैं बेटा हूँ तो यह सापेक्ष अहंवृत्ति है, जो केवल व्यवहारके लिये है । अहंवृत्ति कर्ता नहीं है, प्रत्युत करण है । कर्ता अहंकार है । खाता हूँ, पीता हूँ, बोलता हूँ आदि सामान्य क्रियाएँ ‘अहंवृत्ति’ से होती हैं, पर अहंकार सब क्रियाओंमें निरन्तर रहता है । उन क्रियाओंको लेकर जब हम अपनेमें कोई विशेषता देखते हैं, तब अभिमान हो जाता है; जैसे‒मैं धनवान्‌ हूँ, मैं विद्वान्‌ हूँ, मैं व्याख्यानदाता हूँ आदि ।

गीतामें आया है‒

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते । (३ । २७)

‘अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला अर्थात्‌ अहंकारसे तादात्म्य करनेवाला मनुष्य अपनेको कर्ता मान लेता है ।’ वास्तवमें स्वरूप (स्वयं) कर्ता नहीं है । अतः साधकको चाहिये कि वह ‘मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’ इसपर दृढ़ रहे‒‘नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’ (गीता ५ । ८) । जब अपनेमें कर्तापन और लिप्‍तता नहीं रहती, तब साधकको पूर्णता प्राप्‍त हो जाती है, वह सिद्ध हो जाता है‒‘यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते’ (गीता १८ । १७) ।

पदार्थ, रुपये, कुटुम्ब, शरीर आदिमें जो प्रियता (राग) है, वह बुद्धिकी लिप्‍तता है । कर्तापन और लिप्‍तता‒दोनों ही स्वरूपमें नहीं हैं, प्रत्युत मानी हुई हैं‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) । जैसे हम किसी प्रकाशमें बैठे हैं तो वह प्रकाश किसीसे भी लिप्‍त नहीं होता और उसमें ‘मैं प्रकाश हूँ; मेरा प्रकाश है’‒ऐसी अहंता-ममता भी नहीं होती, ऐसे ही सम्पूर्ण क्रियाओंको प्रकाशित करनेपर भी स्वरूप (स्वयं) निर्लिप्‍त रहता है । वह क्रियाओंको प्रकाशित करता नहीं है, प्रत्युत क्रियाएँ उससे प्रकाशित होती हैं अर्थात्‌ स्वरूपसे उन क्रियाओंको सत्ता-स्फूर्ति मिलती है ।

तादात्म्यसे राग-द्वेष, हर्ष-शोक, चिन्ता-भय, उद्वेग-हलचल आदि विकार उत्पन्‍न होते हैं । अगर ये विकार न होते हों, प्रत्युत अपनेमें केवल एकदेशीयपना दीखता हो तो यह भी साधकको असह्य होना चाहिये । कारण कि अहंता तो एकदेशीय है, पर सत्ता एकदेशीय नहीं है । जब सत्ता ही अपना स्वरूप है तो फिर अपनेमें एकदेशीयपना क्यों दीखता है‒ऐसा विचार करके साधकको सन्तोष नहीं करना चाहिये । इसलिये पूर्वसंस्कारसे अपनेमें एकदेशीयपना (अहंता) दीखे तो साधकको ऐसा मानना चाहिये कि वास्तवमें अहंता आ नहीं रही है, प्रत्युत जा रही है । दरवाजेपर आदमी आता हुआ भी दीखता है और जाता हुआ भी दीखता है । इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अहंताके टुकड़े होते हैं । अहंताके टुकड़े नहीं होते, प्रत्युत अनादिकालसे अहंताके जो संस्कार पड़े हुए हैं, उनका अचानक भान हो जाता है । अतः उसको महत्त्व न देकर उसकी उपेक्षा कर देनी चाहिये और दृढ़तासे यह अनुभव करना चाहिये कि अपनेमें अहंता नहीं है ।

जब प्रकृतिका कोई भी कार्य स्थिर नहीं है तो फिर अहंता कैसे स्थिर रहेगी ? अहंता हरदम बदलती है, कभी स्थिर और एकरूप नहीं रहती और न रह सकती है । परन्तु जो प्रकृतिसे अतीत तत्व (अपनी सत्ता) है, वह कभी बदलता नहीं, सदा स्थिर और एकरूप रहता है । अतः बदलनेवाली वस्तुके साथ हमारा (न बदलनेवालेका) सम्बन्ध है ही नहीं‒ऐसा दृढ़तासे अनुभव कर लेना चाहिये; क्योंकि यह वास्तविकता है ।