।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
चैत्र कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७९, रविवार

मैंपनसे रहित स्वरूपका अनुभव



Listen



मैंपनकी खोज

अब यह खोज करनी है कि मैंपन किसमें है ? यदि सत्‌में मैंपन मानें तो फिर मैंपन कभी मिटेगा ही नहीं और मनुष्य कभी निर्मम-निरहंकार हो ही नहीं सकेगा । मैंपन प्रकृतिका कार्य है और सत्‌-तत्त्व प्रकृतिसे अतीत है । मैंपन प्रकृतिमें भी नहीं है, फिर प्रकृतिसे अतीत तत्त्वमें कैसे होगा ? सत्‌-तत्त्व इतना ठोस है कि उसमें मिटनेवाले मैंपनकी कल्पना ही नहीं हो सकती । यदि असत्‌में मैंपन मानें तो असत्‌ निरन्तर परिवर्तनशील है, फिर उसमें मैंपन कैसे टिकेगा ? जिसकी खुदकी ही सत्ता नहीं है, उसमें दूसरी वस्तुकी कल्पना कैसे बैठेगी ? अतः मैंपन न तो सत्‌में है और न असत्‌में है । सत्‌ और असत्‌के सम्बन्धमें भी मैंपन नहीं मान सकते । कारण कि जैसे प्रकाश और अन्धकारका संयोग नहीं हो सकता, ऐसे ही सत्‌ और असत्‌का भी संयोग नहीं हो सकता । मैंपनको अन्तःकरणमें भी नहीं मान सकते; क्योंकि अन्तःकरण एक वृत्ति है, जो कर्ताके अधीन है । अतः जो कर्ता है, उसीमें मैंपन है ।

अब प्रश्‍न होता है कि कर्ता कौन है ? शरीर कर्ता नहीं है; क्योंकि शरीर प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है । मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार‒ये चार करण हैं, जिनको ‘अन्तःकरण’ कहते हैं । यह अन्तःकरण भी कर्ता नहीं है; क्योंकि करण कर्ताके अधीन होता है । परन्तु कर्ता स्वतन्त्र होता है‒‘स्वतन्त्रः कर्ता’ (पाणि १ । ४ । ५४) । करण तो क्रियाकी सिद्धिमें अत्यन्त सहायक होता है‒‘साधकतमं करणम्’ (पाणि १ । ४ । ४२), इसलिये करणके बिना किसी क्रियाकी सिद्धि होती ही नहीं । जैसे, कलम स्वतन्त्रतासे नहीं लिखती, प्रत्युत वह तो लिखनेका एक साधन (करण) है, जो लेखक (कर्ता)-के अधीन होता है । अतः करण कर्ता नहीं होता और कर्ता करण नहीं होता । यदि अन्तःकरण ‘करण’ है तो फिर वह कर्ता कैसे ? दूसरी बात, यदि करणमें कर्तापन है तो फिर खुद सुखी-दुःखी क्यों होता है ? यदि करण, सुखी-दुःखी होता है तो हमें क्या नुकसान है ? सत्‌-स्वरूप भी कर्ता नहीं है; क्योंकि मैंपन तो प्रकृतिका कार्य है, वह प्रकृतिसे अतीतमें कैसे सम्भव है ? यदि स्वरूपमें कर्तापन होता तो वह कभी मिटता नहीं; क्योंकि स्वरूप अविनाशी है । इसलिये गीतामें आया है‒

तत्रैव सति कर्तारमात्मानं  केवलं  तु  यः ।

पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्‍न स पश्यति दुर्मतिः ॥

(१८ । १६)

‘जो कर्मोंके विषयमें शुद्ध आत्माको कर्ता मानता है, वह दुर्मति ठीक नहीं समझता; क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है ।’

शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥

(गीता १३ । ३१)

‘यह आत्मा शरीरमें रहता हुआ भी न करता है और न लिप्‍त होता है ।’

वास्तवमें जो भोक्ता (सुखी-दुःखी) होता है, वही कर्ता होता है । अब प्रश्‍न होता है कि भोक्ता कौन है ? भोक्ता न सत्‌ है, न असत्‌ है । सत्‌ भोक्ता नहीं हो सकता; क्योंकि सत्‌का कभी अभाव नहीं होता‒‘नाभावो विद्यते सतः’, जबकि भोक्तापनका अभाव होता है‒‘न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) । असत्‌ भी भोक्ता नहीं हो सकता; क्योंकि असत्‌की सत्ता ही नहीं है‒‘नासतो विद्यते भावः’ । अतः उसमें भोक्तापनकी कल्पना ही नहीं हो सकती । तात्पर्य यह हुआ कि कर्तापन और भोक्तापन न तो सत्‌में है और न असत्‌में ही है । इसलिये साधकको चाहिये कि वह मैंपनको सत्‌से भी हटा ले और असत्‌से भी हटा ले । इन दोनोंसे मैंपन हटाते ही मैंपन नहीं रहेगा, कर्ता-भोक्ता नहीं रहेगा, प्रत्युत चिन्मय सत्ता रह जायगी ।

जब कोई कर्ता-भोक्ता नहीं रहता, तब ‘योग’ रहता है । योग होनेपर भोग नहीं रहता अर्थात्‌ ‘योग’ तो रहता है, पर योगी नहीं रहता, ‘ज्ञान’ तो रहता है, पर ज्ञानी नहीं रहता, ‘प्रेम’ तो रहता है, पर प्रेमी नहीं रहता । जबतक योगी रहता है, तबतक योगका भोग होता है । जबतक ज्ञानी रहता है, तबतक ज्ञानका भोग होता है । जबतक प्रेमी रहता है, तबतक प्रेमका भोग होता है । अतः जो योगी है, वह योगका भोगी है । जो ज्ञानी है, वह ज्ञानका भोगी है । जो प्रेमी है, वह प्रेमका भोगी है । जो योगका भोगी है, वह कभी विषयोंका भोगी भी हो सकता है । जो ज्ञानका भोगी है, वह कभी अज्ञानका भोगी भी हो सकता है । जो प्रेमका भोगी है, वह कभी काम (राग)-का भोगी भी हो सकता है ।

जब भोगी नहीं रहता, तब केवल योग रहता है । योग रहनेपर मनुष्य मुक्त हो जाता है । परन्तु मुक्त होनेपर भी महापुरुषने जिस साधनसे मुक्ति प्राप्‍त की है, उस साधनका एक संस्कार रह जाता है, जो दूसरे दार्शनिकोंके साथ एकता नहीं होने देता । इस संस्कारके कारण ही दार्शनिकोंमें और उनके दर्शनोंमें मतभेद रहता है । अपने मतका संस्कार दूसरे दार्शनिकोंके मतोंका समान आदर नहीं करने देता । परन्तु प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्‍ति होनेपर अपने मतका संस्कार भी नहीं रहता और सबके साथ एकता हो जाती है । इसलिये रामायणमें आया है‒

प्रेम भगति जल बिनु रघुराई ।

अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥

(मानस, उत्तर ४९ । ३)

अतः कर्मयोग तथा ज्ञानयोग तो साधन हैं, पर भक्तियोग साध्य है । प्रेममें अपने मतके संस्कारका भी सर्वथा अभाव हो जानेसे सम्पूर्ण मतभेद मिट जाते हैं और ‘वासुदेवः सर्वम्’ अर्थात्‌ सब कुछ परमात्मा ही हैं‒इसका अनुभव हो जाता है । वास्तवमें ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव करनेवाला, इसको जाननेवाला, कहनेवाला भी नहीं रहता, प्रत्युत एक वासुदेव ही रहता है, जो अनादिकालसे ज्यों-का-त्यों है । सबमें परमात्माको देखनेसे सम्पूर्ण मतोंमें समान आदरभाव हो जाता है; क्योंकि अपने इष्ट परमात्मासे विरोध सम्भव ही नहीं है‒‘निज प्रभुमय देखहिं जगत्‌ केहि सन करहिं बिरोध’ (मानस, उत्तर ११२ ख) । इसलिये गीतामें ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव करनेवाले महात्माको अत्यन्त दुर्लभ बताया है‒

बहूनां जन्मनामन्ते  ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥

(७ । १९)

‘बहुत जन्मोंके अन्तमें अर्थात्‌ मनुष्यजन्ममें ‘सब कुछ वासुदेव ही है’‒ऐसा जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है ।’

नारायण !   नारायण !   नारायण !   नारायण !