Listen मैंपनकी खोज अब यह खोज करनी है कि मैंपन किसमें है ? यदि सत्में मैंपन
मानें तो फिर मैंपन कभी मिटेगा ही नहीं और मनुष्य कभी निर्मम-निरहंकार हो ही नहीं
सकेगा । मैंपन प्रकृतिका कार्य है और सत्-तत्त्व प्रकृतिसे अतीत है । मैंपन
प्रकृतिमें भी नहीं है, फिर प्रकृतिसे अतीत तत्त्वमें कैसे होगा ? सत्-तत्त्व
इतना ठोस है कि उसमें मिटनेवाले मैंपनकी कल्पना ही नहीं हो सकती । यदि असत्में
मैंपन मानें तो असत् निरन्तर परिवर्तनशील है, फिर उसमें मैंपन कैसे टिकेगा ?
जिसकी खुदकी ही सत्ता नहीं है, उसमें दूसरी वस्तुकी कल्पना कैसे बैठेगी ? अतः
मैंपन न तो सत्में है और न असत्में है । सत् और असत्के सम्बन्धमें भी मैंपन
नहीं मान सकते । कारण कि जैसे प्रकाश और अन्धकारका संयोग नहीं हो सकता, ऐसे ही सत्
और असत्का भी संयोग नहीं हो सकता । मैंपनको अन्तःकरणमें भी नहीं मान सकते;
क्योंकि अन्तःकरण एक वृत्ति है, जो कर्ताके अधीन है । अतः जो कर्ता है, उसीमें
मैंपन है । अब प्रश्न होता है कि कर्ता कौन है ? शरीर कर्ता नहीं है;
क्योंकि शरीर प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है । मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार‒ये चार
करण हैं, जिनको ‘अन्तःकरण’ कहते हैं । यह अन्तःकरण भी कर्ता नहीं है; क्योंकि करण
कर्ताके अधीन होता है । परन्तु कर्ता स्वतन्त्र होता है‒‘स्वतन्त्रः
कर्ता’ (पाणि॰ अ॰ १ । ४ । ५४) । करण तो क्रियाकी सिद्धिमें अत्यन्त सहायक होता है‒‘साधकतमं
करणम्’ (पाणि॰ अ॰ १ । ४ । ४२), इसलिये करणके बिना किसी क्रियाकी सिद्धि होती ही नहीं । जैसे, कलम
स्वतन्त्रतासे नहीं लिखती, प्रत्युत वह तो लिखनेका एक साधन (करण) है, जो लेखक
(कर्ता)-के अधीन होता है । अतः करण कर्ता नहीं होता और कर्ता करण नहीं होता । यदि
अन्तःकरण ‘करण’ है तो फिर वह कर्ता कैसे ? दूसरी बात, यदि करणमें कर्तापन है तो
फिर खुद सुखी-दुःखी क्यों होता है ? यदि करण, सुखी-दुःखी होता है तो हमें क्या
नुकसान है ? सत्-स्वरूप भी कर्ता नहीं है; क्योंकि मैंपन तो प्रकृतिका कार्य है,
वह प्रकृतिसे अतीतमें कैसे सम्भव है ? यदि स्वरूपमें कर्तापन होता तो वह कभी मिटता
नहीं; क्योंकि स्वरूप अविनाशी है । इसलिये गीतामें आया है‒ तत्रैव
सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः
। पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न
स पश्यति दुर्मतिः ॥ (१८ । १६) ‘जो कर्मोंके विषयमें शुद्ध आत्माको कर्ता
मानता है, वह दुर्मति ठीक नहीं समझता; क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है ।’ शरीरस्थोऽपि
कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥ (गीता १३ । ३१) ‘यह आत्मा शरीरमें रहता हुआ भी न करता है और
न लिप्त होता है ।’ वास्तवमें जो भोक्ता (सुखी-दुःखी) होता है, वही कर्ता होता
है । अब प्रश्न होता है कि भोक्ता कौन है ? भोक्ता न सत् है, न असत् है । सत्
भोक्ता नहीं हो सकता; क्योंकि सत्का कभी अभाव नहीं होता‒‘नाभावो
विद्यते सतः’, जबकि भोक्तापनका अभाव होता है‒‘न
लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) । असत् भी भोक्ता नहीं हो सकता; क्योंकि असत्की सत्ता ही नहीं है‒‘नासतो विद्यते भावः’ । अतः उसमें भोक्तापनकी
कल्पना ही नहीं हो सकती । तात्पर्य यह हुआ कि कर्तापन और भोक्तापन न तो सत्में है
और न असत्में ही है । इसलिये साधकको चाहिये कि वह मैंपनको सत्से भी हटा ले और
असत्से भी हटा ले । इन दोनोंसे मैंपन हटाते ही मैंपन नहीं रहेगा, कर्ता-भोक्ता
नहीं रहेगा, प्रत्युत चिन्मय सत्ता रह जायगी । जब कोई कर्ता-भोक्ता नहीं रहता, तब ‘योग’ रहता है । योग
होनेपर भोग नहीं रहता अर्थात् ‘योग’ तो रहता है, पर योगी नहीं रहता, ‘ज्ञान’ तो
रहता है, पर ज्ञानी नहीं रहता, ‘प्रेम’ तो रहता है, पर प्रेमी नहीं रहता । जबतक योगी रहता है, तबतक योगका भोग होता है । जबतक ज्ञानी रहता
है, तबतक ज्ञानका भोग होता है । जबतक प्रेमी रहता है, तबतक प्रेमका भोग होता है । अतः
जो योगी है, वह योगका भोगी है । जो ज्ञानी है, वह ज्ञानका भोगी है । जो प्रेमी है,
वह प्रेमका भोगी है । जो योगका भोगी है, वह कभी विषयोंका भोगी भी हो सकता है । जो
ज्ञानका भोगी है, वह कभी अज्ञानका भोगी भी हो सकता है । जो प्रेमका भोगी है, वह
कभी काम (राग)-का भोगी भी हो सकता है । जब भोगी नहीं रहता, तब केवल योग रहता है । योग रहनेपर मनुष्य मुक्त हो जाता है । परन्तु मुक्त होनेपर
भी महापुरुषने जिस साधनसे मुक्ति प्राप्त की है, उस साधनका एक संस्कार रह जाता
है, जो दूसरे दार्शनिकोंके साथ एकता नहीं होने देता । इस संस्कारके कारण ही
दार्शनिकोंमें और उनके दर्शनोंमें मतभेद रहता है । अपने
मतका संस्कार दूसरे दार्शनिकोंके मतोंका समान आदर नहीं करने देता । परन्तु
प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति होनेपर अपने मतका संस्कार भी नहीं रहता और
सबके साथ एकता हो जाती है । इसलिये रामायणमें आया है‒ प्रेम
भगति जल बिनु रघुराई । अभिअंतर
मल कबहुँ न जाई ॥ (मानस,
उत्तर॰ ४९ । ३) अतः कर्मयोग तथा ज्ञानयोग तो साधन हैं, पर भक्तियोग साध्य
है । प्रेममें अपने मतके संस्कारका भी सर्वथा अभाव हो
जानेसे सम्पूर्ण मतभेद मिट जाते हैं और ‘वासुदेवः
सर्वम्’ अर्थात् सब कुछ परमात्मा ही हैं‒इसका
अनुभव हो जाता है । वास्तवमें ‘वासुदेवः सर्वम्’
का अनुभव करनेवाला, इसको जाननेवाला, कहनेवाला भी नहीं रहता, प्रत्युत एक वासुदेव
ही रहता है, जो अनादिकालसे ज्यों-का-त्यों है । सबमें
परमात्माको देखनेसे सम्पूर्ण मतोंमें समान आदरभाव हो जाता है; क्योंकि अपने इष्ट
परमात्मासे विरोध सम्भव ही नहीं है‒‘निज प्रभुमय
देखहिं जगत् केहि सन करहिं बिरोध’ (मानस, उत्तर॰ ११२ ख) । इसलिये गीतामें ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव
करनेवाले महात्माको अत्यन्त दुर्लभ बताया है‒ बहूनां
जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । वासुदेवः
सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ (७ । १९) ‘बहुत जन्मोंके अन्तमें अर्थात्
मनुष्यजन्ममें ‘सब कुछ वासुदेव ही है’‒ऐसा जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है, वह
महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है ।’
नारायण ! नारायण !
नारायण ! नारायण ! |