Listen शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, योग्यता, बल आदि सब
प्रकृतिके हैं । इनका आश्रय लेना प्रकृतिका आश्रय है । प्रकृतिका आश्रय रखनेपर
परमात्माकी प्राप्ति कैसे होगी ? शरीर प्रकृतिका होनेसे हमारा नहीं है और हमारे
लिये भी नहीं है । इसलिये शरीरके द्वारा जो कुछ भी किया
जाय, वह केवल संसारके लिये ही किया जाना चाहिये । शरीरसे जप, ध्यान, पूजन, तीर्थ,
व्रत आदि जो कुछ भी किया जाय, वह इस भावसे किया जाय कि दूसरोंका हित हो । अपने
लिये कुछ भी करना भोग है, योग नहीं । तात्पर्य हुआ कि शरीर संसारका अंश है,
इसलिये शरीरसे होनेवाली प्रत्येक क्रिया संसारके लिये ही है, हमारे लिये नहीं ।
हमारे लिये केवल परमात्मा हैं; क्योंकि हम उन्हींके अंश हैं । अतः पराश्रय और
परिश्रम भोग है । जो पराश्रयको छोड़कर भगवदाश्रयको अपनाता है और परिश्रमको छोड़कर विश्रामको
अपनाता है, वह योगी होता है । परन्तु जो पराश्रय और परिश्रमको अपनाता है, वह भोगी
होता है । पराश्रय और परिश्रममें सभी परतन्त्र हैं, पर भगवदाश्रय और
विश्राममें सब-के-सब स्वतन्त्र हैं । पराश्रय और परिश्रम तो संसारके लिये हैं, पर
भगवदाश्रय और विश्राम अपने लिये हैं । साधकको अपनेमें जितनी कमी दीखती है, उतना ही
पराश्रय और परिश्रम है । भगवदाश्रय और विश्रामके आते ही
मानव-जीवन पूर्ण हो जाता है । कारण कि एक भगवान्के सिवाय और कोई ऐसा नहीं
है, जो सदा हमारे साथ रहे, कभी हमसे बिछुड़े नहीं । संसारकी
प्राप्तिके लिये क्रिया है और परमात्माकी प्राप्तिके लिये विश्राम है ।
क्रियासे शक्तिका ह्रास होता है और अक्रियता अर्थात् विश्रामसे शक्तिका संचय होता
है । इतना ही नहीं, सम्पूर्ण शक्तियाँ अक्रिय-तत्त्वसे ही प्रकट होती हैं । मनुष्य
दिनभर परिश्रम करके रातको सोता है तो निद्रासे उसकी थकावट मिट जाती है और पुनः
कार्य करनेकी शक्ति प्राप्त हो जाती है । परन्तु निद्राका सुख तामस होता है‒‘निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्’ (गीता १८ । ३९) । अपने (शरीरके) लिये विश्राम करना अर्थात् कुछ न करना भोग है,
पर अनन्त ब्रह्माण्ड जिसके अन्तर्गत हैं, उस परमात्माके लिये विश्राम करना साधन
है; क्योंकि परमात्मा परम विश्राम-स्वरूप हैं । अतः विश्राम अपने लिये न
होकर परमात्माके लिये होना चाहिये । नित्य
परमात्मसत्तामें सदा-सर्वदा निरन्तर स्थित रहना ही परमात्माके लिये विश्राम करना
है । परमात्माके लिये होनेवाला विश्राम तामस नहीं होता, प्रत्युत सात्त्विक
होकर गुणातीत हो जाता है । इसलिये साधकके लिये सबसे
मूल्यवान् वस्तुएँ दो ही हैं‒भगवदाश्रय और विश्राम । भगवदाश्रय और
विश्रामसे पारमार्थिक इच्छा पूरी हो जाती है और सांसारिक इच्छाएँ मिट जाती हैं ।
अगर साधकका भगवान्पर विश्वास न हो, प्रत्युत अपनेपर विश्वास हो तो वह
स्वाश्रयको अपना सकता है । अगर साधकका न तो भगवान्पर विश्वास हो, न अपनेपर विश्वास
हो तो वह धर्मका अर्थात् कर्तव्यका आश्रय अपना सकता है । मैं केवल भगवान्का ही हूँ, केवल भगवान् ही मेरे अपने हैं‒यह भगवान्का
आश्रय है । मेरा कुछ नहीं है, मेरेको कुछ नहीं चाहिये‒यह ‘स्व’ का आश्रय है । पदार्थ और क्रिया केवल दूसरोंके हितके
लिये है‒यह धर्मका आश्रय है । भगवान्का
आश्रय ‘भक्तियोग’ है । ‘स्व’ का आश्रय ‘ज्ञानयोग’ है । धर्मका आश्रय ‘कर्मयोग’ है
। यद्यपि तीनों ही योगमार्गोंसे पदार्थ और क्रियारूप प्रकृतिका आश्रय छूट
जाता है और सत्तामात्रमें अपनी स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव हो जाता है, तथापि इन
तीनोंमें भगवान्का आश्रय सर्वश्रेष्ठ है; क्योंकि मूलमें हम भगवान्के ही अंश हैं । भगवदाश्रयसे
मुक्तिके साथ-साथ भक्तिकी भी प्राप्ति हो जाती है, जो मानवजीवनका चरम लक्ष्य है । एक ‘है’ (सत्तामात्र)-के सिवाय और कुछ नहीं
है‒ऐसा जाननेसे मुक्ति हो जाती है और वह ‘है’ अपना है‒ऐसा माननेसे भक्ति हो जाती
है । वास्तवमें जो ‘है’ वही
अपना हो सकता है । जो ‘नहीं’ है, वह अपना कैसे हो सकता है ? अगर साधक असत्की सत्ता ही स्वीकार न करे और अपना कोई आग्रह न रखे तो भक्ति अपने-आप होती है ।
नारायण ! नारायण !
नारायण ! नारायण ! |