।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन पूर्णिमा, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

अक्रियतासे परमात्मप्राप्‍ति



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परमात्मतत्त्व सम्पूर्ण संसारमें समान रीतिसे परिपूर्ण है‘मया ततमिदं सर्वम्’ (गीता ९ । ४), ‘समोऽहं सर्वभूतेषु’ (गीता ९ । २९) । अगर कोई उसकी प्राप्‍ति करना चाहे तो वह कुछ भी चिन्तन न करे । जो सर्वव्यापक है, उसका चिन्तन हो ही नहीं सकता । कुछ भी चिन्तन न करनेसे हमारी स्थिति स्वतः परमात्मामें ही होती है । इसलिये परमात्मप्राप्‍तिका खास साधन है‒कुछ भी चिन्तन न करना; न परमात्माका, न संसारका, न और किसीका । साधक जहाँ है, वहीं स्थिर हो जाय; क्योंकि वहीं परमात्मा हैं । क्रिया तो उसके लिये होती है, जो देश, काल, वस्तु आदिकी दृष्टिसे दूर हो । परन्तु जो सब जगह है, सब समय है, सब वस्तुओंमें है, सब व्यक्तिओंमें है, सब अवस्थाओंमें है, सब परिस्थितियोंमें है, सब घटनाओं आदिमें है, उसकी प्राप्‍तिके लिये क्रियाकी क्या जरूरत ?

चुप होना, शान्त होना, कुछ न करना एक बहुत बड़ा साधन है, जिसका पता बहुतोंको नहीं है । कुछ करनेसे संसारकी प्राप्‍ति होती है और कुछ न करनेसे परमात्माकी प्राप्ति होती है । संसारका स्वरूप है‒क्रिया (श्रम) और परमात्माका स्वरूप है‒अक्रिय (विश्राम) । प्रत्येक क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है, पर अक्रिय-तत्त्व ज्यों-का-त्यों रहता है । इतना ही नहीं, उस अक्रिय-तत्त्वसे ही सम्पूर्ण क्रियाएँ उत्पन्‍न होती हैं और उसीमें लीन होती हैं । क्रियासे शक्तिका ह्रास होता है और अक्रिय होनेसे शक्तिका संचय होता है । इसलिये साधक प्रत्येक क्रियासे पहले और क्रियाके अन्तमें शान्त (चिन्तनरहित) हो जाय । पहले शान्त होकर सुनेगा तो सुनी हुई बात विशेष समझमें आयेगी, पढ़ेगा तो पढ़ी हुई बात विशेष समझमें आयेगी । अन्तमें शान्त होनेसे सुनी हुई या पढ़ी हुई बातको धारण करनेकी शक्ति आयेगी । क्रिया करनेसे विषमता आती है और अक्रिय होनेसे समता आती है । इसलिये क्रिया करनेमें दो आदमी भी बराबर नहीं होते, पर कुछ न करनेमें लाखों-करोड़ों आदमी भी एक हो जाते हैं । कोई विद्वान्‌ हो या मूर्ख हो, धनी हो या निर्धन हो, रोगी हो या निरोग हो, निर्बल हो या बलवान्‌ हो, योग्य हो या अयोग्य हो, कुछ न करनेमें सब एक हो जाते हैं, सबकी स्थिति परमात्मामें हो जाती है । तात्पर्य है कि अगर कुछ भी चिन्तन करेंगे तो संसारमें स्थिति होगी और कुछ भी चिन्तन नहीं करेंगे तो परमात्मामें स्थिति होगी । वास्तवमें हमारी स्थिति स्वतः परमात्मामें ही है, पर चिन्तन करनेसे इसका भान नहीं होता । इसलिये गीतामें भगवान्‌ कहते हैं‒

शनैः       शनैरुपरमेद्‌बुद्ध्या     धृतिगृहीतया ।

आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥

(गीता ६ । २५)

‘धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा संसारसे धीरे-धीरे उपराम हो जाय और मन (बुद्धि)-को परमात्मस्वरूपमें सम्यक्‌ प्रकारसे स्थापन करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे ।’

तात्पर्य है कि सात्त्विक बुद्धि और सात्त्विक धृतिके द्वारा क्रिया और पदार्थरूप संसारसे धीरे-धीरे उपराम हो जाय । जल्दबाजी न करे; क्योंकि जल्दबाजी करनेसे साधन बढ़िया नहीं होता । एक सच्‍चिदानन्दघन परमात्माके सिवाय कुछ भी नहीं है‒ऐसा निश्‍चय करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे । परमात्मा स्वतः-स्वाभाविक सद्‌घन, चिद्‌घन और आनन्दघन हैं । ‘घन’ का अर्थ होता है‒ठोस । जैसे, पत्थर या काँच ठोस होता है, इसलिये उसमें सुई नहीं चुभती । परन्तु परमात्मा पत्थर या काँचसे भी ज्यादा ठोस हैं । कारण कि पत्थर या काँचमें तो अग्‍नि प्रविष्ट हो जाती है, पर परमात्मामें कोई भी वस्तु प्रविष्ट नहीं हो सकती । ऐसा सर्वथा ठोस परमात्माका साधक चिन्तन करता है तो ‌उलटे उनसे दूर होता है ! इसलिये वह जहाँ है, वहीं (निद्रा-आलस्य छोड़कर) बाहर-भीतरसे चुप, शान्त रहनेका स्वभाव बना ले । यह बहुत सुगम और बहुत बढ़िया साधन है । इससे बहुत शान्ति मिलेगी और सब पाप-ताप नष्ट हो जायँगे ।

उपराम होनेका तात्पर्य है कि राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि द्वन्द्व न हों । जैसे रास्तेमें चल रहे हैं तो कहीं पत्थर पड़ा है, कहीं लकड़ी पड़ी है, कहीं कागज पड़ा है, पर अपना उससे कोई मतलब नहीं होता, ऐसे ही किसी भी क्रिया और पदार्थसे अपना कोई मतलब नहीं रहे‒‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्‍चन’ (गीता ३ । १८) । उनसे तटस्थ रहे । तटस्थ रहना भी एक विद्या है । साधक तटस्थ रहते हुए सब काम करे तो वह संसारसे असंग हो जाता है । संसारमें लाभ हो, हानि हो, आदर हो, निरादर हो, सुख हो, दुःख हो, प्रशंसा हो, निन्दा हो, उसमें तटस्थ रहे तो परमात्माकी प्राप्‍ति हो जाती है । अगर वह उसमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख कर लेगा तो भोग होगा, योग नहीं । भोगीका कल्याण नहीं होता । इसलिये तुलसीदासजी महाराजने कहा है‒

तुलसी  ममता  राम  सों,  समता सब संसार ।

राग न रोष न दोष दुख,  दास भए भव पार ॥

(दोहावली ९४)

गीतामें आया है‒

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं    कर्म   कारणमुच्यते ।

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥

(गीता ६ । ३)

‘जो योग (समता)-में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगीके लिये कर्तव्य-कर्म करना कारण कहा गया है और उसी योगारूढ़ मनुष्यका शम (शान्ति) परमात्मप्राप्‍तिमें कारण कहा गया है ।’

शम (शान्ति)-का अर्थ है‒कुछ न करना । जबतक ‘करने’ के साथ सम्बन्ध है, तबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है और जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है, तबतक अशान्ति है, दुःख है, जन्म-मरण है । प्रकृतिके साथ सम्बन्ध ‘न करने’ से मिटेगा । कारण कि क्रिया और पदार्थ दोनों प्रकृतिके हैं । चेतन-तत्त्वमें न क्रिया है, न पदार्थ । क्रिया अनित्य है, अक्रियपना नित्य है । क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है, पर अक्रियपना नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है । इसलिये परमात्मप्राप्‍तिके लिये ‘शम’ अर्थात्‌ कुछ न करना ही कारण है । हाँ, अगर इस शान्तिका उपभोग किया जायगा तो परमात्माकी प्राप्‍ति नहीं होगी । ‘मैं शान्त हूँ’‒इस प्रकार शान्तिमें अहंकार लगानेसे और ‘बड़ी शान्ति है’‒इस प्रकार शान्तिमें राजी होनेसे शान्तिका उपभोग हो जाता है । इसलिये शान्तिमें व्यक्तित्व न मिलाये, प्रत्युत ऐसा समझे कि शान्ति स्वतः है । शान्तिका उपभोग करनेसे शान्ति नहीं रहेगी, प्रत्युत चंचलता आ जायगी अथवा नींद आ जायगी । उपभोग नहीं करनेसे शान्ति स्वतः रहेगी । बिना क्रिया और बिना अभिमानके जो स्वतः शान्ति होती है, वह ‘योग’ है । कारण कि उस शान्तिका कोई कर्ता या भोक्ता नहीं है । जहाँ कर्ता या भोक्ता होता है, वहाँ भोग होता है । भोग होनेपर संसारमें स्थिति होती है ।