Listen सम्पूर्ण क्रियाएँ और पदार्थ संसारके और संसारके
लिये ही हैं । इसलिये
कर्मयोगी इनको अपने और अपने लिये न मानकर संसारकी ही सेवामें लगा देता है ।
सेवामें लगानेसे उसका क्रिया और पदार्थरूप संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । प्रकृति श्रमरूप है और परमात्मतत्त्व विश्रामरूप है ।
इसलिये ज्ञानयोगी क्रिया और पदार्थसे असंग होकर विश्रामको स्वीकार करता है । विश्रामको स्वीकार करनेका तात्पर्य है‒अपना जो चिन्मय
सत्तामात्र स्वरूप है, उसमें स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव करना । परन्तु
भक्तियोगी भगवदाश्रयको स्वीकार करता है अर्थात् अपना चिन्मय सत्तामात्र स्वरूप भी
जिसका अंश है, उस भगवान्के आश्रयको स्वीकार करता है । सेवा
और विश्रामसे मुक्ति होती है तथा भगवदाश्रयसे प्रेमकी प्राप्ति होती है । यह एक सिद्धान्त है कि जो सर्वव्यापक तत्त्व
होता है, उसकी प्राप्ति किसी क्रियासे नहीं होती । क्रिया करते ही हम उससे अलग
होते हैं । अगर हम कुछ
भी क्रिया नहीं करेंगे तो उस परमात्मतत्त्वमें ही स्थिति होगी । इसलिये साधक चलते-फिरते, उठते-बैठते हरदम शान्त रहनेका स्वभाव बना ले
। हरदम शान्त रहनेमें साधकके सामने मुख्य बाधा आती है‒व्यर्थ चिन्तन । जब साधक कोई भी कार्य पूरा करके थोड़ी देर शान्त बैठना
चाहता है,
तब उसके मनमें उन देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना आदिका चिन्तन होने लगता है,
जिनका सम्बन्ध भूतकालसे अथवा भविष्यकालसे है । भूतकाल अथवा भविष्यकालमें
होनेवाली वस्तु अभी (वर्तमानमें) नहीं है; अतः व्यर्थ चिन्तनका अर्थ हुआ‒‘नहीं’
का चिन्तन । जिसकी प्राप्ति कर्म-सापेक्ष है, उसका
चिन्तन भी व्यर्थ चिन्तन है । जिसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, उसका
चिन्तन भी व्यर्थ चिन्तन है । एक चिन्तन किया जाता है और एक चिन्तन स्वतः होता है । जब किसीको
प्यास लगती है, तब वह जलका
चिन्तन नहीं करता, प्रत्युत जलका चिन्तन स्वतः होता है । इसी
तरह साधकको भी परमात्माका चिन्तन स्वतः होना चाहिये, जो कि उसकी
वास्तविक आवश्यकता है । परन्तु साधककी दशा यह होती है कि
उसको परमात्माका चिन्तन तो करना पड़ता है, पर संसारका चिन्तन स्वतः होता है । वह संसारके
व्यर्थ चिन्तन मिटानेके लिये सार्थक चिन्तन (भगवान्के नाम-रूप-लीला आदिका चिन्तन,
आत्मचिन्तन आदि) करनेका प्रयत्न करता है । इसका फल यह होता है कि बलपूर्वक किये हुए
चिन्तनका प्रभाव भी अन्तःकरणमें अंकित हो जाता है और व्यर्थ चिन्तन भी होता रहता है
। यह सिद्धान्त है कि सार्थक चिन्तन करनेसे व्यर्थ चिन्तन
नहीं मिटता, उलटे साधकमें इस
बातका अभिमान पैदा हो जाता है कि मैंने इतनी देर बैठकर साधन किया, इतने वर्षोंतक साधन किया ! परन्तु जब वह ईमानदारीसे
अपनी स्थितिकी ओर देखता है, तब वह निराश हो जाता है कि इतना साधन
करनेपर भी वास्तविक शान्ति नहीं मिली ! व्यर्थ चिन्तनके रहते हुए साधकको न तो शान्ति
मिलती है, न स्वाधीनता मिलती है और न प्रियता ही मिलती है । इतना
ही नहीं, साधक निराश होकर अपनेमें असमर्थताका अनुभव करने लगता
है । इस असमर्थताके कारण वह जो कार्य नहीं करना चाहिये, वह कर
बैठता है और जो कार्य करना चाहिये, उसको कर नहीं पाता । इस असमर्थताके
कारण ही उसको अपने कर्तव्यकी, अपने स्वरूपकी तथा अपने अंशी परमात्माकी
विस्मृति हो जाती है । इस असमर्थताको मिटानेके लिये विश्राम (शान्ति)-की आवश्यकता है
और विश्रामको प्राप्त करनेके लिये व्यर्थ चिन्तनको मिटानेकी आवश्यकता है । अब इस विषयपर विचार करें कि व्यर्थ चिन्तन किन कारणोंसे होता
है और उनका निराकरण कैसे हो सकता है‒ (१) आवश्यक कार्य न करना‒आवश्यक कार्य न करनेसे व्यर्थ चिन्तन होने लगता है । अतः साधकको
चाहिये कि जिस कार्यको करना चाहिये, जिसको वह कर सकता है और जिसको वर्तमानमें करना जरूरी है,
उस आवश्यक कार्यको कर दे । (२) अनावश्यक कार्य करना‒अनावश्यक कार्य करनेसे अथवा
उसको करनेका विचार करनेसे व्यर्थ चिन्तन होने लगता है ।
जिसको नहीं करना चाहिये, जिसको कर नहीं सकते और जिसका वर्तमानसे सम्बन्ध नहीं है,
वह अनावश्यक कार्य कहलाता है । अतः साधकको चाहिये कि वह अनावश्यक
कार्य कभी न करे और न करनेका विचार ही करे । (३) ममता करना‒साधककी जिस वस्तु या व्यक्तिमें ममता रहती है अर्थात् जिसको
वह अपना और अपने लिये मानता है, उसका चिन्तन स्वतः होता है । अतः साधकको विचार करना चाहिये कि
जो मिला है और बिछुड़ जायगा, वह अपना कैसे हो सकता है ? (४) कामना करना‒साधकके मनमें जिसकी कामना रहती है,
उसका चिन्तन स्वतः होता है । कामनाको मिटानेके लिये साधकको यह
विचार करना चाहिये कि चाहनेमात्रसे कोई वस्तु नहीं मिलती । वस्तुका मिलना प्रारब्धके
अधीन है,
कामनाके अधीन नहीं । अगर वस्तु मिल भी जाती है तो वह टिकती नहीं
। कारण कि जो मिलता है, वह
बिछुड़ जाता है, यह नियम है । संयोगका वियोग अवश्यम्भावी है । मिली
हुई वस्तुसे मनुष्यकी कभी तृप्ति नहीं होती । एक कामनाकी पूर्ति होती है तो दूसरी नयी कामना पैदा हो जाती है । इस प्रकार कामनाओंका
अन्त कभी नहीं आता । (५) तादात्म्य करना‒शरीरको
मैं, मेरा और मेरे लिये माननेसे साधक व्यर्थ चिन्तनसे
बच नहीं सकता । ‘यह’ को मैं
कहना विवेक-विरुद्ध है । कारण कि ‘यह’
(शरीर) कभी ‘मैं’ (स्वयं) नहीं
हो सकता । शरीरका विभाग अलग है और स्वयंका विभाग अलग है । (६) भुक्त-अभुक्तका प्रभाव‒साधकने इन्द्रियोंसे जिन विषयोंका उपभोग किया है अथवा उपभोग
करना चाहता है, उन भुक्त अथवा अभुक्त विषयोंका प्रभाव उसके अन्तःकरणमें पड़ जाता है,
जो व्यर्थ चिन्तनके रूपमें प्रकट होता है । इस प्रभावको मिटानेके
लिये साधकको चाहिये कि वह व्यर्थ चिन्तनका न तो समर्थन करे और न विरोध ही करे । उसको
वह न तो अपनेमें माने और न सत्य ही माने । व्यर्थ चिन्तनमें
राग-द्वेष करनेसे अथवा उसको अपनेमें माननेसे उसको सत्ता मिलती है । अतः साधकको
चाहिये कि वह उस
व्यर्थ चिन्तनकी उपेक्षा कर दे । उपेक्षा करनेसे वह स्वतः मिट जायगा । कारण
कि व्यर्थ चिन्तन स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत अस्वाभाविक है, भूलजनित है । व्यर्थ चिन्तन मिटनेपर शान्ति अर्थात् विश्राम
स्वतः प्राप्त होता है । कारण कि विश्राम स्वतःसिद्ध है, कृतिसाध्य
नहीं । विश्रामसे साधकको कर्तव्य-पालनकी,
स्वयंको जाननेकी तथा परमात्माको माननेकी सामर्थ्य प्राप्त हो
जाती है,
जिसके प्राप्त होनेपर मानवजीवन सफल हो जाता है ।
नारायण ! नारायण ! नारायण !
नारायण ! |