Listen शास्त्रोंमें लिखा है कि
मनुष्यशरीर कर्मप्रधान है । जब मनुष्यके भीतर कुछ पानेकी इच्छा होती है, तब उसकी कर्म
करनेमें प्रवृत्ति होती है । कर्मके दो प्रकार हैं‒कर्तव्य और अकर्तव्य । निष्कामभावसे कर्म करना ‘कर्तव्य’
है और सकामभावसे कर्म करना ‘अकर्तव्य’ है । अकर्तव्यका मूल कारण है‒संयोगजन्य सुखकी कामना
। अपने सुखकी कामना मिटनेपर अकर्तव्य नहीं होता । अकर्तव्य न होनेपर कर्तव्यका
पालन अपने-आप होता है । जो साधन अपने-आप होता है, वह
असली होता है और जो साधन किया जाता है, वह नकली होता है । मनुष्यमें यदि कोई कामना पैदा
हो जाय तो वह पूरी होगी ही‒ऐसा कोई नियम नहीं है । कामना पूरी होती भी है और
नहीं भी होती । सब कामनाएँ आजतक किसी एक भी व्यक्तिकी पूरी नहीं हुई और पूरी हो
सकती भी नहीं । अगर कामना पैदा तो हो जाय, पर पूरी न हो तो बड़ा दुख होता है !
परन्तु मनुष्यकी दशा यह है कि वह कामनाकी अपूर्तिसे
दु:खी भी होता रहता है और कामना भी करता रहता है ! परिणाम यह होता है कि न
तो सब कामनाएँ पूरी होती हैं और न दुःख ही मिटता है । इसलिये अगर किसीको दुःखसे बचना हो तो इसका उपाय है‒कामनाका त्याग । यहाँ शंका हो सकती है कि अगर
हम कोई भी कामना न करें तो फिर कर्म करें ही क्यों ? इसका समाधान है कि कर्म फल प्राप्तिके
लिये भी किया जाता है और फलकी कामनाका त्याग करनेके लिये भी किया जाता है । जो
कर्मबन्धनसे मुक्त होना चाहता है, वह फलेच्छाका त्याग
करनेके कर्म करता है । यह भी शंका हो सकती है कि अगर हम कोई भी कामना न करें तो
हमारा जीवन कैसे चलेगा ? जीवन-निर्वाहके लिये तो अन्न-जल
आदि चाहिये ? इसका समाधान है कि अन्न-जल लेते-लेते इतने
वर्ष बीत गये, फिर भी हमारी भूख-प्यास मिटी है क्या ? भूख-प्यास
तो नहीं मिटी ! अन्न-जलके बिना हम मर जायँगे तो क्या अन्न-जल लेते-लेते नहीं
मरेंगे ? मरना तो पड़ेगा ही । वास्तवमें
हमारा जीवन कामना-पूर्तिके अधीन नहीं है । क्या जन्म लेनेके बाद माँका दूध
कामना करनेसे मिला था ? जीवन-निर्वाह कामना करनेसे नहीं होता,
प्रत्युत किसी विधानसे होता है । सब कामनाएँ कभी किसीकी पूरी
नहीं होतीं । कुछ कामनाएँ पूरी होतीं हैं और कुछ पूरी नहीं होतीं‒यह सबका अनुभव है । इसमें विचार
करना चाहिये कि कामना पूरी होने अथवा न होनेके स्थितिमें क्या हमारेमें कोई फर्क
पड़ता है ? क्या कामना पूरी न होनेपर हम नहीं रहते ? विचार करनेसे अनुभव होगा कि कामना पूरी हो अथवा
न हो, हमारी सत्ता ज्यों-की-त्यों
रहती है । कामना उत्पन्न होनेसे पहले हम जैसे थे,
कामनाकी ‘पूर्ति’ होनेपर
भी हम वैसे ही रहते हैं, कामनाकी ‘अपूर्ति’
होनेपर भी हम वैसे ही रहते हैं और कामनाकी ‘निवृत्ति’
होनेपर भी हम वैसे ही रहते हैं । इस बातसे एक बल मिलता है कि यदि
कामनाकी अपूर्तिसे हमारेमें कोई फर्क नहीं पड़ता तो फिर हम कामना करके क्यों दुःख
पायें ! मनुष्यके सामने दो ही बातें हैं‒या तो वह अपनी सभी कामनाएँ पूरी
कर ले अथवा उनका त्याग कर दे । वह कामनाओंको पूरी तो कर सकता ही नहीं, फिर उनको
छोड़नेमें किस बातका भय ! जो हम कर सकते हैं, उसको तो करते नहीं और जो हम नहीं कर सकते,
उसको करना चाहते हैं‒इसी प्रमादसे हम दुःख
पा रहे हैं । जो कामनाओंको छोड़ना चाहता है, उसके लिये सबसे
पहले यह मानना जरूरी है कि ‘संसारमें मेरा कुछ नहीं है’ । जबतक हम शरीरको अथवा किसी भी वस्तुको अपना मानेंगे, तबतक कामनाका सर्वथा त्याग कठिन है । अनन्त
ब्रह्माण्डोंमें ऐसी एक भी वस्तु नहीं है,
जो मेरी और मेरे लिये हो‒इस वास्तविकताको
स्वीकार करनेसे कामना स्वतः मिट जाती है; क्योंकि जब
मेरा और मेरे लिये कुछ है ही नहीं तो फिर हम किसकी कामना करें और क्यों करें ? कामनाओंका
सर्वथा त्याग तब होता है, जब मनुष्यका शरीरसे सम्बन्ध
(मैं-मेरापन) नहीं रहता । अतः कामनाओंके सर्वथा त्यागका तात्पर्य हुआ‒जीते-जी मर जाना । जैसे, मनुष्य मर जाता
है तो वह किसी भी वस्तुको अपना नहीं कहता और कुछ भी नहीं चाहता । उसपर
अनुकूलता-प्रतिकूलता, मान-सम्मान, निन्दा-स्तुति आदिका प्रभाव नहीं पड़ता, ऐसे ही कामनाओंका
सर्वथा त्याग होनेपर मनुष्यपर अनुकूलता-प्रतिकूलता आदिका प्रभाव तो पड़ता नहीं और
जीता रहता है ! इसलिये महाराज जनक देहके रहते हुए भी ‘विदेह’
कहलाते थे । जो जीते-जी मर जाता है, वह अमर हो
जाता है । इसलिये मनुष्य अगर सर्वथा कामना-रहित हो जाय
तो वह जीते-जी अमर हो जायगा‒ यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः । अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र
ब्रह्म समश्नुते ॥ (कठ॰ २ । ३ । १४; बृहदा॰ ४ । ४ । ७)
‘साधकके
हृदयमें स्थित सम्पूर्ण कामनाएँ जब समूल नष्ट हो जाती हैं, तब
मरणधर्मा मनुष्य अमर हो जाता है और यहीं (मनुष्यशरीरमें ही) ब्रह्मका भलीभाँति
अनुभव कर लेता है ।’ |