।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०८०, बुधवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धपूर्वश्‍लोकतक शरीरीको अविनाशी जाननेवालोंकी बात कही । अब उसी बातको अन्वय और व्यतिरेकरीतिसे दृढ़ करनेके लिये, जो शरीरीको अविनाशी नहीं जानते, उनकी बात आगेके श्‍लोकमें कहते हैं ।

सूक्ष्म विषयदेहीके अकर्तृत्व और अविनाशित्वका कथन ।

य  एनं  वेत्ति  हन्तारं  यश्‍चैनं  मन्यते हतम् ।

         उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥ १९ ॥

अर्थ‒जो मनुष्य इस अविनाशी शरीरीको मारनेवाला मानता है और जो मनुष्य इसको मरा मानता है, वे दोनों ही इसको नहीं जानते; क्योंकि यह न मारता है और न मारा जाता है ।

यः = जो मनुष्य

तौ = वे

एनम् = इस (अविनाशी शरीरी) -को

उभौ = दोनों ही (इसको)

हन्तारम् = मारनेवाला

न = नहीं

वेत्ति = मानता है

विजानीतः = जानते; (क्योंकि)

च = और

अयम् = यह

यः = जो मनुष्य

न = न

एनम् = इसको

हन्ति = मारता है (और)

हतम् = मरा

न = न

मन्यते = मानता है,

हन्यते = मारा जाता है ।

व्याख्याय एनं वेत्ति हन्तारम्

१.यहाँ एनम्पद अन्वादेशमें आया है । जिसका पहले वर्णन हो चुका है, उसको दुबारा कहना अन्वादेशकहलाता है । पहले सत्रहवें श्‍लोकमें एक विषयको लेकर जिसका अस्यपदसे वर्णन हुआ है, अब यहाँ दूसरे विषयको लेकर उसी तत्त्वको दुबारा कह रहे हैं । इसलिये यहाँ एनम्पदका प्रयोग किया गया है ।

जो इस शरीरीको मारनेवाला मानता है; वह ठीक नहीं जानता । कारण कि शरीरीमें कर्तापन नहीं है । जैसे कोई भी कारीगर कैसा ही चतुर क्यों न हो, पर किसी औजारके बिना वह कार्य नहीं कर सकता, ऐसे ही यह शरीरी शरीरके बिना स्वयं कुछ भी नहीं कर सकता । अतः तेरहवें अध्यायमें भगवान्‌ने कहा है कि सब प्रकारकी क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही होती हैंऐसा जो अनुभव करता है, वह शरीरीके अकर्तापनका अनुभव करता है (तेरहवें अध्यायका उनतीसवाँ श्‍लोक) । तात्पर्य यह हुआ कि शरीरीमें कर्तापन नहीं है, पर यह शरीरके साथ तादात्म्य करके, सम्बन्ध जोड़कर शरीरसे होनेवाली क्रियाओंमें अपनेको कर्ता मान लेता है । अगर यह शरीरके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े, तो यह किसी भी क्रियाका कर्ता नहीं है ।

यश्‍चैनं मन्यते हतम्जो इसको मरा मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता । जैसे यह शरीरी मारनेवाला नहीं है, ऐसे ही यह मरनेवाला भी नहीं है; क्योंकि इसमें कभी कोई विकृति नहीं आती । जिसमें विकृति आती है, परिवर्तन होता है अर्थात् जो उत्पत्ति-विनाशशील होता है, वही मर सकता है ।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यतेवे दोनों ही नहीं जानते अर्थात् जो इस शरीरीको मारनेवाला मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता और जो इसको मरनेवाला मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता ।

यहाँ प्रश्‍न होता है कि जो इस शरीरीको मारनेवाला और मरनेवाला दोनों मानता है, क्या वह ठीक जानता है ? इसका उत्तर है कि वह भी ठीक नहीं जानता । कारण कि यह शरीरी वास्तवमें ऐसा नहीं है । यह नाश करनेवाला भी नहीं है और नष्‍ट होनेवाला भी नहीं है । यह निर्विकाररूपसे नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहनेवाला है । अतः इस शरीरीको लेकर शोक नहीं करना चाहिये ।

अर्जुनके सामने युद्धका प्रसंग होनेसे ही यहाँ शरीरीको मरने-मारनेकी क्रियासे रहित बताया गया है । वास्तवमें यह सम्पूर्ण क्रियाओंसे रहित है ।

परिशिष्‍ट भावयह शरीरी न तो किसीको मारता है और न किसीसे मारा ही जाता हैइसका तात्पर्य है कि शरीरी किसी क्रियाका कर्ता भी नहीं है तथा कर्म भी नहीं है और इसमें कोई विकार भी नहीं आता । जो मनुष्य शरीरकी तरह शरीरीको भी मारनेवाला तथा मरनेवाला मानते हैं, वे वास्तवमें शरीर और शरीरीके विवेकको महत्त्व नहीं देते, इसमें स्थित नहीं होते, प्रत्युत अविवेकको महत्त्व देते हैं ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्याशरीरीमें कर्तापन नहीं है और मृत्युरूप विकार भी नहीं है । कर्तापन आदि सभी विकार प्रकृतिसे माने हुए सम्बन्ध (मैं-पन)-में ही हैं ।

 

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