Listen सम्बन्ध‒पूर्वश्लोकतक शरीरीको अविनाशी जाननेवालोंकी
बात कही । अब उसी बातको अन्वय और व्यतिरेकरीतिसे दृढ़ करनेके लिये,
जो शरीरीको अविनाशी नहीं जानते,
उनकी बात आगेके श्लोकमें कहते हैं । सूक्ष्म विषय‒देहीके अकर्तृत्व और अविनाशित्वका कथन । य एनं वेत्ति
हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । उभौ
तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥ १९ ॥ अर्थ‒जो मनुष्य इस अविनाशी शरीरीको मारनेवाला मानता है और जो मनुष्य
इसको मरा मानता है, वे दोनों ही इसको नहीं जानते; क्योंकि यह न मारता है और न मारा जाता है ।
व्याख्या‒‘य एनं वेत्ति हन्तारम्’१ १.यहाँ ‘एनम्’ पद अन्वादेशमें आया है । जिसका पहले वर्णन हो चुका है, उसको दुबारा कहना ‘अन्वादेश’ कहलाता है । पहले सत्रहवें श्लोकमें एक विषयको लेकर जिसका ‘अस्य’ पदसे वर्णन हुआ है, अब यहाँ दूसरे विषयको लेकर उसी तत्त्वको
दुबारा कह रहे हैं । इसलिये यहाँ ‘एनम्’ पदका प्रयोग किया गया है । ‒जो इस शरीरीको मारनेवाला मानता है;
वह ठीक नहीं जानता । कारण कि शरीरीमें कर्तापन नहीं है । जैसे
कोई भी कारीगर कैसा ही चतुर क्यों न हो, पर किसी औजारके बिना वह कार्य नहीं कर सकता,
ऐसे ही यह शरीरी शरीरके बिना स्वयं कुछ भी नहीं कर सकता । अतः
तेरहवें अध्यायमें भगवान्ने कहा है कि सब प्रकारकी क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही होती
हैं‒ऐसा जो अनुभव करता है, वह शरीरीके अकर्तापनका अनुभव करता है (तेरहवें अध्यायका उनतीसवाँ
श्लोक) । तात्पर्य यह हुआ कि शरीरीमें कर्तापन नहीं है, पर
यह शरीरके साथ तादात्म्य करके, सम्बन्ध जोड़कर शरीरसे होनेवाली क्रियाओंमें अपनेको
कर्ता मान लेता है । अगर यह शरीरके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े, तो
यह किसी भी क्रियाका कर्ता नहीं है । ‘यश्चैनं
मन्यते हतम्’‒जो इसको मरा मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता । जैसे यह शरीरी मारनेवाला नहीं है,
ऐसे ही यह मरनेवाला भी नहीं है;
क्योंकि इसमें कभी कोई विकृति नहीं आती । जिसमें विकृति आती है,
परिवर्तन होता है अर्थात् जो उत्पत्ति-विनाशशील होता
है, वही
मर सकता है । ‘उभौ
तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते’‒वे दोनों ही नहीं जानते अर्थात् जो इस शरीरीको मारनेवाला मानता
है,
वह भी ठीक नहीं जानता और जो इसको मरनेवाला मानता है,
वह भी ठीक नहीं जानता । यहाँ प्रश्न होता है कि जो इस शरीरीको मारनेवाला और मरनेवाला
दोनों मानता है, क्या वह ठीक जानता है ? इसका उत्तर है कि वह भी ठीक नहीं जानता । कारण कि यह शरीरी वास्तवमें
ऐसा नहीं है । यह नाश करनेवाला भी नहीं है और नष्ट होनेवाला भी नहीं है । यह निर्विकाररूपसे
नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहनेवाला है । अतः इस शरीरीको लेकर शोक नहीं करना चाहिये
। अर्जुनके सामने युद्धका प्रसंग होनेसे ही यहाँ शरीरीको मरने-मारनेकी
क्रियासे रहित बताया गया है । वास्तवमें यह सम्पूर्ण क्रियाओंसे
रहित है । परिशिष्ट भाव‒यह शरीरी न तो किसीको मारता है और न किसीसे मारा ही जाता है‒इसका तात्पर्य है कि शरीरी किसी क्रियाका कर्ता भी नहीं है तथा
कर्म भी नहीं है और इसमें कोई विकार भी नहीं आता । जो मनुष्य
शरीरकी तरह शरीरीको भी मारनेवाला तथा मरनेवाला मानते हैं, वे
वास्तवमें शरीर और शरीरीके विवेकको महत्त्व नहीं देते, इसमें
स्थित नहीं होते, प्रत्युत अविवेकको महत्त्व देते हैं ।
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒शरीरीमें कर्तापन नहीं है और मृत्युरूप विकार भी नहीं है । कर्तापन आदि सभी विकार प्रकृतिसे माने हुए सम्बन्ध (मैं-पन)-में
ही हैं ।
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