Listen सम्बन्ध‒यह शरीरी मरनेवाला क्यों नहीं है
? इसके उत्तरमें कहते हैं‒ सूक्ष्म विषय‒देहीकी निर्विकारताका कथन । न जायते म्रियते
वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते
हन्यमाने शरीरे ॥ २० ॥ अर्थ‒यह शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता है तथा यह उत्पन्न होकर
फिर होनेवाला नहीं है । यह जन्मरहित, नित्य-निरन्तर रहनेवाला, शाश्वत और अनादि है । शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता
।
व्याख्या‒[ शरीरमें छः विकार होते हैं‒उत्पन्न होना, सत्तावाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना और नष्ट होना१ । १.जायतेऽस्ति विपरिणमते वर्धतेऽपक्षीयते विनश्यति । (निरुक्त १ । १ । २) यह शरीरी इन छहों विकारोंसे रहित है‒यही बात भगवान् इस श्लोकमें बता रहे हैं२ । ] २.यह शरीरी उत्पन्न नहीं
होता‒‘न जायते’, ‘अजः’; उत्पन्न होकर विकारी सत्तावाला नहीं होता‒‘अयं भूत्वा भविता वा न भूयः’; यह बदलता नहीं‒‘शाश्वतः’, यह बढ़ता नहीं‒‘पुराणः’, यह क्षीण नहीं होता‒‘नित्यः’, और यह मरता नहीं‒‘न म्रियते’ ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ । ‘न जायते
म्रियते वा कदाचित्’‒जैसे शरीर उत्पन्न होता है, ऐसे यह शरीरी कभी भी, किसी भी समयमें उत्पन्न नहीं होता । यह तो सदासे ही है । भगवान्ने
इस शरीरीको अपना अंश बताते हुए इसको ‘सनातन’ कहा है‒‘ममैवांशो
जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ (१५ । ७) । यह शरीरी कभी मरता भी नहीं । मरता वही है,
जो पैदा होता है; और ‘म्रियते’ का प्रयोग भी वहीं होता है, जहाँ पिण्ड-प्राणका वियोग होता है । पिण्ड-प्राणका वियोग शरीरमें
होता है । परन्तु शरीरीमें संयोग-वियोग दोनों ही नहीं होते । यह ज्यों-का-त्यों ही
रहता है । इसका मरना होता ही नहीं । सभी विकारोंमें जन्मना और मरना‒ये दो विकार ही मुख्य हैं; अतः भगवान्ने इनका दो बार निषेध किया है‒जिसको पहले ‘न जायते’ कहा, उसीको दुबारा ‘अजः’
कहा है; और जिसको पहले ‘न म्रियते’ कहा, उसीको दुबारा ‘न हन्यते हन्यमाने’ शरीरे कहा है । ‘अयं
भूत्वा भविता वा न भूयः’‒यह अविनाशी नित्य-तत्त्व पैदा होकर फिर होनेवाला नहीं है अर्थात्
यह स्वतःसिद्ध निर्विकार है । जैसे, बच्चा पैदा होता है, तो पैदा होनेके बाद उसकी सत्ता होती है । जबतक वह गर्भमें नहीं
आता,
तबतक ‘बच्चा है’ ऐसे उसकी सत्ता (होनापन) कोई भी नहीं कहता । तात्पर्य है कि
बच्चेकी सत्ता पैदा होनेके बाद होती है; क्योंकि उस विकारी सत्ताका आदि और अन्त होता है । परन्तु इस नित्य-तत्त्वकी सत्ता स्वतःसिद्ध और निर्विकार है; क्योंकि
इस अविकारी सत्ताका आरम्भ और अन्त नहीं होता । ‘अजः’‒इस शरीरीका कभी जन्म नहीं होता । इसलिये यह ‘अजः’
अर्थात् जन्मरहित कहा गया है । ‘नित्यः’‒यह शरीरी नित्य-निरन्तर रहनेवाला है; अतः इसका कभी अपक्षय नहीं होता । अपक्षय तो अनित्य वस्तुमें
होता है,
जो कि निरन्तर रहनेवाली नहीं है । जैसे,
आधी उम्र बीतनेपर शरीर घटने लगता है,
बल क्षीण होने लगता है, इन्द्रियोंकी शक्ति कम होने लगती है । इस प्रकार शरीर,
इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदिका तो अपक्षय होता है,
पर शरीरीका अपक्षय नहीं होता । इस नित्य-तत्त्वमें कभी किंचिन्मात्र
भी कमी नहीं आती । ‘शाश्वतः’‒यह नित्य-तत्त्व निरन्तर एकरूप, एकरस रहनेवाला है । इसमें अवस्थाका परिवर्तन नहीं होता अर्थात्
यह कभी बदलता नहीं । इसमें बदलनेकी योग्यता है ही नहीं । ‘पुराणः’‒यह अविनाशी तत्त्व पुराण (पुराना) अर्थात् अनादि है । यह इतना पुराना है कि यह
कभी पैदा हुआ ही नहीं । उत्पन्न होनेवाली वस्तुओंमें भी देखा जाता है कि जो वस्तु
पुरानी हो जाती है, वह फिर बढ़ती नहीं, प्रत्युत नष्ट हो जाती है; फिर यह तो अनुत्पन्न तत्त्व है,
इसमें बढ़नारूप विकार कैसे हो सकता है
? तात्पर्य है कि बढ़नारूप विकार
तो उत्पन्न होनेवाली वस्तुओंमें ही होता है, इस नित्य-तत्त्वमें नहीं । ‘न हन्यते
हन्यमाने शरीरे’‒शरीरका नाश होनेपर भी इस अविनाशी शरीरीका नाश नहीं होता । यहाँ
‘शरीरे’ पद देनेका तात्पर्य है कि यह शरीर नष्ट होनेवाला है । इस नष्ट
होनेवाले शरीरमें ही छः विकार होते हैं, शरीरीमें नहीं । इन पदोंमें भगवान्ने शरीर और शरीरीका जैसा स्पष्ट वर्णन किया
है,
ऐसा स्पष्ट वर्णन गीतामें दूसरी जगह नहीं आया है । अर्जुन युद्धमें कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे विशेष शोक कर
रहे थे । उस शोकको दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं कि शरीरके मरनेपर भी इस शरीरीका
मरना नहीं होता अर्थात् इसका अभाव नहीं होता । इसलिये शोक करना अनुचित है । परिशिष्ट भाव‒हमारा (स्वयंका) और शरीरका स्वभाव बिलकुल अलग-अलग है । हम शरीरके
साथ चिपके हुए नहीं हैं, शरीरसे मिले हुए नहीं हैं । शरीर हमारे साथ चिपका हुआ नहीं है,
हमारेसे मिला हुआ नहीं है । इसलिये शरीरके न रहनेपर हमारा कुछ
भी बिगड़ता नहीं । अबतक हम असंख्य शरीर धारण करके छोड़ चुके हैं,
पर उससे हमारी सत्तामें क्या फर्क पड़ा
? हमारा क्या नुकसान हुआ
? हम तो ज्यों-के-त्यों ही रहे‒‘भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ (गीता ८ । १९) । ऐसे ही यह शरीर छूटनेपर भी हम स्वयं ज्यों-के-त्यों ही रहेंगे
। जैसे हाथ, पैर, नासिका आदि शरीरके अंग हैं, ऐसे शरीर शरीरी (स्वयं)-का अंग भी नहीं है । जो बहनेवाला और विकारी होता है, वह ‘अंग’ नहीं होता३; ३.अद्रवं मूर्तिमत् स्वाङ्गं प्राणिस्थमविकारजम् । अतत्स्थं तत्र दृष्टं
च तेन चेत्तत्तथायुतम्
॥ जैसे‒कफ, मूत्र आदि बहनेवाले और फोड़ा आदि विकारी होनेसे शरीरके अंग नहीं
हैं,
ऐसे ही शरीर बहनेवाला (परिवर्तनशील) और विकारी होनेसे शरीरीका
अंग नहीं है । गीता-प्रबोधनी
व्याख्या‒उत्पन्न होना, सत्तावाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना और नष्ट होना‒ये छः विकार शरीरमें
ही होते हैं । शरीरीमें ये विकार कभी हुए नहीं, कभी होंगे नहीं, कभी हो सकते ही नहीं ।
शरीरी कभी उत्पन्न नहीं होता‒‘न जायते’, ‘अजः’; उत्पन्न होकर विकारी सत्तावाला नहीं
होता‒‘अयं भूत्वा भविता वा न भूयः’; यह बदलता नहीं‒‘शाश्वतः’; यह बढ़ता नहीं‒‘पुराणः’, यह क्षीण नहीं होता‒‘नित्यः’; और यह मरता नहीं‒‘न म्रियते’, ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’
। मुख्य
विकार दो ही हैं‒उत्पन्न होना और नष्ट होना । अतः प्रस्तुत श्लोकमें इन दोनों विकारोंका
शरीरीमें दो-दो बार निषेध किया गया है; जैसे‒‘न जायते म्रियते’
और ‘अजः’, ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’
।
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