।। श्रीहरिः ।।

 


  आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०८०, गुरुवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



Listen



सम्बन्धयह शरीरी मरनेवाला क्यों नहीं है ? इसके उत्तरमें कहते हैं

सूक्ष्म विषयदेहीकी निर्विकारताका कथन ।

न  जायते  म्रियते वा कदाचिन्‍

                नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।

 अजो नित्यः शाश्‍वतोऽयं पुराणो

                          न   हन्यते   हन्यमाने  शरीरे ॥ २० ॥

अर्थ‒ह शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता है तथा यह उत्पन्‍न होकर फिर होनेवाला नहीं है । यह जन्मरहित, नित्य-निरन्तर रहनेवाला, शाश्‍वत और अनादि है । शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता ।

अयम् = यह शरीरी

न = नहीं है ।

न =

अयम् = यह

कदाचित् = कभी

अजः = जन्मरहित,

जायते = जन्मता है

नित्यः = नित्य-निरन्तर रहनेवाला,

वा = और

शाश्‍वतः = शाश्‍वत (और)

न =

पुराणः = अनादि है ।

म्रियते = मरता है

शरीरे = शरीरके

वा = तथा (यह)

हन्यमाने = मारे जानेपर भी (यह)

भूत्वा = उत्पन्‍न होकर

न = नहीं

भूयः = फिर

हन्यते = मारा जाता ।

भविता = होनेवाला

 

व्याख्या[ शरीरमें छः विकार होते हैंउत्पन्‍न होना, सत्तावाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना और नष्‍ट होना

१.जायतेऽस्ति विपरिणमते वर्धतेऽपक्षीयते विनश्यति ।

(निरुक्त १ । १ । २)

यह शरीरी इन छहों विकारोंसे रहित हैयही बात भगवान् इस श्‍लोकमें बता रहे हैं । ]

२.यह शरीरी उत्पन्‍न नहीं होता‒‘न जायते’, ‘अजः’; उत्पन्‍न होकर विकारी सत्तावाला नहीं होता‒‘अयं भूत्वा भविता वा न भूयः’; यह बदलता नहीं‒‘शाश्‍वतः’, यह बढ़ता नहीं‒‘पुराणः’, यह क्षीण नहीं होता‒‘नित्यः’, और यह मरता नहीं‒‘न म्रियते’ ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे

न जायते म्रियते वा कदाचित्जैसे शरीर उत्पन्‍न होता है, ऐसे यह शरीरी कभी भी, किसी भी समयमें उत्पन्‍न नहीं होता । यह तो सदासे ही है । भगवान्‌ने इस शरीरीको अपना अंश बताते हुए इसको सनातनकहा हैममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ (१५ । ७) ।

यह शरीरी कभी मरता भी नहीं । मरता वही है, जो पैदा होता है; और म्रियते का प्रयोग भी वहीं होता है, जहाँ पिण्ड-प्राणका वियोग होता है । पिण्ड-प्राणका वियोग शरीरमें होता है । परन्तु शरीरीमें संयोग-वियोग दोनों ही नहीं होते । यह ज्यों-का-त्यों ही रहता है । इसका मरना होता ही नहीं ।

सभी विकारोंमें जन्मना और मरनाये दो विकार ही मुख्य हैं; अतः भगवान्‌ने इनका दो बार निषेध किया हैजिसको पहले न जायते कहा, उसीको दुबारा अजः कहा है; और जिसको पहले न म्रियते कहा, उसीको दुबारा न हन्यते हन्यमाने’ शरीरे कहा है ।

अयं भूत्वा भविता वा न भूयःयह अविनाशी नित्य-तत्त्व पैदा होकर फिर होनेवाला नहीं है अर्थात् यह स्वतःसिद्ध निर्विकार है । जैसे, बच्‍चा पैदा होता है, तो पैदा होनेके बाद उसकी सत्ता होती है । जबतक वह गर्भमें नहीं आता, तबतक बच्‍चा हैऐसे उसकी सत्ता (होनापन) कोई भी नहीं कहता । तात्पर्य है कि बच्‍चेकी सत्ता पैदा होनेके बाद होती है; क्योंकि उस विकारी सत्ताका आदि और अन्त होता है । परन्तु इस नित्य-तत्त्वकी सत्ता स्वतःसिद्ध और निर्विकार है; क्योंकि इस अविकारी सत्ताका आरम्भ और अन्त नहीं होता ।

अजःइस शरीरीका कभी जन्म नहीं होता । इसलिये यह अजः अर्थात् जन्मरहित कहा गया है ।

नित्यःयह शरीरी नित्य-निरन्तर रहनेवाला है; अतः इसका कभी अपक्षय नहीं होता । अपक्षय तो अनित्य वस्तुमें होता है, जो कि निरन्तर रहनेवाली नहीं है । जैसे, आधी उम्र बीतनेपर शरीर घटने लगता है, बल क्षीण होने लगता है, इन्द्रियोंकी शक्ति कम होने लगती है । इस प्रकार शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदिका तो अपक्षय होता है, पर शरीरीका अपक्षय नहीं होता । इस नित्य-तत्त्वमें कभी किंचिन्मात्र भी कमी नहीं आती ।

शाश्‍वतःयह नित्य-तत्त्व निरन्तर एकरूप, एकरस रहनेवाला है । इसमें अवस्थाका परिवर्तन नहीं होता अर्थात् यह कभी बदलता नहीं । इसमें बदलनेकी योग्यता है ही नहीं ।

पुराणःयह अविनाशी तत्त्व पुराण (पुराना) अर्थात् अनादि है । यह इतना पुराना है कि यह कभी पैदा हुआ ही नहीं । उत्पन्‍न होनेवाली वस्तुओंमें भी देखा जाता है कि जो वस्तु पुरानी हो जाती है, वह फिर बढ़ती नहीं, प्रत्युत नष्‍ट हो जाती है; फिर यह तो अनुत्पन्‍न तत्त्व है, इसमें बढ़नारूप विकार कैसे हो सकता है ? तात्पर्य है कि बढ़नारूप विकार तो उत्पन्‍न होनेवाली वस्तुओंमें ही होता है, इस नित्य-तत्त्वमें नहीं ।

न हन्यते हन्यमाने शरीरेशरीरका नाश होनेपर भी इस अविनाशी शरीरीका नाश नहीं होता । यहाँ शरीरे पद देनेका तात्पर्य है कि यह शरीर नष्‍ट होनेवाला है । इस नष्‍ट होनेवाले शरीरमें ही छः विकार होते हैं, शरीरीमें नहीं ।

इन पदोंमें भगवान्‌ने शरीर और शरीरीका जैसा स्पष्‍ट वर्णन किया है, ऐसा स्पष्‍ट वर्णन गीतामें दूसरी जगह नहीं आया है ।

अर्जुन युद्धमें कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे विशेष शोक कर रहे थे । उस शोकको दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं कि शरीरके मरनेपर भी इस शरीरीका मरना नहीं होता अर्थात् इसका अभाव नहीं होता । इसलिये शोक करना अनुचित है ।

परिशिष्‍ट भावहमारा (स्वयंका) और शरीरका स्वभाव बिलकुल अलग-अलग है । हम शरीरके साथ चिपके हुए नहीं हैं, शरीरसे मिले हुए नहीं हैं । शरीर हमारे साथ चिपका हुआ नहीं है, हमारेसे मिला हुआ नहीं है । इसलिये शरीरके न रहनेपर हमारा कुछ भी बिगड़ता नहीं । अबतक हम असंख्य शरीर धारण करके छोड़ चुके हैं, पर उससे हमारी सत्तामें क्या फर्क पड़ा ? हमारा क्या नुकसान हुआ ? हम तो ज्यों-के-त्यों ही रहेभूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते (गीता ८ । १९) । ऐसे ही यह शरीर छूटनेपर भी हम स्वयं ज्यों-के-त्यों ही रहेंगे ।

जैसे हाथ, पैर, नासिका आदि शरीरके अंग हैं, ऐसे शरीर शरीरी (स्वयं)-का अंग भी नहीं है । जो बहनेवाला और विकारी होता है, वह अंगनहीं होता;

३.अद्रवं मूर्तिमत् स्वाङ्गं प्राणिस्थमविकारजम् ।

            अतत्स्थं   तत्र  दृष्‍टं  च  तेन  चेत्तत्तथायुतम् ॥

जैसेकफ, मूत्र आदि बहनेवाले और फोड़ा आदि विकारी होनेसे शरीरके अंग नहीं हैं, ऐसे ही शरीर बहनेवाला (परिवर्तनशील) और विकारी होनेसे शरीरीका अंग नहीं है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒उत्पन्‍न होना, सत्तावाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना और नष्ट होना‒ये छः विकार शरीरमें ही होते हैं । शरीरीमें ये विकार कभी हुए नहीं, कभी होंगे नहीं, कभी हो सकते ही नहीं ।

शरीरी कभी उत्पन्‍न नहीं होता‒‘न जायते’, ‘अजः’; उत्पन्‍न होकर विकारी सत्तावाला नहीं होता‒‘अयं भूत्वा भविता वा न भूयः’; यह बदलता नहीं‒‘शाश्‍वतः’; यह बढ़ता नहीं‒‘पुराणः’, यह क्षीण नहीं होता‒‘नित्यः’; और यह मरता नहीं‒‘न म्रियते’, ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ । मुख्य विकार दो ही हैं‒उत्पन्‍न होना और नष्ट होना । अतः प्रस्तुत श्‍लोकमें इन दोनों विकारोंका शरीरीमें दो-दो बार निषेध किया गया है; जैसे‒‘न जायते म्रियते’ और ‘अजः’, ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ ।

 

രരരരരരരരരര