Listen सम्बन्ध‒अब आगेके तीन श्लोकोंमें भगवान् कामको मारनेका प्रकार बताते
हुए उसे मारनेकी आज्ञा देते हैं । सूक्ष्म विषय‒इन्द्रिय-संयम करके कामको मारनेकी प्रेरणा । तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ
नियम्य भरतर्षभ । पाप्मानं
प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥ ४१ ॥ अर्थ‒इसलिये हे भरतवंशियोंमे श्रेष्ठ अर्जुन
! तू सबसे पहले इन्द्रियोंको वशमें करके इस ज्ञान और विज्ञानका नाश करनेवाले महान्
पापी कामको अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल ।
व्याख्या‒‘तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य
भरतर्षभ’‒इन्द्रियोंको विषयोंमें भोग-बुद्धिसे प्रवृत्त न
होने देना, अपितु केवल निर्वाह-बुद्धिसे अथवा साधन-बुद्धिसे
प्रवृत्त होने देना ही उनको वशमें करना है । तात्पर्य है कि इन्द्रियोंकी विषयोंमें रागपूर्वक प्रवृत्ति
न हो और द्वेषपूर्वक निवृत्ति न हो । (गीता‒अठारहवें अध्यायका दसवाँ श्लोक) रागपूर्वक
प्रवृत्ति और द्वेषपूर्वक निवृत्ति होनेसे राग-द्वेष पुष्ट हो जाते हैं और न चाहते
हुए भी मनुष्यको पतनकी ओर ले जाते हैं । इसलिये प्रवृत्ति और निवृत्ति अथवा कर्तव्य
और अकर्तव्यको जाननेके लिये शास्त्र ही प्रमाण है । (गीता‒सोलहवें अध्यायका चौबीसवाँ
श्लोक) शास्त्रके अनुसार कर्तव्यका पालन और अकर्तव्यका
त्याग करनेसे इन्द्रियाँ वशमें हो जाती हैं । ‘काम’ को मारनेके लिये सबसे पहले इन्द्रियोंका नियमन करनेके लिये कहनेका
कारण यह है कि जबतक मनुष्य इन्द्रियोंके वशमें रहता है,
तबतक उसकी दृष्टि तत्त्वकी ओर नहीं जाती;
और तत्त्वकी ओर दृष्टि गये बिना अर्थात् तत्त्वका अनुभव हुए
बिना ‘काम’ का सर्वथा नाश नहीं होता । मनुष्यकी प्रवृत्ति इन्द्रियोंसे ही होती है । इसलिये वह सबसे
पहले इन्द्रियोंके विषयोंमें ही फँसता है, जिससे उसमें उन विषयोंकी कामना पैदा हो जाती
है । कामना-सहित कर्म करनेसे मनुष्य पूरी तरह इन्द्रियोंके वशमें हो जाता है और इससे
उसका पतन हो जाता है । परन्तु जो मनुष्य इन्द्रियोंको वशमें करके निष्काम-भावपूर्वक
कर्तव्य-कर्म करता है, उसका शीघ्र ही उद्धार हो जाता है । ‘एनम्
ज्ञानविज्ञाननाशनम्’‒‘ज्ञान’ पदका अर्थ शास्त्रीय ज्ञान भी लिया जाता है;
जैसे‒ब्राह्मणके स्वाभाविक कर्मोंके अन्तर्गत ‘ज्ञानम्’
पद शास्त्रीय ज्ञानके लिये ही आया है । (गीता‒अठारहवें अध्यायका
बयालीसवाँ श्लोक) । परन्तु यहाँ प्रसंगके अनुसार ‘ज्ञान’ का अर्थ विवेक (कर्तव्य-अकर्तव्यको अलग-अलग जानना) लेना ही उचित
प्रतीत होता है । ‘विज्ञान’ पदका अर्थ विशेष ज्ञान अर्थात् तत्त्वज्ञान (अनुभव-ज्ञान,
असली ज्ञान या बोध) है । विवेक और तत्त्वज्ञान‒दोनों ही स्वतःसिद्ध हैं । तत्त्वज्ञानका
अनुभव तो सबको नहीं है, पर विवेकका अनुभव सभीको है । मनुष्यमें यह विवेक विशेषरूपसे
है । अर्जुनके प्रश्न (मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप क्यों करता है ?)-में आये ‘अनिच्छन्नपि’
पदसे भी यही सिद्ध होता है कि मनुष्यमें विवेक है और इस विवेकसे
ही वह पाप और पुण्य-दोनोंको जानता है और पाप नहीं करना चाहता । पाप न करनेकी इच्छा
विवेकके बिना नहीं होती । परन्तु यह ‘काम’ उस विवेकको ढक देता है और उसको जाग्रत् नहीं होने देता । विवेक जाग्रत् होनेसे मनुष्य भविष्यपर अर्थात् परिणामपर दृष्टि
रखकर ही सब कार्य करता है । परन्तु कामनासे विवेक ढक जानेके कारण परिणामकी ओर दृष्टि
ही नहीं जाती । परिणामकी तरफ दृष्टि न जानेसे ही वह पाप
करता है । इस प्रकार जिसका अनुभव सबको है,
उस विवेकको भी जब यह ‘काम’ जाग्रत् नहीं होने देता, तब जिसका अनुभव सबको नहीं है, उस तत्त्वज्ञानको तो जाग्रत् होने ही कैसे देगा ?
इसलिये यहाँ ‘काम’ को ज्ञान (विवेक) और विज्ञान (बोध)‒दोनोंका नाश करनेवाला बताया
गया है । वास्तवमें यह ‘काम’ ज्ञान और विज्ञानका नाश (अभाव) नहीं करता,
प्रत्युत उन दोनोंको ढक देता है अर्थात् प्रकट नहीं होने देता
। उन्हें ढक देनेको ही यहाँ उनका नाश करना कहा गया है । कारण कि ज्ञान-विज्ञानका कभी
नाश होता ही नहीं । नाश तो वास्तवमें ‘काम’ का ही होता है । जिस प्रकार नेत्रोंके सामने बादल आनेपर ‘बादलोंने सूर्यको ढक दिया’
ऐसा कहा जाता है, पर वास्तवमें सूर्य नहीं ढका जाता,
प्रत्युत नेत्र ढके जाते हैं, उसी प्रकार ‘कामनाने ज्ञान-विज्ञानको ढक दिया’
ऐसा कहा तो जाता है, पर वास्तवमें ज्ञान-विज्ञान ढके नहीं जाते,
प्रत्युत बुद्धि ढकी जाती है । ‘पाप्मानं
हि प्रजहि’‒कामना सम्पूर्ण पापोंकी जड़ है । इसलिये कामना उत्पन्न होनेसे पाप होनेकी सम्भावना रहती है
। आगे चलकर कामना मनुष्यके विवेकको ढककर उसे अन्धा बना देती है,
जिससे उसे पाप-पुण्यका ज्ञान ही नहीं रहता और वह पापोंमें ही
लग जाता है । इससे उसका महान् पतन हो जाता है । इसलिये भगवान् कामनाको महापापी बताकर
उसे अवश्य ही मार डालनेकी आज्ञा देते हैं । गृहस्थ-जीवन ठीक नहीं, साधु हो जायँ, एकान्तमें चले जायँ‒ऐसा विचार करके मनुष्य कार्यको तो बदलना
चाहता है,
पर कारण ‘कामना’ को नहीं छोड़ता; उसे छोड़नेका विचार ही नहीं करता । यदि वह कामनाको छोड़ दे तो
उसके सब काम अपने-आप ठीक हो जायँ । जब मनुष्य जीनेकी कामना तथा अन्य कामनाओंको रखते
हुए मरता है, तब वे कामनाएँ उसके अगले जन्मका कारण बन जाती हैं । तात्पर्य यह है कि
जबतक मनुष्यमें कामना रहती है, तबतक वह जन्म-मरणरूप बन्धनमें पड़ा रहता है । इस प्रकार बाँधनेके
सिवाय कामना और कुछ काम नहीं आती । जब मनुष्यका जड-पदार्थोंकी तरफ आकर्षण होता है,
तभी उनकी कामना उत्पन्न होती है । कामना उत्पन्न होते ही विवेक-दृष्टि
दब जाती है और इन्द्रिय-दृष्टिकी प्रधानता हो जाती है । इन्द्रियाँ मनुष्यको केवल
शब्दादि विषयोंके सुख-भोगमें ही लगाती हैं । पशु-पक्षियोंकी भी प्रवृत्ति इन्द्रियोंसे
मिलनेवाले सुखतक ही रहती है । परन्तु कामनासे विवेक ढक जानेके कारण मनुष्य इन्द्रियजन्य
सुखके लिये पदार्थोंकी कामना करने लगता है और फिर पदार्थोंके लिये रुपयोंकी कामना करने
लग जाता है । इतना ही नहीं, उसकी दृष्टि रुपयोंसे भी हटकर रुपयोंकी गिनती (संग्रह)-में
हो जाती है । फिर वह रुपयोंकी गिनती बढ़ानेमें ही लग जाता है । निर्वाहमात्रके रुपयोंकी अपेक्षा उनका संग्रह अधिक पतन करनेवाला
है और संग्रहकी अपेक्षा भी रुपयोंकी गिनती महान् पतन करनेवाली है । गिनती बढ़ानेके लिये
वह झूठ, कपट, धोखा, चोरी आदि पाप-कर्मोंको भी करने लग जाता है और गिनती
बढ़नेपर उसमें अभिमान भी आ जाता है, जो आसुरी-सम्पत्तिका मूल है । इस प्रकार कामनाके कारण मनुष्य महान् पतनकी ओर चला जाता है
। इसलिये भगवान् इस महान् पापी कामका अच्छी तरह नाश करनेकी आज्ञा देते हैं ।
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒संसारकी
स्वतन्त्र सत्ता नहीं है‒यह ज्ञान है । सब कुछ भगवान् ही है‒यह विज्ञान है ।
काम साधकको न तो ‘ज्ञान’ प्राप्त करने देता है, न ‘विज्ञान’ । രരരരരരരരരര |