।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०८०, बुधवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒अब आगेके तीन श्‍लोकोंमें भगवान्‌ कामको मारनेका प्रकार बताते हुए उसे मारनेकी आज्ञा देते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒इन्द्रिय-संयम करके कामको मारनेकी प्रेरणा ।

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।

         पाप्मानं  प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥ ४१ ॥

अर्थ‒इसलिये हे भरतवंशियोंमे श्रेष्‍ठ अर्जुन ! तू सबसे पहले इन्द्रियोंको वशमें करके इस ज्ञान और विज्ञानका नाश करनेवाले महान् पापी कामको अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल ।

तस्मात् = इसलिये

एनम् = इस

भरतर्षभ = हे भरतवंशियोंमें श्रेष्‍ठ अर्जुन !

ज्ञानविज्ञाननाशनम् = ज्ञान और विज्ञानका नाश करनेवाले

त्वम् = तू

पाप्मानम् = महान् पापी कामको

आदौ = सबसे पहले

हि = अवश्य ही

इन्द्रियाणि = इन्द्रियोंको

प्रजहि = बलपूर्वक मार डाल ।

नियम्य = वशमें करके

 

व्याख्या‘तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ’इन्द्रियोंको विषयोंमें भोग-बुद्धिसे प्रवृत्त न होने देना, अपितु केवल निर्वाह-बुद्धिसे अथवा साधन-बुद्धिसे प्रवृत्त होने देना ही उनको वशमें करना है । तात्पर्य है कि इन्द्रियोंकी विषयोंमें रागपूर्वक प्रवृत्ति न हो और द्वेषपूर्वक निवृत्ति न हो । (गीता‒अठारहवें अध्यायका दसवाँ श्‍लोक) रागपूर्वक प्रवृत्ति और द्वेषपूर्वक निवृत्ति होनेसे राग-द्वेष पुष्‍ट हो जाते हैं और न चाहते हुए भी मनुष्यको पतनकी ओर ले जाते हैं । इसलिये प्रवृत्ति और निवृत्ति अथवा कर्तव्य और अकर्तव्यको जाननेके लिये शास्‍त्र ही प्रमाण है । (गीता‒सोलहवें अध्यायका चौबीसवाँ श्‍लोक) शास्‍त्रके अनुसार कर्तव्यका पालन और अकर्तव्यका त्याग करनेसे इन्द्रियाँ वशमें हो जाती हैं ।

काम’ को मारनेके लिये सबसे पहले इन्द्रियोंका नियमन करनेके लिये कहनेका कारण यह है कि जबतक मनुष्य इन्द्रियोंके वशमें रहता है, तबतक उसकी दृष्‍टि तत्त्वकी ओर नहीं जाती; और तत्त्वकी ओर दृष्‍टि गये बिना अर्थात् तत्त्वका अनुभव हुए बिना काम’ का सर्वथा नाश नहीं होता ।

मनुष्यकी प्रवृत्ति इन्द्रियोंसे ही होती है । इसलिये वह सबसे पहले इन्द्रियोंके विषयोंमें ही फँसता है, जिससे उसमें उन विषयोंकी कामना पैदा हो जाती है । कामना-सहित कर्म करनेसे मनुष्य पूरी तरह इन्द्रियोंके वशमें हो जाता है और इससे उसका पतन हो जाता है । परन्तु जो मनुष्य इन्द्रियोंको वशमें करके निष्काम-भावपूर्वक कर्तव्य-कर्म करता है, उसका शीघ्र ही उद्धार हो जाता है ।

एनम् ज्ञानविज्ञाननाशनम्’ज्ञान’ पदका अर्थ शास्‍त्रीय ज्ञान भी लिया जाता है; जैसे‒ब्राह्मणके स्वाभाविक कर्मोंके अन्तर्गत ज्ञानम्’ पद शास्‍त्रीय ज्ञानके लिये ही आया है । (गीता‒अठारहवें अध्यायका बयालीसवाँ श्‍लोक) । परन्तु यहाँ प्रसंगके अनुसार ज्ञान’ का अर्थ विवेक (कर्तव्य-अकर्तव्यको अलग-अलग जानना) लेना ही उचित प्रतीत होता है । विज्ञान’ पदका अर्थ विशेष ज्ञान अर्थात् तत्त्वज्ञान (अनुभव-ज्ञान, असली ज्ञान या बोध) है ।

विवेक और तत्त्वज्ञान‒दोनों ही स्वतःसिद्ध हैं । तत्त्वज्ञानका अनुभव तो सबको नहीं है, पर विवेकका अनुभव सभीको है । मनुष्यमें यह विवेक विशेषरूपसे है । अर्जुनके प्रश्‍न (मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप क्यों करता है ?)-में आये अनिच्छन्‍नपि’ पदसे भी यही सिद्ध होता है कि मनुष्यमें विवेक है और इस विवेकसे ही वह पाप और पुण्य-दोनोंको जानता है और पाप नहीं करना चाहता । पाप न करनेकी इच्छा विवेकके बिना नहीं होती । परन्तु यहकाम’ उस विवेकको ढक देता है और उसको जाग्रत् नहीं होने देता ।

विवेक जाग्रत् होनेसे मनुष्य भविष्यपर अर्थात् परिणामपर दृष्‍टि रखकर ही सब कार्य करता है । परन्तु कामनासे विवेक ढक जानेके कारण परिणामकी ओर दृष्‍टि ही नहीं जाती । परिणामकी तरफ दृष्‍टि न जानेसे ही वह पाप करता है ।

इस प्रकार जिसका अनुभव सबको है, उस विवेकको भी जब यह काम’ जाग्रत् नहीं होने देता, तब जिसका अनुभव सबको नहीं है, उस तत्त्वज्ञानको तो जाग्रत् होने ही कैसे देगा ? इसलिये यहाँकाम’ को ज्ञान (विवेक) और विज्ञान (बोध)‒दोनोंका नाश करनेवाला बताया गया है ।

वास्तवमें यह काम’ ज्ञान और विज्ञानका नाश (अभाव) नहीं करता, प्रत्युत उन दोनोंको ढक देता है अर्थात् प्रकट नहीं होने देता । उन्हें ढक देनेको ही यहाँ उनका नाश करना कहा गया है । कारण कि ज्ञान-विज्ञानका कभी नाश होता ही नहीं । नाश तो वास्तवमें काम’ का ही होता है । जिस प्रकार नेत्रोंके सामने बादल आनेपर बादलोंने सूर्यको ढक दिया’ ऐसा कहा जाता है, पर वास्तवमें सूर्य नहीं ढका जाता, प्रत्युत नेत्र ढके जाते हैं, उसी प्रकारकामनाने ज्ञान-विज्ञानको ढक दिया’ ऐसा कहा तो जाता है, पर वास्तवमें ज्ञान-विज्ञान ढके नहीं जाते, प्रत्युत बुद्धि ढकी जाती है ।

पाप्मानं हि प्रजहि’कामना सम्पूर्ण पापोंकी जड़ है । इसलिये कामना उत्पन्‍न होनेसे पाप होनेकी सम्भावना रहती है । आगे चलकर कामना मनुष्यके विवेकको ढककर उसे अन्धा बना देती है, जिससे उसे पाप-पुण्यका ज्ञान ही नहीं रहता और वह पापोंमें ही लग जाता है । इससे उसका महान् पतन हो जाता है । इसलिये भगवान् कामनाको महापापी बताकर उसे अवश्य ही मार डालनेकी आज्ञा देते हैं ।

गृहस्थ-जीवन ठीक नहीं, साधु हो जायँ, एकान्तमें चले जायँ‒ऐसा विचार करके मनुष्य कार्यको तो बदलना चाहता है, पर कारण कामना’ को नहीं छोड़ता; उसे छोड़नेका विचार ही नहीं करता । यदि वह कामनाको छोड़ दे तो उसके सब काम अपने-आप ठीक हो जायँ । जब मनुष्य जीनेकी कामना तथा अन्य कामनाओंको रखते हुए मरता है, तब वे कामनाएँ उसके अगले जन्मका कारण बन जाती हैं । तात्पर्य यह है कि जबतक मनुष्यमें कामना रहती है, तबतक वह जन्म-मरणरूप बन्धनमें पड़ा रहता है । इस प्रकार बाँधनेके सिवाय कामना और कुछ काम नहीं आती ।

जब मनुष्यका जड-पदार्थोंकी तरफ आकर्षण होता है, तभी उनकी कामना उत्पन्‍न होती है । कामना उत्पन्‍न होते ही विवेक-दृष्‍टि दब जाती है और इन्द्रिय-दृष्‍टिकी प्रधानता हो जाती है । इन्द्रियाँ मनुष्यको केवल शब्दादि विषयोंके सुख-भोगमें ही लगाती हैं । पशु-पक्षियोंकी भी प्रवृत्ति इन्द्रियोंसे मिलनेवाले सुखतक ही रहती है । परन्तु कामनासे विवेक ढक जानेके कारण मनुष्य इन्द्रियजन्य सुखके लिये पदार्थोंकी कामना करने लगता है और फिर पदार्थोंके लिये रुपयोंकी कामना करने लग जाता है । इतना ही नहीं, उसकी दृष्‍टि रुपयोंसे भी हटकर रुपयोंकी गिनती (संग्रह)-में हो जाती है । फिर वह रुपयोंकी गिनती बढ़ानेमें ही लग जाता है । निर्वाहमात्रके रुपयोंकी अपेक्षा उनका संग्रह अधिक पतन करनेवाला है और संग्रहकी अपेक्षा भी रुपयोंकी गिनती महान् पतन करनेवाली है । गिनती बढ़ानेके लिये वह झूठ, कपट, धोखा, चोरी आदि पाप-कर्मोंको भी करने लग जाता है और गिनती बढ़नेपर उसमें अभिमान भी आ जाता है, जो आसुरी-सम्पत्तिका मूल है । इस प्रकार कामनाके कारण मनुष्य महान् पतनकी ओर चला जाता है । इसलिये भगवान् इस महान् पापी कामका अच्छी तरह नाश करनेकी आज्ञा देते हैं ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्यासंसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है‒यह ज्ञान है । सब कुछ भगवान् ही है‒यह विज्ञान है । काम साधकको न तो ‘ज्ञान’ प्राप्‍त करने देता है, न ‘विज्ञान’

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