Listen कर्मयोगमें ‘कर्म’ तो संसारके लिये होते हैं और ‘योग’ अपने लिये होता है । परन्तु अपने
लिये कर्म करनेसे ‘योग’ का अनुभव नहीं होता । ‘योग’ का अनुभव तभी होगा, जब कर्मोंका प्रवाह पूरा-का-पूरा
संसारकी ओर ही हो जाय । कारण कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ, धन, सम्पत्ति आदि जो कुछ भी हमारे पास है, वह सब-का-सब संसारसे अभिन्न है, संसारका ही है और उन्हें संसारकी सेवामें
ही लगाना है । अतः पदार्थ और क्रियारूप संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद
करनेके लिये ही दूसरोंके लिये कर्म करना है । यही कर्मयोग है । कर्मयोग सिद्ध होनेपर
करनेका राग, पानेकी लालसा, जीनेकी इच्छा और मरनेका
भय‒ये सब मिट जाते हैं । जैसे सूर्यके प्रकाशमें लोग अनेक कर्म
करते हैं, पर
सूर्यका उन कर्मोंसे अपना कुछ भी सम्बन्ध नहीं होता, ऐसे ही ‘स्वयं’ (चेतन) के प्रकाशमें सम्पूर्ण कर्म होते
हैं,
पर ‘स्वयं’ का उनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं
होता; क्योंकि ‘स्वयं’ चेतन तथा अपरिवर्तनशील है और
कर्म जड तथा परिवर्तनशील हैं । परन्तु जब ‘स्वयं’ भूलसे उन पदार्थों और कर्मोंके
साथ थोड़ा-सा भी सम्बन्ध मान लेता है, अर्थात् उन्हें अपने और अपने लिये मान लेता है, तो फिर वे कर्म अवश्य ही उसे बाँध देते
हैं । नियत-कर्मका किसी भी अवस्थामें
त्याग न करना तथा नियत समयपर कार्यके लिये तत्पर रहना भी सूर्यकी अपनी विलक्षणता है
। कर्मयोगी भी सूर्यकी तरह अपने नियत-कर्मोंको नियत समयपर करनेके लिये सदा तत्पर रहता
है । कर्मयोगका ठीक-ठीक पालन किया जाय तो
यदि कर्मयोगीमें ज्ञानके संस्कार हैं तो उसे ज्ञानकी प्राप्ति, और यदि भक्तिके संस्कार हैं तो उसे
भक्तिकी प्राप्ति स्वतः हो जाती है । कर्मयोगका पालन करनेसे
अपना ही नहीं, प्रत्युत संसारमात्रका भी परम हित होता
है । दूसरे
लोग देखें या न देखें, समझें या न समझें, मानें या न मानें, अपने कर्तव्यका ठीक-ठीक पालन करनेसे
दूसरे लोगोंको कर्तव्य-पालनकी प्रेरणा स्वतः मिलती है और इस प्रकार सबकी सेवा भी हो
जाती है । मार्मिक बात गीतामें भगवान्ने उपदेशके आरम्भमें
दूसरे अध्यायके ग्यारहवें श्लोकसे तीसवें श्लोकतक मनुष्यमात्रके अनुभव (विवेक)-का
वर्णन किया है । यह मनुष्यमात्रका ही अनुभव नहीं है, प्रत्युत जीवमात्रका भी अनुभव है; कारण कि ‘मैं हूँ’‒ऐसे अपनी सत्ता (होनेपन)-का अनुभव स्थावर-जंगम
सभी प्राणियोंको है । वृक्ष, पर्वत आदिको भी इसका अनुभव है, पर वे इसे व्यक्त नहीं कर सकते । पशु-पक्षियोंमें
तो प्रत्यक्ष देखनेमें भी आता है; जैसे‒पशु-पक्षी आपसमें लड़ते हैं तो अपनी सत्ताको लेकर
ही लड़ते हैं । यदि अपनी अलग सत्ताका अनुभव न हो तो वे लड़े ही क्यों ? मनुष्यको तो इसका प्रत्यक्ष अनुभव है
ही;
परन्तु वह न तो अपने अनुभवकी ओर दृष्टि
डालता है और न उसका आदर ही करता है । इस अनुभवको ही विवेक
या निज-ज्ञान कहते हैं । यह विवेक सबमें स्वतः है और भगवत्प्रदत्त है । इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि प्रकृतिके अंश हैं, इसलिये इनसे होनेवाला ज्ञान प्रकृतिजन्य
है । शास्त्रोंको पढ़-सुनकर इन इन्द्रियों-मन-बुद्धिके द्वारा जो पारमार्थिक ज्ञान
होता है, वह
ज्ञान भी एक प्रकारसे प्रकृतिजन्य ही है । परमात्मतत्त्व इस प्रकृतिजन्य ज्ञानकी अपेक्षा
अत्यन्त विलक्षण है । अतः परमात्मतत्त्वको निज-ज्ञान (स्वयंसे
होनेवाले ज्ञान)-से ही जाना जा सकता है । निज-ज्ञान अर्थात् विवेकको महत्त्व देनेसे ‘मैं कौन हूँ ? मेरा क्या है ? जड और चेतन क्या हैं ? प्रकृति और परमात्मा क्या
हैं ?’‒यह सब जाननेकी शक्ति आ जाती
है । यही विवेक कर्मयोगमें भी काम आता है‒यह मार्मिक बात है । कर्मयोगमें विवेककी दो बातें
मुख्य हैं‒(१) अपने होनेपन (‘मैं हूँ’)-में कोई संदेह नहीं है
और (२) अभी जो वस्तुएँ मिली हुई हैं, उनपर अपना कोई आधिपत्य नहीं
है; क्योंकि वे पहले अपनी नहीं थीं और बादमें भी अपनी नहीं रहेंगी । मैं (स्वयं) निरन्तर रहता हूँ और ये
मिली हुई वस्तुएँ‒शरीर, इन्द्रियाँ मन, बुद्धि आदि निरन्तर बदलती रहती हैं
और इनका निरन्तर वियोग होता रहता है । जैसे कर्मोंका आरम्भ और समाप्ति होती है, ऐसे ही उनके फलका भी संयोग और वियोग
होता है । इसलिये कर्मों और पदार्थोंका सम्बन्ध संसारसे है, स्वयंसे नहीं । इस प्रकार विवेक जाग्रत् होते ही कामनाका नाश हो जाता है । कामनाका नाश होनेपर
स्वतःसिद्ध निष्कामता प्रकट हो जाती है अर्थात् कर्मयोग पूर्णतः सिद्ध हो जाता है । कामनासे विवेक ढक जाता है (गीता‒तीसरे
अध्यायका अड़तीसवाँ-उनतालीसवाँ श्लोक) । स्वार्थ-बुद्धि, भोग-बुद्धि, संग्रह-बुद्धि रखनेसे मनुष्य अपने कर्तव्यका
ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाता । वह उलझनोंको उलझनसे ही अर्थात् शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे
ही सुलझाना चाहता है और इसीलिये वह वर्तमान परिस्थितिको बदलनेका ही उद्योग करता है
। परन्तु परिस्थितिको बदलना अपने वशकी बात नहीं है, इसलिये उलझन सुलझनेकी अपेक्षा अधिकाधिक
उलझती चली जाती है । विवेक जाग्रत् होनेपर जब स्वार्थ-बुद्धि, भोग-बुद्धि, संग्रह-बुद्धि नहीं रहती, तब अपना कर्तव्य स्पष्ट दीखने लग जाता
है और सभी प्रकारकी उलझनें स्वतः सुलझ जाती हैं । बाहरी परिस्थिति कर्मोंके अनुसार ही
बनती है अर्थात् वह कर्मोंका ही फल है । धनवत्ता-निर्धनता, निन्दा-स्तुति, आदर-निरादर, यश-अपयश, लाभ-हानि, जन्म-मरण, स्वस्थता-रुग्णता आदि सभी परिस्थितियाँ
कर्मोंके अधीन हैं१ । १.सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ । हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि
हाथ ॥ (मानस २ । १७१) शुभ और अशुभ कर्मोंके फलस्वरूपमें अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति
सामने आती रहती है; परन्तु उस परिस्थितिसे सम्बन्ध जोड़कर‒उसे अपनी मानकर सुखी-दुःखी
होना मूर्खता है । तात्पर्य यह है कि अनुकूल और प्रतिकूल
परिस्थितिका आना तो कर्मोंका फल है, और उससे सुखी-दुःखी होना
अपनी अज्ञता‒मूर्खताका फल है । कर्मोंका फल मिटाना तो हाथकी बात नहीं है, पर मूर्खता मिटाना बिलकुल हाथकी बात
है । जिसे मिटा सकते हैं, उस मूर्खताको तो मिटाते
नहीं और जिसे बदल सकते नहीं, उस परिस्थितिको बदलनेका
उद्योग करते हैं‒यह महान् भूल है ! इसलिये अपने विवेकको महत्त्व देकर मूर्खताको मिटा देना
चाहिये और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंका सदुपयोग करते हुए उनसे ऊँचे उठ जाना अर्थात्
असंग हो जाना चाहिये । जो किसी भी परिस्थितिसे सम्बन्ध न जोड़कर उसका सदुपयोग करता है
अर्थात् अनुकूल परिस्थितिमें दूसरोंकी सेवा करता है तथा प्रतिकूल
परिस्थितिमें दुःखी नहीं होता अर्थात् सुखकी इच्छा नहीं करता, वह संसार-बन्धनसे सुगमतापूर्वक
मुक्त हो जाता है । जिसे मनुष्य नहीं चाहता, वह प्रतिकूल परिस्थिति पहले किये अशुभ
(पाप)-कर्मोंका फल होती है । अतः पाप-कर्म तो करने ही नहीं चाहिये । किसीको कष्ट पहुँचे, ऐसा काम तो स्वप्नमें भी नहीं करना
चाहिये । परन्तु वर्तमानमें (नये) पाप-कर्म न करनेपर भी पुराने पाप-कर्मोंके फलस्वरूप
जब प्रतिकूल परिस्थिति आ जाती है, तब अन्तःकरणमें चिन्ता, शोक, भय आदि भी आ जाते हैं । इसका कारण यह
है कि हमने चिन्ता-शोकको अधिक परिचित बना लिया है । जैसे बिक्री की हुई गाय पुराने
स्थानसे परिचित होनेके कारण बार-बार वहीं आ जाती है । परन्तु उसे बार-बार नये स्थानपर
पहुँचा दिया जाय, तो फिर वह पुराने स्थानपर आना छोड़ देती है । ऐसे ही आज
और अभी यह दृढ़ विचार कर लें कि आने-जानेवाली परिस्थितिसे
सम्बन्ध जोड़कर चिन्ता-शोक करना गलती है, यह गलती अब हम नहीं करेंगे, तो फिर ये चिन्ता-शोक आना
छोड़ देंगे ।
विवेककी पूर्ण जागृति न होनेपर भी कर्मयोगीमें
एक निश्चयात्मिका बुद्धि रहती है कि जो अपना नहीं है, उससे सम्बन्ध-विच्छेद करना है और सांसारिक
सुखोंको न भोगकर केवल सेवा करनी है । इस निश्चयात्मिका बुद्धिके कारण उसके अन्तःकरणमें
सांसारिक सुखोंका महत्त्व नहीं रहता । फिर ‘भोगोंमें सुख है’‒ऐसे भ्रममें उसे कोई डाल नहीं सकता
। अतः इस एक निश्चयको अटल रखनेसे ही उसका कल्याण हो जाता है । सत्संग-स्वाध्यायसे ऐसी निश्चयात्मिका बुद्धिको बल मिलता है ।
अतः हरेक साधकको कम-से-कम ऐसा कल्याणकारी निश्चय अवश्य ही बना लेना चाहिये । ऐसा निश्चय
बनानेमें सब स्वाधीन हैं, कोई पराधीन नहीं है । इसमें किसीकी किंचित् भी सहायताकी
आवश्यकता नहीं है; क्योंकि इसमें स्वयं बलवान् है । രരരരരരരരരര |