।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०८०, बुधवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सूक्ष्म विषयभगवान्‌के द्वारा अपना रहस्य प्रकट करना ।

        स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥३॥

अर्थ‒तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिये वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझसे कहा है; क्योंकि यह बडा उत्तम रहस्य है ।

मे = (तू) मेरा

योगः = योग

भक्तः = भक्त

अद्य = आज

च = और

मया = मैंने

सखा = (प्रिय) सखा

ते = तुझसे

असि = है,

प्रोक्तः = कहा है;

इति = इसलिये

हि = क्योंकि

सः, एव = वही

एतत् = यह

अयम् = यह

उत्तमम् = बड़ा उत्तम

पुरातनः = पुरातन

रहस्यम् = रहस्य है ।

व्याख्या‒‘भक्तोऽसि मे सखा चेति’अर्जुन भगवान्‌को अपना प्रिय सखा पहलेसे ही मानते थे (गीता‒ग्यारहवें अध्यायका इकतालीसवाँ-बयालीसवाँ श्‍लोक), पर भक्त अभी (गीता‒दूसरे अध्यायके सातवें श्‍लोकमें) हुए हैं अर्थात् अर्जुन सखा भक्त तो पुराने हैं, पर दास्य भक्त नये हैं । आदेश या उपदेश दास अथवा शिष्यको ही दिया जाता है, सखाको नहीं । अर्जुन जब भगवान्‌के शरण हुए, तभी भगवान्‌का उपदेश आरम्भ हुआ ।

जो बात सखासे भी नहीं कही जाती, वह बात भी शरणागत शिष्यके सामने प्रकट कर दी जाती है । अर्जुन भगवान्‌से कहते हैं कि ‘मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये ।’ इसलिये भगवान् अर्जुनके सामने अपने-आपको प्रकट कर देते हैं, रहस्यको खोल देते हैं ।

अर्जुनका भगवान्‌के प्रति बहुत विशेष भाव था, तभी तो उन्होंने वैभव और अस्‍त्र-शस्‍त्रोंसे सुसज्‍जित ‘नारायणी सेना’ का त्याग करके निःशस्‍त्र भगवान्‌को अपने ‘सारथि’ के रूपमें स्वीकार किया ।

१.एवमुक्तस्तु कृष्णेन  कुन्तीपुत्रो धनंजयः ।

   अयुध्यमानं संग्रामे  वरयामास केशवम् ॥

(महाभारत, उद्योग ७ । २१)

‘श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर कुन्तीकुमार धनंजयने संग्रामभूमिमें (अस्‍त्र-शस्‍त्रोंसे सुसज्‍जित एक अक्षौहिणी नारायणी सेनाको छोड़कर) युद्ध न करनेवाले निःशस्‍त्र उन भगवान्‌ श्रीकृष्णको ही (अपना सहायक) चुना ।’

साधारण लोग भगवान्‌की दी हुई वस्तुओंको तो अपनी मानते हैं (जो अपनी हैं ही नहीं), पर भगवान्‌को अपना नहीं मानते (जो वास्तवमें अपने हैं) । वे लोग वैभवशाली भगवान्‌को न देखकर उनके वैभवको ही देखते हैं । वैभवको ही सच्‍चा माननेसे उनकी बुद्धि इतनी भ्रष्‍ट हो जाती है कि वे भगवान्‌का अभाव ही मान लेते हैं अर्थात् भगवान्‌की तरफ उनकी दृष्‍टि जाती ही नहीं । कुछ लोग वैभवकी प्राप्‍तिके लिये ही भगवान्‌का भजन करते हैं । भगवान्‌को चाहनेसे तो वैभव भी पीछे आ जाता है, पर वैभवको चाहनेसे भगवान् नहीं आ सकते । वैभव तो भक्तके चरणोंमें लोटता है; परन्तु सच्‍चे भक्त वैभवकी प्राप्‍तिके लिये भगवान्‌का भजन नहीं करते । वे वैभवको नहीं चाहते, अपितु भगवान्‌को ही चाहते हैं । वैभवको चाहनेवाले मनुष्य वैभवके भक्त (दास) होते हैं और भगवान्‌को चाहनेवाले मनुष्य भगवान्‌के भक्त होते हैं । अर्जुनने वैभव (नारायणी सेना)-का त्याग करके केवल भगवान्‌को अपनाया, तो युद्धक्षेत्रमें भीष्म, द्रोण, युधिष्‍ठिर आदि महापुरुषोंके रहते हुए भी गीताका महान् दिव्य उपदेश केवल अर्जुनको ही प्राप्‍त हुआ, और बादमें राज्य भी अर्जुनको मिल गया !

‘स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः’इन पदोंका यह तात्पर्य नहीं है कि मैंने कर्मयोगको पूर्णतया कह दिया है, प्रत्युत यह तात्पर्य है कि जो कुछ कहा है, वह पूर्ण है । आगे भगवान्‌के जन्मके विषयमें अर्जुनद्वारा किये गये प्रश्‍नका उत्तर देकर भगवान्‌ने पुनः उसी कर्मयोगका वर्णन आरम्भ किया है ।

भगवान् कहते हैं कि सृष्‍टिके आदिमें मैंने सूर्यके प्रति जो कर्मयोग कहा था, वही आज मैंने तुमसे कहा है । बहुत समय बीत जानेपर वह योग अप्रकट हो गया था, और मैं भी अप्रकट ही था । अब मैं भी अवतार लेकर प्रकट हुआ हूँ और योगको भी पुनः प्रकट किया है । अतः अनादिकालसे जो कर्मयोग मनुष्योंको कर्मबन्धनसे मुक्त करता आ रहा है, वह आज भी उन्हें कर्मबन्धनसे मुक्त कर देगा ।

‘रहस्यं ह्येतदुत्तमम्’जिस प्रकार अठारहवें अध्यायके छाछठवें श्‍लोकमें भगवान्‌ने अर्जुनके सामने ‘सर्वगुह्यतम’ बात प्रकट की कि ‘तू मेरी शरणमें आ जा, मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा’, उसी प्रकार यहाँ ‘उत्तम रहस्य’ प्रकट करते हैं कि ‘मैंने ही सृष्‍टिके आदिमें सूर्यको उपदेश दिया था और वही मैं आज तुझे उपदेश दे रहा हूँ’ ।

भगवान् अर्जुनसे मानो यह कहते हैं कि तेरा सारथि बनकर तेरी आज्ञाका पालन करनेवाला होकर भी मैं आज तुझे वही उपदेश दे रहा हूँ, जो उपदेश मैंने सृष्‍टिके आदिमें सूर्यको दिया था । मैं साक्षात् वही हूँ और अभी अवतार लेकर गुप्‍तरीतिसे प्रकट हुआ हूँ‒यह बहुत रहस्यकी बात है । इस रहस्यको आज मैं तेरे सामने प्रकट कर रहा हूँ; क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है ।

साधारण मनुष्यकी तो बात ही क्या है, साधककी दृष्‍टि भी उपदेशकी ओर अधिक एवं उपदेष्‍टाकी ओर कम जाती है । इस प्रसंगको पढ़ने-सुननेपर उपदिष्‍ट ‘योग’ पर तो दृष्‍टि जाती है, पर उपदेष्‍टा भगवान् श्रीकृष्ण ही आदि नारायण हैं‒इसपर प्रायः दृष्‍टि नहीं जाती । जो बात साधारणतः पकड़में नहीं आती, वह रहस्यकी होती है । भगवान् यहाँ ‘रहस्यम्’ पदसे अपना परिचय देते हैं, जिसका तात्पर्य है कि साधककी दृष्‍टि सर्वथा भगवान्‌की ओर ही रहनी चाहिये ।

अपने-आपको ‘आदि उपदेष्‍टा’ कहकर भगवान् मानो अपनेको मानवमात्रका ‘गुरु’ प्रकट करते हैं । नाटक खेलते समय मनुष्य जनताके सामने अपने असली स्वरूपको प्रकट नहीं करता, पर किसी आत्मीय जनके सामने अपनेको प्रकट भी कर देता है । ऐसे ही मनुष्य-अवतारके समय भी भगवान् अर्जुनके सामने अपना ईश्‍वरभाव प्रकट कर देते हैं अर्थात् जो बात छिपाकर रखनी चाहिये, वह बात प्रकट कर देते हैं । यही उत्तम रहस्य है ।

कर्मयोगको भी उत्तम रहस्य माना जा सकता है । जिन कर्मोंसे जीव बँधता है (कर्मणा बध्यते जन्तुः) उन्हीं कर्मोंसे उसकी मुक्ति हो जाय‒यह उत्तम रहस्य है । पदार्थोंको अपना मानकर अपने लिये कर्म करनेसे बन्धन होता है, और पदार्थोंको अपना न मानकर (दूसरोंका मानकर) केवल दूसरोंके हितके लिये निःस्वार्थभावपूर्वक सेवा करनेसे मुक्ति होती है । अनुकूलता-प्रतिकूलता, धनवत्ता-निर्धनता, स्वस्थता-रुग्णता आदि कैसी ही परिस्थिति क्यों न हो, प्रत्येक परिस्थितिमें इस कर्मयोगका पालन स्वतन्त्रतापूर्वक हो सकता है । कर्मयोगमें रहस्यकी तीन बातें मुख्य हैं‒

(१) मेरा कुछ नहीं है । कारण कि मेरा स्वरूप सत् (अविनाशी) है और जो कुछ मिला है, वह सब असत् (नाशवान्) है, फिर असत् मेरा कैसे हो सकता है ? अनित्यका नित्यके साथ सम्बन्ध कैसे हो सकता है ?

(२) मेरे लिये कुछ नहीं चाहिये । कारण कि स्वरूप (सत्)-में कभी अपूर्ति या कमी होती ही नहीं, फिर किस वस्तुकी कामना की जाय ? अनुत्पन्‍न अविनाशी तत्त्वके लिये उत्पन्‍न होनेवाली नाशवान् वस्तु कैसे काममें आ सकती है ?

(३) अपने लिये कुछ नहीं करना है । इसमें पहला कारण यह है कि स्वयं चेतन परमात्माका अंश है और कर्म जड है । स्वयं नित्य-निरन्तर रहता है, पर कर्मका तथा उसके फलका आदि और अन्त होता है । इसलिये अपने लिये कर्म करनेसे आदि-अन्तवाले कर्म और फलसे अपना सम्बन्ध जुड़ता है । कर्म और फलका तो अन्त हो जाता है, पर उनका संग भीतर रह जाता है, जो जन्म-मरणका कारण होता है‒कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३ । २१) ।

दूसरा कारण यह है किकरने’ का दायित्व उसीपर आता है, जो कर सकता है अर्थात् जिसमें करनेकी योग्यता है और जो कुछ पाना चाहता है । निष्क्रिय, निर्विकार, अपरिवर्तनशील और पूर्ण होनेके कारण चेतन स्वरूप शरीरके सम्बन्धके बिना कुछ कर ही नहीं सकता, इसलिये यह विधान मानना पड़ेगा कि स्वरूपको अपने लिये कुछ नहीं करना है ।

तीसरा कारण यह है कि स्वरूप सत् है और पूर्ण है; अतः उसमें कभी कमी आती ही नहीं, आनेकी सम्भावना भी नहीं‒नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) । कमी न आनेके कारण उसमें कुछ पानेकी इच्छा भी नहीं होती । इससे स्वतः सिद्ध होता है कि स्वरूपपरकरने’ का दायित्व नहीं है अर्थात् उसे अपने लिये कुछ नहीं करना है ।

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