Listen सूक्ष्म विषय‒कर्मयोगके लुप्तप्राय होनेका कथन
। एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो
विदुः । स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥२॥ अर्थ‒हे परन्तप ! इस तरह परम्परासे प्राप्त
इस कर्मयोगको राजर्षियोंने जाना । परन्तु बहुत समय बीत जानेके कारण वह योग इस मनुष्यलोकमें
लुप्तप्राय हो गया ।
व्याख्या‒‘एवं
परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः’‒सूर्य, मनु, इक्ष्वाकु आदि राजाओंने कर्मयोगको भलीभाँति
जानकर उसका स्वयं भी आचरण किया और प्रजासे भी वैसा आचरण कराया । इस प्रकार राजर्षियोंमें
इस कर्मयोगकी परम्परा चली । यह राजाओं (क्षत्रियों)-की खास (निजी) विद्या है, इसलिये
प्रत्येक राजाको यह विद्या जाननी चाहिये । इसी प्रकार परिवार, समाज, गाँव आदिके जो मुख्य व्यक्ति हैं, उन्हें भी यह विद्या अवश्य जाननी चाहिये
। प्राचीनकालमें कर्मयोगको जाननेवाले
राजालोग राज्यके भोगोंमें आसक्त हुए बिना सुचारुरूपसे राज्यका संचालन करते थे । प्रजाके
हितमें उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति रहती थी । सूर्यवंशी राजाओंके विषयमें महाकवि कालिदास
लिखते हैं‒ प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो
बलिमग्रहीत् । सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते हि रसं रवि: ॥ (रघुवंश १ । १८) ‘वे राजालोग अपनी प्रजाके
हितके लिये प्रजासे उसी प्रकार कर लिया करते थे, जिस प्रकार सहस्रगुना
बनाकर बरसानेके लिये ही सूर्य पृथ्वीसे जल लिया करते हैं ।’ तात्पर्य यह कि वे राजालोग प्रजासे
कर आदिके रूपमें लिये गये धनको प्रजाके ही हितमें लगा देते थे, अपने स्वार्थमें थोड़ा भी खर्च नहीं
करते थे । अपने जीवन-निर्वाहके लिये वे अलग खेती आदि काम करवाते थे । कर्मयोगका पालन
करनेके कारण उन राजाओंको विलक्षण ज्ञान और भक्ति स्वतः प्राप्त थी । यही कारण था कि
प्राचीनकालमें बड़े-बड़े ऋषि भी ज्ञान प्राप्त करनेके लिये उन राजाओंके पास जाया करते
थे । श्रीवेदव्यासजीके पुत्र शुकदेवजी भी ज्ञान-प्राप्तिके लिये राजर्षि जनकके पास
गये थे । छान्दोग्योपनिषद्के पाँचवें अध्यायमें भी आता है कि ब्रह्मविद्या सीखनेके
लिये छः ऋषि एक साथ महाराज अश्वपतिके पास गये थे१ । १.उस प्रसंगमें महाराज अश्वपतिके ये
वचन ध्यान देने योग्य हैं‒ न मे स्तेनो
जनपदे न कदर्यो न मद्यपः । नानाहिताग्निर्नाविद्वान्न
स्वैरी स्वैरिणी कुतः ॥ (छान्दोग्य॰ ५ । ११ । ५) ‘मेरे राज्यमें न तो कोई चोर है, न कोई कृपण है, न कोई मद्यप
(मदिरा पीनेवाला) है, ‘न कोई अनाहिताग्नि (अग्निहोत्र न करनेवाला) है, न कोई अविद्वान्
है और न कोई परस्त्रीगामी ही है, फिर कुलटा स्त्री (वेश्या) तो होगी ही कैसे ?’ तीसरे अध्यायके बीसवें श्लोकमें जनक
आदि राजाओंको और यहाँ सूर्य, मनु, इक्ष्वाकु आदि राजाओंको कर्मयोगी बताकर भगवान् अर्जुनको
मानो यह लक्ष्य कराते हैं कि गृहस्थ और क्षत्रिय होनेके नाते तुम्हें भी अपने पूर्वजोंके
(वंश-परम्पराके) अनुसार कर्मयोगका पालन अवश्य करना चाहिये (गीता‒चौथे अध्यायका पन्द्रहवाँ
श्लोक) । इसके अलावा अपने वंशकी बात (कर्मयोगकी विद्या) अपनेमें आनी सुगम भी है, इसलिये आनी ही चाहिये । ‘स कालेनेह महता योगो नष्टः’‒परमात्मा नित्य हैं और उनकी प्राप्तिके
साधन‒कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि भी परमात्माके द्वारा
निश्चित किये होनेसे नित्य हैं । अतः इनका कभी अभाव नहीं होता‒‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) । ये आचरणमें आते हुए न दीखनेपर भी नित्य
रहते हैं । इसीलिये यहाँ आये ‘नष्टः’ पदका अर्थ लुप्त, अप्रकट होना ही है, अभाव होना नहीं । पहले श्लोकमें कर्मयोगको ‘अव्ययम्’ अर्थात् अविनाशी कहा गया है । अतः यहाँ ‘नष्टः’ पदका अर्थ यदि कर्मयोगका अभाव माना जाय तो दोनों
ओरसे विरोध उत्पन्न होगा कि यदि कर्मयोग अविनाशी है तो उसका अभाव कैसे हो गया ? और यदि उसका अभाव हो गया तो वह अविनाशी
कैसे ? इसके
सिवाय आगेके (तीसरे) श्लोकमें भगवान् कर्मयोगको पुनः प्रकट करनेकी बात कहते हैं ।
यदि उसका अभाव हो गया होता तो पुनः प्रकट नहीं होता । भगवान्के वचनोंमें विरोध भी
नहीं आ सकता । इसलिये यहाँ ‘इह नष्टः’ पदोंका तात्पर्य
यह है कि इस अविनाशी कर्मयोगके तत्त्वका वर्णन करनेवाले ग्रन्थोंका और इसके तत्त्वको
जाननेवाले तथा उसे आचरणमें लानेवाले श्रेष्ठ पुरुषोंका इस लोकमें अभाव-सा हो गया है
। जहाँसे जो बात कही जाती है, वहाँसे वह परम्परासे जितनी दूर चली
जाती है, उतना
ही उसमें स्वतः अन्तर पड़ता चला जाता है‒यह नियम है । भगवान् कहते हैं कि कल्पके आदिमें
मैंने यह कर्मयोग सूर्यसे कहा था, फिर परम्परासे इसे राजर्षियोंने जाना । अतः इसमें अन्तर
पड़ता ही गया और बहुत समय बीत जानेसे अब यह योग इस मनुष्यलोकमें लुप्तप्राय हो गया
है । यही कारण है कि वर्तमानमें इस कर्मयोगकी बात सुनने तथा देखनेमें बहुत कम आती है
। कर्मयोगका आचरण लुप्तप्राय होनेपर
भी उसका सिद्धान्त (अपने लिये कुछ न करना) सदैव रहता है; क्योंकि इस सिद्धान्तको अपनाये बिना
किसी भी योग (ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि)-का निरन्तर साधन नहीं हो सकता । कर्म तो
मनुष्यमात्रको करने ही पड़ते हैं । हाँ, ज्ञानयोगी विवेकके द्वारा कर्मोंको नाशवान् मानकर कर्मोंसे
सम्बन्ध-विच्छेद करता है; और भक्तियोगी कर्मोंको भगवान्के अर्पण करके कर्मोंसे
सम्बन्ध-विच्छेद करता है । अतः ज्ञानयोगी और भक्तियोगीको कर्मयोगका सिद्धान्त तो अपनाना
ही पड़ेगा; भले
ही वे कर्मयोगका अनुष्ठान न करें । तात्पर्य यह कि वर्तमानमें कर्मयोग लुप्तप्राय
होनेपर भी सिद्धान्तके रूपमें विद्यमान ही है । वास्तवमें देखा जाय तो कर्मयोगमें
‘कर्म’ लुप्त नहीं हुए हैं, प्रत्युत (कर्मोंका प्रवाह अपनी ओर होनेसे) ‘योग’ ही लुप्त
हुआ है । तात्पर्य यह है कि जैसे संसारके पदार्थ कर्म करनेसे
मिलते हैं, ऐसे ही परमात्मा भी कर्म करनेसे मिलेंगे‒यह
बात साधकोंके अन्तःकरणमें इतनी दृढ़तासे बैठ गयी है कि ‘परमात्मा नित्यप्राप्त हैं’‒इस वास्तविकताकी ओर उनका
ध्यान ही नहीं जा रहा है । ‘कर्म’ सदैव संसारके लिये होते हैं और ‘योग’ सदैव अपने
लिये होता है । ‘योग’ के लिये कर्म करना नहीं होता, वह तो स्वतःसिद्ध है ।२ अतः ‘योग’ के लिये यह मान लेना कि वह कर्म करनेसे होगा‒यही ‘योग’ का लुप्त होना
है । २.लोकहितार्थ अपने कर्तव्य (स्वधर्म)-का पालन करनेसे ‘योग’ सिद्ध होता है; अतः यह ‘करना’ भी वास्तवमें न करनेके
लिये अर्थात् ‘करना’ समाप्त करनेके लिये ही है‒‘आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म
कारणमुच्यते’ (गीता ६ । ३) । ‘करनेका वेग’ निकालनेके लिये ही केवल सेवा-भावसे कर्तव्य-कर्म करने चाहिये । सकामभावसे
अर्थात् अपने लिये कर्म करनेसे ‘करनेका वेग’ बढ़ता है, और दूसरोंके लिये कर्म करनेसे ‘करनेका
वेग’ समाप्त होता है । तात्पर्य यह कि दूसरोंके लिये करनेसे ही ‘करना’ समाप्त होता
है और अपने लिये करनेसे ‘करना’ शेष रहता है। ‘करना’ समाप्त होनेपर स्वतःसिद्ध ‘योग’
का अनुभव हो जाता है । मनुष्य-शरीर कर्मयोगका पालन
करनेके लिये अर्थात् दूसरोंकी निःस्वार्थ सेवा करनेके लिये ही मिला है । परन्तु आज
मनुष्य रात-दिन अपनी सुख-सुविधा, सम्मान आदिकी प्राप्तिमें
ही लगा हुआ है । स्वार्थके अधिक बढ़ जानेके कारण दूसरोंकी सेवाकी तरफ उसका ध्यान ही नहीं है । इस
प्रकार जिसके लिये मनुष्य-शरीर मिला है, उसे भूल जाना ही कर्मयोगका
लुप्त होना है ।
मनुष्य सेवाके द्वारा पशु-पक्षीसे लेकर
मनुष्य, देवता, पितर, ऋषि, सन्त-महात्मा और भगवान्तकको अपने वशमें
कर सकता है । परन्तु सेवाभावको भूलकर मनुष्य स्वयं भोगोंके वशमें हो गया, जिसका परिणाम नरकोंमें तथा चौरासी लाख
योनियोंमें पड़ जाना है । यही कर्मयोगका छिपना है । രരരരരരരരരര |