।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०८०, शनिवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्ध‒चौथे श्‍लोकमें आये अर्जुनके प्रश्‍नके उत्तरमें भगवान्‌ने अपने जन्मकी दिव्यताका वर्णन आरम्भ किया था । अब अपनी ओरसे निष्काम-कर्म (कर्मयोग)-का तत्त्व बतानेके उद्‍देश्यसे अपने जन्मकी दिव्यताके साथ-साथ अपने कर्मकी दिव्यताको जाननेका भी माहात्म्य बताते हैं ।

सूक्ष्म विषय‒भगवान्‌के जन्म-कर्मकी दिव्यताको जाननेका माहात्म्य ।

      जन्म कर्म च  मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ ९ ॥

अर्थ‒हे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं । इस प्रकार (मेरे जन्म और कर्मको) जो मनुष्य तत्त्वसे जान लेता है अर्थात् दृढ़तापूर्वक मान लेता है, वह शरीरका त्याग करके पुनर्जन्मको प्राप्‍त नहीं होता, प्रत्युत मुझे प्राप्‍त होता है ।

अर्जुन = हे अर्जुन !

वेत्ति = जान लेता है अर्थात् दृढ़तापूर्वक मान लेता है,

मे = मेरे

सः = वह

जन्म = जन्म

देहम् = शरीरका

च = और

त्यक्त्वा = त्याग करके

कर्म = कर्म

पुनः, जन्म = पुनर्जन्मको

दिव्यम् = दिव्य हैं ।

, एति = प्राप्‍त नहीं होता, (प्रत्युत)

एवम् = इस प्रकार (मेरे जन्म और कर्मको)

माम् = मुझे

यः = जो मनुष्य

एति = प्राप्‍त होता है ।

तत्त्वतः = तत्त्वसे

 

व्याख्या‒‘जन्म कर्म च मे दिव्यम्’भगवान् जन्म-मृत्युसे सर्वथा अतीत‒अजन्मा और अविनाशी हैं । उनका मनुष्यरूपमें अवतार साधारण मनुष्योंकी तरह नहीं होता । वे कृपापूर्वक मात्र जीवोंका हित करनेके लिये स्वतन्त्रतापूर्वक मनुष्य आदिके रूपमें जन्म-धारणकी लीला करते हैं । उनका जन्म कर्मोंके परवश नहीं होता । वे अपनी इच्छासे ही शरीर धारण करते हैं

.(१) ‘निज इच्छाँ प्रभु अवतरइ (मानस ४ । २६)

   (२) बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार ।

       निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ॥

(मानस १ । १९२)

   (३) उद्धवजी भगवान्‌से कहते हैं‒

       त्वं  ब्रह्म  परमं  व्योम  पुरुषः  प्रकृते   परः ।

       अवतीर्णोऽसि भगवन् स्वेच्छोपात्तपृथग्वपुः ॥

(श्रीमद्भा ११ । ११ । २८)

‘आप प्रकृतिसे परे पुरुषोत्तम एवं चिदाकाशस्वरूप ब्रह्म हैं । फिर भी आपने स्वेच्छासे ही यह अलग शरीर धारण करके अवतार लिया है ।’

भगवान्‌का साकार विग्रह जीवोंके शरीरोंकी तरह हाड़-मांसका नहीं होता । जीवोंके शरीर तो पाप-पुण्यमय, अनित्य, रोगग्रस्त, लौकिक, विकारी, पांचभौतिक और रज-वीर्यसे उत्पन्‍न होनेवाले होते हैं, पर भगवान्‌के विग्रह पाप-पुण्यसे रहित, नित्य, अनामय, अलौकिक विकाररहित, परम दिव्य और प्रकट होनेवाले होते हैं । अन्य जीवोंकी अपेक्षा तो देवताओंके शरीर भी दिव्य होते हैं, पर भगवान्‌का शरीर उनसे भी अत्यन्त विलक्षण होता है, जिसका देवतालोग भी सदा ही दर्शन चाहते रहते हैं (गीता‒ग्यारहवें अध्यायका बावनवाँ श्‍लोक) ।

भगवान् जब श्रीराम तथा श्रीकृष्णके रूपमें इस पृथ्वीपर आये, तब वे माता कौसल्या और देवकीके गर्भसे उत्पन्‍न नहीं हुए । पहले उन्हें अपने शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी स्वरूपका दर्शन देकर फिर वे माताकी प्रार्थनापर बालरूपमें लीला करने लगे । भगवान् श्रीरामके लिये गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं‒

भए   प्रगट    कृपाला   दीनदयाला  कौसल्या  हितकारी ।

हरषित  महतारी  मुनि  मन हारी  अद्भुत रूप बिचारी ॥

लोचन अभिरामा  तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी ।

भूषन   बनमाला   नयन  बिसाला   सोभासिंधु   खरारी ॥

.......................................................................॥

माता  पुनि  बोली  सो मति डोली  तजहु तात यह रूपा ।

कीजै  सिसुलीला अति प्रियसीला  यह सुख परम अनूपा ॥

सुनि  बचन सुजाना  रोदन ठाना  होइ  बालक  सुरभूपा ।

भगवान् श्रीकृष्णके लिये आया है‒

उपसंहर विश्‍वात्मन्‍नदो रूपमलौकिकम् ।

शङ्‍खचक्रगदापद्मश्रिया जुष्‍टं चतुर्भुजम् ॥

(श्रीमद्भा १० । ३ । ३०)

माता देवकीने कहा‒‘विश्‍वात्मन् ! शंख, चक्र, गदा और पद्मकी शोभासे युक्त इस चार भुजाओंवाले अपने अलौकिक दिव्य रूपको अब छिपा लीजिये ! तब भगवान्‌ने माता-पिताके देखते-देखते अपनी मायासे तत्काल एक साधारण शिशुका रूप धारण कर लिया‒

पित्रोः सम्पश्यतोः सद्यो बभूव प्राकृतः शिशुः ।

(श्रीमद्भा १० । ३ । ४६)

जब भगवान् श्रीराम अपने धाम पधारने लगे, तब वे अन्तर्धान हुए । जीवोंके शरीरोंकी तरह उनका शरीर यहाँ नहीं रहा, प्रत्युत वे इसी शरीरसे अपने धाम चले गये‒

पितामहवचः श्रुत्वा विनिश्‍चित्य महामतिः ।

विवेश  वैष्णवं   तेजः  सशरीरः   सहानुजः ॥

(वाल्मीकिरामायण, उत्तर ११० । १२)

‘महामति भगवान् श्रीरामने पितामह ब्रह्माजीके वचन सुनकर और तदनुसार निश्‍चय करके तीनों भाइयोंसहित अपने उसी शरीरसे वैष्णव तेजमें प्रवेश किया ।’

भगवान् श्रीकृष्णके लिये भी ऐसी ही बात आयी है‒

लोकाभिरामां    स्वतनुं    धारणाध्यानमङ्गलम् ।

योगधारणयाऽऽग्‍नेय्यादग्ध्वा धामाविशत् स्वकम् ॥

(श्रीमद्भा ११ । ३१ । ६)

‘धारणा और ध्यानके लिये अति मंगलरूप अपनी लोकाभिरामा मोहिनी मूर्तिको योगधारणाजनित अग्‍निके द्वारा भस्म किये बिना ही भगवान्‌ने अपने धाममें सशरीर प्रवेश किया ।’

भगवान्‌के विग्रह (दिव्य शरीर)-के विषयमें महामुनि वाल्मीकिजी भगवान् श्रीरामसे कहते हैं‒

चिदानंदमय     देह    तुम्हारी ।

बिगत बिकार जान अधिकारी ॥

नर तनु धरेहु  संत  सुर  काजा ।

कहहु करहु जस  प्राकृत  राजा ॥

(मानस २ । १२७ । ३)

एक बार सनकादि ऋषि वैकुण्ठधाममें जा रहे थे । वहाँ भगवान्‌के द्वारपालोंने उन्हें भीतर जानेसे रोका, तब सनकादिने उन्हें शाप दे दिया । अपने अनुचरोंके द्वारा सनकादिका अपमान हुआ जानकर भगवान् स्वयं वहाँ पधारे । उस समय भगवान्‌का दर्शन करनेसे उनकी बड़ी विलक्षण दशा हुई । उन्होंने भगवान्‌के चरणोंमें प्रणाम किया‒

तस्यारविन्दनयनस्य   पदारविन्द-

किञ्‍जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायुः ।

अन्तर्गतः  स्वविवरेण  चकार तेषां

संक्षोभमक्षरजुषामपि चित्ततन्वोः ॥

(श्रीमद्भा ३ । १५ । ४३)

‘प्रणाम करनेपर उन कमलनेत्र भगवान्‌के चरणकमलके परागसे मिली हुई तुलसी-मंजरीकी वायुने उनके नासिका-छिद्रोंमें प्रवेश करके उन अक्षर परमात्मामें नित्य स्थित रहनेवाले ज्ञानी महात्माओंके भी चित्त और शरीरको क्षुब्ध कर दिया ।’

शब्दादि विषयोंमें गंध कोई इतनी विलक्षण चीज नहीं है, जिसमें मन आकृष्‍ट हो जाय । पर भगवान्‌के चरण-कमलोंकी गंधसे नित्य-निरन्तर परमात्म-स्वरूपमें मग्‍न रहनेवाले सनकादिकोंके चित्तमें भी खलबली पैदा हो गयी । कारण कि वह पृथ्वीकी विकाररूप गंध नहीं थी, प्रत्युत दिव्य गंध थी । ऐसे ही भगवान्‌के विग्रहकी प्रत्येक वस्तु (वस्‍त्र, आभूषण, आयुध आदि) दिव्य, चिन्मय और अत्यन्त विलक्षण है ।

भगवान्‌की लीलाओंको सुनने, पढ़ने, याद करने आदिसे लोगोंका अन्तःकरण निर्मल, पवित्र हो जाता है और उनका अज्ञान दूर हो जाता है‒यह भगवान्‌के कर्मोंकी दिव्यता है । ज्ञानस्वरूप भगवान् शंकर, ब्रह्माजी, सनकादिक ऋषि, देवर्षि नारद आदि भी उनकी लीलाओंको गाकर और सुनकर मग्‍न हो जाते हैं । भगवान्‌के अवतारके जो लीला-स्थल हैं, उन स्थानोंमें आस्तिकभावसे, श्रद्धा-प्रेमपूर्वक निवास करनेसे एवं उनका दर्शन करनेसे भी मनुष्यका कल्याण हो जाता है । तात्पर्य है कि भगवान् मात्र जीवोंका कल्याण करनेके उद्‍देश्यसे ही अवतार लेते हैं और लीलाएँ करते हैं; अतः उनकी लीलाओंको पढ़ने-सुननेसे, उनका मनन-चिन्तन करनेसे स्वाभाविक ही उस उद्‍देश्यकी सिद्धि हो जाती है ।

चौथे श्‍लोकमें अर्जुनने भगवान्‌से केवल उनके ‘जन्म’ के विषयमें पूछा था; परन्तु यहाँ भगवान्‌ने अर्जुनके पूछे बिना अपनी तरफसे ‘कर्म’ के विषयमें कहना आरम्भ कर दिया ! इसमें भगवान्‌का यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि जैसे मेरे कर्म दिव्य हैं, वैसे तुम्हारे कर्म भी दिव्य होने चाहिये । कारण कि मनुष्यका जन्म तो दिव्य नहीं हो सकता, पर उसके कर्म अवश्य दिव्य हो सकते हैं; क्योंकि उसीके लिये उसका जन्म हुआ है । कर्मोंमें दिव्यता (शुद्धि) योगसे आती है । जो कर्म बाँधनेवाले होते हैं, उनमें दिव्यता आनेसे वे ही कर्म मुक्ति देनेवाले हो जाते हैं । कर्म दिव्य (फलेच्छा, ममता-आसक्तिसे रहित) होनेपर कर्ता एक तो उन कर्मोंसे बँधता नहीं; दूसरे, वह पुराने कर्मोंसे भी नहीं बँधता‒मुक्त हो जाता है; और तीसरे, उसके द्वारा होनेवाले कर्मोंसे दूसरोंका भी हित स्वतः होता रहता है ।

गम्भीरतापूर्वक विचार करके देखें तो उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे ही कर्मोंमें मलिनता आती है और वे बाँधनेवाले होते हैं । विनाशीसे अपना सम्बन्ध माननेसे अन्तःकरण, कर्म और पदार्थ‒तीनों ही मलिन हो जाते हैं और विनाशीसे माना हुआ सम्बन्ध छूट जानेसे ये तीनों स्वतः पवित्र हो जाते हैं । अतः विनाशीसे माना हुआ सम्बन्ध ही मूल बाधा है ।

‘एवं यो वेत्ति तत्त्वतः’अजन्मा और अविनाशी होते हुए तथा प्राणिमात्रका ईश्‍वर होते हुए भी भगवान् मात्र जीवोंके हितके लिये अपनी प्रकृतिको अधीन करके स्वतन्त्रतापूर्वक युग-युगमें मनुष्य आदिके रूपमें अवतार लेते हैं‒इस तत्त्वको जानना अर्थात् दृढ़तापूर्वक मानना भगवान्‌के जन्मोंकी दिव्यताको जानना है ।

सम्पूर्ण क्रियाओंको करते हुए भी भगवान् अकर्ता ही हैं अर्थात् उनमें करनेका अभिमान नहीं है (गीता‒चौथे अध्यायका तेरहवाँ श्‍लोक) और किसी भी कर्मफलमें उनकी स्पृहा (फलेच्छा) नहीं है (गीता‒चौथे अध्यायका चौदहवाँ श्‍लोक)‒इस तत्त्वको जानना भगवान्‌के कर्मोंकी दिव्यताको जानना है ।

जैसे भगवान्‌के जन्ममें स्वाभाविक ही मात्र जीवोंकी हितैषिता और कर्ममें निर्लिप्‍तता है, ऐसे ही मनुष्यमें भी मात्र जीवोंकी हितैषिता और कर्ममें निर्लिप्‍तता आ जाना ही वास्तवमें भगवान्‌के जन्म और कर्मके तत्त्वको जानना है ।

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