Listen ‘त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म
नैति’‒भगवान्को
त्रिलोकीमें न तो कुछ करना शेष है और न कुछ पाना ही शेष है (गीता‒तीसरे अध्यायका बाईसवाँ
श्लोक) । फिर भी वे केवल जीवमात्रका उद्धार करनेके लिये कृपापूर्वक इस भूमण्डलपर अवतार
लेते हैं और तरह-तरहकी अलौकिक लीलाएँ करते हैं । उन लीलाओंको गानेसे, सुननेसे, पढ़नेसे और उनका चिन्तन करनेसे भगवान्के
साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है । भगवान्से सम्बन्ध जुड़नेपर संसारका सम्बन्ध छूट जाता है
। संसारका सम्बन्ध छूटनेपर पुनर्जन्म नहीं होता अर्थात् मनुष्य जन्म-मरणरूप बन्धनसे
मुक्त हो जाता है । वास्तवमें कर्म बन्धनकारक नहीं होते
। कर्मोंमें जो बाँधनेकी शक्ति है, वह केवल मनुष्यकी अपनी बनायी हुई (कामना) है । कामनाकी पूर्तिके लिये रागपूर्वक अपने लिये कर्म करनेसे ही मनुष्य
कर्मोंसे बँध जाता है । फिर ज्यों-ज्यों कामना बढ़ती है, त्यों-त्यों वह पापोंमें
प्रवृत्त होने लगता है । इस प्रकार उसके कर्म अत्यन्त मलिन हो जाते हैं, जिससे वह बारंबार नीच योनियों और नरकोंमें
गिरता रहता है । परन्तु जब वह केवल दूसरोंकी सेवाके लिये निष्कामभावपूर्वक कर्म करता
है,
तब उसके कर्मोंमें दिव्यता, विलक्षणता आती चली जाती है । इस प्रकार
कामनाका सर्वथा नाश होनेपर उसके कर्म दिव्य हो जाते हैं, अर्थात् बन्धनकारक नहीं
होते; फिर उसके पुनर्जन्मका प्रश्न ही नहीं रहता । ‘मामेति सोऽर्जुन’‒नाशवान् कर्मोंसे अपना सम्बन्ध माननेके
कारण नित्यप्राप्त परमात्मा भी अप्राप्त प्रतीत होते हैं । निष्कामभावपूर्वक केवल दूसरोंके हितके लिये सम्पूर्ण कर्म करनेसे
मात्र कर्मोंका प्रवाह केवल संसारकी तरफ हो जाता है और नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव
हो जाता है । जीवोंपर महान् कृपा ही भगवान्के
जन्ममें कारण है‒इस प्रकार भगवान्के जन्मकी दिव्यताको जाननेसे मनुष्यकी भगवान्में
भक्ति हो जाती है१ । १. उमा राम सुभाउ जेहि
जाना । ताहि भजनु तजि भाव न आना
॥ (मानस
५ । ३४ । २) भक्तिसे भगवान्की प्राप्ति हो जाती है । भगवान्के कर्मोंकी
दिव्यताको जाननेसे मनुष्यके कर्म भी दिव्य हो जाते हैं अर्थात् वे बन्धनकारक न होकर
खुदका और दूसरोंका कल्याण करनेवाले हो जाते हैं, जिससे संसारसे सम्बन्ध-विच्छेदपूर्वक
भगवान्की प्राप्ति हो जाती है । मार्मिक बात सम्पूर्ण कर्म आरम्भ और समाप्त होनेवाले
हैं (और कर्मके फलस्वरूप जो कुछ प्राप्त होता है, वह भी अनित्य और नाशवान् होता है); परन्तु स्वयं (जीवात्मा) नित्य-निरन्तर
रहनेवाला है । अतः वास्तवमें स्वयंका कर्मोंके साथ कोई सम्बन्ध है नहीं, प्रत्युत माना हुआ है । अतः सम्पूर्ण कर्मोंको करते हुए भी उनके साथ अपना सम्बन्ध है ही नहीं‒ऐसा
अनुभव करे तो उसके कर्म दिव्य हो जाते हैं‒यह कर्मोंका तत्त्व है । यही कर्मयोग है
! क्रियाशील प्रकृतिके साथ तादात्म्य
होनेके कारण मनुष्यमात्रमें कर्म करनेका वेग रहता है । वह क्षणमात्र भी कर्म किये बिना
नहीं रहता (गीता‒तीसरे अध्यायका पाँचवाँ श्लोक) । संसारमें वह देखता है कि कर्म करनेसे
ही सिद्धि (वस्तुकी प्राप्ति) होती है । इसी कारण वह परमात्माकी प्राप्ति भी कर्मोंके
द्वारा ही करना चाहता है; परन्तु यह उसकी महान् भूल है । कारण कि नाशवान् कर्मोंके द्वारा नाशवान् वस्तुकी ही प्राप्ति होती है, अविनाशीकी प्राप्ति नहीं
होती । अविनाशीकी
प्राप्ति तो कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ही होती है । कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद
कर्मयोगमें (ज्ञानयोगकी अपेक्षा भी) सरलतासे हो जाता है । कारण कि कर्मयोगमें स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒तीनों शरीरोंसे होनेवाले
सम्पूर्ण कर्म निष्कामभावपूर्वक केवल संसारके हितके लिये होनेसे कर्मोंका प्रवाह संसारकी
तरफ हो जाता है और अपना कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । यहाँ भगवान्ने ‘माम् एति’ पदोंसे यह भाव प्रकट किया है कि मनुष्य कर्मोंके
द्वारा जिसकी सिद्धि चाहता है, वह परमात्मतत्त्व स्वतःसिद्ध (नित्यप्राप्त) है । स्वतःसिद्ध वस्तुके लिये करना कैसा ? जो वस्तु प्राप्त है, उसे प्राप्त करना कैसा
? करनेसे तो उस वस्तुकी प्राप्ति होती है, जो पहले अप्राप्त थी । एक उत्पत्ति होती है और एक खोज होती
है । उत्पत्ति उसकी होती है, जिसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है; जिसका पहले अभाव है और बादमें जिसका
विनाश हो जाता है । खोज उसकी होती है, जिसकी स्वतन्त्र सत्ता है; जो पहलेसे विद्यमान है और
नित्य-निरन्तर रहता है; किन्तु जो क्रिया और पदार्थरूप संसारका महत्त्व मान लेनेसे
छिप गया है । जब मनुष्य क्रियाओं और पदार्थोंको केवल दूसरोंकी सेवामें लगा देता है, तब क्रिया-पदार्थरूप संसारसे स्वतः
सम्बन्ध-विच्छेद और नित्यप्राप्त परमात्माका साक्षात् अनुभव हो जाता है । यही नित्यप्राप्तकी
खोज है । कर्तव्य-कर्मोंको न करके
प्रमाद-आलस्य करना और कर्तव्य-कर्मोंको करके उनके फलकी इच्छा रखना‒इन दोनों कारणोंसे
मनुष्यको नित्यप्राप्त परमात्माके अनुभवमें बाधा लगती है । इस बाधाको दूर करनेका उपाय
है‒फलकी इच्छा न रखकर दूसरोंकी सेवाके रूपसे कर्तव्य-कर्म करना । फलकी इच्छा न रखकर कर्तव्य-कर्म करनेसे
कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होते ही परमात्मासे
हमारा जो स्वतःसिद्ध नित्य-सम्बन्ध है, उसका अनुभव हो जाता है । परिशिष्ट भाव‒निष्कामभावसे केवल दूसरोंके हितके
लिये कर्म (सेवा) करनेपर अथवा भगवान्के लिये कर्म (पूजा) करनेपर वे कर्म दिव्य, मुक्तिदायक
हो जाते हैं । परन्तु कामनापूर्वक अपने लिये किये गये कर्म मलिन, बन्धनकारक हो जाते हैं । कर्मोंमें कर्तृत्वका न
होना ही दिव्यता है । अपने लिये कुछ न करनेसे कर्तृत्व नहीं रहता । भगवान्की छोटी-से-छोटी तथा बड़ी-से-बड़ी
प्रत्येक क्रिया ‘लीला’ होती है । लीलामें भगवान् सामान्य मनुष्यों-जैसी क्रिया
करते हुए भी निर्लिप्त रहते हैं (गीता‒चौथे अध्यायका तेरहवाँ श्लोक) । भगवान्की
लीला दिव्य होती है । यह दिव्यता देवताओंकी दिव्यतासे भी विलक्षण होती है । देवताओंकी
दिव्यता मनुष्योंकी अपेक्षासे होनेके कारण सापेक्ष और सीमित होती है, पर भगवान्की दिव्यता निरपेक्ष और असीम
होती है । यद्यपि जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ, भगवत्प्रेमी महापुरुषोंकी क्रियाएँ भी दिव्य होती हैं, तथापि वे भी भगवल्लीलाके समान नहीं
होतीं । भगवान्की साधारण लीला भी अत्यन्त अलौकिक होती है । जैसे, भगवान्की रासलीला लौकिक
दीखती है, पर उसको पढ़ने-सुननेसे साधककी काम-वृत्तिका
नाश हो जाता है (श्रीमद्भा॰ दशम स्कन्ध, तैंतीसवाँ अध्याय, चालीसवाँ श्लोक) । यह जगत् भगवान्का आदि अवतार है‒‘आद्योऽवतारः पुरुषः परस्य’ (श्रीमद्भा॰ २ । ६ । ४१) । तात्पर्य है कि भगवान् ही जगत्-रूपसे
प्रकट हुए हैं । परन्तु जीवने भोगासक्तिके कारण जगत्को भगवद्रूपसे स्वीकार न करके नाशवान् जगत्-रूपसे ही धारण
कर रखा है‒‘जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) । इस धारणाको मिटानेके लिये साधकको दृढ़तासे ऐसा मानना चाहिये कि जो दीख रहा है, वह भगवान्का स्वरूप है
और जो हो रहा है, वह भगवान्की लीला है । ऐसा मानने
(स्वीकार करने)-पर जगत् जगत्-रूपसे नहीं रहेगा और ‘भगवान्के सिवाय कुछ नहीं है’‒इसका अनुभव हो जायगा । दूसरे शब्दोंमें, संसार लुप्त हो जायगा और केवल भगवान्
रह जायँगे । कारण कि प्रत्येक वस्तु तथा व्यक्तिको भगवान्का स्वरूप और प्रत्येक क्रियाको
भगवल्लीला माननेसे भोगासक्ति, राग-द्वेष नहीं रहेंगे । भोगासक्तिका नाश होनेपर जो क्रियाएँ
पहले लौकिक दीखती थीं, वही क्रियाएँ अलौकिक भगवल्लीलारूपसे दीखने लगेंगी और जहाँ
पहले भोगासक्ति थी, वहाँ भगवत्प्रेम हो जायगा । भगवान् जैसा रूप धारण करते हैं, उसीके अनुरूप लीला करते हैं२ । २.भगवान् श्रीकृष्ण उत्तंक ऋषिसे कहते हैं‒ धर्मसंरक्षणार्थाय धर्मसंस्थापनाय
च ॥ तैस्तैर्वेषैश्च रूपैश्च
त्रिषु लोकेषु भार्गव । (महाभारत, आश्व॰ ५४ । १३-१४) ‘मैं धर्मकी रक्षा और
स्थापनाके लिये तीनों लोकोंमें बहुत-सी योनियोंमें अवतार धारण करके उन-उन रूपों और
वेषोंद्वारा तदनुरूप बर्ताव करता हूँ ।’ यदा त्वहं देवयोनौ वर्तामि
भृगुनन्दन । तदाहं देववत् सर्वमाचरामि न संशयः ॥ यदा गन्धर्वयोनौ वा वर्तामि भृगुनन्दन । तदा गन्धर्ववत् सर्वमाचरामि न संशयः
॥ नागयोनौ यदा चैव
तदा वर्तामि नागवत् । यक्षराक्षसयोन्योस्तु यथावत्
विचराम्यहम् ॥ (महाभारत, आश्व॰ ५४ । १७-१९) ‘भृगुनन्दन ! जब मैं देवयोनियोंमें अवतार लेता हूँ, तब देवताओंकी ही भाँति
सारे आचार-विचारका पालन करता हूँ, इसमें संशय नहीं है ।’ ‘जब मैं गन्धर्वयोनिमें प्रकट होता हूँ, तब मेरे सारे आचार-विचार
गन्धर्वोंके ही समान होते हैं, इसमें सन्देह नहीं है
।’ ‘जब मैं नागयोनिमें जन्म
ग्रहण करता हूँ, तब नागोंकी तरह बर्ताव करता हूँ । यक्षों
और राक्षसोंकी योनियोंमें प्रकट होनेपर मैं उन्हींके आचार-विचारका यथावत्-रूपसे पालन
करता हूँ ।’ जब वे अर्चावतार अर्थात् मूर्तिका रूप धारण करते हैं, तब वे मूर्तिकी तरह ही अचल रहनेकी लीला
करते हैं । अगर वे अचल नहीं रहेंगे तो वह अर्चावतार कैसे रहेगा ? भगवान्ने राम, कृष्ण आदि रूप भी धारण किये और मत्स्य, कच्छप आदि रूप भी धारण किये । उन्होंने
जैसा रूप धारण किया, वैसी ही लीला की । जैसे, वराहावतारमें भगवान्ने सूअर बनकर लीला
की और वामनावतारमें ब्रह्मचारी ब्राह्मण बनकर लीला की । इससे साधकको यह समझना चाहिये कि अभी भी जो हो रहा है, वह सब भगवान्की लीला ही
हो रही है !
गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒अवतारकालमें भगवान् मनुष्योंके कल्याणके
लिये ही सब क्रियाएँ करते हैं । जन्म और कर्मसे सर्वथा रहित
होनेपर भी भगवान् अपनी प्रकृतिकी सहायतासे जन्म और कर्मकी लीला करते हुए दीखते हैं‒यह
भगवान्के जन्म और कर्मकी अलौकिकता है । साधक भी यदि अपरा प्रकृतिके अहम्के
साथ अपने तादात्म्यका त्याग कर दे तो कर्तृत्व-भोक्तृत्वसे रहित होनेपर उसके कर्म
भी दिव्य हो जायँगे । कर्मोंका अकर्म होना ही कर्मोंका दिव्य
होना है । यह दिव्यता कर्मयोगसे आती है । രരരരരരരരരര |