Listen ॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥ अथ चतुर्थोऽध्यायः अवतरणिका‒ श्रीभगवान्ने दूसरे अध्यायके उनतालीसवें
श्लोकमें अर्जुनसे कहा कि ज्ञानयोगमें अपने विवेकके अनुसार विचारपूर्वक चलनेसे जिस
समबुद्धिकी प्राप्ति होती है, उसीको तू कर्मयोगके विषयमें सुन अर्थात् कर्मयोगमें निष्कामभावपूर्वक
परहितार्थ कर्तव्य-कर्म करनेसे यह समबुद्धि कैसे प्राप्त होती है, इसे सुन‒‘एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रुणु ।’
फिर कर्मयोगका वर्णन करते हुए प्रसंगानुसार अर्जुनके प्रश्न करनेपर स्थितप्रज्ञके
लक्षण बताकर अध्यायका विषय समाप्त किया । तीसरे अध्यायके आरम्भमें अर्जुनने प्रश्न
किया कि आपके मतमें जब बुद्धि श्रेष्ठ मान्य है, तो फिर आप मुझे घोर कर्म (युद्ध)-में क्यों लगाते हैं ? इसके उत्तरमें भगवान्ने चौथे श्लोकसे
उनतीसवें श्लोकतक विविध प्रकारसे कर्तव्य-कर्म करनेकी आवश्यकताका प्रतिपादन करते
हुए सिद्ध किया कि कर्तव्य-कर्म करनेसे ही समबुद्धि प्राप्त होती है । फिर तीसवें
श्लोकमें भगवन्निष्ठाके अनुसार कर्तव्य-कर्म करनेकी विशेष विधि बतायी कि विवेकपूर्वक
सम्पूर्ण कर्मोंको मेरे अर्पण करके तथा निष्काम, निर्मम और निःसन्ताप होकर शास्त्रविहित
कर्तव्य-कर्मोंको
करना चाहिये । कर्तव्य-कर्म करनेकी इस विधिको ‘अपना मत’ कहते हुए भगवान्ने
इकतीसवें-बत्तीसवें श्लोकोंमें अन्वय और व्यतिरेक विधिसे अपने इस मतकी पुष्टि की
तथा पैंतीसवें श्लोकमें इस विधिके पालनपर विशेष जोर देते हुए कहा कि अपने कर्तव्यका
पालन करते हुए मरना भी श्रेयस्कर है‒‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः
।’ इसपर अर्जुनने छत्तीसवें श्लोकमें प्रश्न किया कि मनुष्य न चाहते हुए भी
किससे प्रेरित होकर पाप (अकर्तव्य) कर बैठता है ? इसके उत्तरमें भगवान्ने ‘काम’ अर्थात् कामनाको ही सारे पापों,
अनर्थोंका हेतु बताकर अन्तमें कामरूप शत्रुको मार डालनेकी आज्ञा दी । यद्यपि तीसरे अध्यायके सैंतीसवें श्लोकसे
भगवान् लगातार उपदेश दे रहे हैं, तथापि तैंतालीसवें श्लोकमें अर्जुनके प्रश्नका उत्तर
समाप्त होनेपर महर्षि वेदव्यासजी तीसरे अध्यायकी समाप्ति कर देते हैं और नया (चौथा) अध्याय आरम्भ कर देते हैं । इससे
ऐसा मालूम देता है कि अर्जुनके प्रश्नका उत्तर समाप्त होनेपर भगवान् कुछ समयके लिये
रुक जाते हैं; फिर दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें-अड़तालीसवें श्लोकोंसे जिस कर्मयोगका
विषय चल रहा था, उसीको चौथे अध्यायके पहले श्लोकमें ‘इमम्’
पदसे पुनः आरम्भ करते हैं । अतः चौथा अध्याय तीसरे अध्यायका ही परिशिष्ट माना जाता
है । कर्मयोगमें दो बातें मुख्य हैं‒१‒कर्तव्य-कर्मोंका आचरण और २‒कर्तव्य-कर्मोंके विषयमें विशेष जानकारी । अर्जुन
कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करना चाहते हैं, इसीलिये तीसरे अध्यायके आरम्भमें भगवान्से
कहते हैं कि आप मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं ? अतः तीसरे अध्यायमें तो भगवान् अनेक
प्रकारसे कर्तव्य-कर्मोंके आचरणकी आवश्यकतापर विशेष जोर देते हैं और साथ ही कर्मयोगको
समझनेकी तात्त्विक बातें भी कहते हैं; परन्तु इस चौथे अध्यायमें कर्मयोगकी तात्त्विक
बातोंको समझनेपर विशेष जोर देते हुए कर्तव्य-कर्मोंका पालन करना आवश्यक बताते हैं
। तात्पर्य यह है कि तीसरे और चौथे‒दोनों ही अध्यायोंमें उपर्युक्त दोनों बातें कही
गयी हैं; किन्तु तीसरे अध्यायमें कर्तव्य-कर्मोंके आचरणकी बात मुख्य है और चौथे
अध्यायमें कर्तव्य-कर्मोंके विषयमें समझ (जानकारी)-की बात मुख्य है‒‘तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्’ (४ । १६) । जो कर्मयोग अनादि होते हुए भी इस भूमण्डलपर
जाननेवाले विशेष पुरुषके न रहनेसे बहुत कालसे लुप्तप्राय हो गया था, उसी कर्मयोगका
वर्णन पुनः आरम्भ करते हुए भगवान् पहले तीन श्लोकोंमें कर्मयोगकी परम्परा बताकर उसकी
अनादिता सिद्ध करते हैं । प्रधान विषय‒१—१५ श्लोकतक‒कर्मयोगकी परम्परा और भगवान्के जन्मों तथा कर्मोंकी
दिव्यताका वर्णन ।
सूक्ष्म विषय‒ कर्मयोगकी परम्पराका वर्णन । श्रीभगवानुवाच इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् । विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्
॥१॥ अर्थ‒श्रीभगवान् बोले‒मैंने इस अविनाशी
योग (कर्मयोग)-को सूर्यसे कहा था । फिर सूर्यने (अपने पुत्र) वैवस्वत मनुसे कहा और
मनुने (अपने पुत्र) राजा इक्ष्वाकुसे कहा ।
व्याख्या‒‘इमं
विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्’‒भगवान्ने जिन सूर्य, मनु और इक्ष्वाकु राजाओंका उल्लेख किया
है,
वे सभी गृहस्थ थे और उन्होंने गृहस्थाश्रममें
रहते हुए ही कर्मयोगके द्वारा परमसिद्धि प्राप्त की थी; अतः यहाँके ‘इमम्, अव्ययम्, योगम्’ पदोंका तात्पर्य पूर्वप्रकरणके अनुसार
तथा राजपरम्पराके अनुसार ‘कर्मयोग’ लेना ही उचित प्रतीत होता है । यद्यपि पुराणोंमें और उपनिषदोंमें भी
कर्मयोगका वर्णन आता है, तथापि वह गीतामें वर्णित कर्मयोगके समान सांगोपांग और विस्तृत
नहीं है । गीतामें भगवान्ने विविध युक्तियोंसे कर्मयोगका
सरल और सांगोपांग विवेचन किया है । कर्मयोगका इतना विशद वर्णन पुराणों और उपनिषदोंमें
देखनेमें नहीं आता । भगवान् नित्य हैं और उनका अंश जीवात्मा
भी नित्य है तथा भगवान्के साथ जीवका सम्बन्ध भी नित्य है । अतः भगवत्प्राप्तिके सब
मार्ग (योगमार्ग, ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग आदि) भी नित्य हैं ।१ यहाँ ‘अव्ययम्’ पदसे भगवान् कर्मयोगकी नित्यताका
प्रतिपादन करते हैं । १.गीताके आठवें
अध्यायमें भगवान्ने शुक्ल और कृष्ण‒दोनों गतियोंको भी नित्य बताया है‒‘शुक्लकृष्णे
गती ह्येते जगतः शाश्वते मते’ (गीता ८ । २६) । परमात्माके साथ जीवका स्वतःसिद्ध सम्बन्ध (नित्ययोग) है । जैसे पतिव्रता स्त्रीको पतिकी
होनेके लिये करना कुछ नहीं पड़ता; क्योंकि वह पतिकी तो है ही, ऐसे ही साधकको
परमात्माका होनेके लिये करना कुछ नहीं है, वह तो परमात्माका है ही; परन्तु अनित्य क्रिया, पदार्थ, घटना आदिके साथ जब वह अपना
सम्बन्ध मान लेता है, तब उसे ‘नित्ययोग’ अर्थात् परमात्माके
साथ अपने नित्यसम्बन्धका अनुभव नहीं होता । अतः उस अनित्यके साथ माने हुए सम्बन्धको मिटानेके लिये
कर्मयोगी शरीर, इन्द्रियाँ,
मन,
बुद्धि आदि मिली हुई समस्त वस्तुओंको
संसारकी ही मानकर संसारकी सेवामें लगा देता है । वह मानता है कि जैसे धूलका छोटा-से-छोटा कण भी विशाल पृथ्वीका ही एक अंश
है,
ऐसे ही यह शरीर भी विशाल ब्रह्माण्डका
ही एक अंश है । ऐसा माननेसे ‘कर्म’ तो संसारके लिये होंगे, पर ‘योग’ (नित्ययोग) अपने लिये होगा अर्थात् नित्ययोगका
अनुभव हो जायगा । भगवान् ‘विवस्वते
प्रोक्तवान्’ पदोंसे साधकोंको मानो यह लक्ष्य कराते हैं कि जैसे सूर्य सदा चलते
ही रहते हैं अर्थात् कर्म करते ही रहते हैं और सबको प्रकाशित करनेपर भी स्वयं निर्लिप्त
रहते हैं, ऐसे
ही साधकोंको भी प्राप्त परिस्थितिके अनुसार अपने कर्तव्य-कर्मोंका पालन स्वयं करते रहना चाहिये (गीता‒तीसरे अध्यायका उन्नीसवाँ श्लोक) और दूसरोंको भी कर्मयोगकी शिक्षा देकर
लोकसंग्रह करते रहना चाहिये; पर स्वयं उनसे निर्लिप्त (निष्काम, निर्मम और अनासक्त) रहना चाहिये । सृष्टिमें सूर्य सबके आदि हैं । सृष्टिकी
रचनाके समय भी सूर्य जैसे पूर्वकल्पमें थे, वैसे ही प्रकट हुए‒‘सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्’ । उन (सबके आदि) सूर्यको भगवान्ने अविनाशी कर्मयोगका
उपदेश दिया । इससे सिद्ध हुआ कि भगवान् सबके आदिगुरु हैं और साथ ही कर्मयोग भी अनादि
है । भगवान् अर्जुनसे मानो यह कहते हैं कि मैं तुम्हें जो कर्मयोगकी बात बता रहा हूँ, वह कोई आजकी नयी बात नहीं है । जो योग
सृष्टिके आदिसे अर्थात् सदासे है, उसी योगकी बात मैं तुम्हें बता रहा हूँ । प्रश्न‒भगवान्ने सृष्टिके आदिकालमें सूर्यको कर्मयोगका उपदेश क्यों दिया
? उत्तर‒(१) सृष्टिके आरम्भमें भगवान्ने सूर्यको
ही कर्मयोगका वास्तविक अधिकारी जानकर उन्हें सर्वप्रथम इस योगका उपदेश दिया । (२) सृष्टिमें जो सर्वप्रथम उत्पन्न होता
है,
उसे ही उपदेश दिया जाता है; जैसे‒ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिमें प्रजाओंको
उपदेश दिया (गीता‒तीसरे अध्यायका दसवाँ श्लोक) । उपदेश देनेका
तात्पर्य है‒कर्तव्यका ज्ञान कराना । सृष्टिमें सर्वप्रथम सूर्यकी उत्पत्ति
हुई,
फिर सूर्यसे समस्त लोक उत्पन्न हुए
। सबको उत्पन्न करनेवाले२ सूर्यको सर्वप्रथम कर्मयोगका उपदेश
देनेका अभिप्राय उनसे उत्पन्न सम्पूर्ण सृष्टिको परम्परासे कर्मयोग सुलभ करा देना
था । २.शास्त्रोंमें सूर्यको ‘सविता’ कहा गया है, जिसका अर्थ है‒उत्पन्न करनेवाला ।
पाश्चात्त्य विज्ञान भी सूर्यको सम्पूर्ण सृष्टिका कारण मानता है । (३) सूर्य सम्पूर्ण जगत्के नेत्र हैं । उनसे ही सबको ज्ञान प्राप्त होता है एवं
उनके उदित होनेपर प्रायः समस्त प्राणी जाग्रत् हो जाते हैं और अपने-अपने कर्मोंमें
लग जाते हैं । सूर्यसे ही मनुष्योंमें कर्तव्य-परायणता आती है । सूर्यको सम्पूर्ण जगत्की आत्मा भी कहा गया है‒‘सूर्य
आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ।’३ अतः सूर्यको जो उपदेश प्राप्त होगा, वह सम्पूर्ण प्राणियोंको भी स्वतः प्राप्त
हो जायगा । इसलिये भगवान्ने सर्वप्रथम सूर्यको ही उपदेश दिया । ३.महाभारतमें सूर्यके प्रति कहा गया है‒ त्वं भानो जगतश्चक्षुस्त्वमात्मा
सर्वदेहिनाम् । त्वं योनिः सर्वभूतानां त्वमाचारः क्रियावताम् ॥ त्वं गतिः सर्वसाड्ख्यानां
योगिनां त्वं परायणम् । अनावृतार्गलद्वारं त्वं गतिस्त्वं मुमुक्षताम् ॥ त्वया संधार्यते लोकस्त्वया लोकः प्रकाश्यते
। त्वया पवित्रीक्रियते निर्व्याजं पाल्यते
त्वया ॥ (वनपर्व ३ । ३६‒३८) ‘सूर्यदेव ! आप सम्पूर्ण
जगत्के नेत्र तथा समस्त प्राणियोंकी
आत्मा हैं । आप ही सब जीवोंके उत्पत्ति-स्थान और कर्मानुष्ठानमें लगे हुए पुरूषोंके
सदाचार (के प्रेरक) हैं ।’ ‘सम्पूर्ण सांख्ययोगियोंके
प्राप्तव्य स्थान भी आप ही हैं । आप ही सब कर्मयोगियोंके आश्रय हैं । आप ही मोक्षके
उन्मुक्त द्वार हैं और आप ही मुमुक्षुओंकी गति हैं ।’ ‘आप ही सम्पूर्ण जगत्को
धारण करते हैं । आपसे ही यह लोक प्रकाशित होता है । आप ही इसे पवित्र करते हैं और आपके
ही द्वारा निःस्वार्थ भावसे इसका पालन किया जाता है ।’
वास्तवमें नारायणके रूपमें उपदेश देना
और सूर्यके रूपमें उपदेश ग्रहण करना जगन्नाट्यसूत्रधार भगवान्की एक लीला ही समझनी
चाहिये, जो
संसारके हितके लिये बहुत आवश्यक थी । जिस प्रकार अर्जुन महान् ज्ञानी नर-ऋषिके अवतार
थे;
परन्तु लोकसंग्रहके लिये उन्हें भी
उपदेश लेनेकी आवश्यकता हुई, ठीक उसी प्रकार भगवान्ने स्वयं
ज्ञानस्वरूप सूर्यको उपदेश दिया, जिसके फलस्वरूप संसारका
महान् उपकार हुआ है, हो रहा है और होता रहेगा । രരരരരരരരരര |