आजकी शुभ तिथी—भाद्रपद कृष्ण षष्ठी, सं. २०६७, मंगलवार
Kalyankari Pravachanआजकी शुभ तिथी—भाद्रपद कृष्ण तृतीया, सं. २०६७, शुक्रवार
Bhagavatprapti Sahaj Haiआजकी शुभ तिथी—भाद्रपद कृष्ण द्वितीया, सं. २०६७, गुरुवार
Bhagavatprapti Sahaj Haiआजकी शुभ तिथी—श्रावण पूर्णिमा, सं. २०६७, मंगलवार, रक्षाबंधन
Bhagavatprapti Sahaj Hai(गत् ब्लॉगसे आगेका)
केवल भोजन ही नहीं, गहना पहनें तो ठाकुरजीको अर्पण करके । ठाकुरजीका ही कपड़ा पहनें । सब चीजें प्रसादरूपमें ग्रहण करें तो सब चीजें पवित्र हो जाती हैं । आपने देखा है कि नहीं, ठाकुरजीके प्रसाद लगावें और वह बाँटें तो हरेक आदमी हाथ पसारेगा । छोटे-से-छोटा कणका दो तो वह राजी हो जायगा । लखपति हो चाहे करोड़पति हो, आपके सामने हाथ पसारेगा और प्रसादका आप छोटा-सा कणका दे दें, वह राजी हो जायगा । वह क्या मीठेका भूखा है ?
कोई लखपति, करोड़पति आपसे प्रसाद माँगे और अगर उसे आप कहें कि चलो बाजारमें मीठा दिलाऊँ आपको । तो वह नाराज हो जायगा । वह धनी आदमी कहेगा कि मिठाईका भूखा हूँ क्या मैं ? हमें प्रसाद चाहिये । प्रसादका कितना महत्त्व है बताओ ? ठाकुरजीका प्रसाद है । घरमें सब चीजें ठाकुरजीकी हैं ।
आप करें तो एक बात बतावें बहुत बढ़िया ! कृपा करके कर लें तो बहुत बढ़िया और फायदेकी बात है । घरमें जितना धन पड़ा है सबपर तुलसीदल रख दो । जितने गहने, कपड़े हैं सबपर तुलसीदल रख दो । घरपर भी धर दो । जितने भी गाय, भेड़, बकरी हैं, उनपर तुलसीदल रख दो । छोरा-छोरीपर भी धर दो । किनके बालक हैं ? ठाकुरजीके बालक हैं ।
एक चमत्कार है । आप कर सको तो बतावें, पर हृदयसे करो, जब होवे । छोरा उद्दण्ड है और कहना मानता नहीं । सच्चे हृदयसे अपनी ममता उठा लो कि मेरा है ही नहीं । केवल ठाकुरजीका ही है । छोरा बिलकुल सुधार जायगा । जैसे ठाकुरजीके भोग लगानेसे चीजें पवित्र हो जाती हैं । बड़े-बड़े पुरुष आदर करते हैं । ऐसे सच्चे हृदयसे अपनी ममता बिलकुल मिटाकर, केवल ठाकुरजीका मान लें तो वह शुद्ध हो जायगा, पवित्र हो जायगा । ऐसी बात करके देखो । शर्त यह है कि अपनी ममता बिलकुल उठा लें । जैसे मुसलमानोंका छोरा है, ऐसा ही यह छोरा है । मर जाय तो कोई असर नहीं हमारेपर । हमारा छोरा नहीं है अब मरा तो ठाकुरजीका । जब कि ठाकुरजीका मरता नहीं । यहाँ मर गया तो वहाँ जन्मा । ठाकुरजीसे बाहर होता ही नहीं । ऐसा करनेसे छोरा पवित्र हो जायगा । एकदम बात ठीक है । ममता ही मलिनता है । इसके कारण ही मलिन होता है । दान-पुण्य करते हैं तो इनके साथ अपना कोई सम्बन्ध नहीं मानें । “दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे” । (गीता १७/२०) ‘अनुपकारीणे’ का अर्थ यह नहीं कि कोई उपकार न कर दे हमारा । मानो पहले उपकार किया नहीं और आगे भी आशा नहीं है । ऐसेको दिया जाय, जिनसे अपना स्वार्थका सम्बन्ध न हो उनको दो चाहे घरवालोंके साथ स्वार्थका सम्बन्ध न रखो । एक ही बात रहेगी । टोटल एक हो आयेगा । चाहे तो अपनापन न हो, वहाँ सेवा करो अथवा जहाँ सेवा करो वहाँ अपनापन मिटा दो—एक ही बात होगी ।
भगवान्के हैं हम । भगवान्के दरबारमें रहते हैं । भगवान्का ही काम करते हैं । भगवान्के प्रसादसे भगवान्के जनोंकी सेवा करते हैं । मैं भी भगवान्का ही प्रसाद पाता हूँ—यह पञ्चामृत है असली । आजसे इस बातको पकड़ लो । “सर्वभावेन मां भजति” और सब भावोंसे भगवान्का ही भजन करें, तो भाव रखें कि ठाकुरजीका शरीर हैं । ठाकुरजीका काम करता हूँ मैं । तो ठाकुरजीपर एहसान कर सकते हैं कि महाराज ! आपका काम करता हूँ ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

पञ्चामृत-१
आप जहाँ रहते हैं, वहाँ अपने घरमें रहते हैं, अपने घरमें रहनेका माहात्म्य नहीं है, पर भगवान्के दरबारमें रहें तो बड़ा भारी माहात्म्य है । इस घरको तो आपने अपना माना है । पर यह घर पहलेसे भगवान्का ही था । अब भी है और पीछे भी भगवान्का ही रहेगा । मरोगे तो यह घर साथ थोड़े ही चलेगा । यह तो भगवान्का ही है । अतः आजसे आप मान लो कि भगवान्के घरमें रहते हैं । साक्षात् भगवान्के घरमें ही रहते हो । हरिद्वार आते हैं तो कहते हैं—ओहो ! हरकी पेड़ीयाँ हैं ये तो । वृन्दावन आ गये तो कहते हैं—भगवान्की लीलाभूमिमें हैं । अयोघ्यामें आ गये तो भगवान्के दरबारमें आ गये । भगवान्का दरबार मान लो, भगवान्का घर मान लो तो यही घर वृन्दावन हो गया । हरदम यही बात रहे कि हम तो भगवान्के घरमें ही रहते हैं और खास लाड़ले हैं हम तो भगवान्के । आजसे यह बात मान लो । अपने-अपने घरोंको अपना मत मानो । अरे ! भगवान्का ही घर है । अपना घर तो बीचमें माना है । पहले भगवान्का था और पीछे भी भगवान्का रहेगा । फिर बीचमें अपना कैसे हो गया ? छापा मारा मुफ्तमें ।
एक बातपर और ध्यान देना—जो भी काम करो, भगवान्का मानकर करो । खेती करो चाहे घरका काम-धन्धा करो, भोजन करो चाहे भजन करो, कपड़ा धोओ चाहे स्नान करो । शरीर भी भगवान्का है, तो भगवान्की सेवाके लिये इसका काम करते हैं । खाना-पीना भी भगवान्का काम है, काम-धन्धा भी भगवान्का ही करते हैं, सब संसारके मालिक भगवान् हैं तो सब शरीरोंके मालिक भी भगवान् हैं । तो शरीरोंका और संसारका काम किसका हुआ ? भगवान्का ही हुआ । कैसी मौजकी बात है ! भगवान्के दरबारमें रहते हैं और काम-धन्धा भी भगवान्का ही करते हैं—दो बात हुईं ।
अब तीसरी बात—घरमें जितनी चीजें हैं ये भी भगवान्की ही हैं । घर भगवान्का और आप भगवान्के तो चीजें किसी दूसरेकी हो सकती हैं क्या ? माताओं और बहिनोंको चाहिये कि उन भगवान्की चीजोंको लेकर रसोई बनावें । मनमें समझें कि ओहो ! मैं तो ठाकुरजीको भोग लगानेके लिये प्रसाद बना रहीं हूँ । ठाकुरजीको भोग लगावें । ठाकुरजीको भोग लगाकर घरके जितने लोग हैं, उनको ठाकुरजीके जन (पाहुने) समझकर प्रसाद जिमावें । उन्हें ऐसा माने कि ये सब ठाकुरजीके प्यारे जन हैं । ठाकुरजीके प्यारे लाड़ले बालक हैं । इनको भोजन करा रही हूँ । ठाकुरजीकी सेवा करा रही हूँ । जैसे किसी बच्चेको प्यार करे तो उसकी माता राजी हो जावे कि नहीं ? ऐसे ही भगवान्के बालकोंकी सेवा करें तो भगवान् राजी हो जावें । कैसी मौजकी बात है ! भगवान्की रसोई बनायी, भगवान्को भोग लगाया और भगवान्के ही बालकोंको भोग, प्रसाद जिमा दिया । अपने भी भोजन करें तो ठाकुरजीका प्रसाद समझते हुए भोजन करें । ठाकुरजीका प्रसाद है । कैसी मौजकी बात !
तुम्ही निबेदित भोजन करहीं ।
प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं ॥
(मानस २/१२८/१)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे
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विधियों-४
(गत् ब्लॉगसे आगेका)
संस्कृत भाषाका उच्चारणकरनेकी विधि
शब्दका जैसा रूप है, उसको बीचमेंसे तोडकर न पढ़े एवं लघु और गुरुका, विसर्गों और अनुस्वारोंका तथा श,ष, स का लक्ष्य रख कर पढ़े तो संस्कृत भाषाका उच्चारण शुद्ध हो जाता है ।
१—उच्चारणमें इ, उ, ऋ—इन तीन अक्षरोंके लघु और गुरुका ध्यान विशेष रखना चाहिये । क्योंकि अ और आ का उच्चारण-भेद तो स्पष्ट स्वतः ही हो जाता है और लृ का उच्चारण बहुत कम आता है तथा वह दीर्ध होता ही नहीं । ऐसे ही ए, ऐ, ओ, औ—ये अक्षर लघु होते ही नहीं ।
२—संयोगके आदिका, विसर्गोंके आदिका स्वर गुरु हो जाता है; क्योंकि संयोगका उच्चारण करनेसे पिछले स्वरपर जोर लगेगा ही तथा विसर्ग जो कि आधे ‘ह’ की तरह बोले जाते हैं, उनके उच्चारणसे भी स्वरपर जोर लगता ही है । जिससे पीछेवाला स्वर गुरु हो जाता है । व्यञ्जनोंका उच्चारण बिना स्वरके सुखपूर्वक होता ही नहीं और व्यञ्जनके आगे दूसरा व्यञ्जन आ जानेसे पीछेवाले स्वरके अधीन ही उसका उच्चारण रहेगा; इसलिये पीछेवाला स्वर गुरु होता है ।
३—अनुस्वार और विसर्ग किसी-न-किसी स्वरके ही आश्रित होते हैं; स्वरके बाद उच्चारित होनेसे ही उनकी अनुस्वार और विसर्ग संज्ञा होती है । अतः इनका उच्चारण करनेसे स्वाभाविक ही पिछला स्वर गुरु हो जाता है । यहाँ अनुस्वारके विषयमें यह ध्यान देनेकी बात है कि उसका उच्चारण आगेवाले व्यञ्जनके अनुरूप होता है अर्थात् आगेका व्यञ्जन जिस वर्णका होगा, उस वर्गके पञ्चम अक्षरके अनुस्वारका उच्चारण होगा । जैसे क, ख, ग, घ, ङ परे होनेपर अनुस्वरका उच्चारण ‘ङ्’ की तरह; च, छ, ज, झ, ञ परे होनेपर ‘ञ्’ की तरह; ट, ठ, ड, ढ, ण परे होनेपर ‘ण्’ की तरह; त, थ,द, ध, न परे होनेपर ‘न्’ की तरह; प, फ, ब, भ, म परे होनेपर ‘म्’ की तरह करना चाहिये । यह नियम केवल इन पचीस अक्षरोंके लिये ही है । य, र, ल, व, श, ष, स, ह—ये आठ अक्षर परे होनेपर शुद्ध अनुस्वरका ही उच्चारण करना ही चाहिये जो कि केवल नाशिकासे होता है ।
४—श, ष, स—इन तीनोंका उच्चारण-भेद समझते हुए इनको निम्नलिखित रीतिसे पढ़ना चाहिये । मूर्धासे ऊँचे तालुमें जीभ लगाकर ‘श’ का उच्चारण करनेसे तालव्य शकारका ठीक उच्चारण होगा तथा दाँतोंकी तरफ थोड़ा नीचे लगाकर ‘ष’ का उच्चारण करनेसे मूर्धन्य षकारका ठीक उच्चारण होगा एवं दोनों दाँतोंको मिलाकर ‘स’ का उच्चारण करनेसे स्वाभाविक ही जीभ दाँतोंके लगेगी, तब दन्त्य सकारका ठीक उच्चारण होगा ।
—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/GeetaDarpan/purvarth/ch97_250.htm

गीता-पाठकी
विधियों-३
(गत् ब्लॉगसे आगेका)
गीताका पाठ करनेके तीन प्रकार हैं—सृष्टिक्रम, संहारक्रम और स्थितिक्रम । गीताके पहले अध्यायके पहले श्लोकसे लेकर अठारहवें अध्यायके अन्तिम श्लोकतक सीधा पाठ करना अथवा प्रत्येक अध्यायके पहले श्लोकसे लेकर, उसी अध्यायके अन्तिम श्लोकतक सीधा पाठ करना ‘सृष्टिक्रम’ कहलाता है । अठारहवें अध्यायके अन्तिम श्लोकसे लेकर पहले अध्यायके पहले श्लोकतक उलटा पाठ करना अथवा प्रत्येक अध्यायके अन्तिम श्लोकसे लेकर उसी अध्यायके पहले श्लोकतक उलटा पाठ करना ‘संहारक्रम’ कहलाता है । छठे अध्यायके पहले श्लोकसे लेकर अठारहवें अध्यायके अन्तिम श्लोकतक सीधा पाठ करना और पाँचवें अध्यायके अन्तिम श्लोकसे लेकर पहले अध्यायके पहले श्लोकतक उलटा पाठ करना ‘स्थितिक्रम’ कहलाता है । ब्रह्मचारी सृष्टिक्रमसे, संन्यासी संहारक्रमसे और गृहस्थ स्थितिक्रमसे पाठ कर सकते हैं । परन्तु यह कोई नियम नहीं है । वास्तवमें किसी भी प्रकारसे गीताका पाठ किया जाय, उससे लाभ-ही-लाभ है ।
गीताका पाठ सम्पुटसे, सम्पुटवल्लीसे अथवा बिना सम्पुटके भी किया जाता है । गीताके जिस श्लोकका सम्पुट देना हो, पहले उस श्लोकका पाठ करके फिर अध्यायके एक श्लोकका पाठ करे । फिर सम्पुटके श्लोकका पाठ करके अध्यायके दूसरे श्लोकका पाठ करे । इस तरह सम्पुट लगाकर पूरी गीताका सीधा या उलटा पाठ करना ‘सम्पुट-पाठ’ कहलाता है । सम्पुटके श्लोकका दो बार पाठ करके फिर अध्यायके एक श्लोकका पाठ करे । फिर सम्पुटके श्लोकका दो बार पाठ करके अध्यायके दूसरे श्लोकका पाठ करे । इस तरह सम्पुट लगाकर पूरी गीताका सीधा या उलटा पाठ करना ‘सम्पुटवल्ली-पाठ’ कहलाता है । गीताके पूरे श्लोकोंका सम्पुट अथवा सम्पुटवल्लीसे पाठ करनेसे एक विलक्षण शक्ति आती है, गीताका विशेष मनन होता है, अन्तःकरण शुद्ध होता है, शान्ति मिलती है और परमात्माप्राप्तिकी योग्यता आ जाती है ।
सम्पुट न लगाकर पाठ करना ‘बिना सम्पुटका पाठ’ कहलाता है । मनुष्य प्रतिदिन बिना सम्पुटका अठारह अध्यायोंका पाठ करे अथवा नौ-नौ अध्याय करके दो दिनमें अथवा छः-छः अध्याय करके तीन दिनमें अथवा दो-दो अध्याय करके नौ दिनमें गीताका पाठ करे । यदि पंद्रह दिनमें गीताका पाठ पूरा करना हो तो प्रतिपदासे एकादशीतक एक-एक अध्यायका, द्वादाशीको बारहवें और तेरहवें अध्यायका, त्रयोदशीको चौदहवें और पन्द्रहवें अध्यायका, चतुर्दशीको सोलहवें और सत्रहवें अध्यायका तथा अमावस्या और पूर्णिमाको अठारहवें अध्यायका पाठ करे । किसी पक्षमें तिथि घटती हो, तो सातवें और आठवें अध्यायका एक साथ पाठ करे । इसी तरह किसी पक्षमें तिथि बढती हो, तो सोलहवें और सत्रहवें इन दोनों अध्यायोंका अलग-अलग दो दिनमें पाठ कर ले ।
यदि पूरी गीता कण्ठस्थ हो तो क्रमशः प्रत्येक अध्यायके पहले श्लोकका पाठ करते हुए पूरे अठारहों अध्यायोंके पहले श्लोकोंका पाठ करे । फिर क्रमशः अठारहों अध्यायोंके दूसरे श्लोकोंके पाठ करे । इस प्रकार पूरी गीताका सीधा पाठ करे । इसके बाद अठारहवें अध्यायका अन्तिम श्लोक, फिर सत्रहवें अध्यायका अन्तिम श्लोक—इस तरह प्रत्येक अध्यायके अन्तिम श्लोकका पाठ करे । फिर अठारहवें अध्यायका उपान्त्य (अन्तिम श्लोकके पीछेका) श्लोक, फिर सत्रहवें अध्यायका उपान्त्य श्लोक—इस तरह प्रत्येक अध्यायके उपान्त्य श्लोकका पाठ करे । इस प्रकार पूरी गीताका उलटा पाठ करे ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
गीता-पाठकी
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विधियाँ-२
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(गत् ब्लॉगसे आगेका)
शास्त्रमें आता है कि देवता होकर अर्थात् शुद्ध, पवित्र होकर देवताका पूजन, ग्रन्थका पठन-पाठन करना चाहिये—‘देवो भूत्वा यजेद्देवम्’ । वह देवतापन, शुद्धता, पवित्रता, दिव्यता आती है अपने अंगोमें मन्त्रोंकी स्थापना करनेसे । जिस मन्त्रका, जिस स्तोत्रका पाठ करना हो उसकी अपने अंगोमें स्थापना करनी चाहिये; उसकी स्थापन करनेका नाम ही ‘न्यास’ (करन्यास और हृदयादिन्यास) है ।
(१) ‘नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः इत्यङ्गुष्ठाभ्यां नमः’—ऐसा कहकर दोनों हाथोंके अङ्गुष्ठोंका परस्पर स्पर्श करे ।
(२) ‘न चैनं क्लेयन्तयापो न शोषयति मारुत इति तर्जनीभ्यां नमः’—ऐसा कहकर दोनों हाथोंकी तर्जनी अङ्गुलियोंका परस्पर स्पर्श कर ।
(३) ‘अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च इति मध्यमाभ्यां नमः’—ऐसा कहकर दोनों हाथोंकी मध्यमा अङ्गुलियोंका परस्पर स्पर्श करे ।
(४) ‘नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातन इत्यनामिकाभ्यां नमः’—ऐसा कहकर दोनों हाथोंकी अनामिका अङ्गुलियोंका परस्पर स्पर्श करे ।
(५) ‘पश्यमे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रश इति कनिष्ठिकाभ्यां नमः’—ऐसा कहकर दोनों हाथोंकी कनिष्ठिका अङ्गुलियोंका परस्पर स्पर्श कर ।
‘नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च इति करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः’—ऐसा कहकर दोनों हाथोंकी हथेलियों और उनके पृष्ठभागोंका स्पर्श करे ।
दाहिने हाथकी पाँचों अङ्गुलियोंसे क्रमशः मन्त्रोच्चारणपूर्वक हृदय आदिका स्पर्श करनेका नाम ‘हृदयादिन्यास’ है; जैसे—
(१) ‘नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक इति हृदयाय नमः’—ऐसा कहकर दाहिने हाथकी पाँचों अङ्गुलियोंसे हृदयका स्पर्श करे ।
(३) ‘अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च इति शिखायै वषट्’—ऐसा कहकर दाहिने हाथकी पाँचों अङ्गुलियोंसे शिखा-(चोटी-) का स्पर्श करे ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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मनुष्यका यह स्वाभाव है कि वह जब अति रुचिपूर्वक कोई कार्य करता है, तब वह उस कार्यमें तल्लीन, तत्पर, तत्स्वरूप हो जाता है । ऐसा स्वभाव होनेपर भी वह प्रकृति और उसके कार्य- (पदार्थ, भोगों-) के साथ अभिन्न नहीं हो सकता; क्योंकि वह इनसे सदासे ही भिन्न है । परन्तु परमात्माके नामका जप, परमात्माका चिन्तन, उसके सिद्धान्तोंका मनन आदिके साथ मनुष्य ज्यों-ज्यों अति रुचिपूर्वक सम्बन्ध जोड़ता है, त्यों-ही-त्यों वह इनके साथ अभिन्न हो जाता है, इनमें तल्लीन, तत्पर, तत्स्वरूप हो जाता है; क्योंकि वह परमात्माके साथ सदासे ही स्वतः अभिन्न है । अतः मनुष्य भगवच्चिन्तन करे; भगवद्विषयक ग्रन्थोंका पठन-पाठन करे; गीता, रामायण, भागवत आदि ग्रन्थोंका पाठ, स्वाध्याय करे तो अति रुचिपूर्वक तत्परतासे करे, तल्लीन होकर करे, उत्साहपूर्वक करे । यहाँ गीताका पाठ करनेकी विधि बतायी जाती है । गीताका पाठ करनेके लिये कुशका, ऊनका अथवा टाटका आसान बिछाकर उसपर पूर्व अथवा उत्तरकी ओर मुख करके बैठना चाहिये ।
गीता-पाठके आरम्भमें इन मन्त्रोंका उच्चारण करे—
इन मन्त्रोंकी व्याख्या इस प्रकार है—
श्रीमद्भगवद्गीतामें अनुष्टुप् छन्द ही ज्यादा हैं । इसका आरम्भ (धर्मक्षेत्रे.....) और अन्त (यत्र योगेश्वरः.....) तथा उपदेशका भी आरम्भ (अशोच्यानन्वशोचस्त्वं......) और अन्त (सर्वधर्मान्परित्यज्य......) अनुष्टुप छन्दमें ही हुआ है । अतः इसका छन्द अनुष्टुप् है—‘अनुष्टुप् छन्दः ।’
जो मनुष्यमात्रके परम प्रापणीय हैं, परम ध्येय हैं, वे परमात्मा श्रीकृष्ण इसके देवता (अधिपति) हैं—‘श्रीकृष्णः परमात्मा देवता ।’
मात्र उपदेश अज्ञानियोंको ही दिये जाते हैं और अज्ञानी ही उपदेशका अधिकारी होते हैं । अर्जुन भी बातें तो धर्मकी कर रहे थे, पर अपने कुटुम्बके मोहके कारण शोक कर रहे थे । जब वे शोकके कारण अपने कर्तव्य-कर्मरूप धर्मका निर्णय नहीं कर पाते, तब वे भगवान्की शरण हो जाते हैं । भगवान् अर्जुनका शोक दूर करनेके लिये उपदेशका आरम्भ करते हैं, जो गीताका बीज है—‘ अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे इति बीजम् ।’
भगवान्के शरण होना सम्पूर्ण साधनोंका, सम्पूर्ण उपदेशोंका सार है; क्योंकि भगवान्की शरण होनेके समान दूसरा कोई सुगम, श्रेष्ठ और शक्तिशाली साधन नहीं है । अतः सम्पूर्ण साधनोंका आश्रय छोडकर भगवान्के शरण हो जाना ही जीवकी सबसे बड़ी शक्ति, सामर्थ्य है—‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज इति शक्तिः ।’
भगवान्ने यह बात प्रणपूर्वक, प्रतिज्ञापूर्वक कही है कि जो मेरे शरण हो जायगा, उसको मैं सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, उसका मैं उद्धार कर दूँगा । भगवान्की यह प्रतिज्ञा कभी इधर-उधर नहीं हो सकती क्योंकि; यह कीलक है—‘अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच इति कीलकम् ।’
—इस प्रकार ‘ओम अस्य श्रीमद्भगवद्गीतामालामन्त्रस्य........ इति कीलकम्’ का उच्चारण करनेके बाद ‘न्यास’ (करन्यास और हृदयादिन्यास) करना चाहिये ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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श्रीमद्भगवद्गीताके जिस श्लोकको सिद्ध करना हो, उसका सम्पुट लगाकर पूरी गीताका पाठ करना चाहिये । जैसे, हमें ‘कार्पण्दोषोपहतस्वभावः......शाधि मां त्वां प्रपन्नम’ (२/७)—इस श्लोकको सिद्ध करना हो तो पहले इस श्लोकका एक बार पाठ करके फिर ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे ......’(१/१)—इस श्लोकका पाठ करें । फिर ‘कार्पण्दोषोपहतस्वभावः.....’ श्लोकका पुनः पाठ करके ‘दृष्ट्वा तु......’(१/२)—इस श्लोकका पाठ करें । इस तरह प्रत्येक श्लोकके पहले और पीछे सम्पुट लगाकर पूरी गीताका पाठ करें तो उपर्युक्त श्लोक (मन्त्र) सिद्ध हो जायगा ।
सम्पुटसे भी सम्पुटवल्ली लगाकर गीताका पाठ करना बहुत बढ़िया है * । जैसे, ‘कार्पण्दोषोपहतस्वभावः.......’ श्लोक सिद्ध करना हो तो पहले इस श्लोकका दो बार पाठ करके फिर ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे ......’ श्लोकका पाठ करें । फिर सम्पुटवल्लीवाले श्लोकका दो बार पाठ करके ‘दृष्ट्वा तु......’ श्लोकका पाठ करें । इस तरह पूरी गीताका पाठ करके अभीष्ट श्लोकको सिद्ध कर लें † ।
अभीष्ट कार्यकी सिद्धिके लिये उपर्युक्त प्रकारसे सिद्ध किये हुए मन्त्रका जप गंगाजीके जलमें खड़े होकर करना चाहिये । ऐसा न कर सकें तो गंगाजीके जलमें पत्थरोंका आसान बनाकर उसपर ऊनका आसान बिछाकर, बैठकर जप करना चाहिये । यह भी न कर सकें तो गंगाजीके किनारेपर बालूमें अपना ऊनी आसान बिछाकर मन्त्रका जप करना चाहिये । अगर गंगाजीका सान्निध्य उपलब्ध न हो तो अपने घरमें ही किसी एकान्त कमरेमें गोबर और गौमूत्रको पानीमें मिलाकर आसान लगानेके स्थानपर लीप दें और उसपर अपना ऊनी आसान बिछाकर, बैठकर मन्त्रका जप करें ।
गीतोक्त सिद्ध मन्त्रोंका निम्नलिखित कार्योंमें प्रयोग किया जा सकता है—
अगर एक रातमें ऐसा स्वप्न न आये तो जबतक स्वप्न न आये, तबतक उपर्युक्त विधिसे प्रतिदिन रातमें श्लोकका पाठ करते रहें । ग्यारह अथवा इक्कीस दिनतक पाठ किया जा सकता है । इसमें जितनी तेज लगन होगी, उतना ही जल्दी काम होगा ।
......(२) मनमें दो बातोंकी उलझन हो और उनका समाधान पाना हो तो उपर्युक्त विधिसे ही ‘व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे । तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥’ (३/२)—इस श्लोकाका पाठ करना चाहिये ।
......(३) भूत-प्रेतकी बाधाको दूर करना हो तो ‘स्थाने हृषिकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च । रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः ॥’ (११/३६)—इस मन्त्रको पहले कही गयी विधिसे सिद्ध कर लेना चाहिये । फिर जिस व्यक्तिको भूत-प्रेतने पकड़ा है, उसको इस मन्त्रका पाठ करते हुए मोरपंखसे झाडा दें अथवा अपने हाथमें शुद्ध जलसे भरा हुआ लोटा ले लें और इस मन्त्रको बोलकर जलमें फूँक मारते रहें, फिर वह जल उस व्यक्तिको पीला दें । इन दोनों प्रयोगोमें इस मन्त्रका सात, इक्कीस या एक सौ आठ बार पाठ कर सकते हैं । इस मन्त्रको भोजपत्र या सफ़ेद कागजपर अनारकी कलमसे अष्टगन्धसे लिखें और ताबीजमें डालकर रोगीके गलेमें लाल धागेसे पहना दें ।
......(४) शास्त्रार्थ, वाद-विवादमें विजय पानेके लिये ‘यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः । तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥’ (१८/७८)—इस मन्त्रका जप करना चाहिये ।
......(५) सब जगह भगवद्भाव करनेके लिये सातवें अध्यायके सातवें अथवा उन्नीसवें श्लोकका पाठ करना चाहिये ।
......(६) भगवान्की भक्ति प्राप्त करनेके लिये नवें अध्यायका चौंतीसवाँ, ग्यारहवें अध्यायका चौवनवाँ अथवा पचपनवाँ, बारहवें अध्यायका आठवाँ और अठारावें अध्यायका छाछाठवाँ —इनमेंसे किसी एक श्लोकका पाठ करना चाहिये ।
इस तरह जिस कार्यके लिये जो श्लोक ठीक मालूम दे, उसीका पाठ करते रहें तो कार्य सिद्ध हो जायगा । अगर वह श्लोक अर्जुनका हो तो अपनेमें अर्जुनका भाव लाकर भगवान्से प्रार्थना करें; और भगवान्का श्लोक हो तो ‘भगवान् मेरेसे कह रहे हैं’—ऐसा भाव रखते हुए पाठ करें । गीताके श्लोकोंपर जितना अधिक श्रद्धा-विश्वास होगा, उतना ही जल्दी काम सिद्ध होगा ।
टिप्पणी—
..........† मन्त्रको किसी कारणसे सिद्ध न कर सकें और अभीष्ट कार्य सिद्ध करनेकी तीव्र उत्कण्ठा हो तो बिना सिद्ध किये मन्त्रका जप करनेसे भी कार्य सिद्ध हो सकता है ।
—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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यह सबका अनुभव है कि ‘मैं वही हूँ’, जो बचपनमें था । अवस्था बदल गयी, समय बदल गया, संयोग बदल गया, साथी बदल गये, भाव बदल गये; परन्तु आप बदले हो क्या ? आप नहीं बदले । ऐसे ही सब संसार बदलता है, पर परमात्मा नहीं बदलते । हम उस परमात्माके अंश हैं, संसारके अंश नहीं हैं । संसारके अंश शरीरको तो हमने (‘मैं’ और ‘मेरा’ मानकर) पकड़ा है । वास्तवमें वह हमारा नहीं है, प्रत्युत संसारका है ।
‘हूँ’ तो ‘है’ से कमजोर ही है । कारण कि ‘हूँ’ शरीरको लेकर (एकदेशीय) है और शरीर कमजोर है ही । शरीर तो नहीं रहेगा, पर ‘है’ तो रहेगा ही । ‘है’ (परमात्मा) समुद्र है और ‘हूँ’ उसकी तरंग है । तरंग शान्त होनेपर भी समुद्र तो रहता ही है । अतः हमारा स्वरूप ‘है’ से अभिन्न है—इस बातको आप मान लो । समझमें न आये, तो भी मान लो । इतनी बात मान लो कि मैं उसका हूँ । ऐसा मानकर जप करो, कीर्तन करो, स्वाध्याय करो, सत्संग करो । ‘हूँ’ का ‘है’ ही है ।
‘हूँ’ बदलता है और ‘है’ नहीं बदलता—यही मैं कहना चाहता हूँ । यह सार बात है । सनकादि ऋषियोंका भी यही ज्ञान है । ब्रह्मा आदिका भी यही ज्ञान है । व्यासजी महाराजका भी यही ज्ञान है । शुकदेवजीका भी यही ज्ञान है । जितने सन्त-महात्मा हुए हैं, उनका भी यही ज्ञान है । इस ज्ञानसे आगे कुछ है ही नहीं । कैवल्य ज्ञान भी इसके सिवाय और कुछ नहीं है । किसी मत-मतान्तरमें इससे बढ़कर कोई चीज है नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं । इतनी सरल और इतनी ऊँची बात है । इसको हरेक भाई-बहन, साधारण पढ़ा-लिखा भी समझ सकता है, इतनी सीधी बात है ! इससे बड़ी बात आपको कहीं भी नहीं मिलेगी । ऐसा इसलिये कहता हूँ कि आप इसका आदर करें, इसको महत्त्व दें कि ऐसी ऊँची बात आज मिल गयी ! उपनिषदोंमें आता है कि बहुत-से आदमियोंको तो ऐसी बात सुननेको भी नहीं मिलती—‘श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः’ (कठोपनिषद १/२७) । उम्र बीत जाती है और सुननेको नहीं मिलती ।
अब आपको एक और बात बताऊँ कि अभी आपकी जैसी मान्यता है, ऐसी मान्यता आगे न रहे तो कोई बात नहीं आप घबराना नहीं कि हमें यह बात हरदम याद नहीं रहती । आपको अपना नाम हरदम याद रहता है क्या ? हरदम याद न रहनेपर भी जब देखो, तब दीखता है कि मैं अमुक नामवाला हूँ । इसी तरह यह बात हरदम भले ही याद न रहे, पर विचार करते ही यह चट याद आ जायगी कि बात तो ऐसी ही है । इससे सिद्ध होता है कि यह बात मिटी नहीं है, इसकी भूली नहीं हुई है । इसकी भूली तब मानी जाय, जब आप इस बातको रद्दी कर दो, यह कहो कि मैं इस नामवाला नहीं हूँ । अतः बीचमें यह बात याद न आनेपर भी इसकी भूली नहीं हुई है, नहीं हुई है, नहीं हुई है । इस बातको रद्दी करो तो बात दूसरी है, नहीं तो आठ पहरमें एक बार भी याद नहीं आये, तो भी बात ज्यों-की-त्यों ही रहेगी । ‘है’ कैसे मिट जायगा ? इतनी ऊँची, इतनी बढ़िया, इतनी पक्की बात है ! मान लो तो बेड़ा पार है ।
नारायण ! नारायण ! नारायण !
—‘कल्याणकारी प्रवचन’ पुस्तकसे
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नित्ययोग-२
(गत् ब्लॉगसे आगेका)
एक विशेष बात है, आपलोग ध्यान देकर सुनें । बात गहरी है, पर मैं बड़ी सरलतासे बताता हूँ । ‘मैं हूँ’—इसका अनुभव सबको है । मैं हूँ कि नहीं हूँ—इसमें कभी सन्देह होता है क्या ? इसमें क्या किसीकी गवाही लेनी पड़ती है ? किसीको पूछना पड़ता है कि बताओ मैं हूँ कि नहीं हूँ ? ‘मैं हूँ’—यह अनुभव स्वाभाविक तथा स्वतन्त्रतासे है । मैं कैसा हूँ, क्या हूँ—यह चाहे हम न जानें, पर ‘मैं हूँ’—इस अपने होनेपनमें कभी हमें संदेह नहीं होता । इससे सिद्ध हुआ कि मैं अनेक जन्मोंमें था, इस जन्ममें भी हूँ और आगे भी रहूँगा । अभी जागनेमें, सोनेमें, स्वप्नमें भी मैं निरन्तर हूँ । बचपनसे लेकर अभीतक बीचमें कभी मैं नहीं रहा, किसी समय मैं नहीं था—ऐसी बात हुई है क्या ? अपनी सत्ता नित्य-निरन्तर अनुभवमें आती है कि ‘मैं हूँ’ । यह एकदम सबके अनुभवकी बात है । इस नित्य-निरन्तर रहनेवाली हमारी सत्तामें कभी कमी नहीं आती । कमी आये बिना हमारे भीतर कामना कैसे हो सकती है ? हमारे भीतर कामना तभी होती है, जब हम उत्पत्ति-विनाशवाले शरीरको अपने साथ मान लेते हैं । जब शरीर, पदार्थ, परिवार आदिको अपने साथ मान लेते हैं; तब उनमें कमी आनेसे हमारे भीतर कामना होती है । अतः शरीर, परिवार, धन-सम्पत्ति, वैभव आदिको अपने साथ न मानें; क्योंकि ये सब तो बदलनेवाले हैं और मैं निरन्तर रहनेवाला हूँ ! बालकपन, जवानी, बुढ़ापा, रोग-अवस्था, निरोग-अवस्था—ये सब अवस्थाएँ बदलती रहती हैं, पर मैं सदा ज्यों-का-त्यों रहता हूँ ।
शरीर बदलनेके साथ आप अपना बदलना भी मान लेते है, पर वास्तवमें आप बदलते नहीं हैं । आपके बचपनका अभाव हो गया; तो आपका अभाव भी हो गया क्या ? जैसे ‘मैं हूँ’—इसका कभी अभाव नहीं होता, ऐसे ही भगवान्का कभी अभाव नहीं होता । वे सदासे हैं और सदा रहेंगे । सन्तोंके, शास्त्रोंके कहनेसे पता लगता है कि ‘सदा’ तो मिट जायगा, पर भगवान् रहेंगे । कारण कि ‘सदा’ नाम कालका है और भगवान् कालको भी खा जाते हैं—
ब्रह्म-अगनि तन बीचमें, मथकर काढ़े कोय ।
उलट कालको खात है, हरिया गुरगन होय ।।
नवग्रह चौंसठ जोगनी, बावन वीर पर्जन्त ।
काल भक्ष सबको करे, हरि शरणे डरपन्त ।।
‘मैं हूँ’—इसमें ‘हूँ’-पना शरीरको लेकर है । यदि शरीरसे सम्बन्ध न रहे तो ‘है’-पना ही रहेगा ‘तू है’, ‘यह है’, ‘वह है’ और ‘मैं हूँ’—इन चारोंके सिवाय कुछ है ही नहीं । इनके सिवाय पाँचवाँ कोई हो तो बताओ ? इन चारोंमें केवल ‘मैं’ के साथ ही ‘हूँ’ आया है, बाकी तीनोंके साथ ‘है’ आया है । ‘मैं’ लगानेसे ही ‘हूँ’ हुआ है—‘अस्मद्युत्तमः’ । यदि ‘मैं’ को साथमें नहीं लगायें तो ‘है’ ही रहेगा । इस ‘है’ में कभी कमी नहीं आती । कारण कि सत्में कभी अभाव नहीं होता—‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६) वह नित्य-निरन्तर रहता है । उस नित्य-निरन्तर रहनेवाले परमात्मतत्त्वमें ही मैं हूँ—केवल इतनी बात आप मान लो । इसके सिवाय और आपको कुछ नहीं करना है ।
यह एक बड़ा भारी वहम है कि करनेसे ही परमात्मप्राप्ति होगी । अतः भजन करो, जप करो, सत्संग करो, स्वाध्याय करो, ध्यान करो, समाधी लगाओ । इस प्रकार करनेपर ही बड़ा भारी जोर है । बातोंसे कुछ नहीं होगा, करनेसे होगा—यह धारणा रोम-रोममें बैठी हुई है । परन्तु मैं इससे विलक्षण बात कहता हूँ कि ‘है’ रूपसे जो सर्वत्र परिपूर्ण सत्ता है, जिसमें कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता, उसीमें ही मैं हूँ । ‘मैं’ और वह ‘है’ एक ही है । जब ऐसा ठीक तरहसे जान लिया तो फिर क्या करना रहा ? क्या जानना रहा ? क्या पाना रहा ? मैं नित्य-निरन्तर परमात्मामें हूँ—यही असली शरण है । उस सर्वत्र परिपूर्ण ‘है’-(परमात्मतत्त्व-) से अलग कोई हो ही नहीं सकता । उस ‘है’ की ही प्राप्ति करनी है, ‘नहीं’ की प्राप्ति नहीं करनी है । ‘नहीं’ की प्राप्ति होगी तो अन्तमें ‘नहीं’ ही रहेगा । जो नहीं है वह प्राप्त होनेपर भी रहेगा कैसे ? इसलिये ‘है’ की ही प्राप्ति करनी है, और उस ‘है’ की प्राप्ति नित्य-निरन्तर है । हम उसमें हैं और वह हमारेमें है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘कल्याणकारी प्रवचन’ पुस्तकसे