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।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
श्रावण कृष्ण चतुर्थीवि.सं.२०७१बुधवार
देवता कौन ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)
 प्रश्न‒क्या देवोपासना सबके लिये आवश्यक है ?

उत्तर‒जैसे प्राणिमात्रको ईश्वरका स्वरूप मानकर आदर-सत्कार करना चाहियेऐसे ही देवताओंको ईश्वरका स्वरूप मानकर उनकी तिथिके अनुसार उनका पूजन करना गृहस्थ और वानप्रस्थके लिये आवश्यक है । परन्तु उनका पूजन कोई भी कामना न रखकरकेवल भगवान् और शास्त्रकी आज्ञा मानकर ही किया जाना चाहिये ।

प्रश्न‒देवोपासना करनेसे क्या लाभ है ?

उत्तर‒निष्कामभावसे देवताओंका पूजन करनेसे अन्तःकरणकी शुद्धि होती है और वे देवता यज्ञ (कर्तव्यकर्म) की सामग्री भी देते हैं । उस सामग्रीका सदुपयोग करके मनुष्य मनोऽभिलषित वस्तुकी प्राप्ति कर सकते हैं ।[*]

प्रश्न‒क्या देवोपासना करनेसे मुक्ति हो सकती है ?

उत्तर‒देवताओंको भगवान्‌का स्वरूप समझकर निष्कामभावसे उपासना करनेसे मुक्ति हो सकती है । मृत्यु-लोकमें भी पुत्र माता-पिताकोपत्नी पतिको ईश्वर मानकर उनकी निष्कामभावसे सेवा करे तो भगवत्प्राप्ति हो सकती है । यदि सम्पूर्ण प्राणियोंमें ईश्वरभाव करके निष्कामभावसे केवल भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे उनकी सेवाआदरपूजन किया जाय तो उससे भी भगवत्प्राप्ति हो सकती है ।

अगर सकामभावसे देवोपासना की जाय तो उससे मुक्ति नहीं होगी । हाँ, देवोपासनासे कामनाओंकी पूर्ति हो जायगी और उसका अधिक-से-अधिक यह फल होगा कि उन देवताओंके लोकोंकी प्राप्ति हो जायगी‒‘यान्ति देवव्रता देवान् (गीता ९ । २५) ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे

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[*] काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
                                                   क्षिप्रं हि मानुषे लोके  सिद्धिर्भवति  कर्मजा ॥
                                                                                                 (गीता ४ । १२)

‘कर्मोंकी सिद्धि (फल) चाहनेवाले मनुष्य देवताओंकी उपासना किया करते हैंक्योंकि इस मनुष्यलोकमें कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाली सिद्धि जल्दी मिल जाती है ।’

   †  यतः  प्रवृत्तिर्भूतानां    येन  सर्वमिदं  ततम् ।
         स्वकर्मणा तमभर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
                                                                                                 (गीता १८ । ४६)

             ‘जिस परमात्मासे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त हैउस परमात्माका अपने कर्मके द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त हो जाता है ।’


।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
श्रावण कृष्ण तृतीयावि.सं.२०७१मंगलवार
देवता कौन ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)
 मनु और शतरूपा तप कर रहे थे तो ब्रह्माण्डके ब्रह्मा,विष्णु और महेश कई बार उनके पास आयेपर उन्होंने अपना तप नहीं छोड़ा । अन्तमें जब परब्रह्म परमात्मा उनके पास आयेतब उन्होंने अपना तप छोड़ा और उनसे वरदान माँगा ।

वास्तवमें भगवान्‌का सच्चिदानन्दमयरूप और देवरूप-दोनों एक ही हैं । मनु-शतरूपा भगवान्‌के सच्चिदानन्दमयरूप (महाविष्णु) को देखना चाहते थे,इसलिये भगवान् उनके सामने उसी रूपसे आयेअन्यथा ब्रह्माण्डके विष्णु तथा महाविष्णुमें कोई भेद नहीं है । अवतारके समय भी भगवान् सबको सच्चिदानन्दमयरूपसे अर्थात् भगवत्स्वरूपसे नहीं दीखते‒‘नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः’ (गीता ७ । २५) । अर्जुनको भगवान् जैसे दीखते थेवैसे दुर्योधनको नहीं दीखते थे । परशुरामको भगवान् राम पहले राजकुमारके रूपमें दीखते थेपीछे भगवत्स्वरूपसे दीखने लगे ! तात्पर्य है कि भगवान् एक होते हुए भी दूसरेके भावके अनुसार अलग-अलग रूपसे प्रकट होते हैं ।

प्रश्न‒भक्तोंके सामने भगवान् किस रूपसे आते हैं ?

उत्तर‒सामान्य भक्त (आर्तजिज्ञासुअर्थार्थी आदि) के सामने भगवान् देवरूपसे आते हैं और विशेष भक्ति- (अनन्यभाव-) वाले भक्तके सामने भगवान् सच्चिदानन्दमय (महाविष्णु आदि) रूपसे आते हैं । परंतु भक्त उन दोनों रूपोंको अलग-अलग नहीं जान सकता । यदि भगवान् जना देंतभी वह जान सकता है ।

वास्तवमें देखा जाय तो दोनों रूपोंमें तत्त्वसे कोई भेद नहीं हैकेवल अधिकारमें भेद है । भगवान् देवरूपमें सीमित शक्तिसे प्रकट होते हैं और सच्चिदानन्दमयरूपमें असीम शक्तिसे ।

प्रश्न‒यज्ञ आदि करनेसे देवताओंकी पुष्टि होती है और यज्ञ आदि न करनेसे वे क्षीण हो जाते हैं‒इसका तात्पर्य क्या है ?

उत्तर‒जैसे वृक्षलता आदिमें स्वाभाविक ही फल-फूल लगते हैंपरन्तु यदि उनको खाद और पानी दिया जाय तो उनमें फल-फूल विशेषतासे लगते हैं । ऐसे ही शास्त्रविधिके अनुसार देवताओंके लिये यज्ञादि अनुष्ठान करनेसे देवताओंको खुराक मिलती हैजिससे वे पुष्ट होते हैं और उनको बल मिलता हैसुख मिलता है । परंतु यज्ञ आदि न करनेसे उनको विशेष बलशक्ति नहीं मिलती ।

यज्ञ आदि न करनेसे मर्त्यदेवताओंकी शक्ति तो क्षीण होती ही हैआजानदेवताओमें जो कार्य करनेकी क्षमता होती हैउसमें भी कमी आ जाती है । उस कमीके कारण ही संसारमें अनावृष्टिअतिवृष्टि आदि उपद्रव होने लगते हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे


।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
श्रावण कृष्ण द्वितीयावि.सं.२०७१सोमवार
श्रावण सोमवार-व्रत
देवता कौन ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)
 प्रश्न‒देवता और भगवान्‌के शरीरमें क्या अन्तर है ?

उत्तर‒देवताओंका शरीर भौतिक और भगवान्‌का अवतारी शरीर चिन्मय होता है । भगवान्‌का शरीर सत्-चित्-आनन्दमयनित्य रहनेवालाअलौकिक और अत्यन्त दिव्य होता है । अतः देवता भी भगवान्‌को देखनेके लिये लालायित रहते हैं ( गीता ११ । ५२) ।

प्रश्न‒देवलोक और भगवान्‌के लोकमें क्या अन्तर है ?

उत्तर‒देवलोक क्षय होनेवालाअवधिवाला और कर्म-साध्य है । परन्तु भगवान्‌का लोक (धाम) अक्षय,अवधिरहित और भगवकृपासाध्य है ।

प्रश्न‒मनुष्य स्वर्ग पानेकी और देवता मर्त्यलोकमें मनुष्यजन्म पानेकी अभिलाषा क्यों करते हैं ?

उत्तर‒मनुष्य सुख-भोगके लिये ही स्वर्गलोककी इच्छा करते हैं । मनुष्य-शरीरसे सब अधिकार प्राप्त होते हैं । मोक्षस्वर्ग आदि भी मनुष्य-शरीरसे ही प्राप्त होते हैं । देवता भोगयोनि हैं । वे नया कर्म नहीं कर सकते । अतः वे नया कर्म करके ऊँचा उठनेके लिये मर्त्यलोकमें मनुष्यजन्म चाहते हैं । जैसे राजस्थानके लोग धन कमानेके लिये दूसरे नगरोंमें तथा विदेशमें जाते हैंऐसे ही देवता ऊँचा पद प्राप्त करनेके लिये मृत्युलोकमें आना चाहते हैं ।

प्रश्न‒मनुष्यजन्म देवताओंको भी दुर्लभ क्यों है ?

उत्तर‒मनुष्यशरीरमें नये कर्म करनेकानयी उन्नति करनेका अधिकार है । इसमें मुक्तिज्ञानवैराग्यभक्ति आदि सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है । परंतु देवता भोगपरायण रहते हैं और केवल पुण्यकर्मोंका फल भोगते हैं । उनको नये कर्म करनेका अधिकार नहीं है । अतः मनुष्यशरीर देवताओंको भी दुर्लभ है ।

प्रश्न‒भगवान्‌के दर्शन करनेपर भी देवता मुक्त क्यों नहीं होते ?

उत्तर‒मुक्ति भावके अधीन है, क्रियाके अधीन नहीं । देवता केवल भोग भोगनेके लिये ही स्वर्गादि लोकोंमें गये हैं । अतः भोगपरायणताके कारण उनमें मुक्तिकी इच्छा नहीं होती । इसके सिवा देवलोकमें मुक्तिका अधिकार भी नहीं है ।

भगवान्‌के दो रूप होते हैं‒सच्चिदानन्दमयरूप और देवरूप । प्रत्येक ब्रह्माण्डके जो अलग-अलग ब्रह्माविष्णु और महेश होते हैंवह भगवान्‌का देवरूप है और जो सबका मालिकसर्वोपरि परब्रह्म परमात्मा हैवह भगवान्‌का सच्चिदानन्दमयरूप है । इस सच्चिदानन्दमय-रूपको ही शास्त्रोंमें महाविष्णु आदि नामोंसे कहा गया है । भगवान्‌को भक्तिके वशमें होकर भक्तोंके सामने तो सच्चिदानन्दमयरूपसे प्रकट होना पड़ता हैपर देवताओंके सामने वे देवरूपसे ही प्रकट होते हैं । कारण कि देवता केवल अपनी रक्षाके लिये ही भगवान्‌को पुकारते हैंमुक्त होनेके लिये नहीं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे


।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
श्रावण कृष्ण प्रतिपदावि.सं.२०७१रविवार
देवता कौन ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)
 प्रश्न‒ये अधिष्ठातृदेवता क्या काम करते हैं ?

उत्तर‒ये अपने अधीन वस्तुकी रक्षा करते हैं । जैसे,कुएँका भी अधिष्ठातृदेवता होता है । यदि कुआँ चलानेसे पहले उसके अधिष्ठातृदेवताका पूजन किया जायउसको प्रणाम किया जाय अथवा उसका नाम लिया जाय तो वह कुएँकी विशेष रक्षा करता है, कुएँके कारण कोई नुकसान नहीं होने देता । ऐसे ही वृक्ष आदिका भी अधिष्ठातृदेवता होता है । रात्रिमें किसी वृक्षके नीचे रहना पड़े तो उसके अधिष्ठातृदेवतासे प्रार्थना करें कि ‘हे वृक्षदेवता ! मैं आपकी शरणमें हूँआप मेरी रक्षा करें’ तो रात्रिमें रक्षा होती है ।

जंगलमें शौच जाना हो तो वहाँपर ‘उत्तम भूमि मध्यम काया, उठो देव मैं जंगल आया’ऐसा बोलकर शौच जाना चाहियेनहीं तो वहाँ रहनेवाले देवता तथा भूत-प्रेत कुपित होकर हमारा अनिष्ट कर सकते हैं ।

वर्तमानमें अधिष्ठातृदेवताओंका पूजन उठ जानेसे जगह-जगह तरह-तरहके उपद्रव हो रहे हैं ।

प्रश्न‒भूतप्रेतपिशाच आदिको भी देवयोनि क्यों कहा गया है ? जैसे‒‘विद्याधराप्सरोयक्षरक्षोगन्धर्व- किन्नराः । पिशाचो गुह्यकः सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः ॥’ (अमरकोष १ । १ । ११)

उत्तर‒हमलोगोंके शरीरोंकी अपेक्षा उनका शरीर दिव्य होनेसे उनको भी देवयोनि कहा गया है । उनका शरीर वायुतत्त्वप्रधान होता है । जैसे वायु कहीं भी नहीं अटकती,ऐसे ही उनका शरीर कहीं भी नहीं अटकता । उनके शरीरमें वायुसे भी अधिक विलक्षणता होती है । घरके किवाड़ बंद करनेपर वायु तो भीतर नहीं आतीपर भूत-प्रेत भीतर आ सकते हैं । तात्पर्य है कि पृथ्वीतत्त्वप्रधान मनुष्यशरीरकी अपेक्षा ही भूत-प्रेत आदिको देवयोनि कहा गया है ।

प्रश्न‒मातापिता आदिको देवता क्यों कहा गया है;जैसे ‘मातृदेवो भव’ आदि ?

उत्तर‒‘मातृदेवो भव’ आदिमें ‘देव’ नाम परमात्माका है । अतः मातापिता आदिको साक्षात् ईश्वर मानकर निष्कामभावसे उनका पूजन करनेसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है ।

प्रश्न‒देवताओंको कौन-से रोग होते हैंजिनका इलाज अश्विनीकुमार करते हैं ?

उत्तर‒हमारे शरीरमें जैसे रोग (व्याधि) होते हैंवैसे रोग देवताओंको नहीं होते । देवताओंको चिन्ताभयईर्ष्या,जलन आदि मानसिक रोग (आधि) होते हैं और उन्हींका इलाज अश्विनीकुमार करते हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे



।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ पूर्णिमा, वि.सं.२०७१, शनिवार
गुरुपूर्णिमा, श्रीव्यासपूजा
देवता कौन ?



मनुष्योंके पृथ्वीतत्त्वप्रधान शरीरोंकी अपेक्षा देवताओंके शरीर तेजस्तत्त्वप्रधान, दिव्य और शुद्ध होते हैं । मनुष्योंके शरीरोंसे मल, मूत्र, पसीना आदि पैदा होते हैं । अतः जैसे हमलोगोंको मैलेसे भरे हुए सूअरसे दुर्गन्ध आती है, ऐसे ही देवताओंको हमारे (मनुष्योंके) शरीरोंसे दुर्गन्ध आती है । देवताओंके शरीरोंसे सुगन्ध आती है । उनके शरीरोंकी छाया नहीं पड़ती । उनकी पलकें नहीं गिरतीं । वे एक क्षणमें बहुत दूर जा सकते हैं और जहाँ चाहें, वहाँ प्रकट हो सकते हैं । इस दिव्यताके कारण ही उनको देवता कहते हैं ।

बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र और दो अश्विनीकुमारये तैंतीस कोटि (तैंतीस प्रकारके) देवता सम्पूर्ण देवताओंमें मुख्य माने जाते हैं । उनके सिवाय मरुद्गण, गन्धर्व, अप्सराएँ आदि भी देवलोकवासी होनेसे देवता कहलाते हैं ।

देवता तीन तरहके होते हैं

(१) आजानदेवताजो महासर्गसे महाप्रलयतक (एक कल्पतक) देवलोकमें रहते हैं, वे आजानदेवता’ कहलाते हैं । ये देवलोकके बड़े अधिकारी होते हैं । उनके भी दो भेद होते हैं

(क) ईश्वरकोटिके देवताशिव, शक्ति, गणेश, सूर्य और विष्णुयें पाँचों ईश्वर भी हैं और देवता भी । इन पाँचोंके अलग-अलग सम्प्रदाय चलते हैं । शिवजीके शैव, शक्तिके शाक्त, गणपतिके गाणपत, सूर्यके सौर और विष्णुके वैष्णव कहलाते हैं । इन पाँचोंमें एक ईश्वर होता है तो अन्य चार देवता होते हैं । वास्तवमें ये पाँचों ईश्वरकोटिके ही हैं ।

(ख) साधारण देवताइन्द्र, वरुण, मरुत्, रुद्र, आदित्य, वसु आदि सब साधारण देवता हैं ।

(२) मर्त्यदेवताजो मनुष्य मृत्युलोकमें यज्ञ आदि करके स्वर्गादि लोकोंको प्राप्त करते हैं, वे मर्त्यदेवताकहलाते हैं । ये अपने पुण्योंके बलपर वहाँ रहते हैं और पुण्य क्षीण होनेपर फिर मृत्युलोकमें लौट आते हैं
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोक विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।
                                (गीता ९ । २१)

(३) अधिष्ठातृदेवतासृष्टिकी प्रत्येक वस्तुका एक मालिक होता है, जिसे अधिष्ठातृदेवता’ कहते हैं । नक्षत्र, तिथि, वार, महीना, वर्ष, युग, चन्द्र, सूर्य, समुद्र, पृथ्वी, जल, वायु, तेज, आकाश, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सृष्टिकी मुख्य-मुख्य वस्तुओंके अधिष्ठातृदेवता आजानदेवता’ बनते हैं । और कुआँ, वृक्ष आदि साधारण वस्तुओंके अधिष्ठातृदेवतामर्त्यदेवता (जीव) बनते हैं ।

प्रश्नजीवोंको अधिष्ठातृदेवता कौन बनाता है ?

उत्तरभगवान्ने ब्रह्माजीको सृष्टि-रचनाका अधिकार दिया है, अतः ब्रह्माजीके बनाये हुए नियमके अनुसार अधिष्ठातृदेवता स्वतः बनते रहते हैं । जैसे यहाँ किसीको किसी पदपर नियुक्त करते हैं तो उसको उस पदके अनुसार सीमित अधिकार दिया जाता है, ऐसे ही पुण्योंके फलस्वरूप जो जीव अधिष्ठातृदेवता बनते हैं, उनको उस विषयमें सीमित अधिकार मिलता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे


।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ शुक्ल तृतीयावि.सं.२०७१सोमवार
मुक्तिका उपाय



(गत ब्लॉगसे आगेका)
 वसिष्ठजीके द्वारा इस प्रकार समझाये जानेपर सोमशर्मा अपनी स्त्री सुमनाके साथ बड़ी तत्परतासे भगवान्‌के भजनमें लग गये । उठतेबैठतेचलतेसोते आदि सब समयमें उनकी दृष्टि भगवान्‌की तरफ ही रहने लगी । बड़े-बड़े विघ्न आनेपर भी वे अपने साधनसे विचलित नहीं हुए । इस प्रकार उनकी लगनको देखकर भगवान् उनके सामने प्रकट हो गये । भगवान्‌के वरदानसे उनको मनुष्यलोकके उत्तम भोगोंकी और भगवद्भक्त तथा धर्मात्मा पुत्रकी प्राप्ति हो गयी ।

सोमशर्माके पुत्रका नाम सुव्रत था । सुब्रत बचपनसे ही भगवान्‌का अनन्य भक्त था । खेल खेलते समय भी उसका मन भगवान् विष्णुके ध्यानमें लगा रहता था । जब माता सुमना उससे कहती कि ‘बेटा ! तुझे भूख लगी होगीकुछ खा ले’ तब वह कहता कि ‘माँ भगवान्‌का ध्यान महान् अमृतके समान हैमैं तो उसीसे तृप्त रहता हूँ !’ जब उसके सामने मिठाई आती तो वह उसको भगवान्‌के ही अर्पण कर देता और कहता कि ‘इस अन्नसे भगवान् तृप्त हों ।’ जब वह सोने लगतातब भगवान्‌का चिन्तन करते हुए कहता कि ‘मैं योगनिद्रापरायण भगवान् कृष्णकी शरण लेता हूँ ।’ इस प्रकार भोजन करतेवस्त्र पहनतेबैठते और सोते समय भी वह भगवान्‌के चिन्तनमें लगा रहता और सब वस्तुओंको भगवान्‌के अर्पण करता रहता । युवावस्था आनेपर भी वह भोगोंमें आसक्त नहीं हुआप्रत्युत भोगोंका त्याग-करके सर्वथा भगवान्‌के भजनमें ही लग गया । उसकी ऐसी भक्तिसे प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु उसके सामने प्रकट हो गये । भगवान्‌ने उससे वर माँगनेके लिये कहा तो वह बोला‒‘श्रीकृष्ण ! अगर आप मेरेपर प्रसन्न हैं तो मेरे माता-पिताको सशरीर अपने परम-धाममें पहुँचा दें और मेरे साथ मेरी पत्नीको भी अपने लोकमें ले चलें ।’ भगवान्‌ने सुब्रतकी भक्तिसे संतुष्ट होकर उसको उत्तम वरदान दे दिया । इस प्रकार पुत्रकी भक्तिके प्रभावसे सोमशर्मा और सुमना भी भगवद्धामको प्राप्त हो गये ।

इस कथामें विशेष बात यह आयी है कि संसारमें किसीका ऋण चुकानेके लिये और किसीसे ऋण वसूल करनेके लिये ही जन्म होता हैक्योंकि जीवने अनेक लोगोंसे लिया है और अनेक लोगोंको दिया है । लेन-देनका यह व्यवहार अनेक जन्मोंसे चला आ रहा है और इसको बंद किये बिना जन्म-मरणसे छुटकारा नहीं मिल सकता ।

संसारमें जिनसे हमारा सम्बन्ध होता है वे माता,पितास्त्रीपुत्र तथा पशु-पक्षी आदि सब लेन-देनके लिये ही आये हैं । अतः मनुष्यको चाहिये कि वह उनमें मोह-ममता न करके अपने कर्तव्यका पालन करे अर्थात् उनकी सेवा करे,उन्हें यथाशक्ति सुख पहुँचाये । यहाँ यह शंका हो सकती है कि अगर हम दूसरेके साथ शत्रुताका बर्ताव करते हैं तो इसका दोष हमें क्यों लगता हैक्योंकि हम तो ऐसा व्यवहार पूर्वजन्मके ऋणानुबन्धसे ही करते हैं इसका समाधान यह है कि मनुष्य-शरीर विवेकप्रधान है । अतः अपने विवेकको महत्त्व देकर हमारे साथ बुरा व्यवहार करनेवालेको हम माफ कर सकते हैं और बदलेमें उससे अच्छा व्यवहार कर सकते हैं* । मनुष्य-शरीर बदला लेनेके लिये नहीं हैप्रत्युत जन्म-मरणसे सदाके लिये मुक्त होनेके लिये है । अगर हम पूर्वजन्मके ऋणानुबन्धसे लेन-देनका व्यवहार करते रहेंगे तो हम कभी जन्म-मरणसे मुक्त हो ही नहीं सकेंगे । लेन-देनके इस व्यवहारको बंद करनेका उपाय है‒निःस्वार्थभावसे दूसरोंके हितके लिये कर्म करना । दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे पुराना ऋण समाप्त हो जाता है और बदलेमें कुछ न चाहनेसे नया ऋण उत्पन्न नहीं होता । इस प्रकार ऋणसे मुक्त होनेपर मनुष्य जन्म-मरणसे छूट जाता है ।

अगर मनुष्य भक्त सुब्रतकी तरह सब प्रकारसे भगवान्‌के ही भजनमें लग जाय तो उसके सभी ऋण समाप्त हो जाते हैं अर्थात् वह किसीका भी ऋणी नहीं रहता ।भगवद्धजनके प्रभावसे वह सभी ऋणोंसे मुक्त होकर सदाके लिये जन्म-मरणके चक्रसे छूट जाता है और भगवान्‌के परमधामको प्राप्त हो जाता है ।

नारायण !     नारायण !!   नारायण !!!
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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* देवर्षिभूताप्तनृणां पितॄणां न किङ्करो नायमृणी च राजन् ।
     सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं   गतो  मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम् ॥
                                                                        (श्रीमद्भा ११। ५। ४१)

 उमा संत कइ इहइ बड़ाई । मंद करत जो करइ भलाई ॥
                                                                                                      (मानस ५ । ४१ । ४)