।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
वैशाख कृष्ण अष्टमी, वि.सं.२०७३, शनिवार
मुक्तिका सुगम उपाय


(गत ब्लॉगसे आगेका)
हमारेको संसारसे कुछ लेना ही नहीं है । जीये तो भी आनन्द है, मर जायँ तो भी आनन्द है । कोई खिलाना चाहे तो खा लें, सुनना चाहे तो सुना दें और मिलना चाहे तो मिल लें । अपना काम कोई है ही नहीं । खानेमें इतना ध्यान रखना है कि वह वस्तु शास्त्रविरुद्ध और शरीरविरुद्ध (कुपथ्य) न हो । कोई न खिलाये अथवा कम खिलाये या ज्यादा खिलाये तो उसकी मरजी । अपनी कोई चिन्ता नहीं । कोई कहे कि हम सुनना नहीं चाहते, चुप हो जाओ तो चुप हो जायँ । कोई मिलना नहीं चाहे तो हमारेको मिलना है ही नहीं ।

एक सन्त थे । उनको एक आदमीने निमन्त्रण दिया कि महाराज, कल आप हमारे यहाँ भिक्षा लें । सन्तने कहा‒अच्छी बात है । दूसरे दिन सन्त उसके घर पहुँचे । वहाँ खड़े एक दूसरे आदमीने देखा तो बोला कि कैसे आये यहाँपर ? निकल जाओ, नहीं तो मारेंगे ! सन्त चले गये । दूसरे दिन वह आदमी पुनः उनके पास गया और बोला कि महाराज, कल आप आये नहीं ? सन्त बोले कि भाई, आया तो था, पर वहाँ खड़े एक आदमीने कह दिया कि चले जाओ तो वापिस आ गया । वह बोला कि महाराज, कल आप जरूर पधारो । दूसरे दिन फिर वे सन्त गये । उनको देखकर वहाँ खड़ा आदमी फिर बोला कि तेरेको शर्म नहीं आती ? कल कहा था न कि मत आना, फिर आ गया ! शर्म है ही नहीं । जाओ, निकलो यहाँसे ! सन्त वापिस चले आये । दूसरे दिन फिर उसने जाकर कहा कि महाराज, कल पधारे नहीं ? वे बोले कि भाई, आया तो था । वहाँ ना मिल गयी तो चला गया । वह बोला कि महाराज, मैं वहाँ था नहीं, मेरेसे बड़ी भूल हुई, कृपा करके कल आप जरूर पधारो । वे सन्त फिर गये । उस आदमीने बड़ा सम्मान किया और बोला कि महाराज, आपने आकर बड़ी कृपा की ! भोजन कीजिये । भोजन करानेके बाद वह बोला कि महाराज, आप बहुत बड़े सन्त हो ! आपका कितना तिरस्कार हुआ, फिर भी आप आ गये ! वे सन्त बोले‒इसमें बड़प्पन क्या है ? कुत्तेको भी तु-तु करो, पुचकारो तो वह आ जाता है और दुत्कारो तो वह चला जाता है । यह बात तो कुत्तेकी है, मनुष्यकी थोड़े ही है ! ऐसा भाव हमारेमें भी होना चाहिये ।

कोई सुनना चाहे तो सुना दें । वह बोले कि क्यों बकता है, चुप रह तो चुप रह जायँ । वह बोले कि रामायण सुनाओ, गीता सुनाओ तो जो जानते हैं, वह सुना दें । वह बोले कि बाइबिल सुनाओ, कुरान शरीफ सुनाओ तो कह दें कि भाई, यह हमें आता नहीं, कैसे सुनायें ? ऐसे ही कोई मिलना चाहे तो मिल लें । कोई मिलना नहीं चाहे तो बड़ी अच्छी बात है, आनन्दसे बैठे रहें । ऐसा करनेमें क्या कठिनता है ? इसमें कोई तपस्या नहीं करनी पड़ती, कहीं जाना नहीं पड़ता, कोई पढ़ाई नहीं करनी पड़ती, कोई शास्त्र नहीं पढ़ना पड़ता, कोई गुरु नहीं बनाना पड़ता, कोई दीक्षा नहीं लेनी पड़ती । दूसरा जैसे राजी हो, वैसे कर दिया । हमारी न खानेकी मरजी है, न सुनानेकी मरजी है, न मिलनेकी मरजी है । कोई खिलाना चाहे तो खा लिया, सुनना चाहे तो सुना दिया और मिलना चाहे तो मिल लिया । कितनी सुगम बात है ! इसमें हमारा क्या खर्च हुआ ?

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे
 
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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
वैशाख कृष्ण सप्तमी, वि.सं.२०७३, शुक्रवार
मुक्तिका सुगम उपाय



प्रभु-कृपासे जो यह मनुष्यजन्म मिला है, इसको हमें सफल करना है । अगर पशुओंकी तरह खाने-पीने, सोने-जागने आदिमें ही समय बरबाद कर दिया तो मनुष्यजन्म सफल नहीं हुआ । मनुष्यजन्म तभी सफल होगा, जब भगवान्‌का भजन किया जाय । भजनके बिना मनुष्य मुर्देकी तरह है‒‘रामदास कहे जीव जगतमें मुर्दा-सा फिरता !’ केवल प्राणोंके चलनेसे ही जीना नहीं होता । लुहारकी धौंकनी भी फू-फा, फू-फा करती है, पर वह जीना नहीं कहलाता । अतः केवल श्वास लेने-छोड़नेसे हमारा जीना सिद्ध नहीं होगा । जीना तभी सिद्ध होगा, जब हम मनुष्यके योग्य काम करें । चाहे मनुष्य कहो, चाहे भगवत्प्राप्तिका अधिकारी कहो, एक ही बात है । भगवत्प्राप्ति मनुष्यजन्ममें ही हो सकती है और बड़ी सुगमतासे हो सकती है ।

हम सब साक्षात् भगवान्‌के अंश हैं । भगवान् स्वयं कहते हैं‒‘ममैवाशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७), ‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए’ (मानस, उत्तर ८६ । २) । हम सब भगवान्‌के ही उत्पन्न किये हुए उनके प्यारे अंश हैं । ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है, जो भगवान्‌का प्यारा न हो । हमें यहाँ भगवान्‌ने ही जन्म दिया है । कोई भी व्यक्ति यह नहीं बता सकता कि मैंने अपनी मरजीसे यहाँ जन्म लिया है । पालन-पोषण भी भगवान् ही करते हैं । रक्षा भी भगवान् ही करते हैं । किसीमें यह कहनेकी हिम्मत नहीं है कि मैं इतने वर्ष ही जीऊँगा, इतने वर्ष ही यहाँ रहूँगा । तात्पर्य है कि हम भगवान्‌की मरजीसे यहाँ आये हैं, भगवान्‌की मरजीसे जी रहे हैं और भगवान्‌की मरजीसे जायँगे । इसलिये हम भगवान्‌के ही हैं । एक सन्तसे किसीने पूछा कि किधर जाओगे ? तो वे बोले कि फुटबालको क्या पता कि वह किधर जायगा ? खिलाड़ी जिधर ठोकर लगायेगा, वहीं जायगा । इसी तरह भगवान्‌ जहाँ भेजेंगे, वहीं जायँगे, जैसा रखेंगे, वैसे रहेंगे‒ऐसा विचार करके निश्चित हो जायँ । अपनी कोई इच्छा न रखें; न जीनेकी, न मरनेकी । भगवान्‌ चाहे नरकोंमें भेजें, चाहे स्वर्गमें भेजें, चाहे वैकुण्ठमें भेजें, चाहे मनुष्यलोकमें भेजें, जैसी उनकी मरजी, हम उनके भरोसे निश्चिन्त हो जायँ । अपनी अलग कोई इच्छा न रखकर भगवान्‌की इच्छामें अपनी इच्छा मिला दें । केवल इतनेसे ही हमारा जीवन सफल हो जायगा, लम्बी-चौड़ी बात ही नहीं है । बैठे हैं तो भगवान्‌की मरजीसे, जाते हैं तो भगवान्‌की मरजीसे । हमें कोई दुःख नहीं, कोई सन्ताप नहीं । अगर अभी मर जायँ तो क्या हर्ज है ?

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे
 
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