।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
वैशाख शुक्ल द्वादशीवि.सं.२०७२गुरुवार
दैवी सम्पदा एवं आसुरी सम्पदा



श्रीगीतामें कहा है‒

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।

दैवी सम्पत्ति मुक्तिके लिये और आसुरी सम्पत्ति बन्धनके लिये है । दैवी सम्पत्तिमेंदैव’ शब्द देवताका नहीं, परमात्माका वाचक है । उस परमात्माकी जो सम्पत्ति है, वही दैवी सम्पत्ति है । जैसे संसारके धनसे संसारकी वस्तुएँ मिलती हैं, इसी प्रकार यह दैवी सम्पत्ति परमात्माको प्राप्त करानेवाली है । गीता अध्याय १६ श्लोक १, २, ३ में २६ गुण दैवी सम्पत्तिके हैं । इनको अपनेमें लावें । संसारमें दो प्रकारके पुरुष होते हैं‒एक तो सद्‌गुण-सदाचारको मुख्य मानते हैं । दूसरे भगवान्‌के भजनको, भगवान्‌को मुख्य मानते हैं । पहलेवाले कहते हैं‒भगवान्‌के सम्बन्धकी, भगवान्‌के भजनकी क्या आवश्यकता है, भाव और आचरण अच्छे होने चाहिये; क्योंकि भाव और आचरण ही श्रेष्ठ हैं । इनका ही संसारमें आदर है । पर दूसरे जो भगवान्‌का आश्रय लेनेवाले हैं, उनमें भगवान्‌के गुण तो स्वाभाविक ही आयेंगे । जिनमें भगवान्‌का भजन करते हुए भी अच्छे आचरण और गुण कम आते हैं, उनका वास्तवमें ध्येय परमात्मा नहीं है । ध्येय सांसारिक पदार्थ एवं भोग है । भगवान्‌के बिना अच्छे आचरण, सद्‌गुण और सद्भाव आने कठिन हैं; क्योंकि मूल परमात्मा ही नहीं है तो वे किसके आश्रित रहेंगे । अतएव हर समय भगवान्‌को याद रखें । हर कार्यके आदि एवं अन्तमें तो भगवान्‌को अवश्य याद कर लें । काम करते हुए याद न भी रहे तो हानि नहीं; क्योंकि उस वक्त कार्यमें तल्लीनता होनेके कारण न परमात्मा याद है, न संसार । वृत्ति केवल एक कार्यमें लगी है । कार्य समाप्त होते ही भगवान्‌को फिर याद कर लें । तो फिर सारा काम ही भगवान्‌का हो जायगा । भगवान्‌को याद रखनेसे, भगवान्‌का आश्रय लेनेसे दैवी सम्पदा अपने-आप आ जाती है । अपने जान भी नहीं पाते और आ जाती है । भगवान् श्रीरामने वनवासमें शबरीसे कहा‒

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं ।
सावधान  सुनु  धरु  मन माहीं ॥

‘मैं तुझे नवधा भक्ति कहता हूँ । तू सावधान होकर सुन तथा उसे धारण कर ।’ फिर अन्तमें कहते हैं‒

सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें ॥

अभी तो सावधानीसे सुनने, मनमें धारण करनेको कहा । फिर कहते हैं‒‘तुममें सब प्रकारकी भक्ति दृढ़ है ।’ तो धारण करनेको क्यों कहा ? इसका उत्तर है निरन्तर सेवन करनेसे दृढ़ता आती है । अभिप्राय है कि शबरीमें नवधा भक्ति तो दृढ़तासे है, पर भक्तिके नौ प्रकार हैं यह उसे पता नहीं है । वह भजन करनेवाली है, व्याख्यान देनेवाली नहीं है । उसमें स्वाभाविक ही भक्ति आ गयी है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
वैशाख शुक्ल एकादशी, वि.सं.२०७२, बुधवार
मोहिनी एकादशी-व्रत (सबका)
बार-बार नहिं पाइये मनुष-जनमकी मौज




(गत ब्लॉगसे आगेका)

दूसरे जो सांसारिक काम हैं, वे आप करेंगे, तो भी हो जायँगे और आप न करेंगे तो आपके बेटे-पोते इनको कर लेंगे, परंतु आपका कल्याण कौन-से बेटे-पोते कर लेंगे ? आपके पास हजारों-लाखोंकी सम्पत्ति है, बहुत धन है, बड़ा कारोबार है, किंतु आपका शरीर जा रहा है और पीछे कोई कुटुम्बी भी नहीं है तो जितना धन है, उसको राज्य संभाल लेगा, आपकी मिलों, फैक्टरियोंको राज्य चला लेगा, पर आपके उद्धारमें कमी रहेगी तो उसको कौन पूरी करेगा । यह काम दूसरेसे होनेवाला नहीं, इस कामको तो आप स्वयं ही करेंगे तभी होगा, इसलिये मनुष्यको चाहिये कि दूसरे जितने भी काम हैं, उनकी ओर ध्यान न देकर केवल एक आध्यात्मिक उन्नतिकी ओर ही ध्यान दे । नीतिकारोंने भी कहा है‒

कोटिं त्यक्त्वा हरिं स्मरेत् ।

करोड़ों कामोंको छोड़कर एक भगवान्‌का स्मरण करना चाहिये । दूसरे मौके तो हरेकको मिल जाते हैं, पर यह मौका बार-बार नहीं मिलता ।

खादति मोदते नित्यं  शुनकः  शूकरः खरः ।
तेषामेषां को विशेषो वृत्तिर्येषां तु तादृशी ॥

खाना, पीना, ऐश-आराम करना आदि तो मनुष्य क्या, पशु-पक्षियोंमें भी हो जाता है; परंतु आध्यात्मिक उन्नतिका अवसर मनुष्ययोनिके सिवा और कहीं नहीं है । इसलिये बड़ी सावधानीसे काम लेना चाहिये । आजतकका समय चला गया है, विचार करनेसे दुःख होता है । संतोंने कहा है कि भजनके बिना जो दिन गये, वे हमारे हृदयमें खटकते हैं । किंतु भाइयो ! अब क्या हो !

अब पछिताए होत क्या (जब) चिड़िया चुग गई खेत ।

समय चला गया, उसके लिये पछतानेसे क्या होगा । अब तो यही है कि ‘गई सो गई अब राख रहीको ।’ जो समय बचा है, उसी समयको सावधानीके साथ ऊँचे-से-ऊँचे काममें लगानेकी विशेष चेष्टा करें तो आगे नहीं रोना पड़ेगा । हो गया सो हो गया; परंतु अब आगेके लिये पूरे सावधान हो जायँ, तभी हमारा जीवन सफल हो सकता है ।

आप कहेंगे कि इतने दिन चले गये, अब क्या होगा ? इसका उत्तर यह है कि अब भी निराश होनेकी बात नहीं है । जैसे कुएँमें बहुत रस्सी चली जाती है, पर एक हाथभर भी रस्सी यदि हाथमें रहती है तो उससे लोटेको कुएँसे बाहर निकालकर जल पी लेते हैं; पर यदि वह हाथभर भी रस्सी हाथमें नहीं रहती, वह भी हाथसे छूट जाती है तो फिर ऐसा नहीं है कि वह हाथभर ही नीचे जायगी; वह तो कुएँमें नहीं, कुएँके जलके भी नीचे तहमें चली जायगी । फिर तो उसे निकालनेके लिये बड़ी रस्सी चाहिये, काँटा चाहिये और जब बहुत देर मेहनत करेंगे, तब कहीं वह लोटा-डोरी मिलेगी । नहीं तो, बड़ी कठिनता है । ऐसे ही आजतककी आयु कुएँमें गयी । ऐसी गयी कि काम नहीं आयी; किंतु अब भी जो थोड़ी-सी उम्र शेष है, उसीको अच्छे काममें लगा दें तो हमारा मनुष्य-जीवन सफल हो सकता है; पर यदि आयुका यह बचा हुआ थोड़ा-सा समय भी यों ही बीत गया तो फिर सिवा पश्चात्तापके और कुछ नहीं होगा । क्या पता है कि फिर यह मानव-जीवन कब मिलेगा ।

बार-बार नहिं पाइये मनुष-जनमकी मौज ।

मनुष्य-जन्म बार-बार नहीं मिलता । इसलिये बड़ी सावधानीके साथ बचे हुए समयको आध्यात्मिक उन्नतिमें विशेषरूपसे लगानेकी चेष्टा करनी चाहिये ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


‒‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
वैशाख शुक्ल दशमी, वि.सं.२०७२, मंगलवार
एकादशी-व्रत कल है
बार-बार नहिं पाइये मनुष-जनमकी मौज



(गत ब्लॉगसे आगेका)

हमारे जीवनका आधार आयु है, न कि ‘रुपया’ । इतना होनेपर भी हमारे भाई लोगोंकी पैसोंमें तो बड़ी भारी आसक्ति रुचि और सावधानी है । वे बिना मतलब एक कौड़ी भी खर्च करना नहीं चाहते, परंतु ‘समय’ की ओर ध्यान ही नहीं है । हमारा समय इतनी देर कहाँ लगा और कहाँ गया, इसमें हमने क्या उपार्जन किया, क्या कमाया‒इस ओर हमारा खयाल ही नहीं है । बड़े आश्चर्यकी बात है । ठीक कहा है श्रीभर्तृहरिने‒‘पीत्वा मोहमयीं प्रमादमदिरामुन्मत्तभूतं जगत् ।’

इस प्रमाद-मदिरासे उन्मत्तता छायी हुई है । नशेमें जैसे मनुष्यको अपने शरीरका, कपड़ोंका होश नहीं रहता, ऐसे ही इस विषयमें होश नहीं है, चेत नहीं है, इधर ध्यान नहीं है, लक्ष्य नहीं है । नहीं तो ऐसे अमूल्य समयका इस प्रकार सत्यानाश क्यों किया जाता, समय जो निरर्थक ही चला जाता है, यही उसका सत्यानाश करना है । ऐसे अमूल्य समयको कीमती-से-कीमती काममें लानेकी विशेष चेष्टा करनी चाहिये । क्या करें विचार करनेसे मालूम होता है कि बहुत-से भाई तो ताश-चौपड़, खेल-तमाशेमें ही समयको लगा देते हैं, बीड़ी-सिगरेट, हुक्का, चरस, भाँग आदि नशेके सेवनमें इस समयको बर्बाद कर देते हैं तथा ऐसे ही हँसी-मजाकमें समय खो देते हैं । वे सोचते नहीं कि हम इस आयुमें उपार्जन क्या कर रहे हैं और खर्च कितना हो रहा है ।

समय तेजीसे जा रहा है और समयके बीत जाते ही मौत उसी क्षण आ जायगी । मृत्युमें जो देर हो रही है, केवल हमारे जीवनका समय शेष है उसीके आधारपर । हम जी रहे हैं‒यह बुद्धिके आधारपर नहीं, बलके आधारपर नहीं, विद्याके आधारपर नहीं, बल्कि समयके आधारपर । जीवनके आधारपर, आयुके आधारपर । वह आयु इतनी तेजीसे निरन्तर जा रही है कि इसमें कभी आलस्य नहीं होता, कभी रुकावट नहीं होती । यह लगातार दौड़ती चली जा रही है और हम बिलकुल असावधान हैं । कितने आश्चर्य और दुःखकी बात है । आश्चर्य इस बातका है कि बुद्धिमान् होकर हम इतनी हानि कर रहे हैं और दुःख इस बातका है कि परिणाम क्या होगा, इसका हम विचार नहीं कर रहे हैं । की हुई भूलका दुःख और परिणाम कर्ताको ही भोगना पड़ता है, अन्य किसीको नहीं । अतः बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह जल्दी-से-जल्दी आध्यात्मिक उन्नतिमें अपने समयको लगाये । भर्तृहरिने कहा है‒

यावत् स्वस्थमिदं  कलेवरगृहं   यावच्च  दूरे  जरा ।
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता  यावत् क्षयो नायुषः ॥
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् ।
प्रोद्दीप्ते भवने  तु  कूपखननं   प्रत्युद्यमः  कीदृशः ॥

‘जबतक स्वास्थ्य ठीक है, वृद्धावस्था दूर है, इन्द्रियोंमें साधन-भजन-ध्यान करनेकी शक्ति है, आयु समाप्त नहीं हो गयी है, विवेकी बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि तभीतक आध्यात्मिक उन्नतिके लिये बड़ा भारी प्रयत्न कर ले; क्योंकि घरमें आग लग जानेपर कोई कहे कि जल्दी करो, कुआँ खुदवाओ, आग लग गयी है, जल चाहिये, तो यह सुनकर चाहे कितनी ही जल्दी की जाय, उद्योग किया जाय; किंतु अब कुआँ खुदकर कब जल आयेगा । आयु तो जल्दी-जल्दी खतम हो रही है, इसलिये जल्दी-से-जल्दी अपने उद्धारके लिये चेष्टा करनी चाहिये । आध्यात्मिक उन्नतिके लिये देर नहीं करनी चाहिये ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
वैशाख शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७२, सोमवार
श्रीसीतानवमी
बार-बार नहिं पाइये मनुष-जनमकी मौज



प्रपन्नपारिजाताय   तोत्त्रवेत्रैकपाणये ।
ज्ञानमुद्राय कृष्णाय गीतामृतदुहे नमः ॥

सच्चिदानन्दघन पूर्णब्रह्म परमात्माको तथा संत-महापुरुषोंको सादर अभिवादन करके कुछ बातें कहनेकी चेष्टा करता हूँ । इन बातोंमें जो आपको अच्छी लगें, सुन्दर दीखें, उन बातोंको तो संत-महात्माओंकी, शास्त्रोंकी और भगवान्‌की माननी चाहिये तथा जो त्रुटियाँ हों, उन्हें मेरी । त्रुटियोंकी ओर ध्यान न देकर अच्छी बातोंकी ओर ध्यान दें, कारण, जो महापुरुषोंके और भगवान्‌के वचन हैं, वे मेरे और आपके लिये परम हित करनेवाले हैं, उन वचनोंके अनुसार आचरण करनेसे निश्चित कल्याण होता है । आप आचरण करेंगे तो आपका हित और कल्याण है तथा मैं करूँगा तो मेरा कल्याण है ।

सबसे पहली एक विशेष ध्यान देनेकी बात यह है कि यह मानव-जीवनका समय बहुत ही दुर्लभ है और बड़ा भारी कीमती है, श्रीमद्भागवतमें बताया है‒
दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभंगुरः ।
तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठप्रियदर्शनम् ॥

‘दुर्लभो मानुषो देहः’यह मनुष्यसम्बन्धी देह‒यह मानव-शरीर अत्यन्त दुर्लभ है । इसकी प्राप्तिके लिये बड़े-बड़े देवता भी ललचाते रहते हैं; क्योंकि इससे बड़ी-से-बड़ी उन्नति हो सकती है । परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है जीवका कल्याण हो सकता है और सदाके लिये उसे परम शान्तिकी प्राप्ति हो सकती है । ऐसे दुर्लभ शरीरको प्राप्त करके जो इसे व्यर्थ ही खो देता है, उसे फिर बड़ा पश्चात्ताप करना पड़ता है; क्योंकि यह सर्वथा अलभ्य, अमूल्य है । अतः इस मनुष्य-जीवनके एक-एक क्षणको ऊँचे-से-ऊँचे काममें बितानेकी चेष्टा करनी चाहिये । समयके समान कोई अमूल्य वस्तु नहीं है । संसारमें लोग पैसोंको बड़ा कीमती समझते हैं, आवश्यक समझते हैं, किंतु विचार कीजिये, जीवनका समय देनेसे तो ‘पैसे’ मिल जाते हैं, पर पैसे देनेसे यह ‘समय’ नहीं मिलता है । हमारे जीवनके लिये हमारे पास हजारों, लाखों, करोड़ों रुपये रहनेपर भी यदि हमारी आयु नहीं है तो हमें मरना पड़ता है, किंतु यदि हमारी आयु बाकी हो और हमारे पास एक भी कौड़ी न हो, तो भी हम जी सकते हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
वैशाख शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७२, रविवार
शब्दसे शब्दातीतका लक्ष



(गत ब्लॉगसे आगेका)

(२) प्रमाद‒असावधानी (बेपरवाह) को प्रमाद’ कहते हैं । अगर वक्ता जो विषय जानता है, उसका तत्परतासे विवेचन नहीं करता, मन लगाकर ठीक तरहसे नहीं कहता, दूसरोंको समझानेमें उपेक्षा (बेपरवाह) करता है तो उसकी बातका दूसरोंपर असर नहीं पड़ता ।

(३) लिप्सा‒रुपये-पैसे, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार, सुख-आराम आदि कुछ भी पानेकी इच्छाको लिप्सा’ कहते हैं । अगर वक्तामें लिप्सा होगी तो वह स्पष्ट बात नहीं कह सकेगा, प्रत्युत वही बात कहेगा, जिससे स्वार्थ सिद्ध हो । अगर उसको स्वार्थमें बाधा लगती दीखेगी तो वह सच्ची बातको भी छिपा लेगा ।

(४) करणापाटव‒करणोंमें पटुता, कुशलता न होनेको करणापाटव’ कहते हैं । वक्ता जिन मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि करणोंसे अपने भाव प्रकट करता है, उनमें कुशलता नहीं है, वह श्रोताकी भाषाको नहीं जानता, श्रोताके भाव, योग्यता आदिको नहीं समझता, श्रोताको उसकी योग्यताके अनुसार समझानेके लिये वह दृष्टान्त, युक्ति आदि नहीं जानता तो उसकी बात दूसरोंकी समझमें नहीं आती और उसका असर भी नहीं पड़ता ।

वाणीके इन चारों दोषोंसे रहित वक्ता बहुत दुर्लभ होता है । शास्त्रमें आया है‒

शतेषु जायते शूरः    सहस्रेषु च पण्डितः ।
वक्ता शतसहस्रेषु दाता जायेत वा न वा ॥
(व्यासस्मृति ४।५८-५९; स्कन्दपुराण, माकुमा२।७०)

सैकड़ों मनुष्योंमें कोई एक शूर पैदा होता है, हजारोंमें कोई एक पण्डित पैदा होता है, लाखोंमें कोई एक वक्ता पैदा होता है, दाता तो पैदा हो भी अथवा न भी हो !’

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘तत्त्वज्ञान कैसे हो’ पुस्तकसे

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