।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०७४,गुरुवार
         अन्तःकरणकी शुद्धिकाउपाय


(गत ब्लॉगसे आगेका)

         श्रोता–स्वामीजी ! दोषको जानते हुए भी और इसको दूर करना चाहते हुए भी यह दूर क्यों नहीं होता ?

स्वामीजी–जबतक सुखकी इच्छा है, तबतक वह दोष दूर नहीं होगा । जैसी सुखभोगकी इच्छा है, वैसी त्यागकी इच्छा नहीं है । सुखभोगकी इच्छा ज्यादा प्रबल है । उसकी अपेक्षा उसके त्यागकी इच्छा बहुत कमजोर है ।

श्रोता–यह सही बात है महाराजजी, सुखभोगकी रुचि ज्यादा है ।

स्वामीजी–तो सुखभोगकी रुचिको दूर करो, और उस रुचिको दूर करनेमें आपको अभ्यास करना पड़ेगा । अगर अभ्यास न करके ‘यह मेरेमें है नहीं’–इसको मान लो तो बहुत जल्दी काम हो जाय । वास्तवमें अन्तःकरणकी शुद्धि  करनेकी अपेक्षा अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेद करो तो यह बहुत जल्दी सिद्धि करनेवाली बात है । सम्बन्ध-विच्छेद करनेसे जो शुद्धि होगी, वह शुद्धि करनेसे नहीं होगी । बच्‍चा माँकी गोदीमें रहता हुआ शुद्ध नहीं होता । माँके मोह-पूर्वक स्‍नेहमें पला हुआ बालक निर्मोही नहीं हो सकता । बापका मोह कम होता है तो बापके पास रहनेवाला बालक सुधरेगा । अध्यापकका मोह और कम होता है तो उसके पास रहनेवाला बालक और ज्यादा सुधरेगा । तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्तका मोह होता ही नहीं, इसलिये उसके पास कोई रहेगा तो वह बहुत शुद्ध हो जायगा, सुधर जायगा । इस तरह आप अन्तःकरणको अपना मानते रहोगे तो वह शुद्ध नहीं होगा । मेरापनरूपी मल तो लगाते जाते हो और कहते हो कि शुद्ध कर लूँगा ! कैसे शुद्ध कर लोगे ? मेरा है ही नहीं–यह बात बहुत ही शुद्ध करनेवाली है और जल्दी शुद्ध करनेवाली है । इसी बातको लेकर मेरी प्रणाली और तरहकी दीखती है । वह (दूसरी) प्रणाली भी मेरी पढ़ी हुई है और देखी हुई है तथा यह प्रणाली भी देखी हुई है । उस प्रणालीमें देरी लगती है, जल्दी सिद्धि नहीं होती । आप ही देख लो कि इतने वर्षोंसे सत्संग करते हैं, साधन करते हैं, पर वास्तविक सिद्धि कितनोंको मिली ? अशुद्धिको आदर देते हुए, अपनेमें मानते हुए उसको दूर करना चाहते हैं । इससे वह दूर होगी नहीं । वास्तवमें आपके स्वरूपमें यह है नहीं । ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ।’ (गीता १३/३१) अर्थात् शरीरमें स्थिति रहता हुआ भी आपका स्वरूप शरीरमें स्थित नहीं है, कर्ता और भोक्ता नहीं है । इस प्रकार सीधे स्वरूपको ही पकड़नेकी मेरी प्रणाली है । यह कोई नयी बात नहीं है ।

श्रोता–पर स्वामीजी ! रामायणमें तो ज्ञानको कठिन बताया है और आप कहते है कि सरल है ?

स्वामीजी–आप प्रमाण दोगे तो मैं चुप हो जाऊँगा, पर मैं मानूँगा थोड़े ही इस बातको ! आप रामायणकी बात कहोगे तो हृदयमें गोस्वामीजी महाराजका आदर होनेके कारण मैं चुप हो जाऊँगा । परन्तु जो सरल है, वह कठिन कैसे हो जायगा ? गोस्वामीजी महाराजने इसको सरल कहा है–

निर्गुन रूप  सुलभ  अति   सगुन  जान  नहिं  कोइ ।
सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होई ॥
                                                                 (रामचरितमानस७/७३ ख)

         यह और किसीकी वाणी है क्या ? बोलो ।

 (शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०७४,बुधवार
         अन्तःकरणकी शुद्धिकाउपाय


(गत ब्लॉगसे आगेका)

         श्रोता–अन्तःकरण शुद्ध हुए बिना उससे सम्बन्ध टूट सकता है क्या ?

स्वामीजी–वास्तवमें तो सम्बन्ध है ही नहीं, पर सम्बन्ध मान लिया है । मान हुआ सम्बन्ध नहीं माननेसे मिट जायगा । इसमें शुद्धि-अशुद्धिसे क्या लेन-देन !

श्रोता–यह मान्यता बिना अन्तःकरण शुद्ध हुए भी हो सकती है क्या ?

स्वामीजी–बिलकुल हो सकती है । आपके भीतर यह भाव होना चाहिये कि मेरी मुक्ति हो जाय, मुझे बोध हो जाय । मेरा अन्तःकरण शुद्ध हो जाय, उससे सम्बन्ध विच्छेद हो जाय–यह बात वास्तवमें सम्बन्धको दृढ़ करनेवाली है । किसीको मिटाना चाहते हो तो मिटानेसे पहले उसकी सत्ता मानते हो । अगर सत्ता नहीं मानते तो फिर मिटाते किसको हो ? सत्ता मानते हो, तभी तो आप सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहते हो । सम्बन्ध है–यह मान्यता होती है, तब उसको दूर करते हो । मैं कहता हू कि सम्बन्ध है ही नहीं ! उस (शास्त्रीय) प्रणालीमें और इस प्रणालीमें यही खास फरक है । जैसे, वेदान्त-ग्रन्थोंमें आता है कि ‘अध्यारोपापवादाभ्यां निष्प्रपञ्चमं प्रपञ्चयते’ अध्यारोप और अपवाद–इन दोनोंसे निष्प्रपञ्चका प्रपञ्च होता है अर्थात् परमात्माका विवेचन होता है । तो मैं कहता हूँ कि जब अपवाद ही करना है तो अध्यारोप करो ही क्यों ?

श्रोता–मेरा प्रश्न यही उठ रहा है कि अन्तःकरणकी शुद्धि हुए बिना मान्यता बनती नहीं ।

स्वामीजी–मैं कहता हूँ कि बनती है । अन्तःकरणको लेकर बनाओगे तो नहीं बनेगी । देखो, सनकादिकोंने जाकर ब्रह्माजीसे प्रश्न किया कि मन विषयोंमें फँसा हुआ है और विषय मनमें बसे हुए हैं तो फिर मनको विषयोंसे अलग कैसे करें ? तो उत्तर दिया कि इन दोनोंसे ही सम्बन्ध-विच्छेद कर दो–‘मद्रूप उभयं त्यजेत्’ (श्रीमद्भा. ११/१३/२६) । यही तो मैं कहता हूँ । इस साधनको क्यों नहीं पकड़ते आप ? यह शास्त्रकी बात है, मेरे घरकी नहीं है । मेरे घरकी इतनी ही बात है कि इसीको जोरसे पकड़ना चाहिये, दूसरेको नहीं । अध्यारोप करो, उसको रखो, फिर उसको दूर करो; क्यों आफतमें फँसते हो ? है ही नहीं हमारेमें । इससे साधककी जल्दी सिद्धि होती है, इसलिये इसका आदर करो । यह प्रणाली मेरी नहीं है और न किसीका ठेका है इसपर । यह तो सामान्य बात है ।

श्रोता–महाराज ! जहाँ जिज्ञासा होती है, मान्यता होती है, वहींपर हमारी भोगोंमें रुचि पैदा होती है ।

स्वामीजी–भोगोंकी रुचि है, सुखभोगकी इच्छा है–यही घातक है । इसका आप त्याग नहीं करते, इसीलिये सम्बन्ध-विच्छेदकी बात कठिन दीखती है, नहीं तो यह बहुत सुगम और बहुत सरल है ।

श्रोता–यह सुखभोगकी इच्छा ही खास बीमारी है महाराजजी ।

स्वामीजी–खास बीमारी है तो इसको दूर करो । वास्तवमें जब आपकी समझमें आ गयी कि यह बीमारी है तो बीमारी आपसे आपसे दूर हो गयी । आँखमें लगा हुआ अंजन आँखसे नहीं दीखता । अंजन आँखसे तब दीखता है, जब वह आँखसे दूर हो–अँगुलीपर लगा हो ।

 (शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७४, मंगलवार
                         श्रीराधाष्टमी
        अन्तःकरणकी शुद्धिकाउपाय


श्रीराधाष्टमीकी हार्दिक बधाई हो !!
ये राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि उत्पन्न और नष्ट होते हैं, आते और जाते हैं । परन्तु आप उत्पन्न-नष्ट होते हो और आते-जाते हो क्या ? नहीं । तो फिर ये (राग-द्वेषादि दोष) आपसे अलग हुए न ? अलग होनेसे ये आपमें नहीं हैं–यह बात दृढ़ हुई । अतः दृढ़तासे यह विचार होना चाहिये कि ये मेरेमें नहीं हैं । अगर ये आपमें होते तो जबतक आप रहते तबतक ये भी रहते और आप न रहते तो ये भी न रहते । परन्तु आप तो रहते हो और ये नहीं रहते । ये आगन्तुक हैं, आप आगन्तुक थोड़े ही हैं ! आपका भाव (होनापन) तो निरन्तर रहता है । गाढ़ नींदमें ‘मैं हूँ’ ऐसा स्पष्टभाव नहीं होता तो भी जगनेपर यह भाव होता है कि अभीतक मैं सोया था, अब जग गया हूँ । मैं सोया था, उस समय मेरा अभाव था, यह नहीं दीखता । अपना भाव तो निरन्तर अपने अनुभवमें आ रहा है और इन दोषोंका आगन्तुकपना प्रत्यक्ष हमारे अनुभवमें आ रहा है । इसका भाव और अभाव–दोनों हमारी समझमें आते हैं । तात्पर्य यह हुआ कि ये राग-द्वेष आदि आपके स्वरूपमें नहीं है, प्रत्युत आपके मन-बुद्धि-इन्द्रियोंमें आते हैं । परन्तु शरीरको मैं-मेरा माननेसे इनके साथ अपने सम्बन्धका अभाव नहीं दीखता ।

देखो, एक बात बतायें । आप ध्यान देकर सुनें । हमारेको संसारके जितने भी ज्ञान होते हैं, वे सब सांसारिक पदार्थ, शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरणको साथ लेकर ही होते हैं । परन्तु स्वयंका बोध शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरणको साथ लेनेसे नहीं होता । अब यह जो बात है कि अन्तःकरण शुद्ध होनेसे संसारका ज्ञान साफ होगा, पर स्वरूपका बोध कैसे होगा ? इसपर शंका करो ।

श्रोता–महाराजजी ! अन्तःकरण शुद्ध होनेसे अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा तो बोध अपने-आप हो जायगा ।

स्वामीजी–जड़-चेतनका, सत्-असत्‌का, नित्य-अनित्यका जो विवेक है, उस विवेकको महत्त्व न देनेसे ही बोध नहीं हो रहा है । विवेकको महत्त्व देनेसे अविवेक मिट जायगा और बोध हो जायगा । वह विवेक आपमें हैं और अभी है । उस विवेकको आपने प्रकाशित नहीं किया, उसको आपने उद्बुद्ध नहीं किया, उसको जाग्रत नहीं किया, उसका आदर नहीं किया, उसको महत्त्व नहीं दिया–यह गलती हुई । अन्तःकरण शुद्ध होनेसे क्या हो जायगा ? शुद्ध होनेसे एक बात है कि इधर (पारमार्थिक) रुचि हो जायगी, और कुछ नहीं ।

एक बड़ी मार्मिक बात है, जिस तरफ साधकका ध्यान नहीं जाता । परमात्मतत्त्वका अथवा स्वरूपका बोध करण-निरपेक्ष है, करण-सापेक्ष नहीं है । इसलिये करण शुद्ध हो या अशुद्ध, उससे विमुख होनेसे वह बोध हो जायगा । 

 (शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७४, सोमवार
          गोरक्षा–हमारा परम कर्तव्य


          (गत ब्लॉगसे आगेका)

हमारे देशकी गायें सौम्य और सात्त्विक होती हैं । अतः उनका दूध भी सात्त्विक होता है, जिसको पीनेसे बुद्धि तीक्ष्ण होती है और स्वाभाव शान्त, सौम्य होता है । विदेशी गायोंका दूध तो ज्यादा होता है, पर उन गायोंमें गुस्सा बहुत होता है, अतः उनका दूध पीनेसे मनुष्यका स्वाभाव भी क्रूर होता है । भैंसका दूध भी ज्यादा होता है, पर दूध सात्त्विक नहीं होता । उससे सात्त्विक बल नहीं आता । सैनिकोंके घोडोंको गायका दूध पिलाया जाता है, जिससे वे घोड़े बहुत तेज होते हैं । एक बार सैनिकोंने परीक्षाके लिये कुछ घोडोंको भैंसका दूध पिलाया, जिससे घोड़े खूब मोटे हो गये । परन्तु जब नदी पार करनेका काम पड़ा तो वे घोड़े पानीमें बैठ गये । भैंस पानीमें बैठा करती है; अतः वही स्वभाव घोडोंमें भी आ गया । ऊँटनीका दूध भी निकलता है, पर उस दूधका दही, मक्खन होता ही नहीं । उसका दूध तामसी होनेसे दुर्गति देनेवाला होता है । स्मृतियोंमें ऊँट, कुत्ता, गधा आदिको अस्पृश्य बताया गया है ।

सम्पूर्ण धार्मिक कार्योंमें गायकी मुख्यता है । जातकर्म, चूडाकर्म, उपनयन आदि सोलह संस्करोंमें गायका, उसके दूध, घी, गोबर आदिका विशेष सम्बन्ध रहता है । गायके घीसे ही यज्ञ किया जाता है । स्थान-शुद्धिके लिये गोबरका ही चौका लगाया जाता है । श्राद्ध-कर्ममें गायके दूधकी खीर बनायी जाती है । नरकोंसे बचानेके लिये गोदान किया जाता है । धार्मिक कृत्योंमें ‘पंचगव्य’ काममें लाया जाता है, जो गायके दूध, दही, घी, गोबर और मूत्र–इन पाँचोंसे बनता है ।

कामनापूर्तिके लिये किये जानेवाले यज्ञोंमें गायका घी आदि काममें आते है । रघुवंशके चलनेमें गायकी ही प्रधानता थी । पौष्टिक, वीर्यवर्धक चीजोंमें भी गायके दूध और घीका मुख्य स्थान है ।

निष्कामभावसे गायकी सेवा करनेसे मुक्ति होती है । गायकी सेवा करनेसे अन्तःकरण निर्मल होता है । भगवान‌् श्रीकृष्णने भी बिना जूतीके गोचारणकी लीला की थी, इसलिये उनका नाम ‘गोपाल’ पड़ा । प्राचीनकालमें ऋषिलोग वनमें रहते हुए अपने पास गायें रखा करते थे । गायके दूध, घीसे उनकी बुद्धि प्रखर, विलक्षण होती थी, जिससे वे बड़े-बड़े ग्रन्थोंकी रचना किया करते थे । आजकल तो उन ग्रन्थोंको ठीक-ठीक समझनेवाले भी कम हैं । गायके दूध-घीसे वे दीर्धायु होते थे । इसलिये गायके घीका एक नाम ‘आयु’ भी है । बड़े-बड़े राजालोग भी उन ऋषियोंके पास आते थे और उनकी सलाहसे राज्य चलते थे ।

गोरक्षाके लिये बलिदान करनेवालोंकी कथाओंसे इतिहास-पुराण भरे पड़े हैं । बड़े भारी दुःखकी बात है कि आज हमारे देशमें पैसेके लोभसे रोजाना हजारोंकी संख्यामें गायोंकी हत्या की जा रही है ! अगर इसी तरह गो-हत्या चलती रही तो एक समय गोवंश समाप्त हो जायगा । जब गायें नहीं रहेंगी, तब क्या दशा होगी, कितनी आफतें आयेगी–इसका अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता । जब गायें खत्म हो जायँगी, तब गोबर नहीं रहेगा और गोबरकी खाद न रहनेसे जमीन भी उपजाऊ नहीं रहेगी । जमीनके उपजाऊ न रहनेसे खेती कैसे होगी ? खेती न होनेसे अन्न तथा वस्त्र (कपास) कैसे मिलेगा ? लोगोंको शरीर निर्वाहके लिये अन्न, जल और वस्त्र भी मिलना मुश्किल हो जायगा । गाय और उसके दूध, घी, गोबर आदिके न रहनेसे प्रजा बहुत दुःखी हो जायगी । गोधनके अभावमें देश पराधीन और दुर्बल हो जायगा । वर्तमानमें भी अकाल, अनावृष्टि, भूकंप, आपसी कलह आदिके होनेमें गायोंकी हत्या मुख्य कारण है । अतः अपनी पूरी शक्ति लगाकर हर हालतमें गायोंकी रक्षा करना, उनको कतलखानोंमें जानेसे रोकना हमारा परम कर्तव्य है ।

गायोंकी रक्षाके लिये भाई-बहनोंको चाहिये कि वे गायोंका पालन करें; उनको अपने घरोंमें रखें । गायका ही दूध-घी खायें, भैंस आदिका नहीं । घरोंमें गोबर-गैसका प्रयोग किया जाय । गायोंकी रक्षाके उद्देश्यसे ही गोशालाएँ बनायी जाय, दूधके उद्देश्यसे नहीं । जितनी गोचर-भूमियाँ हैं, उनकी रक्षा की जाय तथा सरकारसे गोचर-भूमियाँ छुड़ायी जायँ । सरकारकी गो-हत्या-नीतिका विरोध किया जाय और सरकारसे अनुरोध किया जाय कि वह देशकी रक्षाके लिये पूरे देशमें तत्काल पूर्णरूपसे गो-हत्या बन्द करे ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


–‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०७४, रविवार
                          लोलार्ल-षष्ठी
       गोरक्षा–हमारा परम कर्तव्य


मनुष्योंके लिये गाय सब दृष्टियोंसे पालनीय है । गायसे अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष–इन चारों पुरुषार्थकी सिद्धि होती है । आजके अर्थप्रधान युगमें तो गाय अत्यन्त ही उपयोगी है । गोपालनसे, गायके दूध, घी, गोबर आदिसे धनकी वृद्धि होती है । हमारा देश कृषिप्रधान है । अतः यहाँ खेतीमें जितनी प्रधानता बैलोंकी है, उतनी प्रधानता अन्य किसीकी भी नहीं है । भैसोंके द्वारा भी खेती की जाती है, पर खेतीमें जितना काम बैल कर सकता है, उतना भैंसा नहीं कर सकता । भैंसा बलवान् तो होता है, पर वह धूप सहन नहीं कर सकता । धूपमें चलनेसे वह जीभ निकाल देता है, जबकि बैल धूपमें भी चलता रहता है । कारण कि भैंसेमें सात्त्विक बल नहीं होता, जबकि बैलमें सात्त्विक बल होता है । बैलोंकी अपेक्षा भैंसे कम भी होते हैं । ऐसे ही ऊँटसे भी खेती की जाती है, पर ऊँट भैसोंसे भी कम होते हैं और बहुत महँगे होते हैं । खेती करनेवाला हरेक आदमी ऊँट नहीं खरीद सकता । आजकल अच्छे-अच्छे जवान बैल मारे जानेके कारण बैल भी महँगे हो गये हैं, तो भी वे ऊँट-जितने महँगे नहीं हैं । यदि घरोंमें गायें रखी जायँ तो बैल घरोंमें ही पैदा हो जाते हैं, खरीदने नहीं पड़ते । विदेशी गायोंके जो बैल होते हैं, वे खेतीमें काम नहीं आ सकते; क्योंकि उनके कन्धे न होनेसे उनपर जुआ नहीं रखा जा सकता ।

 गाय पवित्र होती है । उसके शरीरका स्पर्श करनेवाली हवा भी पवित्र होती है । गायके गोबर-मूत्र भी पवित्र होते हैं । गोबरसे लिपे हुए घरोंमें प्लेग, हैजा आदि भयंकर बीमारियाँ नहीं होतीं । इसके सिवाय युद्धके समय गोबरसे लिपे हुए मकानोंपर बमका उतना असर नहीं होता, जितना सीमेंट आदिसे बने हुए मकानोंपर होता है । गोबरमें जहर खींचनेकी विशेष शक्ति होती है । काशीमें कोई व्यक्ति साँप काटनेसे मर गया । लोग उसकी दाह-क्रिया करनेके लिये उसको गंगाके किनारे ले गये । वहाँपर एक साधु रहते थे । उन्होंने पूछा कि इस व्यक्तिको क्या हुआ ? लोगोंने कहा यह साँप काटनेसे मरा है । साधुने कहा कि यह मरा नहीं है, तुमलोग गायका गोबर ले आओ । गोबर लाया गया । साधुने उस व्यक्तिकी नासिका छोड़कर उसके पूरे शरीरमें (नीचे-ऊपर) गोबरका लेप कर दिया । आधे घण्टेके बाद गोबरका फिर दूसरा लेप किया । इससे उस व्यक्तिके श्वास चलने लगे और वह जी उठा । हृदयके रोगोंको दूर करनेके लिये गोमूत्र बहुत उपयोगी है । छोटी बछड़ीका गोमूत्र रोज तोला-दो-तोला पीनेसे पेटके रोग दूर होते हैं । एक सन्तको दमाकी शिकायत थी, उनको गोमूत्र-सेवनसे बहुत फायदा हुआ है । आजकल तो गोबर और गोमूत्रसे अनेक रोगोंकी दवाइयाँ बनायी जा रही हैं । गोबरसे गैस भी बनने लगी है । जो गैस चूल्हे जलानेमें काम आती है ।

 खेतोंमें गोबर-गोमूत्रकी खादसे जो अन्न पैदा होता है, वह भी पवित्र होता है । खेतोंमें गायोंके गोबर और मूत्रसे जमीनकी जैसी पुष्टि होती है, वैसी पुष्टि विदेशी रासायनिक खादसे नहीं होती । जैसे एक बार अंगूरकी खेती करनेवालेने प्रयोग करके बताया कि गोबरकी खाद डालनेसे अंगूरके गुच्छे जितने बड़े-बड़े होते हैं, उतने विदेशी खाद डालनेसे नहीं होते । विदेशी खाद डालनेसे कुछ ही वर्षोंमें जमीन खराब हो जाती है अर्थात् उसकी उपजाऊ शक्ति नष्ट हो जाती है । परन्तु गोबर-गोमूत्रसे जमीनकी उपजाऊ शक्ति ज्यों-की-त्यों बनी रहती है । विदेशोंमें रासायनिक खातसे  बहुत-से खेत खराब हो गये हैं, जिन्हें उपजाऊ बनानेके लिये वे लोग भारतसे गोबर मँगवा रहे हैं और भारतसे गोबरके जहाज भर-भरकर विदेशोंमें जा रहे हैं ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे

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