।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.–२०७१, सोमवार
चैत्र नवरात्रारम्भ, ‘प्लवंग’ संवत्सर
श्रीकृष्ण-संवत‒५२४०
‘नववर्षपर सबके मंगलकी शुभ-कामना’
सत्-असत्‌का विवेक


(गत ब्लॉगसे आगेका)
है’ को मान लो तो नहीं’ कैसे रहेगा ? जिसका नाम ही नहीं’ हैवह कैसे टिकेगा इसमें बाधा यही है कि आप इसका आदर नहीं करतेइसको महत्त्व नहीं देते । अभी आपको दस रुपये मिल जायँ तो उसका एक महत्त्व हैपर जो नित्य-निरन्तर रहता हैउसका महत्व नहीं है‒यह बड़े आश्चर्यकी बात है ! शास्त्रोंनेवेदोंनेपुराणोंने है’ को ही महत्व दिया है । सन्त-महात्माओंने भी इसीको महत्व दिया है तभी तो संसारके बनने-बिगड़नेका उनपर असर नहीं पड़ता । जो निरन्तर रहता हैउस है’ में क्या फर्क पड़े ? क्या दुःख हो ? क्या सन्ताप हो ?
है सो सुन्दर है सदानहिं सो सुन्दर नाहिं ।
नहिं सो परगट देखिये,  है सो दीखे नाहिं ॥

जो है वह आँखोंसे नहीं दीखता । जो आँखोंसे दीखता है, वह रहता नहीं । कहते हैं कि जो आँखोंसे नहीं दीखता,उसको कैसे मानें ? यह समझदारका प्रश्न नहीं है । समझदारका प्रश्न तो यह होना चाहिये कि जो आँखोंसे दीखता हैउसको कैसे मानें ? क्योंकि आँखोंसे जो दीखता है, वह तो मिटता है, बिगड़ता है, बदलता है । यह बिलकुल प्रत्यक्ष बात है । जो स्थिर नहीं रहताबदलता है, उसको हम कैसे मान सकते हैं नदीमें जैसे जल बहता हैऐसे सब संसार बह रहा हैमौतकी तरफ जा रहा हैअभावकी तरफ जा रहा है । इसको हम है’ कैसे मानें ? बड़ी सीधी और सरल बात है । इसमें कठिनता है ही नहीं । कठिनता यही है कि आप इसको महत्त्व नहीं दे रहे हैंइसको कीमती नहीं समझ रहे हैं ।

जो पुरुष संसारको महत्त्व नहीं देतेधन-सम्पत्तिको महत्त्व नहीं देतेवे भी जीते हैं कि नहीं आप महत्त्व नहीं दोगे तो क्या मर जाओगे जो महत्त्व नहीं देतेउनके पास कोई अधिक महत्त्ववाली वस्तु हैतभी तो महत्त्व नहीं देते ! उनमें यह सन्देह ही नहीं होताशंका ही नहीं होती कि इसके बिना काम कैसे चलेगा ! जैसे बचपनमें आप खिलौनोंको महत्व देते थेपर अब उनको महत्व नहीं देते । कारण कि अब आपने रुपये आदि चीजोंको महत्त्व दे दिया । रुपये आदिको महत्त्व न देकर सत्-तत्त्व (‘है’को महत्त्व दो तो असत्‌की सत्ताका स्वत: ही निरादर हो जायगा ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे


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।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
चैत्र अमावस्या, वि.सं.–२०७०, रविवार
अमावस्या
सत्-असत्‌का विवेक


 (गत ब्लॉगसे आगेका)
दूसरी बातआपने खालीपनकी सत्ता मानी है तो क्या सत्ता खाली होती है ? सत्ता भी खाली नहीं होती और ज्ञान भी खाली नहीं होता । सत्ता (सत्) और ज्ञान (चित्)‒दोनों परमात्माके स्वरूप हैं । अब परमात्मा है‒इसको माननेमें क्या बाधा लगी ? इसको आप रद्‌दी मत करो । इस तरफ आप खयाल नहीं करतेइतनी ही बाधा है । इसका अभाव थोड़े ही हुआ है ? इधर खयाल करना है‒इतना ही काम है आपका ।

परमात्मा ज्यों-का-त्यों है । उसको कोई बनाना नहीं हैपैदा करना नहीं है केवल उधर खयाल करना है कि वह है । उसका हमारे साथ नित्य-सम्बन्ध हैनित्ययोग है । संसारके वियोगका अनुभव होनेपर परमात्माके नित्ययोगका अनुभव हो जायगा । परमात्माका नित्ययोग मानो तो योग’ हो जायगा और संसारका नित्यवियोग मानो तो योग’ हो जायगा । बात एक ही ठहरेगी ! आप इसको महत्त्व नहीं दे रहे हैं । जो आने-जानेवाले हैंउन रुपयों आदिको तो महत्व देते होपर रहनेवालेको महत्व नहीं देते । आने-जानेवालेको अस्वीकार करो और रहनेवालेको स्वीकार करो । अस्वीकार करनेका नाम भी योग’ है और स्वीकार करनेका नाम भीयोग’ है ।

जो चीज आदि और अन्तमें नहीं होतीवह बीचमें भी नहीं होती‒यह सिद्धान्त है । जैसेस्वप्न आया तो उससे पहले स्वप्न नहीं थाबादमें भी स्वप्न नहीं रहाअत: स्वप्नके समय भी नहीं’ ही मुख्य थास्वप्न मुख्य नहीं था । इसलिये नहीं’ निरन्तर रहा । इसी तरह संसार पहले नहीं थापीछे नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी निरन्तर नहीं’ में ही जा रहा हैअत: इसमें नहीं’ ही मुख्य है । इसमें बाधा क्या लगी ?

श्रोता‒‘नहीं’ की ममता-आसक्ति नहीं मिटती !

स्वामीजी‒ममता-आसक्ति रहें चाहे न रहेंपरमात्मा तो रहेगा ही । ममताआसक्तिकामना आदि तो आने-जानेवाले हैं और वह रहनेवाला है । रहनेवालेकी तरफ दृष्टि रखो । जो आता है और मिटता है उसकी तरफ दृष्टि मत रखोउसको महत्व मत दो । जो आता हैजाता हैबनता है,बिगड़ता हैपैदा होता हैमिटता हैउसका क्या महत्त्व है ?परमात्मा न आता हैन जाता हैन बनता हैन बिगड़ता है,न पैदा होता है न मिटता है, इसलिये वह है’ । आसक्ति हो जाय तो होने दोकामना हो जाय तो होने दोउसकी परवाह मत करो । है’ को दृढ़ रखो । आसक्ति हो जाय तो उसमें भी वह है । कामना हो जाय तो उसमें भी वह है । कुछ भी हो जाय वह तो ज्यों-का-त्यों ही है । उस है’ की तरफ विशेष ध्यान होगा तो ये ममताआसक्तिकामक्रोध आदि सब मिट जायेंगेरहेंगे नहीं ।  

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे


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।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
चैत्र कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
सत्-असत्‌का विवेक


(गत ब्लॉगसे आगेका)
पाप हो जाता हैअन्याय हो जाता है, झूठ-कपट हो जाता है तो क्या है’ का अभाव हो जाता है ? आप है’ की तरफ देखो । है’ में कोई फर्क पड़ता है क्या जब आप नहीं’को है’ मान लेते होतब बाधा लगती है । नहीं’ को नहीं’ मानो और है’ को है’ मानो । कोई पाप हो गया तो भूल हो गयी बीचमें ! भूलके आधारपर है’ का निषेध क्यों करते हो ?

श्रोता‒‘है’ को मान लियापर प्रत्यक्ष अनुभव हुए बिना यह मान्यता टिकती नहीं है !

स्वामीजी‒देखो भाई ! यह आँखसे नहीं दीखेगा । देखना दो तरहका होता है‒एक आँखसे होता है और एक भीतरमें माननेसे होता है । भीतरसे अनुभव हो जायबुद्धिसे बात जँच जाय‒इसको देखना कहते हैं । यह है’ आँखसे कभी दीखेगा ही नहीं । यह तो माननेमें ही आता है । आपका नामजातिगाँवमोहल्लाघर क्या अभी देखनेमें आ रहे हैं देखनेमें नहीं आ रहे हैं तो क्या ये नहीं हैं ? जो देखनेमें नहीं आतावह होता ही नहीं‒ऐसी बात नहीं है । जो देखनेमें नहीं आतावही होता है । परमात्मा देखनेमें न आनेपर भी हैं । नामजाति आदिके होनेमें कोई शास्त्र आदिका प्रमाण नहीं हैप्रत्युत यह केवल आपकी कल्पना है । परन्तु परमात्माके होनेमें शास्त्रवेदसन्त-महात्मा प्रमाण हैं और उसको माननेका फल भी विलक्षण (कल्याण) है । इसलिये परमात्माको दृढ़तासे मानो ।

गलती तो पैदा होनेवाली और मिटनेवाली हैपर परमात्मा पैदा होनेवाला और मिटनेवाला नहीं है । पैदा होनेवाली वस्तुसे पैदा न होनेवाली वस्तुका निषेध क्यों करते हो ? हमारेसे झूठ-कपट हो गया तो यह परमात्माका होनापन थोड़े ही मिट गया ! परमात्माके होनेमें क्या बाधा लगी यह मानो कि पाप हो गया तो वह भूल हुईपर परमात्मा है‒यह भूल नहीं है । परमात्माको जितनी दृढ़तासे मानोगेउतनी भूलें होनी मिट जायेंगी । जिस समय भूल होती है उस समय आप परमात्मा है’इसको याद नहीं रखते । इसकी याद न रहनेसे ही भूल होती है । जो है’ उससे विमुख हो जाते हैंउसको भूल जाते हैंतब यह भूल होती है । इसलिये अपनेको उससे विमुख होना ही नहीं है । कभी अचानक कोई भूल हो भी जाय तो उस भूलको महत्व मत दो । जो सच्ची चीज हैउसको महत्त्व दो । भूल तो मिट जाती हैपर परमात्मा रहता हैमिटता है ही नहीं । जो हरदम रहता हैउसको मानो । अब बोलोक्या बाधा लगी ?

श्रोता‒वर्षोंसे यह बात सुनते हैंपर फिर भी खालीपन मालूम देता है !

स्वामीजी‒पर खालीपनका ज्ञान आपको है कि नहीं खालीपनका ज्ञान भी खाली है क्या ? आप ज्ञानका तो निरादर करते हैं और खालीपनका आदर करते हैं । ज्ञान तो ठोस हैउसमें खालीपन है ही नहीं । खालीपन (नहीं) को जाननेवाला ठोस (है) ही हुआखाली कैसे हुआ वास्तवमें खालीपन है नहीं । असत्‌की सत्ता माननेसे ही खालीपन दीखता हैक्योंकि असत्‌की सत्ता नहीं है । तात्पर्य है कि आपने असत्‌की सत्ता मान रखी है और असत्‌की प्राप्ति होती नहींतब खालीपन दीखता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे


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।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
चैत्र कृष्ण द्वादशी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
वारुणीपर्वयोग प्रातः ६ बजेसे सूर्यास्ततक
सत्-असत्‌का विवेक


श्रोता‒संसारका सम्बन्ध नहीं है‒यह बात बुद्धितक तो समझमें आ गयीपर आगे साफ नहीं है !

स्वामीजी‒कोई बात नहीं ! बुद्धितक समझमें आ गयी तो भी अच्छा है । आप यह मान लो कि वास्तवमें बात ऐसी ही है । आपका बालकपन अभी है क्या नहीं है तो बालकपनका वियोग हो गया न बालकपनका वियोग हो गया तो अभी जो अवस्था हैउसका वियोग नहीं होगा क्या ? आगे जो अवस्था आयेगीउसका वियोग नहीं होगा क्या कोई भी अवस्था आयेकैसी ही परिस्थिति आयेउसका वियोग होगा ही‒इसमें कोई सन्देह नहीं है । परन्तु सबका वियोग होनेपर भी परमात्माका वियोग नहीं होगाक्योंकि परमात्मा सबमें परिपूर्ण है और सबसे अतीत है । जैसेयह आकाश कहाँ नहीं है ? जहाँ हम सब बैठे हैंवहाँ भी आकाश है और जहाँ हम सब नहीं हैंवहाँ भी आकाश है । ऐसे ही जहाँ हमलोग हैंवहाँ भी परमात्मा हैं और जहाँ हमलोग नहीं हैंवहाँ भी परमात्मा हैं । परमात्मा सबके भीतर,बाहरऊपरनीचेसर्वत्र परिपूर्ण हैं और सबसे अतीत भी हैं ।

ये सब शरीर पहले नहीं थेआगे नहीं रहेंगे और अब भी निरन्तर नहींमें ही जा रहे हैं । जैसे बालकपन नहीं रहाऐसे यह भी नहीं रहेगापर परमात्मा रहेंगे । बालकपन नहीं रहा तो क्या आप भी नहीं रहे ? अत: परमात्मा है और संसार नहीं है । परमात्मा है‒इसको मानो तो योग हो गया और संसार नहीं है‒इसको मानो तो योग हो गया । समताका नाम योग है‒‘समत्वं योग उच्यते’ (गीता २ । ४८) और दुःखरूप संसारके वियोगका नाम भी योग है‒‘तं विद्याद्ःदुखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्’ (गीता ६ । २३) । संसारका वियोग होनेपर समता ही रहेगीक्योंकि संसार विषम है और परमात्मा सम है‒समं सर्वेषु भूतेषु’ (गीता १३ । २७) । व्यक्ति अलग-अलग हैंपर आकाश अलग-अलग नहीं है प्रत्युत एक है । ऐसे ही वह परमात्मा एक है । वह सबमें है और सबसे अतीत भी है । संयोगमें भी वही है और वियोगमें भी वही है । पहले भी वही थापीछे भी वही रहेगा और अब भी वही है ।

संसार नहीं है और परमात्मा है‒ये दो बातें आप मान लें । यह जो संसार दीखता हैयह पहले नहीं थाआगे नहीं रहेगा और अब भी नहींमें जा रहा है । वह परमात्मा पहले भी थाआगे भी रहेगा और अब भी है । संसार नहीं है‒ऐसा कहो अथवा परमात्मा है‒ऐसा कहोएक ही बात है । इसमें क्या बाधा लगती है ?

श्रोता‒जो नहीं हैउसके लिये पाप कर देते हैं तो खाली कहना-सुनना हुआ !

स्वामीजी‒जो है उसको मुख्य मानो । कसौटी लगाकर उसको शिथिल मत करोप्रत्युत कसौटीको शिथिल करो । भूलको महत्त्व न देकर सही बातको महत्त्व दो । पाप निरन्तर नहीं रहता । जो निरन्तर नहीं रहताउसपर जोर मत दोप्रत्युत जो निरन्तर रहता है उसीपर जोर दो । आप स्वयं अनुभव करो कि निरन्तर कौन रहता है पाप निरन्तर रहता है या अपना होनापन (स्वरूप) निरन्तर रहता है जो निरन्तर रहता हैउसीपर दृढ़ रहो तो सब ठीक हो जायगा ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे


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आजकी शुभ तिथि–
चैत्र कृष्ण एकादशी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
पापमोचनी एकादशीव्रत (सबका)
स्वतःसिद्ध तत्त्व



(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसेपहले हम नहीं जानते थे कि ये गंगाजी हैं । अब जान गये कि ये गंगाजी हैं तो इसमें क्या परिश्रम हुआ जब गंगाजीको नहीं जानते थेतब भी गंगाजी थीं । अब गंगाजीको जान गये तो भी गंगाजी हैं । गंगाजी तो ज्यों-की-त्यों हैं । कभी गहरी नींद आती है तो जगनेपर हम कहाँ हैं’इसका पता ही नहीं चलता । फिर खयाल जाते ही पता चलता है कि हम अमुक जगहमें हैं तो इसमें क्या परिश्रम होता है केवल उधर दृष्टि नहीं थी । इसी तरह यह याद आ जाय कि हम तो परमात्माके हैंहम कर्ता नहीं हैंहम असंग हैं‒‘असङ्गो ह्ययं पुरुष:’ (बृहदारण्यक ४ । ३ । १५) । यह शरीर तथा संसार पहले मेरा था नहींफिर मेरा रहेगा नहीं,अभी मेरा है नहीं‒इस तरफ दृष्टि चली जाय । अब इसमें क्या उद्योग है क्या परिश्रम है ? ये हमारे कुटुम्बी हैं तो ये कितने दिनोंसे हैं और कितने दिनतक रहेंगे ? ये पहले नहीं थेपीछे नहीं रहेंगे और अब भी नहींमें ही जा रहे हैं । प्रत्यक्ष बात है ! व्याख्यान देना आरम्भ किया तो उस समय जितना व्याख्यान देना बाकी थाउतना अब नहीं रहाकम हो गया । ऐसे कम होते-होते वह समाप्त हो जायगा । पहले व्याख्यान नहीं थापीछे व्याख्यान नहीं रहेगा और व्याख्यानके समय भी व्याख्यान नहींमें जा रहा है । इसी तरह जन्मसे पहले शरीर नहीं थाबादमें नहीं रहेगा और अब भी निरन्तर नहींमें जा रहा है । जितनी उम्र आ गयीउतना शरीर छूट गया । अत: संसारका सम्बन्ध हरदम छूट रहा है । संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद था और सम्बन्ध-विच्छेद रहेगा तथा अब भी सम्बन्ध-विच्छेद ही हो रहा है ।


श्रोता‒महाराजजी ! परमात्मामें तो क्रिया नहीं है;लेकिन साधन तो करण-सापेक्ष ही होना चाहिये ?

स्वामीजी‒आप करण-सापेक्ष साधन करो तो उसके लिये मैं मना नहीं करता । साधन दो तरहका होता हैएक तो जहाँ हम स्थित हैंवहाँसे ऊँचा उठना होता है और एक जहाँ हमें पहुँचना है वहाँ प्रवेश होता है । ऊँचा उठनेके लिये तो करण-सापेक्ष हैपर प्रवेशमें करण-सापेक्ष नहीं है । जैसे हमें यहाँसे दूसरी जगह जाना हो तो यहाँसे चलना होगापर जहाँ जाना हैवहाँ प्रवेश होनेके बाद क्या चलना होगा ?ऐसे ही जो वास्तविक तत्त्व हैउसको पहलेसे ही देखें तो वह ज्यों-का-त्यों ही हैअत: इसमें करण-सापेक्ष क्या होगा ?केवल भूलको मिटाना हैजो गलती की हैउसका सुधार करना है ।

गलतीको गलती समझते ही गलती मिट जाती है‒यह एक कायदा है । यह सही नहीं है गलत है‒इतना जानते ही गलती मिट जाती है । इसमें उद्योग क्या है जैसे मैंने कहा कि शरीर पहले नहीं था और पीछे नहीं रहेगा तथा अभी जितने दिन शरीर रहाउतने दिन हमारा और शरीरका सम्बन्ध-विच्छेद हुआ है । अब इसमें उद्योग क्या करोगे ? साधन क्या करोगे पहले उधर ख्याल नहीं थायह ख्याल था कि हम तो जी रहे हैं । अब यह ख्याल आ गया कि हम मर रहे हैं । केवल ज्ञानमें ही फर्क पड़ा । सही बात ध्यानमें आ गयी‒यह फर्क पड़ा । इसमें करण-सापेक्ष साधन क्या हुआ सीखना करण-सापेक्ष होगाक्योंकि किसीने सिखायापुस्तक पढ़ीयाद कियातो यह करण-सापेक्ष होगापरन्तु वस्तुस्थितिमें करण-सापेक्ष कैसे होगा ? जो हैउसकी तरफ केवल दृष्टि डालनी है‒
संकर  सहज  सरूपु  सम्हारा ।
लागि समाधि अखंड अपारा ॥
                                                               (मानस १ । ५८ । ४)

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे


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