।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७४, मंगलवार
             प्रबोधिनी एकादशी-व्रत (सबका)
         भगवान्‌ आज ही मिल सकते है



(गत ब्लॉगसे आगेका)

परमात्मा किसी मूल्यके बदले नहीं मिलते । मूल्यसे वही वस्तु मिलती है, जो मूल्यसे छोटी होती है । बाजारमें किसी वस्तुके जितने रुपये लगते हैं, वह वस्तु उतने रुपयोंकी नहीं होती । हमारे पास ऐसी कोई वस्तु (क्रिया और पदार्थ) है ही नहीं, जिससे परमात्माको प्राप्त किया जा सके । वह परमात्मा अद्वितीय है, सदैव है, समर्थ है, सब समयमें है और सब जगह है । वह हमारा है और हमारेमें हैसर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः’ (गीता १५/१५), ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’ (गीता १८/६१)  वह हमारेसे दूर नहीं है । हम चौरासी लाख योनियोमें चले जायँ तो भी भगवान् हमारे हृदयमें रहेंगे । स्वर्ग या नरकमें चले जायँ तो भी वे हमारे हृदयमें रहेंगे । पशु-पक्षी या वृक्ष बन जायँ तो भी वे हमारे हृदयमें रहेंगे । देवता बन जायँ तो भी वे हमारे हृदयमें रहेंगे । तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त बन जायँ तो भी वे हमारे हृदयमें रहेंगे । दुष्ट-से-दुष्ट, पापी-से-पापी, अन्यायी-से-अन्यायी बन जायँ तो भी भगवान् हमारे हृदयमें रहेंगे । ऐसे सबके हृदयमें रहनेवाले भगवान्‌की प्राप्ति क्या कठीन होगी ? पर जीनेकी इच्छा, मानकी इच्छा, बड़ाईकी इच्छा, सुखकी इच्छा, भोगकी इच्छा आदि दूसरी इच्छाएँ साथमें रहते हुए भगवान् नहीं मिलते । कारण कि भगवान्‌के समान तो भगवान् ही हैं । उनके समान दूसरा कोई था ही नहीं, है ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं, फिर वे कैसे मिलेंगे ? केवल भगवान्‌की चाहना होनेसे ही वे मिलेंगे । अविनाशी भगवान्‌के सामने नाशवान्‌की क्या कीमत है ? क्या नाशवान् क्रिया और पदार्थके द्वारा वे मिल सकते हैं ? नहीं मिल सकते । जब साधक भगवान्‌से मिले बिना नहीं रह सकता, तब भगवान् भी उससे मिले बिना नहीं रहते; क्योंकि भगवान्‌का स्वभाव हैंये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता ४/११) जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ ।


मान लें कि कोई मच्छर गरुड़जीसे मिलना चाहे और गरुड़जी भी उससे मिलना चाहें तो पहले मच्छर गरुड़जीके पास पहुँचेगा या गरुड़जी मच्छरके पास पहुँचेंगे ? गरुड़जीसे मिलनेमें मच्छरकी ताकत काम नहीं करेगी । इसमें तो गरुड़जीकी ताकत ही काम करेगी । इसी तरह परमात्मप्राप्तिकी इच्छा हो तो परमात्माकी ताकत ही काम करेगी । इसमें हमारी ताकत, हमारे कर्म, हमारा प्रारब्ध काम नहीं करेगा, प्रत्युत हमारी चाहना ही काम करेगी । हमारी चाहनाके सिवाय और किसी चीजकी आवश्यकता नहीं है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘मानवमात्रके कल्याणके लिये’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०७४, सोमवार
                     एकादशी-व्रत कल है
         भगवान्‌ आज ही मिल सकते है



परमात्मप्राप्ति बहुत सुगम है । इतना सुगम दूसरा कोई काम नहीं है । परन्तु केवल परमात्माकी ही चाहना रहे, साथमें दूसरी कोई चाहना न रहे । कारण कि परमात्माके समान दूसरा कोई है ही नहीं । जैसे परमात्मा अनन्य हैं, ऐसे ही उनकी चाहना भी अनन्य होनी चाहिये । सांसारिक भोगोंके प्राप्त होनेमें तीन बातें होनी जरुरी हैंइच्छा, उद्योग और प्रारब्ध । पहले तो सांसारिक वस्तुको प्राप्त करनेकी इच्छा होनी चाहिये, फिर उसकी प्राप्तिके लिये कर्म करना चाहिये । कर्म करनेपर भी उसकी प्राप्ति तब होगी, जब उसके मिलनेका प्रारब्ध होगा । अगर प्रारब्ध नहीं होगा तो इच्छा रखते हुए और उद्योग करते हुए भी वस्तु नहीं मिलेगी । इसलिये उद्योग तो करते हैं नफेके लिये, पर लग जाता है घाटा ! परन्तु परमात्माकी प्राप्ति इच्छामात्रसे होती है । इसमें उद्योग और प्रारब्धकी जरूंरत नहीं है । परमात्माके मार्गमें घाटा कभी होता ही नहीं, नफा-ही-नफा होता है ।

एक परमात्माके सिवाय कोई भी चीज इच्छामात्रसे नहीं मिलती । कारण यह है कि मनुष्यशरीर परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही मिला है । अपनी प्राप्तिका उद्देश्य रखकर ही भगवान्‌ने हमारेको मनुष्यशरीर दिया है । दूसरी बात, परमात्मा सब जगह हैं । सुईकी तीखी नोक टिक जाय, इतनी जगह भी भगवान्‌से खाली नहीं है । अतः उनकी प्राप्तिमें उद्योग और प्रारब्धका काम नहीं है । कर्मोंसे वह चीज मिलती है, जो नाशवान् होती है । अविनाशी परमात्मा कर्मोंसे नहीं मिलते । उनकी प्राप्ति उत्कट इच्छामात्रसे होती है ।

पुरुष हो या स्त्री हो, साधु हो या गृहस्थ हो, पढ़ा-लिखा हो या अपढ़ हो, बालक हो या जवान हो, कैसा ही क्यों न हो, वह इच्छामात्रसे परमात्माको प्राप्त कर सकता है । परमात्माके सिवाय न जीनेकी चाहना हो, न मरनेकी चाहना हो, न भोगोंकी चाहना हो, न संग्रहकी चाहना हो । वस्तुओंकी चाहना न होनेसे वस्तुओंका अभाव नहीं हो जायगा । जो हमारे प्रारब्धमें लिखा है, वह हमारेको मिलेगा ही । जो चीज हमारे भाग्यमें लिखी है, उसको दूसरा नहीं ले सकतायदस्मदीयं न ही तत्परेषाम् हमारेको आनेवाला बुखार दूसरेको कैसे आयेगा ? ऐसे ही हमारे प्रारब्धमें धन लिखा है तो जरुर आयेगा । परन्तु परमात्माकी प्राप्तिमें प्रारब्ध नहीं है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘मानवमात्रके कल्याणके लियेपुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०७४, रविवार
                        अक्षयनवमी
         कल्याणके तीन सुगम मार्ग



(गत ब्लॉगसे आगेका)

भगवान्‌ने अपनेको भक्तोंके पराधीन कहा है‒ ‘अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज’ (श्रीमद्भा९/४/६३) । यह प्रेमकी विलक्षणता है । भगवान्‌ प्रेमके भूखे हैं । वास्तवमें भगवान्‌ पराधीन नहीं हैं, प्रत्युत पराधीनताकी तरह (इव) हैं । पराधीनता वहाँ होती है, जहाँ भेद हो । भक्तिमें भेद मिटकर भगवान्‌ तथा भक्तमें अभिन्नता हो जाती है, फिर पराधीनताका प्रश्न ही पैदा नहीं होता । जब ‘पर’ (क्रिया और पदार्थ)-का सम्बन्ध सर्वथा मिट जाता है, तब भगवान्‌में प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम होता है । प्रेममें न तो कोई दूसरा है, न कोई पराया है । अतः प्रेममें पराधीनताकी गन्ध भी नहीं है ।

भक्तियोग साध्य है । ज्ञानयोग तथा कर्मयोग साधन हैं । संसारके बन्धन (जन्म-मरण)-से छूटनेका नाम मुक्ति है । ज्ञानयोग तथा कर्मयोगसे मुक्ति होती है[*] । भक्तियोगमें मुक्तिके साथ-साथ प्रेमकी भी प्राप्ति होती है । इसलिये भक्तियोग विशेष है ।
                                                    
नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘कल्याणके तीन सुगम मार्ग’ पुस्तकसे




[*] भगवान्‌ने ज्ञानयोग और कर्मयोगको समकक्ष कहा है‒

                                  साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
                                  एकमप्यास्थितः    सम्यगुभयोर्विन्दते    फलम् ॥
                                  यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं   तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥ 
                                                 (गीता ५/४-५)

 ‘बेसमझ लोग सांख्ययोग और कर्मयोगको अलग-अलग फलवाले कहते हैं, न कि पण्डितजन; क्योंकि इन दोनोंमेंसे एक साधनमें भी अच्छी तरहसे स्थित मनुष्य दोनोंके फलरूप परमात्माको प्राप्त कर लेता है ।’

  ‘सांख्ययोगियोंके द्वारा जो तत्त्व प्राप्त किया जाता है, वह कर्मयोगीयोंके द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है । अतः जो मनुष्य सांख्ययोग और कर्मयोगको फलरूपमें एक देखता है, वही ठीक देखता है ।’

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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७४, शनिवार
                        श्रीगोपाष्टमी
         कल्याणके तीन सुगम मार्ग



(गत ब्लॉगसे आगेका)

जगत्‌की सत्ता ‘मैं’ के कारण ही है । जगत्‌ ‘मैं’ से ही पैदा होता है । जीवमें जो अहंभाव है, उसीसे यह जगत्‌ प्रतीत होता है‒‘ययेदं धार्यते जगत्‌’ (गीता ७/५) । इसलिये जगत्‌ न तो परमात्माकी दृष्टिमें है, न जीवन्मुक्त महात्माकी दृष्टिमें है, प्रत्युत जीवकी दृष्टिमें है । हमारा जो होनापन है, उसमें मैंपन नहीं है । मैंपन जड़-विभागमें है, जबतक हमारा सम्बन्ध जड़ताके साथ है, तबतक जन्म-मरण है । जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद करके सत्तामात्रमें रहना मुक्ति है ।

यह मनुष्य है, यह पशु है, यह पक्षी है; यह जलचर है, यह थलचर है, यह नभचर है; यह ईंट है, यह चुना है, यह पत्थर है‒सबमें ‘है’-पन रहता है । परन्तु साथमें ‘मैं’-पन होनेसे बन्धन हो जाता है । तत्त्वज्ञ पुरुषोंकी स्थिति ‘है’ में होती है । यद्यपि सबकी स्थिति ‘है’ में ही है, पर जड़ताके साथ सम्बन्ध माननेसे ‘मैं हूँ’ हो गया । जड़ताका सम्बन्ध न रहे तो ‘मैं हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘मैं है’ रहेगा । इस स्थितिका नाम जीवन्मुक्ति है ।

पशु, पक्षी, देवता, राक्षस आदि सभीमें समान रीतिसे जो एक सत्ता परिपूर्ण है, वह सत्ता परमात्माका स्वरूप है । उस सत्ताको ‘मैं’ के साथ मिलानेसे जीव हो जाता है, ‘मैं’ से अलग करनेसे मुक्त हो जाता है और भगवान्‌के साथ मिला देनेसे भक्त हो जाता है ।

मनुष्यका खास काम है‒जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद करना; क्योंकि जड़ताको अपना और अपने लिये माननेसे ही सब अनर्थ हुए हैं । जड़ताको अपना और अपने लिये मानेंगे तो फिर जड़ता ही रहेगी, चिन्मयता नहीं आयेगी । इसलिये शरीरको संसारकी सेवामें लगाना है । केवल मनुष्ययोनि ही सेवा करनेके योग्य है । दूसरा कोई सेवा करनेके लिये है ही नहीं । दूसरी योनियोंसे सेवा ले सकते हैं, पर वे सेवा कर नहीं सकतीं । पेड़-पौधोंको हम अपने काममें ले सकते हैं, पर वे खुद हमारा काम नहीं कर सकते । जो सेवा नहीं कर सकता, वह मनुष्यतासे गिर जाता है और पशुतामें चला जाता है । इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह संसारसे मिली हुई वस्तुको संसारकी सेवामें लगा दे और बदलेमें कुछ चाहे नहीं । संसारकी चीज संसारको दे दी तो चाहना किस बातकी ? संसारकी चीज संसारकी सेवामें लगा दे‒यह कर्मयोग हो गया । स्वयं संसारसे अलग होकर चिन्मयतामें स्थित हो जाय‒यह ज्ञानयोग हो गया । स्वयं भगवान्‌में लग जाय‒यह भक्तियोग हो गया ।


शरणागतिमें न तो सांसारिक दीनता है और न पराधीनता ही है । कारण कि भगवान्‌ ‘पर’ नहीं हैं, प्रत्युत ‘स्वकीय’ हैं । प्रकृति तथा उसका कार्य ‘पर’ है । अतः प्रकृति तथा उसका कार्य (क्रिया और पदार्थ)-की अधीनतामें ही पराधीनता है । जैसे, माता-पिताके भक्त पुत्रमें माता-पिताकी पराधीनता नहीं होती, प्रत्युत कर्तव्यका पालन होता है; क्योंकि माता-पिता ‘पर’ नहीं हैं, प्रत्युत ‘निज’ (अपने) हैं । सांसारिक दीनतामें तो कुछ लेनेका भाव रहता है, पर शरणागतिमें कुछ लेना नहीं है, प्रत्युत अपने-आपको देना है । भगवान्‌का अंश होनेके कारण जीव सदासे ही भगवान्‌का है । भगवान्‌के साथ इस नित्य सम्बन्धकी स्मृति ही शरणागति है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘कल्याणके तीन सुगम मार्ग’ पुस्तकसे

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