।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
पौष शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७३, शनिवार
बिन्दुमें सिन्धु


     (गत ब्लॉगसे आगेका)

परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है‒यह बड़ा उत्तम ध्यान है । जैसे आकाश (पोलाहट) सब जगह परिपूर्ण है, ऐसे ही परमात्मा सब जगह समान रीतिसे परिपूर्ण है‒इस बातको सब समयमें याद रखें । यह बढ़िया ध्यान है, जो हर समय, सब काम करते हुए भी हो सकता है । जैसे समुद्रमें डुबकी लगायें तो सब तरफ जल परिपूर्ण है, ऐसे ही पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य, उत्तर, ईशान, ऊपर और नीचे‒इन दसों दिशाओंमें परमात्मा समान रीतिसे परिपूर्ण है ।

कोई भी विद्या न सीखनेपर बुद्धि जैसे खाली रहती है, ऐसे ही सब विद्याएँ सीखनेपर भी बुद्धि खाली रहती है । बुद्धिकी जगह कभी रुकती नहीं; ऐसा नहीं होता कि अब बुद्धिमें और जाननेकी जगह नहीं रही । इसी प्रकार परमात्माके अन्तर्गत अनन्त ब्रह्माण्ड होनेपर भी परमात्मामें जगह रुकती नहीं । तीखी-से-तीखी सुईकी नोक टिके, इतनी जगह भी परमात्माके बिना खाली नहीं है । उसी परमात्माके आप अंश हैं । वह परमात्मा हमारा है‒इस प्रकार परमात्मासे सम्बन्ध जोड़ लें । परमात्माके सिवाय दूसरी कोई चीज हमारी थी नहीं, है नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं । वह परमात्मा सब जगह है‒यह बात दिनमें बार-बार याद करनी चाहिये ।

गंगाजल दिव्य जल है । यह महान् पवित्र है । सब लोगोंको रोजाना सुबह गंगाजलका चरणामृत लेना चाहिये । उसका असर दिनभर रहता है । मेरे विद्यागुरुने कानपुरकी एक बात बतायी कि एक मुसलमानने गलेमें एक छोटी-सी शीशी बाँध रखी थी । उससे पूछा कि इसमें क्या है ? तो उसने कहा कि इसमें गंगाजल है । सुनकर आश्चर्य हुआ कि मुसलमानका गंगाजलसे क्या सम्बन्ध ! इसको तो हिन्दू मानते हैं । उस मुसलमानसे इसका कारण पूछा तो उसने कहा कि एक दिनकी बात है, मैंने देखा कि कोई हिन्दू लोटा-धोती लेकर गंगामें स्नानके लिये जा रहा था । वहाँ मुझे दो यमदूत दिखायी दिये । वे यमदूत पहले मेरे दोस्त थे और उनकी बहुत पहले मौत हो चुकी थी । उनको देखकर मैं डर गया तो वे बोले कि हम मरनेके बाद यमराजके दूतोंमें भरती हो गये हैं, तुम हमसे डरो मत । यह जो आदमी लोटा-धोती लेकर जा रहा है, यह अब मरनेवाला है । इसीको लेनेके लिये हम आये हैं । मैंने कहा कि यह तो बिलकुल ठीक है, यह कैसे मरेगा ? उन यमदूतोंने कहा कि तुम खुद देख लेना । गंगाके किनारेकी रेतपर एक साँड़ खेल रहा था, रेत उछाल रहा था । उन दोनों यमदूतोंर्मेसे एक यमदूत छोटा-सा बनकर उस साँड़के सींगपर बैठ गया । साँड़ भागते हुए आया और उसने अपने सींगोंसे उस आदमीकी छातीपर वार करके उसको मार दिया । उसके मरनेके बाद वे यमदूत मेरेसे बोले कि हम तो उसको लेनेको आये थे, पर ले नहीं जा सके ! अब यह यमराजके पास नहीं जायगा । कारण यह हुआ कि साँड़के सींगमें गंगाकी रेत लगी थी, जो उसके पेटमें चली गयी । इसलिये यह नरकोंमें नहीं जा सकता । इस घटनाका मेरेपर इतना असर पड़ा कि मैंने एक शीशीमें गंगाजल भरकर गलेमें बाँध लिया कि न जाने कब मौत आ जाय । मरते समय गंगाजल भीतर चला जायगा तो यमराजके पास नहीं जाना पड़ेगा ।

‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
पौष शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.२०७३, शुक्रवार
बिन्दुमें सिन्धु


     (गत ब्लॉगसे आगेका)

एक मार्मिक बात है कि सांसारिक पदार्थोंकी चाहना करनेपर तो वे आते नहीं, पर चाहना छोड़ दें तो वे गरज करेंगे । सन्त-महात्मा कुछ नहीं चाहते तो सब उनको भोजन, वस्त्र आदि देना चाहते हैं । उनकी सेवामें रुपया लग जाय तो मानते हैं कि हमारा रुपया सफल हो गया ! जिसके भीतर चाहना है, उसके पास लाखों-करोड़ों-अरबों रुपये हों तो भी वह दरिद्र है‒‘को वा दरिद्रो हि विशालतृष्णः’ (प्रश्नोत्तरी ५)

जो सर्वोपरि परमात्मा हैं, वे हमारे हैं, फिर अन्यकी जरूरत ही क्या है ? दुःख इस बातका है कि भगवान्‌को अपना न मानकर संसारको अपना मानते हैं ! जो संसारको अपना मानता है, वह दुःख पायेगा ही; क्योंकि संसार रहता नहीं । भगवान्‌के भक्तके पास कोई अभाव आता ही नहीं । चाहना होनेपर वस्तु बड़ी तंगीसे, कठिनतासे मिलती है । चाहना न हो तो वस्तु खुली मिलती है । मनमें लेनेकी इच्छा होती है तो ताला लग जाता है । चोरोंके लिये ताला लगता है, सन्तोंके लिये नहीं । सन्तोंके लिये सभी चीजें खुली रहती हैं । योगदर्शनमें आया है‒

अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ।
                                    (योगदर्शन, साधन ३७)

अस्तेय (चोरीके अभाव)-की दृढ़ स्थिति होनेपर योगीके सामने सब प्रकारके रत्न प्रकट हो जाते हैं ।’

जो पासमें कुछ रखता है, उसको वस्तुएँ तंगीसे मिलती हैं । जो साधु पासमें कुछ नहीं रखता, उसके लिये खजाना खुल जाता है ! वस्तुएँ उसके पास अपने-आप आती हैं ।

जब मनुष्य भगवान्‌को अपना मान लेता है, तब उसकी दरिद्रता मिट जाती है । आप भगवान्‌को अपना मान लोगे तो दरिद्रता आपके पड़ोसमें भी नहीं रहेगी ! परन्तु संसारको अपना मानोगे तो दरिद्रता कभी मिटेगी नहीं । आप धनी आदमीको बड़ा सुखी समझते हैं, पर वास्तवमें वह बड़ा दुःखी है ! उसपर दया आनी चाहिये ! धनी आदमी साधुसे, ब्राह्मणसे भी डरते हैं कि ये कुछ माँग न लें ! वे राजकीय आदमियोंसे भी डरते हैं, चोर-डाकुओंसे भी डरते हैं, यहाँतक कि बेटे-पोतोंसे भी डरते हैं कि ये धन नष्ट कर देंगे ! अब उनको सुख, शान्ति कैसे मिलेगी ?


अगर आपका भगवान्‌में प्रेम होगा तो गृहस्थमें भी मौजसे रहोगे, और संसारमें प्रेम होगा तो रोना पड़ेगा ही, रोये बिना रह सकते नहीं !

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
पौष अमावस्या, वि.सं.२०७३, गुरुवार
अमावस्या
बिन्दुमें सिन्धु


     (गत ब्लॉगसे आगेका)

किसीको बुरा समझना भी उसका अहित करना है । दूसरेको बुरा माननेमात्रसे आपका अन्तःकरण मैला होता है । जो हमारा बुरा करे, उसका भी बुरा नहीं करना है । यह मार्मिक बात है कि किसीने हमारा बुरा किया है, वह हमारा बुरा नहीं हुआ है, प्रत्युत उससे हमारे पाप कटे हैं, हम शुद्ध हुए हैं । इसलिये हमारा बुरा कोई कर नहीं सकता ।

जो किसीका बुरा करना चाहता है, वह अपना ही बुरा करता है । किसीका बुरा चाहनेसे उसका बुरा हो जाय, यह निश्चित नहीं है, पर आपका बुरा हो जायगा, आपका अन्तःकरण अशुद्ध हो जायगा, यह निश्चित है । अगर दुष्ट लोगोंकी चाहना पूरी हो जाती, उनका वश चलता तो वे संसारमें किसीको सुखी नहीं रहने देते । परन्तु उनका वश उसीपर चलता है, जिसका प्रारब्ध खराब आया हो ।

दूसरेको शाप देनेसे उसको शाप लगे चाहे न लगे, पर आपका अन्तःकरण जरूर मैला हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं है । द्वारका जाते समय बीचमें भगवान् श्रीकृष्णको उत्तंक मुनि मिले । उत्तंक मुनिने कहा कि महाराज, आपने कौरवों-पाण्डवोंका युद्ध नहीं होने दिया, यह आपने बहुत ठीक काम किया !’ भगवान्‌ने कहा कि युद्ध तो हो गया और कौरव मारे गये !’ यह सुनकर उत्तंकने कहा कि आपके रहते युद्ध हो गया ! यह आपने ठीक नहीं किया । मैं आपको शाप दूँगा !’ भगवान्‌ने कहा कि इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है; अतः शाप देनेसे मेरेको तो शाप लगेगा नहीं, पर आपका पुण्य नष्ट हो जायगा’ (महाभारत, आश्व ५४) ।

सन्तलोग अपना अन्तःकरण शुद्ध रखनेके लिये बड़े तत्पर रहते हैं । एक साधु थे । उनकी मान-बड़ाई ज्यादा होने लगी तो उनसे द्वेष रखनेवाले कुछ लोग लाठी लेकर उनको मारने आये । साधुने तुरन्त एक चादर ओढ़ ली और आँखें मीच लीं । साधुको कई चोटें आयीं । लोगोंने साधुसे पूछा कि आपने चादर क्यों ओढ़ी ? क्या चादर ओढ़नेसे लाठीकी मार नहीं पड़ती ? वे साधु बोले कि अगर मैं उनको देख लेता और पहचान लेता तो उनके प्रति मेरे मनमें बुरा भाव आ जाता कि ये मेरा बुरा करनेवाले हैं ! मैं उनको देख न सकूँ, इसलिये मैंने चादर ओढ़ ली ।

सत्संग अलग चीज है और व्याख्यान, कथा अलग चीज है । सत्‌के साथ सम्बन्ध हो जाय‒इसको सत्संग’ कहते हैं । संसारमें जितना दुःख है, वह असत्‌के संगका फल है । असली सत्संग हो जाय अर्थात् सत्‌के साथ प्रेम हो जाय तो फिर दुःख नहीं होगा, विकार नहीं होगा, जन्म-मरण नहीं होगा, प्रत्युत स्वतः आनन्द रहेगा । कारण कि सत्‌में विकृति नहीं होती; सत्‌का अभाव नहीं होता‒‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) और अभाव हुए बिना दुःख नहीं होता । अतः सत्‌का संग होनेसे दुःख सदाके लिये मिट जाता है । उस सत्‌के साथ सम्बन्ध जुड़ जानेका नाम ही सत्संग’ है । सत्‌के साथ सम्बन्ध तभी जुड़ता है, जब असत्‌का त्याग कर देते हैं । त्यागसे तत्काल शान्ति मिलती है‒‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरन्’ (गीता १२ । १२)

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
पौष कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.२०७३, बुधवार
श्राद्धादिकी अमावस्या
बिन्दुमें सिन्धु


     (गत ब्लॉगसे आगेका)

परमात्मा है’इतना याद रहना बहुत लाभकी बात है ! यह बहुत सुगम तथा श्रेष्ठ ध्यान है । संसारमें जो है’-पना दीखता है, वह परमात्माका ही है, संसारका नहीं । संसार तो एक क्षण भी नहीं टिकता । इसमें खुदमें है’-पना है ही नहीं । परमात्माका है’-पना ही संसारमें दीखता है । है’- रूपसे सब जगह परमात्मा ही है । अगर परमात्मा न हो तो संसार दीखे ही नहीं । जैसे आकाशमें बादल छा जाते हैं, बिजली चमकती है, वर्षा होती है, पर आकाश ज्यों-का-त्यों अटल, निर्विकार रहता है । उस है’-रूप परमात्माका अंश ही यह जीवात्मा है । इसीलिये कहा जाता है कि मुक्ति होती नहीं, मुक्ति है । बन्धन (भूल) -के मिटनेको मुक्ति होना कहते हैं । वास्तवमें बन्धन अनित्य है । एक बार बन्धन मिटनेके बाद पुनः कथन नहीं होता‒‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव’ (गीता ४ । ३५)

परमात्मा स्वतः-स्वाभाविक है । उसका अनुभव करनेके लिये पहले दृढ़तासे मान लें कि परमात्मा है’ । पीछे माना हुआ अनुभवमें आ जायगा । संसारकी सत्ताको लेकर ही दुःख है । संसारकी सत्ता हटते ही दुःख हट जायगा, आनन्द रह जायगा । इसका पता कैसे लगे ? जो सत्संग नहीं करते, उनका धन आदि नष्ट हो जाय तो वे बड़े दुःखी हो जाते हैं । परन्तु सत्संग करनेवालोंमें दुःख, चिन्ता, भय आदि कम होते हैं । जितने-जितने कम होते हैं, उतना-उतना उनको चेत, होश हुआ है । सुख स्वतः है, दुःख बनावटी है ।
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आपके द्वारा किसीका अहित नहीं होना चाहिये । दूसरेके अहितकी बात सोचना पारमार्थिक मार्गमें बड़ी भारी बाधा है । यह दूसरेका नुकसान नहीं है, प्रत्युत अपना नुकसान है । दूसरेका नुकसान तो उतना ही होगा, जितना उसके प्रारब्धमें है, पर अपना नुकसान नया होगा । दूसरेके नुकसानमें उसके पाप नष्ट होंगे, जिससे उसका हित होगा; परन्तु हमारा नया कर्म (पाप) बनेगा, जिससे हमारा अहित होगा । इसलिये वास्तवमें अहित उसीका होता है, जो दूसरेका अहित करता है ।

अगर आप अपना जीवन शुद्ध, निर्मल बनाना चाहते हैं तो किसीका भी बुरा न करें । बुराई न करना भलाईका बीज है । बुराई छोड़नेमात्रसे आप भले हो जाओगे । एक गहरी बात है कि करने’ में तो परिश्रम होता है, पर न करने’ में परिश्रम नहीं होता । भला करनेमें तो परिश्रम है, पर किसीका बुरा न करनेमें कोई परिश्रम नहीं है । करने’ की अपेक्षा न करना’ सुगम होता है । न करने’ में न तो परिश्रम होता है, न पैसे खर्च होते हैं । किसीका बुरा करना, किसीका बुरा चाहना और किसीको बुरा समझना‒ये तीन बातें आप बिल्कुल न करें । केवल यह सावधानी रखनी है कि हमारेसे किसीका अहित न हो जाय । किसीका भी बिगाड़ होता है, वह अपना ही होता है । किसीका बुरा नहीं करेंगे, किसीका बुरा नहीं चाहेंगे और किसीको बुरा नहीं समझेंगे‒इन तीन बातोंका आप नियम ले लो तो आपका कर्मयोग’ सिद्ध हो जायगा । आपका सत्संग करना सफल हो जायगा । आप सत्संग करते हो । सत्संग करनेवालेसे सब लोग अच्छाईकी आशा रखते हैं । 

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे

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