।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.–२०७५, मंगलवार
  सत्संगकी आवश्यकता


मैंने कई जगह कहा है कि कोई तुमसे कहे कि तुम सत्संगमें क्यों जाती हो तो उससे कह देना कि स्वामीजीने हमारे घर आकर सत्संगमें आनेके लिये कह दिया, इस कारण जाती हूँ । उनका कहना मानना ही पड़ता है ! इस तरह सब कलंक मेरेपर दे दो ! ऐसे आप भी अपनेपर कलंक ले लो कि हम भी जायँगी और साथमें इसको भी ले जायँगी । इस तरह आप उत्साह रखो तो सत्संगका प्रचार होगा, सबका हृदय शुद्ध होगा, सबके लाभकी बात होगी ।

हमने एक बात सुनी है और पद भी पढ़े हैं । मीराँबाईने तुलसीदासजी महाराजको पत्र लिखा कि मेरे तो आप ही माँ-बाप हैं, अतः मैं आपसे पूछती हूँ कि मैं भजन-ध्यान करना चाहती हूँ, पर मेरे पति मना करते हैं तो मेरेको क्या करना चाहिये[1] ? उत्तरमें गोस्वामीजी महाराजने लिखा‒

जाके प्रिय न राम-बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ॥ १ ॥
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी ।
बलि गुरु तज्यो, कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी ॥ २ ॥
नाते नेह रामके मनियत सुहृद सुसेव्य जहाँ लौं ।
अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं ॥ ४ ॥
तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो ।
जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो ॥ ५ ॥
                                            (विनयपत्रिका १७४)

जिसको सीतारामजी प्यारे नहीं लगते, उसको करोड़ों वैरियोंके समान समझना चाहिये । इस विषयमें गोस्वामीजीने अनेक उदाहरण दिये । प्रह्लादजीका उदाहरण दिया कि उन्होंने पिताको छोड़ दिया । परन्तु इससे यह उलटी बात मत पकड़ लेना कि हम भी पिताको छोड़ देंगे, पिताका कहना नहीं मानेंगे ! प्रह्लादजीने तो केवल पिताजीकी भजन-निषेधकी बात नहीं मानी । भगवान्‌ने प्रह्लादजीसे कहा कि वरदान माँग तो उन्होंने कहा कि महाराज ! माँगनेकी इच्छा नहीं है, पर आप माँगनेके लिये कहते हो तो मालूम होता है कि मेरे मनमें कामना है । अगर मेरे मनमें कामना न होती तो आप अन्तर्यामी होते हुए ऐसा कैसे कहते ? अतः मैं यही वरदान माँगता हूँ कि मेरे मनमें जो कामना हो, वह नष्ट हो जाय । भगवान्‌ने कहा कि ठीक है । फिर प्रह्लादजीने कहा कि मेरे पिताका कल्याण हो जाय । इस तरह भजनमें बाधा देनेवालेके लिये प्रह्लादजी वरदान माँगते हैं, निष्काम होते हुए भी कामना करते हैं कि मेरे पिताका कल्याण हो जाय ! क्यों माँगते हैं वरदान ? इसलिये कि भगवान् और सब सह सकते हैं, पर भक्तका अपराध नहीं सह सकते‒

सुनु   सुरेस   रघुनाथ   सुभाऊ ।
निज अपराध रिसाहिं न काऊ ॥
जो  अपराधु  भगत  कर  करई ।
राम   रोष   पावक  सो  जरई ॥
                                                     (मानस २ । २१८ । २-३)


[1] स्वस्ति  श्रीतुलसी   गुण-भूषण  दूषण-हरण  गोसाँई ।
    बारहिं बार  प्रणाम  करहुँ  अब  हरहु शोक-समुदाई ॥ १ ॥
    घरके  स्वजन  हमारे   जेते   सबन   उपाधि   बढ़ाई ।
    साधुसंग और भजन करत  मोहि  देत  कलेस  महाई ॥ २ ॥
    सो तो अब छूटत नहिं क्यों हूँ  लगी  लगन  बरियाई ।
    बालपनेमें   मीरा   कीन्हीं     गिरधरलाल   मिताई ॥ ३ ॥
    मेरे  मात  तात  सब  तुम  हो   हरिभक्तन  सुखदाई ।
    मोकों कहा उचित करिबो अब सो लिखिये समुझाई ॥ ४ ॥

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण तृतीया, वि.सं.–२०७५, सोमवार
  सत्संगकी आवश्यकता


एक बात बहनोंसे कहता हूँ, ध्यान देकर सुनें । भाई भी सुनें । घरमें कोई शोक हो जाय और कोई बहन सत्संगमें चली जाय तो ये माताएँ बहुत चर्चा करती हैं कि ‘देखो ! कल इसका बाप मरा, पति मरा और आज यह सत्संगमें जा रही है !’ इस तरह किसीको सत्संगमें जानेसे रोकना पाप है, हत्या है । वह कहीं विवाहमें जाय, गीत-गाने गाये तो ठीक नहीं है, पर सत्संगमें जाय तो क्या हर्ज है ! सत्संगमें जानेसे उसका शोक दूर होगा, चिन्ता दूर होगी, पाप दूर होगा । अतः उसको सत्संगमें ले जाना चाहिये और कहना चाहिये कि हम भी जाती हैं, तुम भी चलो । बाप मर गया, माँ मर गयी, गुरुजन मर गये, पति मर गया तो यह बड़े दुःखकी बात है, पर यह दुःख मिटेगा सत्संग करनेसे, भजन-ध्यान करनेसे, भगवान्‌के शरण होनेसे । आप ऐसा सोचें कि सत्संग, भजन-ध्यानसे हमें जो पुण्य मिले, वह हमारे माँ-बापको, पतिको, गुरुजनोंको मिले । माँ-बाप आदिके लिये सत्संग करो, भजन-ध्यान करो । अतः शोकके समय भी उत्साहपूर्वक सत्संगमें जाना चाहिये ।

कई जगह यह बहुत बुरी रीति है कि पति मर जाय तो स्त्री दो-दो, तीन-तीन वर्षतक एक जगह बैठी रोती रहती है । बाहर जा नहीं सकती । इस रीतिको मिटाना है । मेरे काम पड़ा है । कलकत्तेकी बात है । दो स्त्रियों ऐसी थीं, जिनके पति मर गये । सेठजीके छोटे भाई मोहनलालजीकी मृत्यु हो गयी । उनकी स्त्री सावित्री वहाँ थी । मैं उनके घरपर गया और कहा कि तुम सत्संगमें आओ, रामायणके पाठमें आओ । वह सत्संगमें आने लगी । एक अन्य सज्जन मर गये तो उनकी पत्नीको भी मैंने सत्संगमें आनेके लिये कहा । उसने कहा कि लोग क्या कहेंगे ! तो मैंने कहा कि हमें ऐसी रीति शुरू करनी है । शोकके समय सत्संगमें, तीर्थोंमें, मन्दिरोंमें अवश्य जाना चाहिये और दुःख मिटाना चाहिये । घरमें तो शोक ही होगा और स्त्रियों भी जा-जाकर शोककी ही बातें सुनायेंगी । दुःखकी बातें सुननेसे दुःख होता है और सत्संगकी बातें सुननेसे सुख होता है । अतः माताओ ! कृपा करो, यह भिक्षा दो कि जो सत्संगमें जाये, उसकी चर्चा मत करो । आपकी चर्चासे बड़ा नुकसान होता है । वह सत्संगमें जाती है भजन-ध्यान करती है तो कौन-सा पाप, अन्याय करती है ?

चुगल जुआरी मसखरा  अन्यायी अरु चोर,
वरण-भेल विधवा-भखी गर्भगेर अघ घोर ।
गर्भगेर अघ घोर       ऊँच वेश्या-घर जाई,
मद मांसी रत   वाम हत्यारा पलट सगाई ।
‘रामचरण’   संसारमें    इन सबहनको ठौर,
राम-भगत भावै नहीं,  जगत हरामीखोर ॥

इतने-इतने पापी तो जगत्‌में रह सकते हैं, पर भगवान्‌का भक्त जगत्‌में नहीं रह सकता ! ऐसा मत करो । सत्संगमें जानेके लिये उत्साहित करो । पाँच-दस बहनें साथमें होकर कहें कि तुम सत्संगमें चलो । कोई कहे कि यह कैसे आ गयी ? तो कहो कि हम इसे साथमें ले आयीं ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण द्वितीया, वि.सं.–२०७५, रविवार
  सत्संगकी आवश्यकता


एक ही ध्येय, लक्ष्य हो कि हमें पारमार्थिक उन्नति ही करना है । मेरी तो यहाँतक धारणा है कि यदि हृदयमें सत्संगकी जोरदार इच्छा होगी तो उसको सत्संगमें गये बिना लाभ हो जायगा, दूर बैठे ही उसके मनमें उस सत्संगके भाव पैदा हो जायँगे ! भगवान् तो भावको ग्रहण करते हैं‒‘भावग्राही जनार्दनः ।’

भगवान् हमारे सदाके माँ बाप, पति, गुरु, आचार्य हैं, अतः उनकी आज्ञामें चलो । कर्तव्य-अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र प्रमाण है‒‘तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ’ (गीता १६ । २४) । शास्त्रकी आज्ञा है कि सत्संग, भजन, ध्यान करो । इसलिये कभी मत डरो, निधड़क रहो । पतिकी सेवा करो उत्साहपूर्वक । जैसे, कोई मुनीम या नौकर है, पर उसका मालिक उसको भजन-ध्यानके लिये मना करता है तो उसको मालिकसे कड़वा नहीं बोलना चाहिये, पर मनमें यह विचार पक्का रखना चाहिये कि मैंने इसको समय दिया है और समयके मैं पैसे लेता हूँ, पर मैंने अपना धर्म नहीं बेचा है । यदि वह कहे कि झूठी बही लिखनी पड़ेगी, झूठ-कपट करना पड़ेगा, सेल्स टैक्स और इन्कम टैक्सकी चोरी करनी पड़ेगी, नहीं तो मैं नौकर नहीं रखूँगा तो उसको यह बात मनमें रखनी चाहिये कि अच्छी बात है । वह हमें छोड़ दे तो ठीक है, पर अपने मत छोड़ो । यदि मालिक ऐसे नौकरका त्याग करेगा तो ऐसा ईमानदार नौकर उसको फिर नहीं मिलेगा । जो आदमी मालिकके कहनेपर सरकारकी चोरी नहीं करता, वह मालिककी भी चोरी नहीं करेगा । उसको मालिक छोड़ देगा तो पीछे वह रोयेगा ही । अपने तो निधड़क, निःशंक रहो कि हमने तो कोई पाप नहीं किया । हम पाप, अन्याय नहीं करते तो कुटुम्बी, सम्बन्धी भले ही नाराज हो जाये उस नाराजगीसे बिलकुल मत डरो । मीराँबाईने कहा है‒‘या बदनामी लागे मीठी !’ वे भगवान्‌की पक्की भक्त थीं । उन्होंने कलियुगमें गोपी-प्रेम दिखा दिया । उनको कितना मना किया, जहर दिया, सिंह छोड़ दिया और कहा कि तू हमारेपर कलंक लगानेवाली है तो भी मीराँबाईने कोई परवाह नहीं की । अतः आपका हृदय यदि सच्चा है और भजन-ध्यान कर रहे हैं तो कोई धड़कन लानेकी जरूरत नहीं है ।

यदि पति सत्संगमें जानेके लिये मना करता है तो पतिके हितके लिये उससे बड़ी नम्रता, सरलतासे कह दो कि मैं सत्संगकी बात नहीं छोड़ूँगी । आप जो कहो, वही काम करूँगी । आपकी सेवामें कँभी त्रुटि नहीं पड़ने दूँगी, पर सत्संग-भजन नहीं छोड़ूँगी । आप सत्संगमें जानेकी आज्ञा दे दो और खुद भी सत्संगमें चलो तो बड़ी अच्छी बात है, आपकी-हमारी दोनोंकी इज्जत रहेगी, नहीं तो सत्संग मैं जाऊँगी । घरमें कोई शोक हो जाय, कोई मर जाय तो ऐसे समयमें भी सत्संगमें, मन्दिरोंमें और तीर्थोंमें जानेके लिये कोई मना नहीं है अर्थात् जरूर जाना चाहिये । शोकके समय सत्संगमें जानेसे शोक मिटता है, जलन मिटती है, शान्ति मिलती है, इसलिये जरूर जाना चाहिये ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.–२०७५, शनिवार
  सत्संगकी आवश्यकता



प्रत्येक मनुष्यको शास्त्रके विधानके अनुसार कार्य करना चाहिये । भगवान्, सन्त-महात्मा और शास्त्र‒ये तीनों निष्पक्ष हैं, समतावाले हैं, प्राणिमात्रके सुहद् हैं और सबका हित चाहते हैं; अतः इनकी बात कभी टालनी नहीं चाहिये । ये हमारेसे कुछ भी नहीं चाहते, प्रत्युत केवल हमारा हित करते हैं । गोस्वामीजी कहते हैं‒

हेतु रहित  जग  जुग उपकारी ।
तुम्ह  तुम्हार  सेवक असुरारी ॥
स्वारथ मीत सकल जग माहीं ।
सपनेहुँ प्रभु  परमारथ  नाहीं ॥
                                                    (मानस ७ । ४७ । ३)

एक भगवान् और एक भगवान्‌के भक्त‒ये दोनों निस्वार्थभावसे सबका हित करनेवाले हैं । भगवान्‌में तो यह बात स्वाभाविक है और वही स्वभाव भक्तोंमें भी उतर आता है । अतः हमें इनकी बात माननी चाहिये ।

स्त्रियोंके लिये पति ही गुरु माना गया है; अतः उनको स्वतन्त्र गुरु बनानेकी जरूरत नहीं है । गुरुके विषयमें आया है कि यदि गुरु अभिमानी है, अहंकार रखता है, शरीरको बड़ा मानता है कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक नहीं रखता, खराब रास्ते चल पड़ा है तो ऐसे गुरुका परित्याग कर देना चाहिये‒‘परित्यागो विधीयते ।’ अगर वह भजन-स्मरण, सत्संग करनेमें भगवान्‌के सम्मुख होनेमें बाधा देता हो तो उसकी बात नहीं माननी चाहिये । कारण कि वह तो इस जन्मका गुरु है, पर आध्यात्मिक उन्नति सदाकी उन्नति है । गुरु, पति, माता-पिता आदि तो इस जन्मके हैं, पर भगवान् हैं, तत्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष हैं, धर्म है‒ये सब नित्य हैं । इसमें एक मार्मिक बात बताता हूँ, आप ध्यान दें ।


पति आदि बड़ोंका कहना कहाँ नहीं मानना चाहिये कि जहाँ उनका अहित होता हो । जिससे पति, माँ-बाप आदिका अहित होता हो, उस आज्ञा-पालनसे क्या लाभ ? जैसे, पति सत्संग जानेमें रुकावट देता है, जाने नहीं देता तो उसकी बात नहीं माननी चाहिये । जिस भाई या बहनकी सत्संगमें जानेकी जोरदार इच्छा है, जो केवल पारमार्थिक लाभके लिये ही सत्संगमें जाना चाहता है, जिसके भाव और आचरण बहुत ठीक शुद्ध हैं, उसको यदि गुरुजन सत्संगमें जानेके लिये मना करते हैं और वह सत्संगमें नहीं जाता तो उसको कोई पाप नहीं लगेगा, पर मना करनेवालोंको पाप लग जायगा । इसलिये उनके भलेके लिये उनकी बात नहीं माननी चाहिये कि वे कहीं पापी न बन जायँ, उनको कहीं नरक न हो जाय ! तात्पर्य है कि जो भगवत्सम्बन्धी बातोंके लिये, आत्मोद्धारकी बातोंके लिये मना करते हैं, उनकी बातको नहीं मानना चाहिये । खूब निधड़क होकर सत्संगमें जाना चाहिये और साफ कह देना चाहिये कि मैं तो सत्संगमें जाऊँगा । परन्तु बहनो ! इतनी बात जरूर हो कि उद्दण्डता न हो, उच्छृंखलता न हो, मनमाना आचरण न हो ।

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