।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–

कार्तिक कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०८०, मंगलवार


श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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साधकको संसारके प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति आदिमें स्पष्‍ट ही अपना राग दीखता है । उस रागको वह अपने बन्धनका खास कारण मानता है तथा उसे मिटानेकी चेष्‍टा भी करता है । उस रागको मिटानेके लिये कर्मयोगी किसी भी प्राणी, पदार्थ आदिको अपना नहीं मानता,

१.कर्मयोगी सेवा करनेके लिये तो सबको अपना मानता है, पर अपने लिये किसीको भी अपना नहीं मानता ।

अपने लिये कुछ नहीं करता तथा अपने लिये कुछ नहीं चाहता । क्रियाओंसे सुख लेनेका भाव रहनेसे कर्मयोगीकी क्रियाएँ परिणाममें सबका हित तथा वर्तमानमें सबकी प्रसन्‍नता और सुखके लिये ही हो जाती हैं । क्रियाओंसे सुख लेनेका भाव होनेसे क्रियाओंमें अभिमान (कर्तृत्व) और ममता हो जाती है । परन्तु उनसे सुख लेनेका भाव सर्वथा रहनेसे कर्तृत्व समाप्‍त हो जाता है । कारण कि क्रियाएँ दोषी नहीं हैं, क्रियाजन्य आसक्ति और क्रियाओंके फलको चाहना ही दोषी है । जब साधक क्रियाजन्य सुख नहीं लेता तथा क्रियाओंका फल नहीं चाहता तब कर्तृत्व रह ही कैसे सकता है ? क्योंकि कर्तृत्व टिकता है भोक्तृत्वपर । भोक्तृत्व रहनेसे कर्तृत्व अपने उद्‌देश्यमें (जिसके लिये कर्म करता है, उसमें) लीन हो जाता है और एक परमात्मतत्त्व शेष रह जाता है ।

कर्मयोगीका अहम् (व्यक्तित्व) शीघ्र तथा सुगमतापूर्वक नष्‍ट हो जाता है, जबकि ज्ञानयोगीका अहम्दूरतक साथ रहता है । कारण यह है कि मैं सेवक हूँ (केवल सेव्यके लिये सेवक हूँ, अपने लिये नहीं)ऐसा माननेसे कर्मयोगीका अहम्भी सेव्यकी सेवामें लग जाता है; परन्तु मैं मुमुक्षु हूँऐसा माननेसे ज्ञानयोगीका अहम्साथ रहता है । कर्मयोगी अपने लिये कुछ करके केवल दूसरोंके हितके लिये सब कर्म करता है, पर ज्ञानयोगी अपने हितके लिये साधन करता है । अपने हितके लिये साधन करनेसे अहम्ज्यों-का-त्यों बना रहता है ।

ज्ञानयोगकी मुख्य बात हैसंसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव करना और कर्मयोगकी मुख्य बात हैरागका अभाव करना । ज्ञानयोगी विचारके द्वारा संसारकी सत्ताका अभाव तो करना चाहता है, पर पदार्थोंमें राग रहते हुए उसकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव होना बहुत कठिन है । यद्यपि विचारकालमें ज्ञानयोगके साधकको पदार्थोंकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव दीखता है, तथापि व्यवहारकालमें उन पदार्थोंकी स्वतन्त्र सत्ता प्रतीत होने लगती है । परन्तु कर्मयोगके साधकका लक्ष्य दूसरोंको सुख पहुँचानेका रहनेसे उसका राग स्वतः मिट जाता है । इसके अतिरिक्त मिली हुई सामग्रीका त्याग करना कर्मयोगीके लिये जितना सुगम पड़ता है, उतना ज्ञानयोगीके लिये नहीं । ज्ञानयोगकी दृष्‍टिसे किसी वस्तुको मायामात्र समझकर ऐसे ही उसका त्याग कर देना कठिन पड़ता है; परन्तु वही वस्तु किसीके काम आती हुई दिखायी दे तो उसका त्याग करना सुगम पड़ता है । जैसे, हमारे पास कम्बल पड़े हैं तो उन कम्बलोंको दूसरोंके काममें आते जानकर उनका त्याग करना अर्थात् उनसे अपना राग हटाना साधारण बात है; परन्तु (यदि तीव्र वैराग्य हो तो) उन्हीं कम्बलोंको विचारद्वारा अनित्य, क्षणभंगुर, स्वप्‍नके मायामय पदार्थ समझकर ऐसे ही छोड़कर चल देना कठिन है । दूसरी बात, मायामात्र समझकर त्याग करनेमें (यदि तेजीका वैराग्य हो तो) जिन वस्तुओंमें हमारी सुखबुद्धि नहीं है, उन खराब वस्तुओंका त्याग तो सुगमतासे हो जाता है, पर जिनमें हमारी सुखबुद्धि है, उन अच्छी वस्तुओंका त्याग कठिनतासे होता है । परन्तु दूसरेके काम आती देखकर जिन वस्तुओंमें हमारी सुखबुद्धि है, उन वस्तुओंका त्याग सुगमतासे हो जाता है; जैसेभोजनके समय थालीमेंसे रोटी निकालनी पड़े तो ठंडी, बासी और रूखी रोटी ही निकालेंगे । परन्तु यदि वही रोटी किसी दूसरेको देनी हो तो अच्छी रोटी ही निकालेंगे, खराब नहीं । इसलिये कर्मयोगकी प्रणालीसे रागको मिटाये बिना सांख्ययोगका साधन होना बहुत कठिन है । विचारद्वारा पदार्थोंकी सत्ता मानते हुए भी पदार्थोंमें स्वाभाविक राग रहनेके कारण भोगोंमें फँसकर पतनतक होनेकी सम्भावना रहती है ।

केवल असत्‌के ज्ञानसे अर्थात् असत्‌को असत् जान लेनेसे रागकी निवृत्ति नहीं होती

२.असत्‌को असत् जाननेसे उसकी निवृत्ति तभी होती है, जब अपने स्वरूपमें स्थित होकर असत्‌को असत्‌रूपसे जानते हैं । स्वरूपमें स्थिति करण-निरपेक्ष है । परन्तु बुद्धि आदि करणोंसे असत्‌को असत् जाननेसे उसकी निवृत्ति नहीं होती; क्योंकि बुद्धि आदि करण भी असत् हैं । अत: असत्‌के ही द्वारा असत्‌को जाननेसे उसकी निवृत्ति कैसे हो सकती है ?

जैसे, सिनेमामें दीखनेवाले पदार्थों आदिकी सत्ता नहीं हैऐसा जानते हुए भी उसमें राग हो जाता है । सिनेमा देखनेसे चरित्र, समय, नेत्र-शक्ति और धनइन चारोंका नाश होता हैऐसा जानते हुए भी रागके कारण सिनेमा देखते हैं । इससे सिद्ध होता है कि वस्तुकी सत्ता होनेपर भी उसमें राग अथवा सम्बन्ध रह सकता है । यदि राग हो तो वस्तुकी सत्ता माननेपर भी उसमें राग उत्पन्‍न नहीं होता । इसलिये साधकका मुख्य काम होना चाहियेरागका अभाव करना, सत्ताका अभाव करना नहीं; क्योंकि बाँधनेवाली वस्तु राग या सम्बन्ध ही है, सत्तामात्र नहीं । पदार्थ चाहे सत् हो, चाहे असत् हो, चाहे सत्-असत्‌से विलक्षण हो, यदि उसमें राग है तो वह बाँधनेवाला हो ही जायगा । वास्तवमें हमें कोई भी पदार्थ नहीं बाँधता । बाँधता है हमारा सम्बन्ध, जो रागसे होता है । अतः हमारेपर राग मिटानेकी ही जिम्मेवारी है ।

परिशिष्‍ट भावयद्यपि योगके बिना कर्म और ज्ञानदोनों ही बन्धनकारक हैं, तथापि कर्म करनेसे उतना पतन नहीं होता, जितना पतन वाचिक (सीखे हुए) ज्ञानसे होता है । वाचिक ज्ञान नरकोंमें ले जा सकता है

अज्ञस्यार्धप्रबुद्धस्य सर्वं ब्रह्मेति यो वदेत् ।

महानिरयजालेषु  स तेन विनियोजितः ॥

                            (योगवासिष्‍ठ, स्थिति ३९)

जो बेसमझ मनुष्यको सब कुछ ब्रह्म हैऐसा उपदेश देता है, वह उस मनुष्यको महान् नरकोंके जालमें डाल देता है ।

अतः वाचक ज्ञानीकी अपेक्षा कर्म करनेवाला श्रेष्‍ठ है । फिर जो कर्मयोगका आचरण करता है, उसकी श्रेष्‍ठताका तो कहना ही क्या ! ज्ञानयोगी तो केवल अपने लिये उपयोगी होता है, पर कर्मयोगी संसारमात्रके लिये उपयोगी होता है । जो संसारके लिये उपयोगी होता है, वह अपने लिये भी उपयोगी हो जाता हैयह नियम है । इसलिये कर्मयोग विशेष है ।

सांख्ययोगके बिना तो कर्मयोग हो सकता है, पर कर्मयोगके बिना सांख्ययोग होना कठिन है (गीतापाँचवें अध्यायका छठा श्‍लोक) इसलिये सांख्ययोगकी अपेक्षा कर्मयोग विशेष है । सांख्ययोगसे कर्मयोग श्रेष्‍ठ है और कर्मयोगसे भक्तियोग श्रेष्‍ठ है (गीताछठे अध्यायका सैंतालीसवाँ श्‍लोक) इसलिये गीतामें पहले सांख्ययोग, फिर कर्मयोग और फिर भक्तियोगइस क्रमसे विवेचन किया गया है

.भागवतमें भी यही क्रम है

योगास्‍त्रयो  मया   प्रोक्ता  नृणां  श्रेयोविधित्सया ।

ज्ञानं कर्म च भक्तिश्‍च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित् ॥

(श्रीमद्भा ११ । २० । ६)

अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्योंके लिये मैंने तीन योगमार्ग बताये हैंज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग । इन तीनोंके सिवाय दूसरा कोई कल्याणका मार्ग नहीं है ।’

फलमें कर्मयोग और ज्ञानयोग एक हैं (गीतापाँचवें अध्यायका चौथा-पाँचवाँ श्‍लोक) साधनमें कर्मयोग और भक्तियोग एक हैं‘मैत्रः करुण एव (गीता १२ । १३); क्योंकि कर्मयोग और भक्तियोगदोनोंमें ही दूसरेको सुख देनेका भाव रहता है । कर्म करनेमें कर्मी और कर्मयोगी एक हैं (गीतातीसरे अध्यायका पचीसवाँ श्‍लोक) तथा तत्त्वज्ञ महापुरुष और भगवान् भी कर्म करनेमें साथ हैं (गीतातीसरे अध्यायके बाईसवेंसे छब्बीसवें श्‍लोकतक) इस प्रकार कर्मी, ज्ञानयोगी, भक्तियोगी और भगवान्चारोंके साथ कर्मयोगी एक हो जाता हैयह कर्मयोगकी विशेषता है ।

सांख्ययोगमें तो अहम्‌का सूक्ष्म संस्कार रह सकता है, पर कर्मयोगमें क्रिया और पदार्थसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेसे अहम्‌का सूक्ष्म संस्कार भी नहीं रहता । कर्मयोगमें अकर्म (अभाव) शेष रहता है (गीताचौथे अध्यायका अठारहवाँ श्‍लोक) और सांख्ययोगमें आत्मा शेष रहता है (गीताछठे अध्यायका उनतीसवाँ श्‍लोक)

गीता-प्रबोधनी व्याख्याभगवान् कहते हैं कि यद्यपि सांख्ययोग और कर्मयोगदोनोंसे ही मनुष्यका कल्याण हो जाता है, तथापि कर्मयोगके अनुसार अपने कर्तव्यका पालन करना ही श्रेष्‍ठ है । कर्मयोग सांख्ययोगकी अपेक्षा भी श्रेष्‍ठ तथा सुगम है ।

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