।। श्रीहरिः ।।
28 Feb.2013_पारमार्थिक उन्नति धनके आश्रित नहीं
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।। श्रीहरिः ।।
27 Feb.2013_पारमार्थिक उन्नति धनके आश्रित नहीं
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।। श्रीहरिः ।।
26 Feb.2013_पारमार्थिक उन्नति धनके आश्रित नहीं
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।। श्रीहरिः ।।
25 Feb.2013_धन-संग्रहसे हानि
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।। श्रीहरिः ।।
24 Feb.2013_धन-संग्रहसे हानि
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।। श्रीहरिः ।।
23 Feb.2013_धनके लोभमें निन्दा
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।। श्रीहरिः ।।
22 Feb.2013_धनके लोभमें निन्दा
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।। श्रीहरिः ।।
21 Feb.2013_मनुष्य-जीवनकी सफलता
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।। श्रीहरिः ।।
20 Feb.2013_मनुष्य-जीवनकी सफलता
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।। श्रीहरिः ।।
20 Feb.2013_मनुष्य-जीवनकी सफलता
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।। श्रीहरिः ।।
19 Feb.2013_मनुष्य-जीवनका उद्दश्य
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।। श्रीहरिः ।।
18 Feb.2013_मनुष्य-जीवनका उद्दश्य
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।। श्रीहरिः ।।

17 Feb.2013_मनुष्य-जीवनका उद्दश्य
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।। श्रीहरिः ।।
16 Feb.2013_तत्त्वका अनुभव कैसे हो
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।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–

माघ शुक्ल पंचमी, वि.सं.–२०६९, शुक्रवार

तत्त्वका अनुभव कैसे हो ?

(गत ब्लॉगसे आगेका)
            हम पढ़ाई करते हैं तो अध्यापक ‘क, ख, ग, घ.....’ लिखकर बता दे और हम वैसे ही मानकर याद कर लें तो हम पढ़े-लिखे हो जायँगे । ऐसे ही अंग्रेजीकी ‘A, B, C, D....’ लिखकर बता दे और हम वैसे ही मानकर सीख लें तो हमें अंग्रेजी आने लगेगी । अब इसका तो पता लगता नहीं कि ‘A’‒यह ‘ए’ कैसे हुआ ? दो लाइनें इस तरह खींच दीं तथा एक लाइन बीचमें लगा दी और कहा यह ‘A’ है, तो हमने मान लिया कि ठीक है साहब, यह ‘ए’ है । अब माननेके सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं है । अध्यापक जैसा कह दे, उसकी हाँ-में-हाँ मिला दे तो हम सीख जायँगे और एक दिन पंडित हो जायँगे । ऐसे ही जो सन्त-महात्मा हैं, जिनपर हमारी श्रद्धा है, वे जैसा कहें, उनकी हाँ-में-हाँ मिला दे तो फिर हमें वैसा ही अनुभव हो जायगा, इसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है । अक्षरोंके ज्ञानमें तो छोटा-बड़ा होता है; परन्तु तत्त्वज्ञानमें छोटा-बड़ा होता ही नहीं । आजतक सनकादिक, नारदजी, व्यासजी आदि जितने बड़े-बड़े महापुरुष हुए हैं, उनको जो बोध प्राप्त हुआ है, वही बोध आज एक साधारण आदमीको प्राप्त हो सकता है; जिससे बढ़कर कोई विद्वता नहीं है, जिससे बढ़कर कोई सुख-आनन्द नहीं है, जिससे बढ़कर कोई उन्नति नहीं ही, जिससे बढ़कर कोई चीज नहीं है, उसको मनुष्यमात्र प्राप्त कर सकता है । उस तत्त्वको प्राप्त करनेके लिये ही मनुष्यका निर्माण हुआ है । खाना-पीना, सोना आदि तो कुत्तोंमें, गधोंमें भी होता है । उनमें भी बाल-बच्चे होते हैं, परिवार होता है । अब इतना ही काम मनुष्यने कर लिया तो मनुष्यजन्मकी महिमा क्या हुई ? यह तो पशुपना ही है । आकृति तो मनुष्यकी दीखती है, पर मनुष्यपना नहीं है । मनुष्यपना तो वह है, जिसके लिये भगवान्‌ने कृपा करके मनुष्य-शरीर दिया है‒
कबहुँक करि करुना नर देही ।
                           देत ईस     बिनु   हेतु सनेही ॥                           
                                                           (मानस ७/४४/३)
           ऐसे मौकेको भोग भोगने और संग्रह करनेमें ही लगा दिया ! यह तू किस काममें लग गया ? यह क्या धंधा बीचमें ही छेड़ दिया ? कहाँ पहुँचना था तुझे और कहाँ बीचमें अटक गया ? ये भोग भी यहीं छूट जायँगे, शरीर भी यहीं छूट जायगा, रुपये भी यहीं छूट जायँगे । जो छूट जायँगे उनसे तुझे क्या मिला ? असली मिलना तो वह है, जो कभी छूटे नहीं, सदा साथ रहे । इसलिए सज्जनो ! चीज तो वह लो, जो सदा साथ रहे, कभी इधर-उधर हो ही नहीं । शरीरके टुकड़े-टुकड़े कर दिए जायँ, तो भी उस चीजको कोई हमारेसे छीन न सके ।
     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।
14 Feb.. 2013_तत्त्वका अनुभव कैसे हो
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।। श्रीहरिः ।।
13 Feb.. 2013_दृढ़ निश्चयकी महिमा
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।। श्रीहरिः ।।

12 Feb.. 2013_दृढ़ निश्चयकी महिमा
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।। श्रीहरिः ।।

11 Feb.. 2013_भगवत्प्राप्तिसे ही मानव-जीवनकी सार्थकता
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।। श्रीहरिः ।।

10 Feb.. 2013_भगवत्प्राप्तिसे ही मानव-जीवनकी सार्थकता
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।। श्रीहरिः ।।

09 Feb.. 2013_भगवत्प्राप्तिसे ही मानव-जीवनकी सार्थकता
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।। श्रीहरिः ।।

08 Feb.. 2013_भगवत्प्राप्तिसे ही मानव-जीवनकी सार्थकता
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।। श्रीहरिः ।।

07 Feb.. 2013_भगवत्प्राप्तिसे ही मानव-जीवनकी सार्थकता
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।। श्रीहरिः ।।

06 Feb.. 2013_भगवत्प्राप्तिसे ही मानव-जीवनकी सार्थकता
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।। श्रीहरिः ।।

05 Feb.. 2013_भगवत्प्राप्तिसे ही मानव-जीवनकी सार्थकता
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।। श्रीहरिः ।।

04 Feb.. 2013_भगवत्प्राप्तिके लिये भविष्यकी अपेक्षा नहीं
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।। श्रीहरिः ।।

03 Feb.. 2013_भगवत्प्राप्तिके लिये भविष्यकी अपेक्षा नहीं
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।। श्रीहरिः ।।

02 Feb.. 2013_भगवत्प्राप्तिके लिये भविष्यकी अपेक्षा नहीं
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।। श्रीहरिः ।।

01 Feb.. 2013_भगवत्प्राप्तिके लिये भविष्यकी अपेक्षा नहीं
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