।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
दुःखका कारण-संकल्प
 
मनुष्यको दुःख देनेवाला खुदका संकल्प है । ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये‒यह जो मनकी धारणा है, इसीसे दुःख होता है । अगर वह संकल्प छोड़ दे तो एकदम योग (समता) की प्राप्ति हो जायगी‒ ‘सर्वसंकल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते’ (गीता ६/४) । अपना ही संकल्प करके आप दुःख पा रहा है मुफ्तमें ! संकल्पोंका कायदा यह है कि जो संकल्प पूरे होनेवाले हैं, वे तो पूरे होंगे ही और जो नहीं पूरे होनेवाले हैं, वे पूरे नहीं होंगे, चाहे आप संकल्प करें अथवा न करें । सब संकल्प किसीके भी पूरे नहीं हुए, और ऐसा कोई आदमी नहीं है, जिसका कोई संकल्प पूरा नहीं हुआ । तात्पर्य है कि कुछ संकल्प पूरे होते हैं और कुछ संकल्प पूरे नहीं होते‒यह सबके लिये एक सामान्य विधान है । जैसा हम चाहें, वैसा ही होगा‒यह बात है नहीं । जो होना है, वही होगा ।
होइहि सोइ जो राम रचि राखा ।
को  करि  तर्क   बढ़ावै   साखा ॥
                                         (मानस १/५२/४)

इसलिये अपना संकल्प रखना दुःखको, पराधीनताको निमन्त्रण देना है । अपना कुछ भी संकल्प न रखें तो होनेवाला संकल्प पूरा हो जायगा । जैसा तुम चाहो वैसा ही हो जाय‒यह हाथकी बात नहीं है । अतः संकल्प करके क्यों अपनी इज्जत खोते हो ? कुछ आना-जाना नहीं है ! अगर मनुष्य संकल्पोंका त्याग कर दे तो योगारूढ़ हो जाय, तत्त्वकी प्राप्ति हो जाय; जो कुछ बड़ा-से-बड़ा काम है, वह हो जाय; यह मनुष्य जन्म सफल हो जाय, कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहे ! अतः अपना संकल्प कुछ नहीं रखो । वह संकल्प चाहे भगवान्‌के संकल्पपर छोड़ दो, चाहे संसारके संकल्पपर छोड़ दो, चाहे प्रारब्ध (होनहार) पर छोड़ दो और चाहे प्रकृतिपर छोड़ दो* जो अच्छा लगे, उसीपर छोड़ दो तो दुःख मिट जायगा । भगवान्‌पर छोड़ दो तो जैसा भगवान्‌ करेंगे, वैसा हो जायगा । संसारपर छोड़ दो तो संसार (माता-पिता, भाई-बन्धु, कुटुम्ब-परिवार आदि) की जैसी मर्जी होगी, वैसे हो जायगा । अपने प्रारब्धपर छोड़ दो तो प्रारब्धके अनुसार जैसा होना है, वैसा हो जायगा । अपना कोई संकल्प नहीं करना है । अपना संकल्प रखकर बन्धनके सिवाय और कुछ कर नहीं सकते । होगा वही जो भगवान्‌ करेंगे, जो प्रारब्धमें है अथवा जो संसारमें होनेवाला है ।

भगवान्‌ने कहा है‒‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ (गीता २/४७) ‘कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलोंमें कभी नहीं ।’ ऐसा करेंगे और ऐसा नहीं करेंगे, शास्त्रसे विरुद्ध काम नहीं करेंगे‒इसमें तो स्वतन्त्रता है, पर दुःखदायी और सुखदायी परिस्थिति तो आयेगी ही; आप चाहो तो आयेगी, न चाहो तो आयेगी । करनेमें सावधान रहना है । शास्त्रकी, सन्त-महात्माओंकी आज्ञाके अनुसार काम करना है । इसमें कोई भूल होगी तो वह मिट जायगी । कभी भूलसे कोई विपरीत कार्य हो भी जायगा तो वह ठहरेगा नहीं, टिकेगा नहीं, मिट जायगा । खास बात इतनी करनी है कि अपना संकल्प नहीं रखना है । अपना कोई संकल्प न रहे तो आदमी सुखी हो जाय । ‘यूँ भी वाह-वा है और वूँ भी वाह-वा है’ ऐसा हो जाय तो भी ठीक, वैसा हो जाय तो भी ठीक !
रज्जब रोष न कीजिये, कोई कहे क्यों ही ।
हँसकर उत्तर दीजिये, हाँ बाबाजी यों ही ॥

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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          *अपना संकल्प भगवान्‌पर छोड़ दो तो भक्ति मिलेगी, संसारपर छोड़ दो निश्चिन्तता आयेगी और प्रकृतिपर छोड़ दो तो स्वतन्त्रता आयेगी ।
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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण षष्ठी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
दुःख-नाशका उपाय



(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒यह छूटता क्यों नहीं ?

स्वामीजी‒आप छोड़ते क्यों नहीं ? आप कहते हो कि छूटता नहीं, मैं कहता हूँ कि छोड़ते नहीं है ! आप पकड़ना छोड़ दो तो कैसे दे देगा दुःख ? दे नहीं सकता । परन्तु दुःख देनेका भाव रखनेवाला दोषी, पापी जरूर बनेगा, इसमें सन्देह नहीं है । अब एक बहुत बड़ी भूल बताता हूँ । हम जिससे दुःख मिटे, उस उपायको न करके परिस्थिति बदलनेका उद्योग करते हैं, जो सर्वथा निष्फल है । निर्धन है तो धनवान्‌ हो जाय, रोगी है तो निरोग हो जाय, अपमानित है तो सम्मानित हो जाय, निन्दनीय है तो प्रशंसनीय हो जाय‒यह परिस्थिति बदलनेका उद्योग है, जो बिलकुल निरर्थक होगा; क्योंकि यह वृथाभिमान है‒‘अहं करोमिति वृथाभिमानः’ । आप परिस्थिति बदल सकोगे नहीं । इसलिये एक मार्मिक बात बताता हूँ कि परिस्थिति न बदल करके जो परिस्थिति मिली है, उसका सदुपयोग करो । बुखार आ गया, घाटा लग गया, अपमान हो गया, निन्दा हो गयी तो अब इसका सदुपयोग कैसे करें ? कोई काँटा निकले तो हमें पीड़ा तो होती है, पर काँटा निकलनेसे बड़ा भारी लाभ होता है । इसी तरह अपमान होता है, घाटा लगता है तो इससे हमारे पाप नष्ट होते हैं‒यह बात तो बहुत जगह मिलेगी, पर इसमें एक मार्मिक बात है कि प्रतिकूल परिस्थिति कल्याणकी साधन-सामग्री है । भोगनेसे पाप तो अपने-आप नष्ट हो जाते हैं । बिना चाहे, रोते-रोते भोगोगे तो भी पाप नष्ट हो जायँगे । परन्तु उसका सदुपयोग करो तो कल्याण हो जायगा । सुखदायी परिस्थितिका सदुपयोग है‒सेवा करना, दूसरेको सुख पहुँचाना । दुःखदायी परिस्थितिका सदुपयोग है‒सुखकी आशा न रखना । सुखदायी परिस्थितिमें सुखका भोग करना गलती है और दुःखदायी परिस्थितिमें सुखकी आशा करनी गलती है । गलती मिटाना सत्संगका काम है । सत्संगसे यह गलती मिट जायगी ।

मेरे मनमें इस बातको लेकर बड़ी प्रसन्नता होती है कि मनुष्यको ऐसा मौका मिला है, जिसमें वह अपना कल्याण करके सुख-दुःख दोनोंसे ऊँचा उठ सकता है । अतः तुच्छ भोगोंमें फँसकर अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहिये । आज दिनतक किसीको मनचाहा भोग नहीं मिला, किसीकी मनचाही बात नहीं हुई । एक व्याख्यानदाताने कहा था कि मनचाही तो रामजीके बापकी भी नहीं हुई, आप कैसे कर लोगे ?

श्रोता‒कोई दुःख देता है तो बदला लेनेकी मनमें आती है; अतः क्या करना चाहिये ?

स्वामीजी‒बदला लेनेकी भावना हमारी गलती है, भूल है । वह तो हमारे कर्मोका फल भुगताकर हमें पवित्र कर रहा है । अतः यदि बदला चुकाना हो तो सबसे पहले उसकी सेवा करो । जो दुःख देनेकी चेष्टा करता है, वह (पापोंका फल भुगताकर) आपको शुद्ध कर रहा है, आपका उपकार कर रहा है । उसका बदला लेना हो तो अपने तनसे, मनसे, वचनसे, धनसे, विद्यासे, बुद्धिसे योग्यतासे, पदसे, अधिकारसे उसकी सेवा करो, उसे सुखी बनाओ ।

श्रोता‒महाराजजी ! परिस्थितिका सदुपयोग करना तो ठीक है, लेकिन अगर प्रतिकूल परिस्थिति आ जाय, घाटा लग जाय तो उसका प्रतिकार तो करना ही पड़ता है !

स्वामीजी‒उसके लिये मैं मना करता ही नहीं ! उसका प्रतिकार करो, धन कमाओ, धनका सदुपयोग करो, कोई विपरीत परिस्थिति न आये‒इसकी सावधानी रखो । परन्तु आप दुःखदायी परिस्थितिको दूर कर दोगे‒यह हाथकी बात नहीं है । उद्योग करनेके लिये, कर्तव्य-कर्मका पालन करनेके लिये मैं मना करता ही नहीं । परन्तु आप सुखदायी परिस्थिति बना लोगे‒यह आपके हाथकी बात नहीं है । भगवान्‌ने कहा है‒‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ (गीता २/४७) ‘कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलमें कभी नहीं’ । अतः फल आपके अधिकारकी बात नहीं है, पर कर्तव्य-कर्म खूब डटकरके, अच्छी तरहसे करना चाहिये । उसमें कभी नहीं चूकना चाहिये । परन्तु किसीको दुःख देना, किसीको नीचा दिखाना‒ऐसी जो धारणा है, यह महान्‌ गलत है । इससे भयंकर दुःख पाना पड़ेगा, बच नहीं सकोगे कभी !

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒ ‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण पंचमी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
दुःख-नाशका उपाय

(गत ब्लॉगसे आगेका)
कर्म तीन प्रकारके होते हैं‒शुक्ल (पुण्यकर्म), कृष्ण (पापकर्म) और मिश्रित । साधारण मनुष्योंके तो ये तीन तरहके कर्म होते हैं, पर कर्मफलका त्याग करनेवाले योगीको किसी भी कर्मका भोग नहीं होता‒ ‘कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्’ (योगदर्शन ४/७), ‘न तु सन्न्यासिनां क्वचित् (गीता १८/१२) । उसके पास सांसारिक सुख-दुःख पहुँचते ही नहीं । जब ये पहुँचते ही नहीं, तो फिर वह सुखी-दुःखी कैसे होगा ? परिस्थिति कर्म-निर्मित है । जैसे कर्म किये, वैसी परिस्थिति सामने आ जाती है, पर वह सुखी-दुःखी नहीं करती । भागवतमें एक कथा आती है । बाल्यावस्थामें नारदजी महाराजकी माँ मर गयी । बालककी माँ मर जाय तो वह बड़ा दुःखी हो जाता है, पर नारदजी दुःखी नहीं हुए, प्रत्युत उन्होंने इसको भगवान्‌का मंगलमय विधान ही माना । नारदजीकी भगवान्‌में रुचि थी । भजनमें माँ बाधक थी; अतः वह मर गयी तो भजनकी बाधा मिट गयी । इसलिये नारदजी राजी हो गये । तात्पर्य है कि परिस्थिति आदमीको दुःखी नहीं करती । वह मूर्खतासे ही दुःख पाता है । सुख-दुःखसे सब-के-सब ऊँचे उठ सकते हैं, इसमें सन्देहकी बात नहीं है ।

दो बातें मूर्खतासे होती हैं कि दुःख तो दूसरेने दे दिया‒‘परो ददातीति’ और सुख मैं अपने उद्योगसे कर लेता हूँ ‒‘अहं करोमीति’ । अगर अपने उद्योगसे सुख होता तो आज कोई दुःखी नहीं होता । दूसरेको दुःख देनेवाला कभी सुखी नहीं हो सकता‒यह सिद्धान्त है ।

श्रोता‒कोई आदमी किसीके पीछे ही पड़ जाय दुःख देनेके लिये तो वह दुःखमें निमित्त हुआ कि नहीं ?

स्वामीजी‒वह तो मूर्खतामें निमित्त हुआ, दुःख तो उसको मिलनेवाला ही मिलेगा । जो दुःख देनेके लिये पीछे पड़ा है, उसको भयंकर पाप लगेगा और भयंकर दुःख भोगना पड़ेगा । परन्तु जिसको दुःख मिलता है, उसका तो प्रारब्ध है । सर्वसमर्थ और परम सुहृद् परमात्माके जीते-जी कोई दुःख दे सकता है ? मैंने पहले भी एक बात सुनायी थी कि एक नगरके किनारे जंगलमें एक बाबाजी बैठे भजन कर रहे थे । वहाँसे कई आदमी धन लूट करके भाग रहे थे । पुलिस पीछे पड़ी थी । उन्होंने देखा कि मारे जायँगे तो बाबजीके पास धन रखकर छिप गये । पुलिस वहाँ आयी और धन देखकर बाबाजीको मारने लगी । बाबाजी बोले‒ ‘बधूं तू जाणे छे’ ‘हे नाथ ! सब आप जानते हो’ । इसका अर्थ यह हुआ कि मैंने अपनी जानकारीमें किसीको दुःख दिया नहीं और मार पड़ रही है तो मैं जानता नहीं कि किस कर्मका फल है । हे भगवन्‌ ! आप ही जानो, हमारेको इसका पता नहीं है । बिना कसूर मार पड़ती है, इतनेपर भी उन्होंने किसीको दोष नहीं दिया । अतः जिसको मार पड़ती है, उसमें ऐसा धैर्य चाहिये । दूसरा बेचारा दुःख दे नहीं सकता, हम अपनी मूर्खतासे दुःख पा रहे हैं । एक बात मैं और कहता हूँ । दुःख देनेवाला दुःख दे नहीं सकेगा, प्रत्युत सुख देगा ! मैंने ऐसा देखा है । दूसरा करना चाहता है अनिष्ट और हमारा होता है इष्ट । यह मेरे अनुभवकी बात है ।

श्रोता‒महाराजजी ! सुख-दुःख माना हुआ है, है तो नहीं !

स्वामीजी‒बिलकुल माना हुआ है, तभी तो मिटता है, नहीं तो मिटे कैसे ? सत्‌का कभी अभाव नहीं होता । यदि सुख-दुःखकी सत्ता होती तो वह कभी मिट सकता ही नहीं । अतः सुख-दुःख है नहीं, केवल माना हुआ है । इस मान्यताको छोड़ना है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
दुःख-नाशका उपाय

(गत ब्लॉगसे आगेका)
मैं तो यहाँतक कहता हूँ कि सुख-दुःख देनेके लिये परिस्थितिके पास समय ही नहीं है ! वह बेचारी तो अपनी धुनमें जा रही है, आपको छूती ही नहीं, फिर वह आपको सुख-दुःख कैसे दे सकती है । इसीलिये सत्संगसे, सद्विचारोंसे, सद्भावोंसे आदमी सदा मस्त, मौजमें रह सकता है; क्योंकि परिस्थिति दुःख देती है नहीं । दुःख तो उसको पकड़ करके आप कर रहे हो । अनुकूल परिस्थिति मिले तो उसमें आप सुख मान लेते हो और प्रतिकूल परिस्थिति मिले तो उसमें आप दुःख मान लेते हो, यह गलती होती है आपकी । वास्तवमें परिस्थिति तो जा रही है बेचारी ! दिन-रातकी तरह यह सुखदायी-दुःखदायी परिस्थिति आती रहेगी । जैसे दिनके बाद रात और रातके बाद दिन आता रहता है, ऐसे ही सुखके बाद दुःख और दुःखके बाद सुख आता रहेगा ।

मनुष्यके लिये कल्याणकी बात खुली है । मनुष्य-शरीर केवल अपना कल्याण करनेके लिये है, भोग भोगनेके लिये नहीं‒‘एहि तन कर फल बिषय न भाई’ (मानस ७/४४/१) । सुख-दुःख दो तरहके होते हैं । हमारे पास धन, सम्पत्ति, वैभव, बेटा, पोता, मकान आदि अनुकूल सामग्री है तो इसको देखकर लोग कहते हैं कि यह बहुत सुखी है । हमारे पास सामग्री नहीं है; खानेको अन्न नहीं, पहननेको वस्त्र नहीं, रहनेको मकान नहीं‒ऐसी दशा है तो इसको देखकर लोग कहते हैं कि यह बहुत दुःखी है । एक तो सुख-दुःखकी यह परिभाषा है । दूसरी, जो मनमें हरदम प्रसन्न रहता है, कभी दुःखी नहीं होता, उसको सुखी कहते हैं और जो मनमें दुःखी रहता है, उसको दुःखी कहते हैं । इस प्रकार एक तो सुख-सामग्रीका नाम सुख है और दुःख-सामग्रीका नाम दुःख है तथा एक हृदयमें प्रसन्नताका नाम सुख है और हृदयमें जलनका नाम दुःख है । इनमें सामग्रीवाला सुख-दुःख तो परिस्थितिका है और हृदयका सुख-दुःख मूर्खताका है । इस मूर्खताको मिटानेकी खास जिम्मेवारी मनुष्यके ऊपर है । जैसे किसी भाषाका ज्ञान न हो तो उस अज्ञानको दूर करनेके लिये हम वह भाषा सीख सकते हैं, ऐसे ही सुख-दुःख हमारेमें है ही नहीं‒इस विद्याको मनुष्यमात्र सीख सकता है । इस ज्ञानके लिये ही मानवशरीर मिला है । अतः मानवशरीरमें आकर सुखी-दुःखी नहीं होना है, प्रत्युत सुख-दुःख दोनोंसे ऊँचा उठना है । ऊँचा उठना क्या होता है ? कि न सुख ही पहुँचता और न दुःख ही पहुँचता है । पातञ्जलयोगदर्शनके व्यासभाष्यमें एक श्लोक आया है‒
प्रज्ञाप्रासादमारुह्याऽशोच्यः शोचतो जनान् ।
भूमिष्ठानिव शैलस्थः सर्वान्प्राज्ञोऽनुपश्यति ॥
(१/४७ का व्यासभाष्य)
अर्थात्‌ जैसे पर्वतपर खड़ा हुआ मनुष्य नीचे पृथ्वीपर खड़े लोगोंको देखता है, ऐसे ही प्रज्ञारूपी प्रासाद-(महल-)पर खड़ा हुआ अशोच्य पुरुष शोक करनेवाले लोगोंको देखता है ।

समाधि-अवस्थामें योगीकी बुद्धि ऋतम्भरा अर्थात्‌ सत्यको धारण करनेवाली हो जाती है‒‘ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा’ (योगदर्शन १/४८) । विवेक-विचारसे भी ऐसी बुद्धि प्राप्त हो जाती है । जैसे पृथ्वीपर कभी बाढ़ आती है, कभी आग लगती ही, कभी सुखदायी परिस्थिति आती है, कभी दुःखदायी परिस्थिति आती है, तरह-तरहकी परिस्थितियाँ आती हैं, पर पर्वतपर खड़े हुए मनुष्यके पास उनमेंसे कोई भी परिस्थिति नहीं पहुँचती । वह केवल देखता है, सुखी-दुःखी नहीं होता । इसको सुख-दुःखसे ऊँचा उठना कहते हैं और ऐसी स्थिति आपकी, हमारी सबकी हो सकती है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण तृतीया, वि.सं.–२०७०, सोमवार
दुःख-नाशका उपाय


सन्तोंसे, शास्त्रोंसे मेरेको ऐसी बातें मिली हैं, जिनसे इस वर्तमान जीवनमें मनुष्यमात्र महान्‌ आनन्दको प्राप्त कर सकते हैं । इसमें केश जितना भी सन्देह नहीं है । पुण्यात्मा हो, पापात्मा हो, बुद्धिमान्‌ हो, बुद्धि कम हो, पढ़ा-लिखा हो, अपढ़ हो, भाई हो, बहन हो, सनातनी हो, बुद्ध हो, मुसलमान हो, अँग्रेज हो, कोई क्यों न हो, वह इसी जीवनमें महान्‌ आनन्दको प्राप्त कर सकता है । उन बातोंमेंसे एक बात आज विशेषतासे कहता हूँ ।

हम जो सुखी-दुःखी होते हैं, यह हमारी गलती है । इसमें गलती क्या है ? लक्ष्मणजीने अध्यात्मरामायणमें निषादराज गुहसे कहा है‒
                         सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता
                                            परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।
                         अहं करोमीति वृथाभिमानः
                                           स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः ॥
                                                                          (२/६/६)
‘सुख-दुःखको देनेवाला दूसरा कोई नहीं है । दूसरा सुख-दुःख देता है‒यह समझना कुबुद्धि है । मैं करता हूँ‒यह वृथा अभिमान है । सब लोग अपने-अपने कर्मोंकी डोरीसे बँधे हुए हैं ।’

यही बात तुलसीकृत रामायणमें भी आयी है‒
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥
                                                                  (मानस २/९२/२)
सुख-दुःख देनेवाला दूसरा कोई नहीं है‒यह खास सूत्र है ! दूसरा दुःख देता है‒यह कुबुद्धि है, कुत्सित बुद्धि है, खोटी बुद्धि है । अमुक आदमीने मेरेको दुःख दे दिया‒यह सिद्धान्तकी दृष्टिसे गलत है । इस विषयमें एक बात तो यह है कि परमात्मा परम दयालु हैं, परम हितैषी हैं, अन्तर्यामी हैं और सर्वसमर्थ हैं । ऐसे परमात्माके रहते हुए, उनकी जानकारीमें कोई भी किसीको दुःख दे सकता है क्या ? दूसरी बात यह है कि अगर दूसरा दुःख देता है तो दुःख कभी मिटनेका है ही नहीं; क्योंकि दूसरा तो कोई-न-कोई रहेगा ही । कहीं जाओ, किसी भी योनिमें जाओ, देवता बन जाओ, राक्षस बन जाओ, असुर बन जाओ, भूत-प्रेत-पिशाच बन जाओ, मनुष्य बन जाओ, दूसरा रहेगा ही । फिर दुःख कैसे मिटेगा ? ये दोनों बातें बड़ी प्रबल हैं ।

हमारे सामने सुख और दुःख दोनों आते हैं । सुख-दुःख देनेवाला दूसरा कोई नहीं है, प्रत्युत सब अपने किये हुए कर्मोंके फलको भोगते हैं । पातञ्जलयोगदर्शनमें लिखा है‒‘सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः’ (२/१३) अर्थात्‌ पहले किये हुए कर्मोंके फलसे जन्म, आयु और भोग होता है । भोग नाम किसका है ? ‘अनुकूलवेदनीयं सुखम्’, ‘प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्’ और ‘सुखदुःख अन्यतरः साक्षात्कारो भोगः’ अथात् सुखदायी और दुःखदायी परिस्थिति सामने आ जाय और उस परिस्थितिका अनुभव हो जाय, उसमें अनुकूल-प्रतिकूलकी मान्यता हो जाय, इसका नाम ‘भोग’ है । अब एक बात बड़े रहस्यकी, बहुत मार्मिक और कामकी है । आप ध्यान दें । आपने अच्छा काम किया है तो सुखदायी परिस्थिति आपके सामने आयेगी और बुरा काम किया है तो दुःखदायी परिस्थिति आपके सामने आयेगी । यह तो है कर्मोंकी बात । अब परिस्थितिको लेकर सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता है । वह परमात्माका विधान है, जो हमारे कर्मोंका नाश करके हमें शुद्ध करनेके लिये हुआ है । वह परमात्मा कैसे किसीको दुःख देगा ?

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.–२०७०, रविवार
बन्धन कैसे छूटे ?

 (गत ब्लॉगसे आगेका)
भलि सोचहि सज्जन जना, दिवी जगतको पूठ ।
पीछे  देखी  बिगड़ती,     पहले   बैठा    रूठ ॥

       जो पीछे बिगड़ जायगा, उसको पहले ही छोड़ दिया । अगर कोई अपने कुटुम्बको सच्चे हृदयसे छोड़कर साधु बन जाय, तो सब-का-सब कुटुम्ब एक साथ मर जाय अथवा कुटुम्बमें बीसों-पचासों आदमी हो जायँ, उसपर कोई फरक नहीं पड़ेगा । परन्तु कुटुम्बमें एक लड़का मर जाय और वह रोने लगे, तो उस साधुने कोरा कपड़ा ही मिट्टी लगाकर खराब किया ! जैसे साधु अपने कुटुम्बकी तरफसे मर जाता है, ऐसे ही आप भी सबसे मर जाओ, तो मुक्ति हो जायगी । मरते ही अमर हो जाओगे । जहाँ संसारसे मरे कि अमर हुए ! जीते हुए ही मर जाओ । सन्तोंके पदमें आया है—‘अरे मन जीवतड़ो ही मर रे ।’ आजसे ही मर जाओ । सब काम ठीक हो जायगा । घरवालोंसे मर जाओ तो उनकी भी आफत मिट जायगी । न तीजा करना पड़े, न कोई खर्चा करना पड़े, सब आफत मिट जाय ! घरवाले भी मौजमें और आप भी मौजमें !

       भगवान्‌की, सन्तोंकी, शास्त्रोंकी कृपा तो आपपर सदासे ही है, अब आप कृपा करो तो निहाल हो जाओ । आप स्वयं कृपा नहीं करोगे तो उनकी कृपा पड़ी रहेगी, कुछ काम नहीं करेगी । जिनको पकड़ा है, उनको छोड़ दो तो मुक्ति हो जायगी । अब घरवालोंको छोड़ दिया तो गुरुजीको पकड़ लिया कि ये मेरे गुरुजी हैं, ये गुरुभाई हैं, ये चाचा गुरु हैं, यह भतीजा चेला है । एकको छोड़ दिया और दूसरेको पकड़ लिया तो मुक्ति नहीं होगी, ज्यों-के-त्यों फँसे रहोगे । एक साधु मिले थे । वे कहते थे कि गुरुजीने हमें विद्या सिखा दी कि तुम कुटुम्बको छोड़ दो, तो हमने गुरुजीको भी छोड़ दिया ! अब न गुरु है, न चेला है, न चाचा गुरु है, न भतीजा चेला है । पहले गृहस्थसे साधु हुए, अब साधुसे साधु हो गये ।

        कुटुम्बको हमारा मानो मत और उनसे कुछ चाहो मत‒इतना ही कुटुम्बके साथ सम्बन्ध रखो । अपने पास जो पैसा है, सामर्थ्य है, समय है, वह उनकी सेवामें लगा दो । इससे सब कुटुम्बी राजी हो जायँगे और आपकी मुक्ति हो जायगी । पहलेका सम्बन्ध सेवा करके छोड़ दें और नया सम्बन्ध जोड़ें नहीं, तो मुक्ति ही रहेगी । मुक्तिके सिवा और क्या रहेगा ?

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒ ‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख पूर्णिमा, वि.सं.–२०७०, शनिवार
श्रीबुद्ध-जयन्ती, पूर्णिमा, वैशाख-स्नान समाप्त
बन्धन कैसे छूटे ?

(गत ब्लॉगसे आगेका)
अब आप बालक हो क्या ? तो बालकपनसे मुक्ति हो गयी न ? मुक्ति तो आपसे-आप हो रही है; क्योंकि मुक्ति है । बन्धन बेचारा है ही नहीं । बन्धनको तो आपने पकड़ा हुआ है । आप रखोगे तो रहेगा, आप छोड़ोगे तो छूट जायगा । आप बन्धन नहीं छोड़ोगे तो वह नहीं छूटेगा । बन्धनको छोड़नेका सुगम उपाय यह है कि जो अपने दीखते हैं, उनकी सेवा कर दो और उनसे सेवा मत चाहो । दो बातें मैंने बतायी थीं कि उनकी माँग न्याययुक्त, धर्मयुक्त है और आपकी उसको पूरा करनेकी शक्ति, सामर्थ्य है, आपके पास वस्तु है, तो उनकी माँग पूरी कर दो । अपनी न्याययुक्त इच्छा भी मत रखो; जैसे‒बेटा हमारी सेवा करे‒यह न्याययुक्त होनेपर भी इसकी इच्छाको मत रखो । इस तरह खुद तो सेवा चाहो नहीं और दूसरोंकी सेवा करते रहो, तो मुक्ति हो जायगी । सेवा चाहते रहोगे तो मुक्ति नहीं होगी । और दूसरा सेवा करेगा भी नहीं ।

       सेवा चाहनेसे दूसरा सेवा नहीं करेगा और सेवा नहीं चाहोगे तो वह सेवा करेगा; आपकी सेवामें घाटा नहीं पड़ेगा । आपके पास रुपये हैं, रोटी है, कपड़ा है, तो आप किस साधुको देना चाहते हैं ? जो लेना नहीं चाहता । जो लेना नहीं चाहता, उसको दोगे या जो लेना चाहता है, उसको दोगे ? जो चोरी करता है, डाका डालता है, छीनता है, उसको आप देना चाहते हो क्या ? आप उसीको देना चाहते हैं, जो लेना नहीं चाहता । संसारसे कुछ नहीं चाहोगे तो संसार ज्यादा सुख देगा । आपको सुख कम नहीं पड़ेगा, घाटा नहीं लगेगा । जो कुछ नहीं चाहता, उसको सब देना चाहते हैं, तो फिर उसके सुखमें घाटा कैसे पड़ेगा । घाटा तो सुख चाहनेसे पड़ता है । मान-बड़ाई भी उसको देते हैं जो इसको नहीं चाहता । फिर चाहना करके दरिद्री क्यों बनें ?

            श्रोता‒अनादिकालसे पड़े हुए ममताके संस्कार मिटें कैसे ?

     स्वामीजी‒अनादिकालका अँधेरा दियासलाई जलाते ही भाग जाता है । किसी गुफामें लाखों वर्षोंसे अँधेरा हो और वहाँ जाकर प्रकाश करें तो वह यह नहीं कहेगा कि मैं यहाँ इतने वर्षोंसे हूँ, इसलिये मैं जल्दी नहीं जाऊँगा । जब प्रकाश हुआ तो वह मिट गया । ऐसे ही जो भूल है, गलती है, वह मिटनेवाली होती है ।

        ममताको मिटानेका उपाय है‒देनेकी इच्छा रखो । लेनेकी आशा रखो ही मत कि हमें कुछ मिले । वस्तु अपने पासमें है और दूसरा चाहता है, तो बिना किसी शर्तके उसको दे दो । देते रहोगे तो स्वभाव देनेका पड़ जायगा । लेनेका स्वाभाव होनेसे नयी-नयी ममता पैदा होती है । इसलिये भीतरसे ही लेनेकी इच्छा छोड़ दो ।

       संसारकी सेवा-ही-सेवा करनी है, लेना कुछ नहीं है‒यह ‘कर्मयोग’ हो गया । संसारके साथ हमारा सम्बन्ध है ही नहीं‒यह ‘ज्ञानयोग’ हो गया । भगवान्‌ ही मेरे हैं और कोई मेरा नहीं है‒यह ‘भक्तियोग’ हो गया । मेरा सम्बन्ध संसारके साथ है, संसार मेरा है और मेरे लिये है‒यह ‘जन्म-मरणयोग’ या ‘बन्धनयोग’ हो गया ! बार-बार जन्मो और मरो ! अब जिसमें आपको फायदा लगे, उसको कर लो । परमात्माके साथ तो आपका सम्बन्ध स्वतः है और संसारके साथ सम्बन्ध आपका माना हुआ है । संसारसे कितना ही सम्बन्ध जोड़ लो, वह टिकता ही नहीं । जो टिके नहीं, उसको पहले ही छोड़ दो ।

    (शेष आगेकेब्लॉगमें)
‒ ‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
व्रत-पूर्णिमा
बन्धन कैसे छूटे ?



       लोगोंने यह मान रखा है कि बन्धन नित्य है, उससे छूटनेपर मुक्ति होगी । मूलमें यह भूल हुई है । वास्तवमें बन्धन है ही नहीं । अगर बन्धन होता तो मुक्ति किसीकी भी नहीं होती; क्योंकि सत्‌ वस्तुका अभाव नहीं होता‒ ‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६) । बन्धन सत्‌ होता तो फिर उसका अभाव होता ही नहीं । अतः बन्धन है नहीं, केवल दीखता है । दीखता तो दर्पणमें मुख भी है, पर वहाँ मुख होता है क्या ? दर्पणमें मुख दीखता है तो उसको सामनेसे पकड़ लो, नहीं तो दर्पणके पीछेसे पकड़ लो ! है ही नहीं तो उसको पकड़ें क्या ! ऐसे ही इन सांसारिक पदार्थोंमें अपनापन दीखता है । यह शरीर, कुटुम्बी, धन-सम्पत्ति, वैभव आदि मेरा है‒ऐसा दीखता है । परन्तु आजसे सौ वर्ष पहले ये आपके थे क्या ? और सौ वर्षके बाद ये आपके रहेंगे क्या ? यह मेरापन पहले भी नहीं था और पीछे भी नहीं रहेगा तथा बीचमें भी दिन-प्रतिदिन मिट रहा है, तो यह सच्चा कैसे हुआ ? दर्पणमें पहले मुख नहीं था, पीछे भी नहीं रहेगा और इस समय भी दीखता है, पर है नहीं । जो प्रतिक्षण ‘नहीं’ में जा रहा है, वह ‘है’ कैसे हुआ ? जो नहीं है, उसको ‘है’ मान लिया । ‘नहीं’ को ‘है’ मानना छोड़ो तो मुक्ति स्वतःसिद्ध है । मेरापन पहले नहीं था तो मुक्ति थी, बादमें नहीं रहेगा तो मुक्ति रहेगी और बीचमें प्रतिक्षण छूट रहा है तो मुक्ति ही है । अतः बन्धन कृत्रिम है, केवल माना हुआ है और मुक्ति स्वतःसिद्ध है । अब इसमें देरी क्या लगे ? बताओ ।

       अगर आपने मान लिया कि बन्धन छूटेगा नहीं, तो अब वह छूटेगा ही नहीं ! क्योंकि आप परमात्माके अंश हैं । आप बन्धनको पक्का मान लोगे तो वह कैसे छूटेगा ? बन्धन तो अभी है और मुक्ति आगे होगी‒इस तरह आपने बन्धनको नजदीक और मुक्तिको दूर मान लिया, तो अब बन्धन जल्दी कैसे छूट जायगा ? वास्तवमें तो बन्धन पहले भी नहीं था, पीछे भी नहीं रहेगा और अब भी नहीं है; तथा मुक्ति पहले भी थी, पीछे भी रहेगी और अब भी है ।

       देखो, हरेक व्यक्तिका माँमें बड़ा स्नेह होता है । वह स्नेह आज वैसा है क्या ? नहीं है । यह संसारके स्नेहका नमूना है । आप व्यापार करते हो तो पहले सब माल न देखकर उसका नमूना देखते हो । उस नमूनेसे सब मालका पता लग जाता है । स्त्री मेरी है, पुत्र मेरा है, धन मेरा है, घर मेरा है‒ये सब अब प्रिय लगते हैं तो बालकपनमें माँ कम प्रिय लगती थी क्या ? माँके बिना रह नहीं सकते थे, रोने लगते थे, और माँकी गोदीमें जानेपर राजी हो जाते थे कि माँ मिल गयी ! पर माँके साथ आज वैसा स्नेह है क्या ? ऐसे कई भाग्यशाली है, जिनकी माँ अभी है; परन्तु माँके प्रति पहले जो खिंचाव था, वह खिंचाव अब नहीं है । इस नमूनेसे संसारभरकी परीक्षा हो जाती है कि अभी संसारमें जो खिंचाव है, यह भी रहनेवाला नहीं है ।

     श्रोता‒महाराजजी ! हमारा स्नेह पहले माता-पितामें, फिर स्त्रीमें, फिर पुत्रमें, फिर पौत्रमें‒इस प्रकार इधर-इधर हो रहा है !

        स्वामीजी‒तो नया स्नेह मत करो बाबा ! पुराना स्नेह तो छूट रहा है, मुक्ति तो हो रही है ।

        श्रोता‒हम तो नहीं करना चाहते ।

      स्वामीजी‒आप नहीं करना चाहते तो मैं कराता हूँ क्या ! जबरदस्ती कौन करता है ? बताओ । पुराना स्नेह तो छूट जायगा, आप नया स्नेह मत करो ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे

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