(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
श्रोता‒यह
छूटता क्यों
नहीं ?
स्वामीजी‒आप
छोड़ते क्यों
नहीं ? आप कहते
हो कि छूटता
नहीं, मैं
कहता हूँ कि
छोड़ते नहीं है ! आप
पकड़ना छोड़ दो
तो कैसे दे
देगा दुःख ? दे
नहीं सकता ।
परन्तु दुःख
देनेका भाव
रखनेवाला
दोषी, पापी
जरूर बनेगा,
इसमें
सन्देह नहीं
है । अब एक
बहुत बड़ी भूल
बताता हूँ ।
हम जिससे
दुःख मिटे, उस
उपायको न
करके परिस्थिति
बदलनेका
उद्योग करते
हैं, जो
सर्वथा निष्फल
है । निर्धन
है तो धनवान्
हो जाय, रोगी
है तो निरोग
हो जाय,
अपमानित है
तो सम्मानित
हो जाय,
निन्दनीय है
तो
प्रशंसनीय
हो जाय‒यह
परिस्थिति
बदलनेका
उद्योग है, जो
बिलकुल निरर्थक
होगा;
क्योंकि यह
वृथाभिमान
है‒‘अहं
करोमिति
वृथाभिमानः’ । आप
परिस्थिति
बदल सकोगे
नहीं ।
इसलिये एक
मार्मिक बात
बताता हूँ कि
परिस्थिति न
बदल करके जो
परिस्थिति
मिली है, उसका
सदुपयोग करो । बुखार आ गया,
घाटा लग गया,
अपमान हो गया,
निन्दा हो
गयी तो अब
इसका
सदुपयोग
कैसे करें ?
कोई काँटा
निकले तो
हमें पीड़ा तो
होती है, पर
काँटा
निकलनेसे
बड़ा भारी लाभ
होता है । इसी
तरह अपमान
होता है, घाटा
लगता है तो
इससे हमारे
पाप नष्ट
होते हैं‒यह
बात तो बहुत
जगह मिलेगी,
पर इसमें एक
मार्मिक बात
है कि
प्रतिकूल
परिस्थिति
कल्याणकी
साधन-सामग्री
है । भोगनेसे पाप
तो अपने-आप
नष्ट हो जाते
हैं । बिना
चाहे,
रोते-रोते
भोगोगे तो भी
पाप नष्ट हो
जायँगे ।
परन्तु उसका
सदुपयोग करो
तो कल्याण हो
जायगा । सुखदायी
परिस्थितिका
सदुपयोग है‒सेवा
करना,
दूसरेको सुख
पहुँचाना ।
दुःखदायी
परिस्थितिका
सदुपयोग है‒सुखकी
आशा न रखना ।
सुखदायी
परिस्थितिमें
सुखका भोग
करना गलती है
और दुःखदायी
परिस्थितिमें
सुखकी आशा
करनी गलती है ।
गलती मिटाना
सत्संगका
काम है ।
सत्संगसे यह
गलती मिट
जायगी ।
मेरे
मनमें इस
बातको लेकर
बड़ी
प्रसन्नता
होती है कि
मनुष्यको
ऐसा मौका
मिला है,
जिसमें वह
अपना कल्याण
करके सुख-दुःख
दोनोंसे
ऊँचा उठ सकता
है । अतः तुच्छ
भोगोंमें
फँसकर अपना
समय बर्बाद
नहीं करना
चाहिये । आज
दिनतक
किसीको
मनचाहा भोग
नहीं मिला,
किसीकी
मनचाही बात
नहीं हुई । एक
व्याख्यानदाताने
कहा था कि
मनचाही तो
रामजीके
बापकी भी
नहीं हुई, आप
कैसे कर लोगे ?
श्रोता‒कोई
दुःख देता है
तो बदला
लेनेकी
मनमें आती है;
अतः क्या
करना चाहिये ?
स्वामीजी‒बदला
लेनेकी
भावना हमारी
गलती है, भूल
है । वह तो
हमारे
कर्मोका फल
भुगताकर
हमें पवित्र
कर रहा है ।
अतः यदि बदला
चुकाना हो तो
सबसे पहले
उसकी सेवा
करो । जो
दुःख देनेकी
चेष्टा करता
है, वह (पापोंका
फल भुगताकर)
आपको शुद्ध
कर रहा है,
आपका उपकार
कर रहा है ।
उसका बदला
लेना हो तो
अपने तनसे,
मनसे, वचनसे,
धनसे,
विद्यासे,
बुद्धिसे
योग्यतासे,
पदसे,
अधिकारसे
उसकी सेवा
करो, उसे सुखी
बनाओ ।
श्रोता‒महाराजजी
!
परिस्थितिका
सदुपयोग
करना तो ठीक है,
लेकिन अगर
प्रतिकूल
परिस्थिति आ
जाय, घाटा लग
जाय तो उसका
प्रतिकार तो
करना ही पड़ता
है !
स्वामीजी‒उसके
लिये मैं मना
करता ही नहीं !
उसका
प्रतिकार
करो, धन कमाओ, धनका
सदुपयोग करो,
कोई विपरीत
परिस्थिति न
आये‒इसकी
सावधानी रखो ।
परन्तु आप दुःखदायी
परिस्थितिको
दूर कर दोगे‒यह
हाथकी बात
नहीं है । उद्योग
करनेके लिये,
कर्तव्य-कर्मका
पालन करनेके
लिये मैं मना
करता ही नहीं ।
परन्तु आप
सुखदायी
परिस्थिति
बना लोगे‒यह
आपके हाथकी
बात नहीं है । भगवान्ने कहा
है‒‘कर्मण्येवाधिकारस्ते
मा फलेषु
कदाचन’ (गीता
२/४७) ‘कर्तव्य-कर्म
करनेमें ही
तेरा अधिकार
है, फलमें कभी
नहीं’ । अतः
फल आपके
अधिकारकी
बात नहीं है,
पर
कर्तव्य-कर्म
खूब डटकरके,
अच्छी तरहसे
करना चाहिये ।
उसमें कभी
नहीं चूकना
चाहिये ।
परन्तु किसीको
दुःख देना,
किसीको नीचा
दिखाना‒ऐसी
जो धारणा है,
यह महान् गलत
है । इससे
भयंकर दुःख
पाना पड़ेगा,
बच नहीं
सकोगे कभी !
नारायण
!
नारायण !! नारायण
!!!
‒ ‘नित्ययोगकी
प्राप्ति’
पुस्तकसे
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