।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण पंचमी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
दुःख-नाशका उपाय

(गत ब्लॉगसे आगेका)
कर्म तीन प्रकारके होते हैं‒शुक्ल (पुण्यकर्म), कृष्ण (पापकर्म) और मिश्रित । साधारण मनुष्योंके तो ये तीन तरहके कर्म होते हैं, पर कर्मफलका त्याग करनेवाले योगीको किसी भी कर्मका भोग नहीं होता‒ ‘कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्’ (योगदर्शन ४/७), ‘न तु सन्न्यासिनां क्वचित् (गीता १८/१२) । उसके पास सांसारिक सुख-दुःख पहुँचते ही नहीं । जब ये पहुँचते ही नहीं, तो फिर वह सुखी-दुःखी कैसे होगा ? परिस्थिति कर्म-निर्मित है । जैसे कर्म किये, वैसी परिस्थिति सामने आ जाती है, पर वह सुखी-दुःखी नहीं करती । भागवतमें एक कथा आती है । बाल्यावस्थामें नारदजी महाराजकी माँ मर गयी । बालककी माँ मर जाय तो वह बड़ा दुःखी हो जाता है, पर नारदजी दुःखी नहीं हुए, प्रत्युत उन्होंने इसको भगवान्‌का मंगलमय विधान ही माना । नारदजीकी भगवान्‌में रुचि थी । भजनमें माँ बाधक थी; अतः वह मर गयी तो भजनकी बाधा मिट गयी । इसलिये नारदजी राजी हो गये । तात्पर्य है कि परिस्थिति आदमीको दुःखी नहीं करती । वह मूर्खतासे ही दुःख पाता है । सुख-दुःखसे सब-के-सब ऊँचे उठ सकते हैं, इसमें सन्देहकी बात नहीं है ।

दो बातें मूर्खतासे होती हैं कि दुःख तो दूसरेने दे दिया‒‘परो ददातीति’ और सुख मैं अपने उद्योगसे कर लेता हूँ ‒‘अहं करोमीति’ । अगर अपने उद्योगसे सुख होता तो आज कोई दुःखी नहीं होता । दूसरेको दुःख देनेवाला कभी सुखी नहीं हो सकता‒यह सिद्धान्त है ।

श्रोता‒कोई आदमी किसीके पीछे ही पड़ जाय दुःख देनेके लिये तो वह दुःखमें निमित्त हुआ कि नहीं ?

स्वामीजी‒वह तो मूर्खतामें निमित्त हुआ, दुःख तो उसको मिलनेवाला ही मिलेगा । जो दुःख देनेके लिये पीछे पड़ा है, उसको भयंकर पाप लगेगा और भयंकर दुःख भोगना पड़ेगा । परन्तु जिसको दुःख मिलता है, उसका तो प्रारब्ध है । सर्वसमर्थ और परम सुहृद् परमात्माके जीते-जी कोई दुःख दे सकता है ? मैंने पहले भी एक बात सुनायी थी कि एक नगरके किनारे जंगलमें एक बाबाजी बैठे भजन कर रहे थे । वहाँसे कई आदमी धन लूट करके भाग रहे थे । पुलिस पीछे पड़ी थी । उन्होंने देखा कि मारे जायँगे तो बाबजीके पास धन रखकर छिप गये । पुलिस वहाँ आयी और धन देखकर बाबाजीको मारने लगी । बाबाजी बोले‒ ‘बधूं तू जाणे छे’ ‘हे नाथ ! सब आप जानते हो’ । इसका अर्थ यह हुआ कि मैंने अपनी जानकारीमें किसीको दुःख दिया नहीं और मार पड़ रही है तो मैं जानता नहीं कि किस कर्मका फल है । हे भगवन्‌ ! आप ही जानो, हमारेको इसका पता नहीं है । बिना कसूर मार पड़ती है, इतनेपर भी उन्होंने किसीको दोष नहीं दिया । अतः जिसको मार पड़ती है, उसमें ऐसा धैर्य चाहिये । दूसरा बेचारा दुःख दे नहीं सकता, हम अपनी मूर्खतासे दुःख पा रहे हैं । एक बात मैं और कहता हूँ । दुःख देनेवाला दुःख दे नहीं सकेगा, प्रत्युत सुख देगा ! मैंने ऐसा देखा है । दूसरा करना चाहता है अनिष्ट और हमारा होता है इष्ट । यह मेरे अनुभवकी बात है ।

श्रोता‒महाराजजी ! सुख-दुःख माना हुआ है, है तो नहीं !

स्वामीजी‒बिलकुल माना हुआ है, तभी तो मिटता है, नहीं तो मिटे कैसे ? सत्‌का कभी अभाव नहीं होता । यदि सुख-दुःखकी सत्ता होती तो वह कभी मिट सकता ही नहीं । अतः सुख-दुःख है नहीं, केवल माना हुआ है । इस मान्यताको छोड़ना है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे