।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र पूर्णिमा, वि.सं.-२०७५, शनिवार
      पूर्णिमा, श्रीहनुमज्जयन्ति, वैशाख-स्नान आरम्भ
                   मैं नहीं, मेरा नहीं 



(गत ब्लॉगसे आगेका)

बड़ी तंगी, कठिनता भोगनी पड़ती है, तब विद्या आती है । इसलिये कठिनतामें, प्रतिकूलतामें फायदा है । जो विद्यार्थी प्रतिकूलतामें पढ़ता है, वह अच्छा विद्वान् होता है । अनुकूलतामें पढ़नेवाले विद्वान् नहीं होते । पक्की बात है कि माँके पास रहनेकी अपेक्षा पिताके पास, पिताकी अपेक्षा शिक्षकके पास और शिक्षककी अपेक्षा सन्त-महात्माके पास रहनेवाला बालक श्रेष्ठ बनता है । बालकके साथ जितना ममताका सम्बन्ध होगा, उतना वह बिगड़ेगा । माँके मोहमें फँसा हुआ बालक अच्छा पढ़ नहीं सकता । कठिनता भोगनेवाला अच्छा विद्वान्, अच्छा सन्त-महात्मा बनता है ।

साधकको यह सावधानी रखनी चाहिये कि जिस कर्मको करनेसे प्रतिकूलता आयी, वह कर्म नहीं करना है । अनुकूलतामें राजी और प्रतिकूलतामें नाराज होनेसे बहुत पतन होता है, आध्यात्मिक उन्नतिमें बड़ी बाधा लगती है । जान-बूझकर प्रतिकूलता नहीं लानी है, पर अपने-आप प्रतिकूलता आ जाय तो उसमें राजी होना चाहिये कि अब हमारी उन्नति होगी ! इसमें सन्देह नहीं है । कुन्ती माताने भगवान्‌से वरदान माँगा है

विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो ।
भवतो   दर्शन   यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ॥
                                     (श्रीमद्भा १ । ८ । २५)

‘हे जगद्गुरो ! हमारे जीवनमें सर्वदा पद-पदपर विपत्तियाँ आती रहें, जिससे हमें पुनः संसारकी प्राप्ति न करानेवाले आपके दुर्लभ दर्शन मिलते रहें ।’

ऐसा वरदान माँगनेवाले इतिहासमें बहुत कम मिलेंगे ! जैसे कड़वी दवाई अच्छी नहीं लगती, ऐसे ही प्रतिकूलता बुरी लगती है । अनुकूलता भोगनेवाला साधु भी अच्छा नहीं होगा और विद्वान् भी अच्छा नहीं होगा । परन्तु प्रतिकूलता सहनेवाला साधु भी अच्छा होगा और विद्वान् भी अच्छा होगा । प्रतिकूलतामें प्रसन्न रहनेवाला साधक भी अच्छा होगा और वह आध्यात्मिक उन्नतिमें आगे बढ़ेगा । इसलिये स्वतः-स्वाभाविक प्रतिकूलता आये तो वह भगवान्‌की कृपा है ।

एक वृद्ध त्यागी सन्त थे । उनका जहाँ आदर-सत्कार होता, भिक्षा सुखसे मिलती, वहाँसे रात्रिमें उठकर चल देते कि यहाँ ज्यादा रहना ठीक नहीं । तात्पर्य है कि सन्तोंको अनुकूलता अच्छी नहीं लगती । नमस्कार करना भी अच्छा नहीं लगता । कोई उनका आदर-सत्कार करे तो उनको सुहाता नहीं कि इससे हमारा पतन है । भगवान्‌को भी दया नहीं आती ! भक्त दुःख पाता है तो भगवान् पासमें रहते हुए सर्वसमर्थ होते हुए भी देखते रहते हैं; क्योंकि इसमें इसका भला है !

हमारे शिक्षागुरु, जिनके पास मैं पढ़ता था, उनके पास कोई आरामसे नहीं रह सकता था । कई विद्यार्थी तो वहाँसे भाग जाते ! सुबह चार बजे उठते और दस बजेतक पढ़ते ! यद्यपि दुष्टोंके द्वारा दुःख देनेपर भी पापोंका नाश होता है, पर सन्त-महात्माओंके द्वारा जो ताड़ना मिलती है, उससे बहुत लाभ होता है; क्योंकि वे स्वार्थकी भावनासे कुछ नहीं करते ।

गीर्भिर्गुरूणा परुषाक्षराभिस्तिरस्कृता यान्ति नरा महत्त्वम् ।
अलब्धशाणोत्कषणान्नृपाणा न जातु मौलौ मणयो वसन्ति ॥
                                                              (रसगंगाधर)

जब मनुष्य गुरुजनोंकी कठोर शब्दोंसे युक्त वाणीद्वारा अपमानित किये जाते हैं, तभी वे महत्त्वको प्राप्त होते हैं, अन्यथा नहीं । जैसे, मणि भी जबतक शाणपर घिसकर उज्जवल नहीं की जाती, तबतक वह राजाओंके मुकुटमें नहीं जड़ी जाती ।’


जैसे शाणपर घिसनेसे मणिका मैल नष्ट हो जाता है और वह चमक उठती है, ऐसे ही कठिनता सहनेसे भीतरका मैल नष्ट होता है और मनुष्य चमक उठता है, श्रेष्ठ हो जाता है । इसलिये प्रतिकूलता आनेपर डरो मत । जान-बूझकर प्रतिकूलता नहीं लानी है, पर प्रतिकूलता आ जाय तो खुशी मनानी चाहिये कि अब हमारी उन्नति होगी ! दुःख, कष्ट सहना अच्छे साधकोंका कर्तव्य होता है । कष्ट सहकर वे अच्छे सन्त बनते हैं । आराम कामका नहीं होता । आरामसे स्वभाव बिगड़ता है, आदत बिगड़ती है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०७५, शुक्रवार
                            व्रत-पूर्णिमा
                   मैं नहीं, मेरा नहीं 



(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोतास्वप्नमें यदि भगवान्‌के दर्शन होते हों तो उसको हम भगवत्प्राप्ति मान सकते हैं क्या ?

स्वामीजीभगवान्‌के दर्शन होनेपर किसी बातकी किंचिन्मात्र भी कोई कमी रहती ही नहीं । अगर ऐसा अनुभव है तो मान लो । गीतामें आया है

यं लब्ध्वा चापरं लाभं   मन्यते नाधिक ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
                                               (गीता ६ । २२)

‘जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता ।’

भगवत्प्राप्ति होनेपर दुःख तो नजदीक नहीं आता और महान् आनन्द प्राप्त हो जाता है । यह नहीं हुआ, तबतक भगवत्प्राप्ति नहीं हुई । कोई आदमी अपनी ऊँची स्थितिकी कसौटी लगाना चाहे तो उसके लिये गीताभरमें उपर्युक्त श्लोक सबसे श्रेष्ठ है !

भगवत्प्राप्ति हुई कि नहीं हुईयह माननेकी चीज नहीं है । प्यास लगनेपर जलसे तृप्ति हो जाती है, भूख लगनेपर अन्नसे तृसि हो जाती है तो यह तृप्ति फिर मिट जाती है । परन्तु भगवत्प्राप्तिसे होनेवाली तृप्ति कभी मिटती नहीं ।

अनुकूलतामें राजी होना और प्रतिकूलतामें नाराज होना संसारके सम्बन्धको दृढ़ करता है । इससे बड़ी भारी हानि होती है । संसारमें हमारी जो आसक्ति है, प्रियता है, खिंचाव है, अच्छापन दीखता है, यह हमारी बड़ी भारी हानि है ! यह चौरासी लाख योनियोंमें, नरकोंमें ले जानेवाली चीज है । इसलिये अनुकूलता-प्रतिकूलता आये तो उसकी परवाह मत करो और आर्त होकर भगवान्‌को ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’ पुकारो । इससे बड़ी-से-बड़ी कठिनता मिट जायगी और बहुत सुगमतासे परमात्मप्राप्तिका रास्ता मिल जायगा ।

प्रतिकूलतामें प्रसन्न होना चाहिये । अपना लाभ प्रतिकूलतामें है । कारण कि प्रतिकूलतामें पापोंका नाश होता है तथा वर्तमानमें उन्नति होती है । अनुकूलतामें पुण्योंका नाश होता है तथा पतन होता है । आपको पापोंका नाश करना है कि पुण्योंका नाश करना है ?

जितने अच्छे साधु हैं, ब्राह्मण हैं, पढ़े-लिखे हैं, उन्होंने पढ़ाईमें दुःख भोगा है । परन्तु कलियुगमें विद्यार्थी सुखी होते हैं‘विद्यार्थिनो कलियुगे सुखिनो भवन्ति’ ! आजकल विद्यार्थियोंके लिये जितनी अनुकूलता, सुख-सुविधा कर दी है, उतनी विद्या नष्ट हो गयी है !

सुखार्थी चेत् त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी च त्यजेत् सुखम् ।
सुखार्थिनः कुतो विद्या    कुतो विद्यार्थिनः सुखम् ॥
                                      (चाणक्यनीति १० । ३)

‘यदि सुखकी इच्छा हो तो विद्याको छोड़ दे और यदि विद्याकी इच्छा हो तो सुखको छोड़ दे; क्योंकि सुख चाहनेवालेको विद्या कहाँ और विद्या चाहनेवालेको सुख कहाँ ?


   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७५, गुरुवार
                      श्रीमहावीर-जयन्ती
                   मैं नहीं, मेरा नहीं 



(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोताममता छूटनेका उपाय क्या है ?

स्वामीजीएक ज्ञानमार्ग है और एक विश्वासमार्ग है । विश्वासमार्गकी दृष्टिसे देखें तो एक भगवान्‌के सिवाय दूसरा कोई मेरा है ही नहीं‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ । विश्वास, प्रेम, अपनापन सब एक भगवान्‌में ही हो । फिर ममता छूट जायगी । भगवान् ही साथमें थे, भगवान् ही साथमें हैं और भगवान् ही साथमें रहेंगे, और कोई साथमें रहनेवाला है ही नहीं, फिर किसमें ममता करें ? अतः ममता एक जगह (भगवान्‌में) ही होनी चाहिये, दो जगह नहीं । यह विश्वासमार्ग सबसे श्रेष्ठ, सबसे ऊँचा है ।

माता, पिता, स्त्री, भाई आदि जो अभी संसारमें नहीं हैं, उनमें अगर ममताके कारण मन जाता है तो उनके निमित्त नामजप करो, कीर्तन करो, गीता-रामायणका पाठ करो, विष्णुसहस्रनामका पाठ करो, हनुमानचालीसाका पाठ करो । जिनमें ममता दीखे, उनकी सेवा कर दो और बदलेमें कुछ मत चाहो । उनको दो, लो मत । इससे ममता मिट जाती है । जैसे, पचीस वर्षका जवान सहसा मर जाय तो दुःख होता है । परन्तु सत्रह वर्षकी अवस्थासे आठ वर्षतक वह बीमार रहा और उसकी सेवा कर दी, रुपये भी लगा दिये, रातों जगे, वह मर जाय तो दुःख नहीं होगा । तात्पर्य है कि सेवा करनेसे ममता टूटती है ।

सुखकी आशा और सुखका भोगये दोनों ममताको दृढ़ करते हैं । इसलिये इन दोनोंको छोड़कर दूसरेको सुख पहुँचाओ । पहले जिनसे सुख लिया है, उनका हमारे ऊपर कर्जा है । वह कर्जा जबतक रहेगा, तबतक ममता छूटनी कठिन है । इसलिये सुख लेना नहीं है, देना है । सुख लेते रहोगे तो ममता छूटेगी नहीं । सत्तर-अस्सी वर्षका बूढ़ा मर जाय तो दुःख नहीं होता; क्योंकि अब उससे सुख लेनेकी आशा नहीं रही । वे हमारा कुछ काम करेंगे, यह आशा नहीं रही ।

जो मर गये हैं, उनकी ममता, चिन्ता-शोक मिटानेके लिये मैं तीन बातें कहता हूँ) उनकी याद आये तो उनको भगवान्‌के धाममें, भगवान्‌के चरणोंमें देखो, ) छोटे-छोटे बालकोंको खिलौने अथवा मिठाई दो, जिससे वे राजी हों और ३) गीता, रामायण आदिका पाठ, नामजप, दान-पुण्य करो और उनके अर्पण कर दो ।

श्रोताभगवान्‌के अनेक नाम बताये हैं, उनमें हमलोगोंके लिये कौन-सा नाम श्रेष्ठ है ? इस कलियुगमें कौन-से नामसे जल्दी कल्याण होता है ?


स्वामीजीऐसे तो ‘राम’नामको सबसे श्रेष्ठ बताया गया है‘राम सकल नामन्ह ते अधिका’ (मानस, अरण्य४२ । ४) परन्तु आपको जो नाम हृदयसे प्यारा लगे, वही नाम आपके लिये सर्वश्रेष्ठ है । आप जो नाम जपते हो, जिसपर आपकी श्रद्धा है, जिसमें आपका प्रेम है, जिसपर आपका विश्वास है, वह नाम आपके लिये श्रेष्ठ है । उसीका जप करनेसे आपकी निष्ठा बनेगी । मेरी तो यही प्रार्थना है कि उस नामको आप छोड़ना मत । कोई सन्त-महात्मा कुछ भी कह दें, उसको छोड़ना नहीं । उसमें तत्परतासे लगे रहो । उससे आपकी निष्ठा बनेगी ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे

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