।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.२०७२, मंगलवार
नामजपकी विलक्षणता


  यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि तो क्रियाएँ हैं, पर भगवन्नामका जप क्रिया नहीं है, प्रत्युत पुकार है । जैसे किसीको डाकू मिल जाय और वह लूटने लगे, मारपीट करने लगे तो अपनेमें छूटनेकी शक्ति न देखकर वह रक्षाके लिये पुकारता है तो यह पुकार क्रिया नहीं है । पुकारमें अपनी क्रियाका, अपने बलका भरोसा अथवा अभिमान नहीं होता । इसमें भरोसा उसका होता है, जिसको पुकारा जाता है । अतः पुकारमें अपनी क्रिया मुख्य नहीं है, प्रत्युत भगवान्से अपनेपनका सम्बन्ध मुख्य है । सन्तोंने कहा है

हरिया बदीवान ज्यों, करियै कूक पुकार ।

जैसे किसीको जबर्दस्ती बाँध दिया जाय तो वह पुकारता है, ऐसे ही भगवान्को पुकारा जाय, उनके नामका जप किया जाय तो भगवान्के साथ अपनापन प्रकट हो जाता है । इस अपनेपनमें अर्थात् भगवत्सम्बन्धमें जो शक्ति है, वह यज्ञ, दान, तप आदि क्रियाओंमें नहीं है । इसलिये नामजपका विलक्षण प्रभाव होता है ।

भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ ।
नाम जपत काल दिसि दसहूँ ॥
                                 (मानस, बाल २८ । १)

किसी भी प्रकारसे नामजप करते-करते यह विलक्षणता प्रकट हो जाती है । परन्तु भावपूर्वक, समझपूर्वक नामजप किया जाय तो बहुत जल्दी उद्धार हो जाता है

सादर सुमिरन  जे  नर करहीं ।
भव बारिधि गोपद इव तरहीं ॥
                                (मानस, बाल ११९ । २)

तात्पर्य है कि भावपूर्वक, लगनपूर्वक नामजप करनेसे संसारसमुद्र गोपदकी तरह बीचमें ही रह जाता है । उसको तैरकर पार नहीं करना पड़ता, प्रत्युत वह स्वतः पार हो जाता है और भगवान्के साथ जो नित्ययोग है, वह प्रकट हो जाता है ।

जैसे प्यास लगनेपर जलकी याद आती है तो वह याद भी जलरूप ही है, ऐसे ही परमात्माकी याद भी परमात्माका स्वरूप ही है । जड़ होनेके कारण जल प्यासेको नहीं चाहता, पर भगवान् स्वाभाविक ही जीवको चाहते हैं; क्योंकि अंशीका अपने अंशमें स्वाभाविक प्रेम होता है । कुआँ प्यासेके पास नहीं जाता, प्रत्युत प्यासा कुएँके पास जाता है । परन्तु भगवान् स्वयं भक्तके पास आते हैं । वास्तवमें तो भक्त जहाँ परमात्माको याद करता है, वहाँ परमात्मा पहलेसे ही मौजूद हैं ! अतः परमात्माको याद करना, उनके नामका जप करना क्रिया नहीं है । क्रिया प्रकृतिका कार्य है, पर नामजप प्रकृतिसे अतीत है । वास्तवमें उपासक (जापक) और उपास्यदोनों ही प्रकृतिसे अतीत हैं । अतः नामजपसे स्वयं परमात्माके सम्मुख हो जाता है; क्योंकि पुकार स्वयंकी होती है, मन-बुद्धिकी नहीं । इसलिये नामजप गुणातीत है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
अधिक आषाढ़ शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७२, सोमवार
सन्त-महिमा


  (गत ब्लॉगसे आगेका)
वे सन्त जाते-जाते बोले कि ‘भाई ! जब भी कोई शंका हो तो यह मेरा पता है, जाना या मुझे समाचार कर देना, मैं जाऊँगा ।’ इसपर उन सज्जनने पूछा‘महाराज ! अभी आपको किसने समाचार भेजा था कि आप पधारिये ? तो वे सन्त बोले‘मेरा घोड़ा अड़ गया था, इसलिये मुझे आना पड़ा ।’ तो उन सज्जनने कहा‘अबकी बार फिर आपका घोड़ा अड़ जाय तब फिर आ जाना ।’ तात्पर्य यह है कि जब साधककी सच्ची जिज्ञासा होती है तो सन्तोंका घोड़ा अड़ जाता है

सन्तोंकी बात क्या ! स्वयं श्रीभगवान्के कानोंमें भी सच्ची पुकार तुरन्त पहुँच जाती है और वे किसी सन्तके साथ हमारी भेंट करा देते हैं

सच्चे हृदयकी प्रार्थना    जो  भक्त  सच्चा  गाय  है
तो भक्त-वत्सल कानमें वह पहुँच झट ही जाय है

जैसे टेलीफोन एक्सचेंज हमारी लाइन हमारे इच्छित व्यक्तिसे मिला देता है, उसी प्रकार भगवान् हमारी लाइन सन्तोंसे मिला देते हैं पर हमारी लगन सच्ची होनी चाहिये

हमारी सच्ची लगन हो तो भगवान्में शक्ति नहीं है कि वे हमारी लगनको ठुकरा दें हैं किसलिये भगवान् छोटा बालक है और माँ उसका पालन करे, तो माँ है किस लिये ? बालकके लिये ही तो माँ है इसी प्रकार यदि सन्त-महात्मा साधकोंको कुछ बात नहीं बतायेंगे तो वे जीते क्यों हैं ? उनका क्या उपयोग है ? सज्जनो ! जब वे अपना कार्य पूरा कर चुके, तो वे हमारे लिये ही हैं उनसे पूछकर हम अपना कल्याण कर लें इसीलिये हमें सच्ची जिज्ञासा बढ़ानी चाहिये सन्त-महात्माओंकी परीक्षा करनेकी जरूरत नहीं है हम सच्चे हृदयसे परमार्थ-मार्गमें चलेंगे, तो हमारा काम हो ही जायगा । इसमें सन्देह नहीं है

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सत्संगकी विलक्षणता’ पुस्तकसे

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