।। श्रीहरिः ।।

प्रारब्ध और पुरुषार्थ


मनुष्यका निश्चय एक होना चाहिए और वह परमात्माकी तरफ ही हो सकता है , क्योंकि वह एक है । संसारमें तो कई तरहकी बातें होती है तो आदमी एक निश्चय नहीं कर सकता । मनुष्य शरीरका केवल एक ही प्रयोजन है, परमात्माकी प्राप्ति करना । यहाँ आक़र भोग और संग्रहमें लग जाते है, भूल करते है । यह प्रारब्धका विषय है । पारमार्थिक उन्नति ही पुरुषार्थकी बात है ।
कर्मके फल तीन प्रकारके होते है (१) इष्ट (२) अनिष्ट (३) मिश्रित । उसका विस्तारसे वर्णन साधक संजीवनी(गीतजीकी टीका)में १८ वें अध्यायके १२वे श्लोकमें किया है, ‘कर्मका रहस्य’ नामसे एक छोटी सी पुस्तिका भी है; उसका अध्ययन करना चाहिए । आजकल ज्यादा लोग भूले हुए है, जो परमात्मप्राप्तिमें सावधानीसे लगे है, वही सजग है । अतः ‘मेरेको तो परमात्मप्राप्ति करनी है’ ऐसा एक निश्चय करनेसे बड़ा लाभ होता है ।
भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्ति पूर्वकर्मोंका फल है । मनुष्यको बड़ी शंका होती है कि हमारेको जो मिलता है वह अभी पुरुषार्थ करते है उससे मिलता है कि भाग्यमें जो लिखा है वह मिलता है ? अभी जो फल मिलता है उसमें भाग्य या उद्योगकी प्रधानता है ? यह उलझन बहुत रहती है । उसका खुलासा हरेक जगह, कथा, व्याख्यान, पुस्तकमें नहीं मिलता है ! मेरेको संतोंसे मिला है, बादमें पुस्तकमें भी दिखेगा वरना पढ़ लेनेपर भी समजमें नहीं आता है ।
हमारे पास दो उपाय है —(१) पूर्वके कर्मोंका फलका; भाग्यका और (२) अभीके कर्म करनेका; पुरुषार्थका । मतलब एक ‘करनेका’ और एक ‘होनेका’; दोनों ही कर्म है । अतः हमारे पास प्राप्तिके उपाय तो दो है और चीज हमें चार चाहिए । (१) धन (२) सुख-भोग (३) धर्म (४) मुक्ति-कल्याण । इस चारके अंतर्गत सभी चाहना आ जाती है । धन-संपत्ति और सुख-भोगमें तो प्रारब्धकी प्रधानता है और धर्मपालन और मुक्तिमें पुरुषार्थकी प्रधानता है ।
एक पुरुषार्थ है, एक प्रारब्ध है और एक संचित है । यह क्या है ? इस विषयमे ध्यानसे सुनें । जैसे हम रोजाना पैसे कमाते है वह तो पुरुषार्थ है और बेंक आदिमें जमा करवाते है, संग्रह करते है वह संचित है और उस संग्रहमेंसे खर्चके लिए निकाल लेते है वह प्रारब्ध है । धर्मका अनुष्ठान और मुक्तिमें पुरुषार्थ प्रधान है और उसमें हम स्वतन्त्र है और सुख-भोग और संग्रहमें प्रारब्धकी प्रधानता है, उसकी प्राप्तिमें पराधीनता है । इस वास्ते हरेक को कहा जाता है कि इतना धर्म, तीर्थ, व्रत, उपवास,स्वाध्याय करो, इसमें करनेकी आज्ञा आती है । परन्तु आप रोजाना १००, २०० रुपये पैदा करो, कमाओ; इतनेसे कम पैदा नहीं करेंगे ऐसा नियम नहीं है । इसमें हम स्वतंत्र नहीं है कि इतना पैसा तो पैदा कर ही लेंगे ! ऐसे ही भोगकी प्राप्तिमें भी नियम नहीं है कि हम अमुक भोग भोगेंगे ही ! हलवा, पूड़ी खाएँगे ही ! शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, मान,आदर आदिके भोगोंमें हमारी स्वतंत्रता नहीं है । इससे सिद्ध हुआ कि जिसमें हम स्वतंत्र है उसमें उद्योग करे । रुपये कमानेमें प्रारब्धके आधीन है; धर्मपालन, कल्याणमें पुरुषार्थकी प्रधानता है ।
इसको समझाने के लिए एक द्रष्टान्त कहता हूँ । एक वैद्यजीके पास एक मरीज आया कि मुझे आँखमें दर्द, जलन है और पेटमें भी तकलीफ है । तो उसको आंखमें डालनेके लिए दवाई दी और पेटके लिए मोटा चूर्ण दिया, जिसका कहाड़ा बनाकर पीना था । दुसरे मरीजको भी वैसी ही तकलीफ़ थी तो उसको भी वैसी ही दवाई, चूर्ण दिया । पहलेवालेने तो जैसे वैधने कहा वैसा ही किया, ठीक भी हो गया और दूसरेवालेने आँखकी दवाई तो पी गया और पेटके लिए जो चूर्ण दिया था उसमेंसे थोड़ा आँखमें डाल दिया तो दोनो ही बीमारी, दर्द बढ़ गया ! तो आँखकी बीमारी क्या है ? मैं कहाँसे आया हूँ ? कहाँ जाना है ? मैं कोन हूँ ? जड़-चेतन क्या है ? द्वैत-अद्वैत क्या है ? यह दिखता नहीं है, तो गए वैधके पास, वैध है हमारे भगवान् ! आँखकी बीमारीके लिए पुरुषार्थरूपी पुड़िया है कि सत्संग, स्वाध्याय, भजन करो । और पेटकी बीमारी है निर्वाह करना, उसके लिए प्रारब्ध है । ‘प्रारब्ध पहले रचा पीछे रचा शरीर, तुलसी चिंता क्यों करे भज ले श्रीरघुवीर’ । बच्चा पैदा होनेसे पहले माँके दूध पैदा होता है और गाढ़ा दूध निकाल देते है क्योंकि भारी होनेसे बच्चेको पचेगा नहीं, इससे सिद्ध होता है कि बच्चेके जन्मसे पहले दूध पैदा होता है । जन्म, आयु और भोग पहलेसे निश्चित होता है, उसके लिए चिंता नहीं करनी है । चिंता करनी हो तो परमात्मप्राप्तिके विषयमें करो । तो सत्संग, स्वाध्याय, व्रत, जप, ध्यान आदि आँखकी पुड़िया और निर्वाहके लिए ५-६ घंटे काम करो । पर पूरा समय घन-भोगमें लगा देते हो और ध्यान-भजनके लिए समय नहीं है ! तो आँखकी दवाई तो पी गए और पेटके लिए जो चूर्ण था वह आँखमें डाल दिया । अपने कल्याणमें जो पुरुषार्थ करना था, समय, बुद्धि लगानी थी सब कमानेमें, घर सजानेमें लगा दिया । सत्संग, भजन करनेका है, भाग्यका नहीं है । आजकल चीजोंकी आवश्यकता ज्यादा पैदा कर ली, चीजें महेंगी हो गई, खर्चा बढ़ा दिया । मकानकी सुंदरता, शरीरकी सुंदरता बढ़ाओ, हमारे हिंदुस्तानमें महान अनर्थ हो रहा है । स्त्रियोंकी सुंदरताकी प्रतियोगीतायें होने लगी है । वही रंगकी साड़ी,जूते, पर्स ! क्या दशा है ? आप माता-बहनोंकी क्या इज्जत कर रहे हो ? स्त्रियोंकों तितलिकी तरह बना रहे हो ! शरीरको सजाना, मकानको सजाना यह मूर्ति पूजा है, भगवानकी पूजा नहीं है । महान अनर्थ कर रहे हो, पाप कर रहे हो !!
नारायण ..... नारायण................ नारायण....................नारायण

दि। २५/०७/१९९५, प्रातः ८.३०बजेके प्रवचनसे

http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijicontent/95/28-5-95_31-7-95/cdrom/html/aa.php?file=../july1995/19950725_0830.mp3


|
।। श्रीहरिः ।।

'गावो विश्वस्य मातरः'


‘गावो विश्वस्य मातरः’, संसारकी माता है गाय । जन्म देनेवाली माता तो बचपन में दूध पिलाती है और गाय तो पूरे जीवनभर दूध पिलाती है, मृत्यु समयमें भी गायका दहीं दिया जाता है । यह माँ भी है, दादी भी है , नानी, परनानी, परदादी भी है । सबको दूध पिलाती है । यह संपूर्ण संसारकी माँ है । गाय रक्षा करती है ।
एक जगह रात्रीको चोर आए तो गायने रस्सी तोड़कर उनके पीछे भागकर चोरोंकों भगा दिया । जैसे माँ रक्षा करें ऐसे रक्षा करती है, पालन करती है, प्यार, दुलार करती है ।गौ माताको याद करनेसे अंतःकरण निर्मल होता है । गायोकों खुजलानेसे असाध्य रोग भी ठीक हो जाते है, आप उचित समजो तो करके देख लो । गौकी रक्षा करनेसे अपनी रक्षा स्वाभाविक हो जाती है । आजकल लोगोनें गायका महत्व जानना बंद कर दिया है । गौके आशीर्वादसे लोक और परलोक दोनों सुधर जाते है । गौ माताकी कृपासे असंभव संभव हो जाता है । गायोंमें एक विलक्षण शक्ति होती है , उनको प्रसन्न, राजी किया जाय तो गौ सब तरहसे सुख देती है , सबकी रक्षा करती है । ईमानदारीसे गायोंकी रक्षाकी जाय तो उसके पालनमें कोई साधनमें कमी नहीं आएगी, आप हृदयसे करके देख लो । आप घरोमें एक-दो-दो गायें रखो तो सुगमतासे पालन हो जाय ! आजकल लोगोंकी भावना गायोंके प्रति कम हो गई है । गौ माता धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करती है । गौमूत्रसे बनी दवाईयोंसे बहुत फायदा होता है ।
जो गौका नुकसान करता है, उसका नुकसान होता है । अंग्रेज शासनके समयकी बात है, हिंदु-मुस्लिमकी लड़ाई हो रही थी तो कुछ मुस्लिम पहलवान शामको दंगा करके वापस जा रहे थे । उन्होने एक गायको पकड़ लिया और सोचाकी उसको मारकर पकाकर खाएँगे । तो एक पहलवानको पकडाकर मसाला लेने गए, पीछे उसको दया आयी तो गायको छोड़ दिया। पीछे उनलोगोंकों फाँसी हो गई तो रक्षा करनेवालेके पैरके नीचे गायके शिंग आ गए और उसकी रक्षा हो गई, यह सत्य घटना है ।
कल्याण अंकमें एक सत्य घटना प्रकाशित हुई थी ,एक हिसारका रहनेवाला ब्राह्मण था । बीकानेर जा रहा था, बीमार होनेसे चुरुमें रुक गया । उसने अपने भाईको चिट्ठी लिखी कि ज्यादा बीमार है, आप आ जाएँ । उनको रात्रीमें गौका स्वप्न आया कि तूने मुजे बचाया है, मैं तुजे बचाऊँगा ! उन्होनें एकबार कीचड़में फसी हुई गायकी जान बचाई थी ।बाद में उस सज्जनका स्वास्थ्य ठीक हो गया था ।
घरोंमेंसे साग-सब्जीके छिलके, आटेका छना हुआ कोरमा ऐसे खाद्य पदार्थ इकट्ठे करके गायोंकी सेवा करो तो कोई नया खर्चा भी न होकर सुगमतासे पालन हो जाएगा । हरा घासचारा दिया जाय, गुवार पानीमें मथकर दिया जाय, उसको गाय उत्साहसे खाती है । गौ किस तरहसे राजी हो, प्रसन्न हो ऐसा हृदयमें भाव रखना चाहिए । चीज तो सीमित होती है पर भाव असीम होता है । सेवासे कल्याण हो जाय । गाय बिक्री न करो, वरना कतलखाने चली जाएगी ! एक जगह हजोरों गायोंका पालन मुश्किल होता है पर सभी गृहस्थ एक-एक गायका पालन करें तो सुगमतासे गायकी रक्षा हो जाय । गायको सुई देकर दूध दोहना पाप है, ऐसा दूध नहीं पीना चाहिए । पहले ३६ करोड़ पशु थे, अभी गणना हुई तो १० करोड़ पशु बचे है । प्लास्टिकका उपयोग न करें । प्लास्टिक थेलियोमें बचा हुआ खानेका पदार्थ कूड़ेमें फेंकनेसे गायें खाकर मर जाती है, उनके पेटमेंसे १२-१३ किलो प्लास्टिकका कचड़ा निकला है ।अतः कागज, कपडेकी थेलीका प्रयोग करें । गायें दुःखपाकर मरती है तो प्लास्टिककी थेली बनानेवाले और प्रयोग करनेवाले पापके भागी होंगे ।
हिंदु और गौ पर आजकल बहुत आफत है, परिवार नियोजन मत कराओ । बच्चोंकों जन्म लेने दो, परिवार नियोजन करना पापकी बात है । गर्भपात निषेधके लिए तो विदेशमें भी कई संस्थायें काम करती है पर नसबंधीका विरोध नहीं करते है । जिस किसी तरहसे गाय और हिंदुओकी रक्षा करो वरना भारी नुकसान होगा । परिवार नियोजन करके मनुष्य पैदा नहीं हुए उस घाटेकी पूर्ति कभी नहीं होगी ।


दि। २८/१०/१९९८, प्रातः ८.३० बजेके प्रवचनसे

http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijicontent/98/12-9-98_18-11-98/cdrom/html/aa.php?file=../nov%201998/19981028_0830.mp3


|
।। श्रीहरिः ।।

मेरा कौन है ?


मनुष्यके लिए खास सोचनेकी बात है की मेरा कौन है ? ‘संसार साथी सब स्वार्थके है’ । अपने पास कुछ शक्ति है, कुछ द्रव्य है, कुछ बल, अधिकार, बुद्धिमानी, योग्यता है; उसको चाहते है, आपको नहीं चाहते है । आप भी संसारके पास विद्या, योग्यता,कलादि है, उसको चाहते हो, संसारको नहीं चाहते हो ! तो संसारमें अपना कोई नहीं है, सब मतलबके है । अपना मतलब सिद्ध करना चाहते है । आप संसारसे अपना मतलब सिद्ध करना चाहते हो और संसार आपसे मतलब सिद्ध करना चाहता है । तो दो ठगोंसे ठगाई नहीं होती है, है दोनों ही ठग !
वास्तवमें संसारकी जो ईच्छा है, आपसे जो चाहना है; अपनी शक्ति मुताबित पूरी करो और संसारसे चाहना मत रखो । यह उपाय उद्धार करनेवाला है, अपने कल्याणका उपाय है । यह आपको एकदम विपरीत दिखेगा परंतु वास्तवमें यही उपाय है । संसारको अपना मानो और संसारसे आशा रखो, तब तक कल्याण नहीं होगा । परमात्माको अपना मान सकते नहीं ! अपने सुख-सुविधा, आदर,मान चाहते है तब तक परमात्मा अपने नहीं दिखेंगे ! बातें कह लेंगे परमात्माकी, सुन भी लेंगे, पढ़ लेंगे पर अपना सुख,आराम चाहते है तब तक भगवानमें मन नहीं लगेगा । हम परमात्माके ग्राहक ही नहीं है, हम ग्राहक मान, आदर, सुख-सुविधाके है । हम चाहते नहीं तब तक परमात्मा कैसे मिलेंगे ? संसारतो स्वार्थी है, अपनेसे जीतना हो सके उतना संसारका स्वार्थ पूरा करो । अपनी शक्ति अनुसार सेवा करो, अपनी सुख-सुविधा मत देखो ।
भगवानमें मन तभी लगेगा जब अपना संसारमें कोई है नहीं, हुआ नहीं, होगा नहीं ! कोई संसारमें अपना हो सकता ही नहीं ! हमें सुख-सुविधा, आराम दे सके, वह खुद सुख-सुविधाका भूखा है, आरामका भूखा है, मानका भूखा है, आदरका भूखा है तो आपको सुख-सुविधा, मान कैसे देगा ? वे आपको कुछ नहीं दे सकते । धोखा होगा धोखा ! ‘सुर नर मुनि सबकी यह रीति ,स्वार्थ लाग ही करही सब प्रीति’ । ‘स्वार्थमित सकल जग माँही, सपने हूँ प्रभु परमारथ नाहीं’ । जहाँ जाते है, वहाँ अपना स्वार्थ देखते है । अपनी सुविधा-आराम देखते है । अपना मान,सत्कार चाहते है, अपनी महिमा चाहते है । यह संसारसे मिलता तो है थोड़ा और धोखा ज्यादा होता है । बात ऐसी विलक्षण है कि हमारेसे मान चाहनेवाला हमारा कल्याण नहीं कर सकता ।
हमें आराम, सुख-सुविधा देना है, लेना नहीं । दूसरोंकी सेवा करना और भगवानको याद करना — यह दो काम खास है मनुष्यके ! यह दो बात न हो तो वह मनुष्य कहलाने लायक नहीं है, पशु-पक्षीकी तरह ही है । हम मान, आदर चाहते है और मिलता नहीं है तो व्यक्ति खराब लगता है । तो वह व्यक्ति खराब हो गया क्या ? किसीको तो आदर देता होगा ! यह कसौटी नहीं है, हमारा आदर न करे वह आदमी खराब ! बिल्कुल गलत बात है यह । बिना मतलब आदर तो भगवान और भक्त, महात्मा लोग करते है । पर जब तक हमारे आदरकी भूख है, तब तक यह बात समज नहीं सकते ! ‘हेतु रहित जग उपकारी, तुम तुम्हार सेवक असुरारि’ । यह दिखेगा नहीं, समजमें नहीं आएगा, जबतक हम अपने मतलबकी बात सोचते रहेंगे । भगवानने हमारेको दुःख दे दिया, भगवानने यह कर दिया, संत-महात्माने यह कर दिया —ऐसा दिखेगा ! वास्तवमें अवगुण अपना है, संसारकी चीज चाहते है । परमात्माको चाहते तो संसारकी चाहना नहीं रहती । ‘कबीर मनवा एक है भावे तहाँ लगाय, भावे हरीकी भक्ति कर भावे विषय कमाय’ । परमात्माकी इच्छा जाग्रत होनेपर संसारकी इच्छा बुरी लगेगी । अनुकूलता, मान, बड़ाई अच्छी न लगे तब परमात्मामें प्रेम होगा । पदार्थोसे, व्यक्तियोंसे सुखकी चाहना बड़ी गलत बात है । परमत्माको चाहते हो तो निरादर, दुःख, प्रतिकूलतामें प्रसन्नता होनी चाहिए, आनंद आना चाहिए ! बात ऐसी है चाहे अपनी समज में आवे या नहीं आवें ! संतोंसे सुना है; बीमार हो गए, कोई पानी पिलानेवाला न हो, आनंद आता है । सेवा करनेवाले मिलते है तो अच्छे नहीं लगते है । यह बात हरेक की समजमें नहीं आयेगी, पर बात ऐसी है । जो ईश्वरका ग्राहक होता है उसको जगतकी सुविधा अच्छी नहीं लगती है और जब तक सुख-सुविधा अच्छी लगती है तो परमात्माका ग्राहक कहाँ है ? यह ज्ञान, विवेक सत्संगसे मिलता है ,वह संसारसे हटाने के लिए है और विश्वास है वह भगवानमें लगानेके लिए है । संसारका विश्वास पतन करनेके लिए है । बड़े-बड़े धनी, मिनीस्टरोंकों देख लो, वे खुद खाऊँ-खाऊँ करते है, वह आपको क्या निहाल करेंगे ! नहीं कर सकते । जो हमारी कोई गरज, आवश्यकता ही नहीं मानता है वह हमारा कल्याण कर सकता है । आप मेरा कहना मानो यह मेरे हाथकी बात है क्या ? आपका कहना मैं मान लूँ , यह मेरे हाथकी बात है । तो सुख लेना हमारे हाथकी बात नहीं है अपितु सुख देना हमारे हाथ की बात है । तो हाथकी बात है वह उद्धार, कल्याणकी बात है और जो हाथ की बात नहीं है वह पतनकी बात है । इस वास्ते हमारेको संसारसे कुछ लेना नहीं है । खुद ही दरिद्री है वह हमारेको क्या देगा ? लखपति, करोड़पति, अरबपतिको देखो, उनको घाटा ज्यादा है । क्या आपको मालूम नहीं है की उनको अभाव नहीं है ? करोड़ों रुपये है उनको रूपयोंकी चाहना नहीं है ? ज्यादा है, जीतना धन अधिक है उतनी उनको रूपयोंकी भूख ज्यादा है ।
परमात्माकी तरफ चलना हो तो संसारका सुख अच्छा नहीं लगना चाहिए । पहली सिढीको छोड़ोगे तभी दूसरी, तीसरी पर जाओगे ! वह छोडेगें नहीं तो कैसे चढ़ेगें ? तो संसारका सुख छोड़नेका है, भोगनेका नहीं है , तभी ऊँचे उठेगें । संसारके लोग आदर करते है तो कोई भगवद् संबंधी बात है हमारे में, वह हमारा आदर नहीं है ! हमारा आदर केवल भगवान् ही कर सकते है, जिसको कोई गरज नहीं हो वह हमारा आदर कर सकता है । अभी तकका इतिहास देख लो की संसारसे कोई भी तृप्त हो गया ? जो चीज जिसके पास अधिक है ,उसको उसकी भूख अधिक है । धन अधिक है, उनको रूपयोंकी भूख अधिक है । जिनके पास रुपये नहीं है उनको १०, २०,१०० रुपये मिल जायेगें तो मानेगें कि बहुत मिल गया ! धनी आदमीकी भूख उनसे बड़ी होती है । यह तो आप भी देखते हो, जानते हो; सच्ची बात है ।
संसारमें तो निर्वाह करना है । संग्रह और सुख की इच्छाका त्याग करो । संग्रह और सुखका त्याग नहीं कहता हूँ, पर उसकी इच्छाका त्याग करो ! यह पतन करनेवाली है । ज्ञानपूर्वक संसारका त्याग होता है और विश्वासपूर्वक भगवानमें प्रेम होता है । भगवान् हमारे है, ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो ना कोई’ । संसारके हम कर्जदार है तो कर्जा चुका दो, ठीक हो जाएगा । संसार तो चीज ही चाहता है, आपको कोई नहीं चाहता है । इस वास्ते संसारकी चाहना छोड़ो । अपने परिवारमें सबको सुख पहुँचाओ । सुख तो परमात्मासे भी नहीं चाहना है । वस्तुयें संसारकी है तो संसारको दे दो, और स्वयं भगवानके हो तो भगवानको दे दिया । मैं तो भगवानका हूँ । संसारमें केवल मनुष्योमें ही सेवा करनेकी ताकत है । पत्निको बूढ़ा पति सुहाता नहीं है, घर से निकाल दिया ! आपसे कोई चाहना रखता है वह ज्यादा अच्छा लगता है कि कुछ नहीं चाहता है वह अच्छा लगता है ? त्यागीको सब चाहते है, तो त्यागी हो जाओ । चाहना न रखनेवालेका निर्वाह बढ़िया होता है ।

दि. १५/०१/१९९४, प्रातः ५ बजेके प्रार्थनाकालीन प्रवचनसे

http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijicontent/94/17-11-93_30-1-94/cdrom/html/aa.php?file=../jan1994/19940115_0518.mp3


|
।। श्रीहरिः ।।

सच्चा गुरु कौन ? -२
(गत ब्लॉगसे आगेका)
अर्जुनने कहा कि 'शिष्यस्तेऽहं शाधि माम् त्वां प्रपन्नम्' । आपके शरण हूँ, शिक्षा दीजिए । तो वह शिक्षा भगवान ने दी है । इस तरहसे संसारमें सबके गुरु भगवान् श्रीकृष्ण है । कृष्ण भगवान् को मानेगा और उनकी गीता सुनेगा तो उसको ज्ञान हो जायेगा । अन्तमें भगवानने पूछा है अर्जुनसे कि तुमने गीता सुना ? और क्या आपका मोह नष्ट हो गया ? परन्तु अर्जुन ने कहा कि मेरा मोह आपकी कृपासे नष्ट हो गया है । गुरुकी कृपा होती है, उसमें विलक्षण शक्ति होती है । गुरु-शिष्य सम्बन्ध मानने मात्रसे नहीं होता है । इस वास्ते अर्जुन कहता है कि एकाग्रतासे गीता सुनी, उससे बोध हो गया, यह बात नहीं है । आपकी कृपासे हुआ है । अर्जुन अपनी पंडिताई नहीं मानता कि मैंने ठीक ढंगसे सुना और मेरा मोह नष्ट हो गया, वह भगवान् की कृपासे मोह नष्ट हुआ ऐसा मानता है ।
भगवान् ने भगवद्गीताके १० वें अध्यायके ९ वें श्लोकमें विधि बताई है, १० वें में विशेष कृपाकी बात बताते है और ११ वें श्लोक में तो साफ बताया कि 'तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः । नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता' । केवल कृपासे अज्ञानसे उत्पन्न अन्धकारको मैं ज्ञानरूपी दिपकसे नष्ट कर देता हूँ । अतः ऐसे गुरुके रहते हुए क्यों इधर-उधर जाते हो भाई ! भगवान् को मानो ! भगवान् गुरूजीसे भी ज्यादा बोलते है, मामूली नहीं बोलते है । भगवान् के शरण होकर गीता पढ़ो । यह गुरु महाराजकी वाणी है, सबकुछ ठीक हो जायेगा । गुरुभक्तिसे कल्याण होता है, गुरुसे कल्याण नहीं होता है । अटपटी बात लगाती है न ? अगर गुरु कल्याण करते हो तो अपने सबका कल्याण कर दें ! गुरु शिष्य बनाता है कि शिष्य गुरु बनाता है ? वृक्ष पर मधुर, मीठा फल पक जाता है फिर तोता आकार चोंच मारता है, ऐसे ही आप योग्य शिष्य बन जाओ तो पहाडोमें रहनेवाले, बद्रिनारायणमें रहनेवाले संत आकार भी उपदेश दे देंगे । भगवान् सबके अंदर बिराजमान है । एकनाथजी महाराजका जीवन चरित्र देखो, कितनी विचित्र गुरुभक्ति है । गुरुजीने समाचार भेजा कि वहाँ ही रहना, तो पीछे गुरूजीका शरीर शांत हो गया तो भी नहीं गए । इसपर किसने उनको कहा तो बोले, 'मरे गुरु रोये चेला तो दोनोंको क्या ज्ञान मिला' ? गुरु तो मरता नहीं और चेला रोता नहीं । एकनाथजी महाराजकी सेवा करने स्वयं भगवान् शिखंडीया नामके सेवक बनकर आये । ऐसी उनकी विलक्षण भक्ति थी । गुरु तो नित्य है, योग्य शिष्य नहीं मिलाता है । वास्तवमें दुर्लभ शिष्य है, गुरु दुर्लभ नहीं है । ज्ञान दुर्लभ नहीं है, ज्ञानका जिज्ञासु दुर्लभ है । सन्मुख हो जाय ऐसा पात्र दुर्लभ है । ज्ञान तो कहीं मिल जाय, किसीसे मिल जाय । परमात्मतत्त्व हरदम मोजूद है, सबके सामने ! पर जिज्ञासा न हो और आराम, सुख, और पैसा संग्रह करनेमें लगा हो तो वह गुरुको कैसे पहचानेगा ? चाहना रुपयें और भोगोंकी है । जैसे भुखेको अन्न बिना संतोष नहीं होता, ऐसे ही सच्चे जिग्यासुको हरेक जगह समाधान नहीं मिलता, शान्ति नहीं मिलती; तो वह कैसे अटकेगा ? भूखे आदमीकी अन्न-जल बिना कैसी दशा होती है ? ऐसी दशा भगवान् के बिना हो जाय तो भगवान् मिल जाय । जो कहे कि तुम चेला बनो फिर ज्ञान देंगे तो उनके पास ज्ञान नहीं है । जिसको चेलेकी गरज है वह तो चेलादास है ! गुरु कैसे बन जायेगा ? जो धन चाहता है वह धनदास है, मान चाहता है वह मानदास है ! गुरु कैसे बन जायेगा ? गुरु बनता है और भेट-पूजा चाहता है तो वह आपका पोता चेला हुआ ! आप धनके मालिक हो और उसको धनकी चाहना है । गुरु वह होता है जिसको किसीकी किंचितमात्र भी चाहना नहीं होती है । संतोके मनमें किसी बातकी चाहना नहीं होती है । 'चाह गई चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह; जिसको कछु न चाहिए, वह शाहनपतिशाह' ।
आप कामनका त्याग कर दो । किसी भी तरह कि चाहना न हो, तो कल्याण हो जायेगा । यह गुरुवाणी है, भगवान् ने गीताजीमें कहा है, 'त्यागाछान्तिरनन्तरम्', त्याग किया तो तत्काल शान्ति । यह कामना ही बंधन है । इच्छारहित होते ही योग, ज्ञान, भक्ति सब मिल जाता है । इच्छा, वासना ही बाधा है । न जीनेकी इच्छा हो, न मरनेकी इच्छा हो, कोई भी इच्छा न हो तो तत्काल तत्वज्ञान, जीवन्मुक्ति हो जाय ! संसारका सम्बन्ध सांसारिक इच्छा से ही है । भगवान् के सिवाय कोई इच्छा न हो तो भगवान् मिल जायेंगे । इच्छा मात्रसे संसारकी प्राप्ति नहीं होतीहै, परन्तु भगवान् केवल अनन्य इच्छा हो जाय तो मिल जाते है । जिसका जिस पर सत्य स्नेह होता है, वह मिल जाता है । भगवानकी कृपा, गुरुकृपा अखंड बरस रही है । 'सन्मुख हो ही जीव मोहि जबही, जनम कोटि अघ नासहिं तबही' । गुरु मिलेगा तो एक सम्प्रदयाका मिलेगा, परन्तु भगवानको सभी सम्प्रदायवाले मानते है ।
—दि। ४/११/१९९३, दोपहर २.३० बजेके प्रवचनसे

|
।। श्रीहरिः ।।

सच्चा गुरु कौन ?-१

श्रोता - मेरी उम्र बहुत हो गई है, मैंने अभी तक गुरु बनाया नहीं और सुननेमें आता है कि गुरु बिना कल्याण होता नही; मेरा मन मानता नहीं कि किसको गुरु बनाऊँ ? ऐसी हालतमें मेरेको क्या करना चाहए ?
स्वामीजी - मेरे विचारसे तो यही बात है कि गुरु वह होता है जो शिष्यका उद्धार कर दें । 'गुरवो बहवःलोके शिष्य वित्तापहारकाः । दुर्लभः स गुरुर्लोके शिष्यः हृत्तापहारकाः ।। मैं सबसे माफ़ी माँग लेता हूँ, क्षमा करेंगे, कोई बुरा न माने ! शास्त्रोमें ऐसी बात मैंने पढ़ी है, सुनी है, समझी है उसके अनुसार; किसी पक्षपातको लेकर के नहीं । सरलतासे अपने विचारकी बात कहता हूँ । मेरा कोई आग्राह नहीं है ।
शास्त्रोमें आया है कि संसारमें ऐसे गुरु बहुत मिलेंगे जो शिष्यके 'वित्तापः' धनको लेनेवाले होंगे परन्तु ऐसा गुरु दुर्लभ है जो शिष्यके तापको बुझा दें । गुरुकी महिमा 'हृत्तापहारकाः' की है । जैसे हमारे भाई-बहन, माता-पिता ऐसे कई संबंध है, ऐसे ही एक गुरुका संबंध भी जोड़ लिया तो उससे कोई कल्याण हो जाय, विलक्षणता आ जाय ऐसा देखनेमें नहीं आता है । अतः जबतक अपनी शंकओंका समाधान न हो, हृदयमें प्रकाश न हो, तत्वज्ञान न हो, भगवद् प्रेम न हो तबतक क्या गुरु हुए ? गुरु वही है जिसके शरण जाते ही शिष्य बदल जाय, भाव बदल जाय । हम देखते है कि जिन्होंने गुरु बनाये उनके व्यवहार भी वैसे ही है, राग-द्वेष आदि भी वैसा ही है, जैसे जिन्होंने गुरु नहीं बनाये है । तो एक नया संबंध जोड़ लिया, मनमें संतोष कर लिया कि गुरु बना लिया; उससे अधिक कोई फर्क नहीं पड़ा !
वास्तवमें तो गुरु वह होता है 'को वा गुरुयोः ? हितोपदेष्टाः' गुरु वह होता है जो शिष्यका हितका उपदेश दें । 'शिष्यस्तु कोः ? गुरुभक्त एव' और शिष्य कौन है ? जो गुरुका भक्त है । गुरुकी आज्ञा अनुसार चलता है । 'गुरु शिष्य अंध बधिर कर लेखा, एक नहीं सुने एक नहीं देखा' ! आज गुरु और शिष्यका ढंग कैसा है ? अन्ध और बधिर, मानो गुरुजीको तो सुझता नहीं और चेला सुनता नहीं । बिना देखे, अनुभव किये; वैसे ही शिष्य बनाया जाय; और बन गए तो गुरुकी बात सुनते ही नहीं ! गुरुकी आज्ञापालन करते ही नहीं !! अच्छे महापुरुष होते है, वह जल्दीसे शिष्य बनाते नहीं है; और जिसको बना लेते है, उनका उद्धार करना पडता है । क्योंकि किसीको गुरु बनाता उससे तो वंचित कर दिया, हमारेको गुरु बना दिया अब और जगह तो जा सकता नहीं और हम उसका कल्याण कर सकते नहीं !! तो इसे दोष बताया है शास्त्रोंने । जैसे कोई दुकानदारके पास कपड़ा खरीदने जाय, पैसे तो दे दिए और कपड़ा देता ही नहीं ! ऐसे ही शिष्य तो बन गए अब उद्धार कर दो, नहीं तो शिष्य क्यों बनाया ? यह बात बढ़िया नहीं है ।
एक सम्प्रदायकी रीतिसे चलता है तो ठीक है, उस सम्प्रदायके शिष्य बन जाओ परम्परासे ! अपने माता-पिता होते आये है; उनके शिष्य बन गए । एक गुरु ब्राह्मण होता है, ब्राह्मण कहते है यह हमारी वृत्ति(आजीविका का साधन) है, शिष्य हो; तो यह तो जैसे भाई-बंधुका संबंध होता है ऐसे ही यह गुरु-शिष्यका संबंध है । तो वैसे कोई कल्याण हो जाय, उद्धार हो जाय यह बात तो है नहीं ! इस वास्ते जो उद्धार कर सके वही चेला बनावें । और उद्धार न कर सकें वह चेला न बनावें । इस वास्ते मारवाडीमें एक कहावत आती है 'पानी पीजे छाणीयो, गुरु कीजे जाणीयो' । जिसको जानते हो कि यह वास्तवमें तत्वज्ञ है, जीवन्मुक्त है, उद्धार कर सकते है -ऐसा जानो; मतलब आपका विश्वास हो उनको गुरु बनाओ । गुरु बिना ज्ञान नहीं होता - यह बात सच्ची है, परन्तु ऐसे गुरु और चेलेकी बात और ढंगकी है । जैसे मैं आपको एक बात पूछता हूँ कि पहले बेटा पैदा होता ही कि बाप पहले पैदा होता है ? बापका शरीर तो पहले पैदा होता है, पर बाप नाम नहीं होता है उसका बिना बेटेके ! वरना मनुष्य है, बाप नाम नहीं है उसका । तो पहले बेटा पैदा होता है, बेटेसे बाप पैदा होता है । ऐसे ही चेलेका उद्धार करनेके बाद गुरु होता है । बिना उद्धार किये कैसे गुरु हो जायगा ? इस वास्ते संतवाणीमें आता है कि 'बेटी पूछे बापसे अणजायो वर लाय, अणजायो वर नहीं मिले तो तेरे मेरे ब्याह' । 'ऐसे वर को क्या वरुँ जो जनमत मर जाय, वर वरिये गोपालजी तो अमर चुडलो हो जाय' । कभी विधवा होना ही न पड़े ऐसा अणजाया वर लाओ । तो ऐसा गुरु लाओ कि अणजाया हो । अणजाया कैसे होगा ? संतवाणी, भागवत् आदिमें आता है कि गुरुमें मनुष्य बुद्धि और मनुष्यमें गुरु बुद्धि अपराध है । मनुष्यको गुरु मानना और गुरुको मनुष्य मानना अपराध है । 'गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु ...गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः' । गुरु तत्व होता है, गुरु मनुष्य नहीं होता है । परमात्मतत्त्व है वही गुरु है । 'कृष्णं वंदे जगदगुरुम्' । तो आप गुरु बनाओ क्यों ? कृष्ण भगवानको गुरु मान लो । जगद् गुरु कृष्ण भगवान है, तो क्या आप जगत् के बहार हो ? हमारे गुरु कौन है ? कृष्ण भगवान् गुरु है !! सीधी बात है । आप संकोच क्यों करे ? कृष्ण भगवानको गुरु मानें । गुरुका उपदेश बढ़िया है, गीताजी जैसा उपदेश, हरेक जगह मिलेगा नहीं । मैंने देखा है, सुना है, समझा है; ऐसा गुरु कोई मिलता नहीं !

(शेष आगेके ब्लोगमें)
|
।। श्रीहरिः ।।

प्रेमके प्यासे प्रभु


है तो परमात्मा ही लेकिन हमारेको संसार दीखता है । परमात्माकी जगह संसार दिखता है । परमात्मा है —ऐसा मानना आस्तिकता है और परमात्माकी जगह संसार मानना नास्तिकता है । वो मेरा है, मैं उसका हूँ । मेरा है, मेरा है ... कहते-कहते 'मैं उसीका हूँ' हो जाय । जैसे गंगाजीमें जाते-जाते डूब जाय !! ऐसे ही परमात्माकी शरण जाते-जाते डूब जाय, परमात्मा ही रह जाय । यह भगवान् की शरणागति है । अपने-आपकी सत्ता ही उठा दी जाय, तब शरणागति हो जाती है । फिर भगवान् की कृपामें मस्त हो जाय, लबालब भगवान् की कृपामें !! 'ये यथा माम् प्रपद्यन्ते, तांस तथैव भजाम्यहम्' । हमें भगवानकी शरणकी पूरी तैयारी कर लेनी है फिर परमात्मा शरणागतको कृपा करके स्वीकार कर लेते है । ऐसा सुना है, वह जो शरण लेते है न ! उसमें विलक्षण आनंद है । अपनेमें लीन कर देते है विलक्षण ढंग से । भगवान् प्रेम करते है तो अपनेमें लीन कर देते है फिर अलग करते है । वह प्रेम असली होता है । असली प्रेमका तब पता लगता है ।
देखो ! पहले परमात्मासे हम अलग मानते है अपनेको ! अलग मानकर भगवान् के शरण हो जाते है । शरण होकर लीन हो जाते है फिर भगवान् अपनेको एक से दो करके प्रेम करते है, वह असली प्रेम होता है । 'भर्क्त्यथ्मं स्वीकृतम् द्वैतं' । अपनी तरफसे दूर होना बंधन करनेवाला है और भगवान् की तरफसे जो अलग होते है वह 'अद्वैतादी सुन्दरम्' अद्वैतसे भी सुंदर है । प्रभुसे एक होकर, जब प्रभु अलग करते है वह !! भगवान् अपनेको स्वीकार कर लेते है फिर अपने तो एक भगवान् ही है । अपनी कोई इच्छा, चाहना किंचितमात्र भी नहीं होती है । कोई चेष्टा, धारणा नहीं । उस प्रेममें भगवान् परवश हो जाते है । उस प्रेमके भोक्ता भगवान् होते है, फिर भगवान् को आनंद होता है । आनंद स्वरुप भगवान् को आनंद देता है । अपने तो कुछ लेना, चाहना ही नहीं है । इस वास्ते असली प्रेमके भोक्ता भगवान् ही होते है, जीव भोक्ता नहीं होता है । वह तो देनेवाला होता है और भगवान् लेनेवाले होते है । प्रेमका तो अंत होता नहीं और भगवान् का पेट भरता नहीं ! उनको तृप्ति होती ही नहीं ! इसका नाम भक्तिरस, प्रेमरस, प्रेमका आस्वादन है । 'भगत मेरे मुकुटमणि, मैं भगतनको दास' ! उस रसरूप, रस-सागरको रस देनेवाला होता है भक्त ! भगवान् को जितना प्यारा भक्त होता है , उतना प्यारा और कोई नहीं है !! ऐसे अपने आपको देनेवाले प्रभुके चरणोंकी शरण हो जाय, हे नाथ ! हे नाथ !! अपने आपको समर्पित कर दें ! सर्वथा भगवान् को समर्पित कर दें ! भगवान् आनंदमग्न, मस्त हो जाते है ।
हमने पुस्तकमें पढ़ा है कि सिवाय मनुष्यके भगवान् को ऐसा प्रेम देनेवाला कोई नहीं है । एक मनुष्ययोनी ही ऐसी है; देवता, राक्षस, पिशाच, जलचर, थलचर कोई भी भगवान् को ऐसा प्रेम दे नहीं सकता ! क्योंकि मनुष्यमें विवेकशक्ति है । संसारके सुखका भोगी दुःखसे बच सकता ही नहीं । भयंकर दुःख भोगना पड़ता है, इस वास्ते संसारके सुखका त्याग कर देता है, लेश मात्र भी इच्छा नहीं रखता फिर भगवान् का प्रेम प्राप्त होता है । यह विवेकशक्ति भगवान् की दी हुई है, उसको काम लेता है । दीर्घद्रष्टिवाले संत-महात्मा परिणामकी तरफ देखकर हरेक काम करते है । इसलिए संसारका सुख 'दुखालायम् अशाष्वतम्' का त्याग कर देते है । उनकी वृत्ति वहाँसे स्वतः स्वाभाविक हट जाती है और भगवान् को सुख, आनंद देता है । फिर अनंत, अपार सुख, भगवान् का प्रेम, स्नेह मिलता है । उस आनंदमें महात्मा लोग मस्त रहते है । भोजन बढ़िया हो तो, या तो पेट भर जाता है या भोजन कम पड जाता है, अतः वह रस आता नहीं । और इस प्रेम रसमें, रस तो समाप्त होता नहीं और पेट तो भरता नहीं, तृप्ति होती नहीं ! ऐसे अनंत प्रेममें मस्त होते है, मौज में मग्न हो जाते है एकदम ! आनद ही आनंद ! अपार आनंद ! असीम आनंद !
इसके पहले वैराग्यकी मस्ती होती है, वह भी बड़ी विचित्र होती है । वैराग्य होकरके फिर अनुराग होता है, भगवान् में प्रेम होता है । पहले त्यागमें आनंद होता है फिर प्रभु-प्रेम मिलता है, उसका आनंद होता है । यह अलौकिक, विलक्षण है 'यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सहः' । रसमें डूब जाता है, अपनी सत्ता ही नहीं दिखती । प्रेममें मतवाले हो जाते है । ऐसे प्रेमीका दर्शन भी बडभागीको होता है, उनको समजना चाहिए कि भगवान् की असीम, अपार कृपा हो गई कि ऐसे भक्तके दर्शन हो गए !! उसके सामने संसारका कोई सुख टिकता ही नहीं, कोई मस्ती है नहीं सांसारिक सुखकी ! भगवान् की मस्तीमें आनंद विभोर हो जाते है, आगे उनकी वाणी भी लुप्त हो जाती है, कुछ कहनेमें असमर्थ होती है ! प्रभुका प्रेम ऐसा अलौकिक, विचित्र है । संसारके अभावमें जो शान्ति है वह कर्मयोगमें मिलती है, स्वरूपका आनंद ज्ञानमार्गमें है और उससे विलक्षण आनंद भक्ति, प्रेममें होता है । ज्ञानमार्गमें संसारके अभावका आनंद होता है , प्रेममें भगवान् के भावका आनंद होता है । वह उससे विलक्षण है, अद्वितीय आनंद है ; वैसा कोई आनंद नहीं है ।
सज्जनों ! उस आनंदकी झलक कीर्तन, भजनमें आती है , थोडा आभास पड़ता है । उससे अधिक कोई लाभ नहीं है । यह अपने उध्योगसे नहीं मिलता है, अपितु भगवान् की अलौकिक, विचित्र कृपासे मिलता है । आनंद ही आनंद....!!

नारायण.....नारायण.......नारायण........नारायण
दि. २२/०४/२००१ प्रातः ५ बजे प्रार्थनाकालीन प्रवचनसे
www.swamiramsukhdasji.org/swamijicontent/2001/12-4-2001_2-6-2001/cdrom/html/aa.php?file=../apr_2001/20010422_0518.mp3


|
।। श्रीहरिः ।।

प्रेम चाहते हो ?

रामायणजी में भगवान शंकरजी कहते है कि हरी व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रगट हो ही मैं जाना' परमात्मा सब जगह समान रूपसे परिपूर्ण व्यापक है प्रेमसे प्रगट होते है — यह उनका नियम है अतः प्रेम बहुत बढ़िया चीज है दो संप्रदाय है, एकमें ज्ञानको बढ़िया मानते है और एकमें प्रेम-भक्ति को ! यह दो मत मुख्य है उत्तर भारतमें ज्ञानकी प्रधानता है, दक्षिण भारतमें प्रेमकी प्रधानता है गीताजीमें हमें पहले ज्ञानकी प्रधानता दिखती थी, अब भाव बदल गया और प्रेमकी प्रधानता दिखती है विशेषतासे !
प्रेम क्या चीज है ? भगवान् जाने !! प्रेम कैसे होता है ? इसमें हमें एक बात मिली है कि अपनेपनसे प्रेम होता है भगवान् के साथ अपनापन हो कि मैं भगवान् का अंश हूँ यह हो जाय तो प्रेम हो जाय 'ईश्वर अंश जीव अविनाशी', अपना माने तो प्रेम हो जाय, हम अंश हुए और भगवान् अंशी हुए यह ठीक स्वीकार कर ले तो प्रेम हो जाय, क्योंकि अपनी चीज सबको अच्छी लगती है अपनी फटी जुती, फटा कपड़ा भी ईमानदार आदमीको अच्छा लगता है प्रभु जैसे है वैसे हमारे है 'मेरापन' — खास चीज है जैसे मीराबाईने कहा — 'मेरे तो गिरधर गोपाल, दुसरो ना कोई' एक अनन्य भावसे ....'एक आसरो, एक बल, एक आस विश्वास' हो जाय !
सज्जनों यह बड़ा धोखा है की स्त्री अपनी है, बच्चे अपने है, माँ-बाप अपने है !! बचना तो कठीन है ! भाई, मित्र, कुटुम्बी, जातिवाले अपने है — यह बहुत बड़ी आफत है इससे कैसे बचें बताओ ? बहुतोंको मेरा, अपना मान रखा है — यही बाधा है वास्तवमें भगवान् अपने है और कोई अपना है नहीं ! साथमें रह सकेगें नहीं और भगवान् कभी साथ छोड़ेंगे नहीं — यह विलक्षण बात है भगवान् साथ छोड़ सकते ही नहीं; चाहे आप स्वर्गमें जाओ, चाहे नरकमें जाओ और चाहे मृत्युलोकमें जाओ !! भगवान् तो साथ ही रहेंगे !! 'ईश्वरः सर्व भूतानाम् हृदेशेर्जुन तिष्ठति' ,सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो' तो वे परमात्मा हमें कैसे छोड़ सकते है ?? तो हमारे भगवान् के सिवाय कोई अपना नहीं है, ऐसा स्वीकार कर लें तो प्रेम हो जाय पर यह मानना कठिन है ! आप लोग हिम्मत करो तो बात ठीक बैठ जाय ! 'मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो ना कोई' — यह जो मीराबाईने कही, बात सच्ची है । पर सभी के सभी धोखेमें आ गए !! 'आदि विद्या अटपटी घर घर बीच अडी, कहो कैसे समजाय ये कुएमें भांग पड़ी' सभी कहते है की मेरा बेटा है, मेरे माँ-बाप है, मेरे जातिवाले है....कुएमें भांग पड़ी है ! बताओ, कोई इलाज बताओ ??
मीराबाईको बालकपनसे ही धुन लग गई की 'मेरे तो गिरधर गोपाल दुसरो ना कोई', ऐसी धुन लग जाय; यही असली उपाय है, और कोई साथ रहनेवाला नहीं है भगवान् कहते है कि मैं छोडूंगा नहीं और आप कहते है की हम मानेगें नहीं !! तो हम क्या करें बताओ ?? मुश्किल हो गई !! आपने कमर कस ली कि भगवान् हमारे नहीं है और दुसरे माँ-बाप आदि हमारे है अरे मान लो, मान लो भाई ! सच्ची बात मान लो !! सिवाय भगवान् के सब मिलने और बिछुडनेवाले है — यह बात हमें बहुत बढ़िया लगी मिलने- बिछुडनेवाले अपने नहीं है, इसमें संदेह नहीं है यह बात आप मान लो
ईश्वरका लक्षण बताया है कि कैसा होता है ? तो ' ईश्वरः सर्व भूतानाम् हृदेशेर्जुन तिष्ठति', अब क्या करें ? भगवान् तो छोड़ते नहीं और आपने कमर कस ली कि हम मानेगें नहीं दुसरी बातें तो सब मानेगें परन्तु भगवान् अपने है, वह नहीं मानेगें !! मीराबाई पक्की भक्त है ऐसे भक्त बहुत थोड़े हुए है 'दूसरा न कोई' — यह नहीं मानते है अपनापन यह है कि भगवान् के सिवाय मेर कोई नहीं है दुसरे सब मिलने-बिछुडनेवाले है और भगवान् हरदम साथमें रहते है अपने भगवान् ही है — यह पक्का विचार कर लो, मान लो तो बहुत बढ़िया बात है ! भगवान् कहते है 'सब मम प्रिय, सब मम उपजाए', 'ममैवांशो जीवलोके' 'सबसे ऊँची प्रेम सगाई' , प्रेमका सम्बन्ध सबसे ऊँचा है गीताजीमें भी महात्मा, सर्वज्ञ आदि शब्द भक्तोंके लिए ही आये है ज्ञानीको भगवान् ने सर्वज्ञ नहीं कहा है गीताजी में ! 'सर्व भाव भजी, कपट तजी; मोहि परम प्रिय सोई', सर्वभावेन् भारतः' ....आदि भगवान् कहते है — 'पिताहमस्य जगतः', माताधाता पितामहः'; अपना कुटुम्बी भगवान् ही है 'सदसच्चाहमर्जुन', 'वासुदेवः सर्वंम्' एक बात मान लें पक्की ,मीराबाईकी तरह, फिर सब ठीक हो जायेगा ! 'मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो ना कोई' मेरे तो भगवन है । सुरदासके श्याम, तुलसीके राम, मीराके गिरधर गोपाल, नरसीके शामळीया शेठ !! भगवान् कहते है, 'नरसीजी हमारे आदि शेठ है और मैं उनका आदि गुमास्ता(नौकर) हूँ उनसे ही पेट भरते है बड़ी विचित्र बात है तो अपने भगवान् है आपको राम, श्याम, शामळीया शेठ... जो अच्छा लगे वह कह दो, मान लो !! '

दि.१७/१२/२००० प्रातः ५ बजेके प्रार्थनाकालीन

|
।। श्रीहरिः ।।

त्यागसे आपकी बड़ाई है

(पीछेके ब्लोग्से आगेका)

महाभारतमें एक कथा आती है कि पहले ज्यादा धन-पैसा राजओंके पाससे नहीं मिला अपितु राक्षसोंके पाससे मिला । ऐसी ही दुसरी कथा चक्ववेण राजाकी है । राजा-रानी दोनों खेतीसे जितना उपार्जन हो जाय, उसीसे अपना निर्वाह करते थे । बहनों-माताओंका ह्रदय बहुत ही सरल होता है, सत्संगका असर भी बहुत जल्दी लग जाता है और कुसंगका भी । भगवानने उनको कोमल ह्रदय दिया है जिससे हमारा पालन हो जाय, संतानका पालन करनेके लिए कोमल ह्रदय दिया है । एकबार रानी कोई प्रसंग पर धनी आदमीयोंकी स्त्रिओंसे मिली, उनको देखकर रानीके मनमें हुआ कि मुझे भी अच्छे कपडे, गहने बनवाओ ! पहले राजालोग प्रजाका कर-टेक्स रूपसे आया हुआ धन प्रजाके सुखके लिए ही खर्च करते थे । अपने सुखके लिए खर्च नहीं करते थे । तो चक्ववेणने रावणके पास कर रूपमें सोना लेने अपना आदमी भेजा । तो रावणने हँसकर उसका तिरस्कार किया । मंदोदरी सती थी, वह धर्मात्मा चक्ववेण राजाके प्रभावको जानती थी; अपने पतिव्रताके तेजसे ! रावणको समजाया कि सोना दे दो । रावण माना नहीं तो सुबहमें कबूतरोंको दाना डालकर रावणकी दुहाई दी कि दाना मत चुगो ! तो कोई असर नहीं हुआ; फिर चक्ववेणराजाकी दुहाई दी और एक बहरा कबूतर सुन नहीं पाया और दाना चुगा तो उसकी गर्दन कट गई ! इस तरह से रावणको समजाकर कहा कि चक्ववेण धर्मात्मा, त्यागी राजा है, उसको राजी-खुशीसे कर दे दो ! फिर भी माना नहीं । समुद्र किनारे चक्ववेणके आदमीने लंका जैसा दरवाजे, मकान आदिका नकशा बनाकर रावणको कहा, देखो ठीक है ना ! कर देते हो कि नहीं ? चक्ववेणकी दुहाई देकर उस नकशे पर हाथ घुमाया कि यहाँ लंकामें धडा-धड मकान आदि गिर पड़े ! तो रावणने चुपचाप कर दे दिया ! फिर वह सोना रानीको दिया कि जैसे चाहो वैसे गहने बनवा लो ! जब रानीको पूरी घटनाका पता चला तो अपने पतिके त्यागका प्रभाव देखकर उसने कहा कि मुझे अब गहना नहीं बनवाने है फिर सोना रावणको वापस लौटा दिया चक्ववेण राजाने !
यह प्रभाव त्यागमें है ! शूरवीर, त्यागी वह है कि लाखों, करोडों रुपये आ जाय चाहे चले जाय तो भी मनमें कुछ असर न पड़े ! धनका गुलाम न हो, वह सच्चा त्यागी है । हमारा देश त्यागसे, पतिव्रतसे, सतीव्रतसे, शूरवीरसे, तपस्वीसे, भजन-स्मरण करनेवालोंसे ऊँचा है ! आप चेतन हो, धन जड है । आपने धनको कमाया है, धनने आपको पैदा नहीं किया है । धनसे ऊँचा अन्न, जल आदि पदार्थ है, जिससे हमारा निर्वाह होता है । पदार्थसे ऊँचा मनुष्य है, उससे ऊँचा विवेक है । और विवेकसे ऊँचा सत्, परमात्मा है ! यदि आपको सोना, चांदी, रत्नोंका चबूतरा बनाकर बैठा दे और अन्न, जल आदि न दिया जाय तो आप कितने दिन जिओगे ? और एक आदमीको अन्न, जल, वस्त्र, मकान दे दो और एक कोड़ी, पैसा भी मत दिखाओ तो भी वह जी जायेगा ! खुद पैसा कुछ काम नहीं आता, उससे चीज लाओ वह काम आएगी !
आप क्षमा करेंगे, एक बात याद आयी कह देता हूँ । जब मैं पहले-पहले कलकत्ता आया तो एक भाई ने मुझे कहा कि और साधुओंकी तरह आप हमसे कुछ पैसे तो माँगेंगे नहीं ? और दूसरेने कहा, स्वामीजी आप हमसे पैसा माँगना नहीं !! यह मेरी बीती हुई बात है ! लोग डरते है कि कुछ माँग लेंगे हमसे ! लोगोंको वहम है कि धन बहुत बड़ा है ! एक और बात याद आयी जब हम मिर्ज़ापुर गए थे । क्षमा करना प्रभु ! राम..राम...राम...!! याद आ गई तो कह देता हूँ, नहींतो कहनेकी बात नहीं थी ! महाराजने कहा कि यहाँसे प्रयाग पासमे है तो हमारे मनमें भी दर्शन करनेकी आयी । महाराज मैं कभी नहीं कहता हूँ कि मोटर लाओ, मुझे अमुक जगह जाना है ! मैं मेरे लिए मोटर-सवारी माँगता नहीं हूँ । तो वहाँसे प्रयागराज पासमें था, पर वहाँ नहीं गये । नजदीक तो है पर किसीको मोटरके लिए कहना तो पड़ेगा न ! देखिये, आप टट्टी-पेशाब करते हो वह भी काम आता है, रेता, कंकड, फूस भी काम आ जाता है पर पैसा खुद क्या काम आता है ? बताइये कोई माईका लाल हो तो !! पैसेके द्वारा चीज खरीदते हो तो चीज काम आती है पर खुद पैसा कुछ काम आता है ? अतः भाई ! पैसे काममें लो, दुसरोंका हित करो ! केवल गिनती न बढाओ संग्रह करके; वरना चोर, डाकू, राजकी नजर होंगी । ‘को वा दरिद्रः ? विशाल तृष्णाः’ ! आज ब्याहमें करोडों रुपये खर्च होते है, लडके नीलाम होते है । अतः कृपानाथ ! कृपा करो !! जैसे दान देनेका उपकार होता है, वैसा उपकार होगा कम खर्च करोगे तो ! ब्याह, शादी, निर्वाहमें कम खर्च करो । अंडा, माँस, मछली जैसा अशुद्ध न खाओ । आज बनिया, ब्राह्मण भी खाने लगे ै, वरना मारवाड, काठियावाड़, गुजरातमें इसका प्रचार नहीं था, लेकिन मारवाड़ी व्यापारीयोंने फ़ौजको भी माँस सप्लाईका काम किया है !! व्यापारके नामसे आज कुछ भी काम करा लो और कुछ भी खिला दो ! कितना पतन हो गया है ! आप अपने व्यवहारमें सादगी लाओ । मेरे द्वारा कुछ अनुचित कहा गया हो तो क्षमा करें, पर मेरेको दुःख हुआ तो कहा है !

—दि॰२३/१२/१९९६ प्रातः ८.३० बजेके प्रवचनसे

|
।। श्रीहरिः ।।

दहेजप्रथासे हानि

सज्जनो मेरी बात ध्यान देकर सुनो, अपने मनमें भाव आया वह कहता हूँ । विवाह एक बड़ा सुंदर, मांगलिक कार्य है । ऐसे मांगलिक कामको; यह लोक-प्रशंसा और लोभ, इन बातोंने बहुत ही भ्रष्ट कर दिया है । वरपक्ष को तो लेनेका लोभ है और वधुपक्षवाले अपनी महिमा के लिए, रुपये ज्यादा लगा दे ऐसा भाव हो रहा है । यह दो से बड़ा अनर्थ हो रहा है । लड़कीयोंका ब्याह होना कठीन हो रहा है । बहुत ज्यादा पैसोवालेको तो परवाह नहीं है, वे वाह-वाहके लिए करोड़ों रुपये लगा देते है । यह नहीं सोचते कि समाजमें करोड़ों रुपये लगानेवाले कितने आदमी है ? आपके भाई-बंधू है; आपसे इज्जत, जाती, प्रतिष्ठामें कम नहीं है । पैसोंके कारण आपकी प्रतिष्ठा हो रही है, अधिक पैसे होनेसे आप बड़े हो रहे हो तो ध्यान दो; पैसोंसे आप अपनेको बड़े मानते हो तो आपके लिए महान नीची, हलकी बात है ।
आप मनुष्य हो, भगवान नर-नारायणके साथ रहनेवाले नर हो ! वे पैसेसे ऊँचा मानते है अपनेको ? वास्तवमें पैसोंके कारण आपकी फजीती हुई है । आप कहते हो कि पैसे तो हाथका मैल(मल) है ! तो आप हाथके मैलसे ऊँचे हो गए क्या ? ज्यादा पैसा हो गया, मैल ज्यादा हो गया तो राजी हो गए !! आपकी फजीती हो रही है फजीती !! धनके कारण आप बड़े हुए तो धन बड़ा हुआ कि आप बड़े हुए ? आपकी महान नीचता है, निंदा है ! आप पद् भ्रष्ट हो गए यदि आप अपनेको पैसोंके कारण ऊँचा मानते हो तो । और यह नहीं सोचते हो कि समाजकी क्या दशा हो रही है ? बिचारे मध्यम दर्जेके आदमी क्या करें ? जातिमें आपसे नीचे नहीं है, इज्जतमें आपसे नीचे नहीं है, केवल उनके पास पैसे कम है । आप २-३ करोड रुपये शादियोंमें खर्च कर देते हो, उनके पास उतने पैसे ही नहीं है ! आपको शर्म, लज्जा नहीं आती है ? इससे दूसरोंकी क्या दशा हो रही है ! आपके ही भाई, सगे-सम्बन्धी है; नीचे, छोटे नहीं है । पैसेसे आप मनमें बड़े हो गए पर वास्तवमें नीचे हो गए ! पैसा; हाथका मैल आपसे ऊँचा हो गया ! जिसके कारण आपकी इज्जत हुई वह पैसे बड़े हुए कि आप बड़े हुए ?
मै किसी व्यक्तिको नहीं कहता हूँ ! मेरेको दुःख होता है, इस कारणसे आज हत्या हो रही है लडकीयोंकी ! गर्भपात हो रहा है ! यह लड़कीयोंको मामूली समजते हो, यह मामूली नहीं है; यह मातृशक्ति है, माँ है माँ !! उनकी हत्याका बड़ा भारी पाप लगेगा । और इस पापमें बड़ा हाथ है धनी आदमीयोंका, जो ब्याहमें ज्यादा खर्च करते है । यह पाप उनको लगेगा । बेचारी लडकीयोंका सम्बन्ध नहीं हो रहा है, २५-२७ वर्षकी हो गई ! कन्या बैठी है, उनका सम्बन्ध नहीं हो रहा है । क्या करें बिचारे !! तो महान हत्या कर रहें है, गर्भपात कर रहें है ! तो यह पाप लगेगा उन धनीयोंको, जिस धनीयोंने शादी-ब्याहोंमें फिजूल खर्च किया है ! आपकी इज्जत धर्म पालनसे होती है, दूसरोंकी रक्षा करनेसे होती है ।
रामायणमें सीता-रामजीका विवाह प्रसंग देखो ! कितना उत्साह है दोनों पक्षोंमें ! पैसे, पद, विद्या आदिसे आपकी इज्जत नहीं है । आपकी इज्जत त्यागसे है । भारतवर्षमें पैसोंकी महिमा नहीं थी; त्यागकी महिमा थी । साधु हो चाहे गृहस्थ हो ,धनी हो चाहे या गरीब हो; ह्रदयमें जिसके त्याग है वह बड़े हुए है हमारे देशमें ! भगवानके संबंधसे बड़े हो आप, वही आपकी असली बड़ाई है ।
सबसे बढ़िया और सबसे घटिया चीज क्या है ? मैं निंदा नहीं कर रहा हूँ ! आप सच्ची बात ठन्डे ह्रदयसे विचार करें ! आप विचार कर लेना, शंका हो तो कर लेना , पर मैं कहता हूँ वह बात आपको जचनी कठीन है । सबसे नीचा पैसा है । पैसे जैसी निकृष्ठ चीज कोई है ही नहीं ! पैसे से सब कुछ होता है पर खुद पैसेसे कुछ होता है क्या ? वह भी शुभ खर्चमें किया जाय तो; वरना आतशबाजी, दिखावेमें खर्च किया जाय उसकी महिमा है ? वाह-वाह में, दिखावेमें पैसे पानीकी तरह खर्च करते हो, क्या इसमें आपकी इज्जत है ? यह फजीती है आपकी ! कलकत्तेमें मैंने सुना है; लड़कीयाँ बड़ी हो गई, कहीं शादी नहीं हुई । किवाड़ बंद करके लड़की और मा-बापने जहर खा लिया । यह हत्या हुई दहेजप्रथा के कारण । वह लिखा हुआ मिला था कि लड़कियाँ बड़ी हो गई, विवाह हुआ नहीं, लडकीयोंने जहर खा लिया फिर मा-बापने भी जहर खा लिया । ऐसी-ऐसी हत्याएँ होती है फिजूल खर्चेसे !
अच्छे काममें तो खर्च करते नहीं हो और फिजुलमें खर्चते हो । ‘पापीका धन परलय जाय ज्यों कीडी संचय तितर खाय’ । डाक्टर, वकीलोंमें जायेगा, कहीं शुभ काममें खर्च होता है क्या ? आप सादगीसे रहें और थोडा खर्च करें तो दुनियाका बड़ा उपकार हो जाय ! खर्च तो कम हो और वाह-वाह हो जाय और दुनियाको भी शान्ति मिलें ! जिनके पास धन कम है, वह भी ब्याह खुशीसे कर पाएंगे कि देखो ! धनी आदमीने भी सादगीसे ब्याह किया ! नहीं तो बिचारे धन खर्च न कर पानसे मन ही मन दुखी होंगे, उसका पाप लगेगा जो २-३ करोड रुपये शादियोंमें फिजूल खर्च कर देते है ।
बड़ा वह है जो दुसरोंको बड़ा करें ! रामायणमें चोपाई है — ‘समर्थकों नहीं दोष गोसाई, रवि पावक सुरसरीकी नाई’ । समर्थ कौन है ? जो दुसरोंको समर्थ बनावें । तिरस्कार करें तो वह आपका सामर्थ्य नहीं है, अपितु राक्षसपना है । सूर्य भगवान् क्या करते है ? महान मैला पड़ा है उससे, टट्टी-पेशाबसे जल खींचकर अमृतवर्षा, बारिश बरसाते है, यह समर्थ है । जो दुसरोंको असमर्थ करे वह तो राक्षस, असुर है । पावक-अग्नि सबको शुद्ध कर देता है, सुरसरी-गंगाजीमें जो पानी मीलता है उसको भी गंगाजल बना देता है, वह समर्थ होता है । दुसरोंको खा जाय, नीचा दिखावें, वो क्या समर्थ है ? वह तो शियार, गिद्ध है । गीताजीके १६ वें अध्यायमें आसुरी संपत्तिके वर्णनमें भगवानने कहा है कि ‘क्षयाय प्रभवन्ति’, ‘जगत् अहिताय’; दुसरोंका नाश करनेके लिए, जगतका अहित करनेके लिए पैदा होते है, वह असुर होते है । भगवान कहते है, मैं नहीं कहता हूँ ! अतः सामर्थ्यका दुरूपयोग न करें दुसरोंको नीचा दिखाने के लिए !!

(शेष आगेके ब्लोग्में)
दि.२३/१२/१९९६ प्रातः ८.३० बजेके प्रवचनसे
http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijicontent/97/10-12-96_27-1-97/cdrom/html/aa.php?file=../dec1996/19961223_0830.mp3
|
।। श्रीहरिः ।।

शरणागति

(गत ब्लोगसे आगेका )

श्रोता — ‘मामेकं शरणं व्रज’— इसमें ‘शरणं’ का क्या तात्पर्य है ?
स्वामीजी— ‘हे नाथ ! हे नाथ ! मै आपका हूँ’, हे भगवन् मैं आपका हूँ — यह तात्पर्य है । जैसे लडकी ब्याह-शादी होनेपर पतिकी हो जाती है । अब पिहरकी नहीं रही, भले ही बापके पास बैठी हो ! वह तो वहाँकी हो गई । ऐसे ही हम भगवानके हो गए, संसारके नहीं रहे । ‘हे नाथ ! मै आपका हूँ !’ —इतना होते ही भीतरसे मान लिया कि मैं संसारका, माँ-बापका, जातिका नहीं हूँ; वर्ण, आश्रम, हिंदुस्तानका नहीं हूँ । घरका, शहरका नहीं हूँ । मै हूँ ही नहीं यहाँका, मैं तो भगवानका हूँ ! — यह हो जाता है, यह शरणागति है ।
श्रोता — जैसे जगतकी मान्यता करते है, ऐसे ही भगवानकी मान्यता करनी पड़ती है ?
स्वामीजी — जगतकी मान्यता हटानी पड़ती है और भगवानकी मान्यता करनी पड़ती है, करो तो ! जगत् माना हुआ है, है नहीं ! माँ-बाप, भाई, मनुष्य केवल माना हुआ है; है नहीं, ‘कर्ताः इति मन्यते’ ! माँ को किसीने देखा नहीं है, बोलो किसीने देखा हो तो ? बापको किसीने देखा नहीं है, माना हुआ है । जब बाप बना तब तो बालककी उत्पत्ति ही नहीं हुई थी ! सिवाय मान्यताके और कोई प्रबल कारण है कोई ? अतः माना हुआ न मानो तो मिटा ! मान्यतामें बैठे है तो भगवानकी भी मान्यता ही करनी पड़ेगी ! आप मारवाड़ी भाषा समझते हो तो मुझे मारवाड़ी भाषामें ही बोलना पडेगा ! अंग्रेज भगवानकी मूर्ति बनाते है तो अंग्रेज जैसी ही बनाते है ,बंगाली मूर्तिकार बंगाली जैसी ही बनाता है । कुत्तेका भगवान कुत्ते जैसा ही होगा ! हमारा भगवान हमारे जैसा ही होगा ! कोई M.A. पढ़ा हुआ हो तो भी बालकको सिखायेगा तो A…A….B….B…करना पड़ेगा ही ! अ, आ, इ, ई....बोलना पड़ेगा ! बालककी अवस्था में आकर ही बालकको पढ़ा सकता है, अपनी अवस्थामें रहकर समझा देगा ? चाहे M.A. हो या आचार्य हो ? इस वास्ते गुरुका शिष्यके भीतर अवतार होता है । अवतार मानो उतरना, तब समझा सकता है, नहीं तो कैसे समझा सकता है ? आप जिस भाषा, द्रष्टान्त समझो, वही भाषामें द्रष्टान्त मेरेको कहना पड़ेगा ! नहीं तो कैसे समझोगे ? इस तरह भगवानको प्राप्त कर सकते है । भाव व्यक्त करनेके लिए शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियों है, इसके सिवा हम क्या करें ?
यह परिवर्तनशीलमें अपरिवर्तनशील है, उत्पत्ति-विनाश होता है, उसमें वह ‘है’ रूप से है ही ! साधनाकालमें तो उसका चिंतन करना पडता है; मन, बुद्धि उसमे लगानी पड़ती है । साध्य परिवर्तनशील नहीं होगा, साधन परिवर्तनशील होगा । देखो साधक, साधन और साध्य — यह तीन है । साधक साधना करके साध्यको प्राप्त करता है, तो साधक पहले साधनरूप बनेगा । साधन बनकर फिर साध्यमें मिल जायेगा ! साधक और साधन; दोनों छूट जायेगा ।
श्रोता — जैसे संसारकी मान्यता है, ऐसे ही परमात्माकी मान्यता है ?
स्वामीजी — परमात्माकी मान्यता नहीं है, परमात्मा ‘है’ । आप मान्यता समझो तो आपकी बात है । उस ‘है’ में ही मान्यता होती है । मान्यतामें मान्यता कैसे ठहरेगी ? आप स्वयं हो तो कोई चीज उथल-पुथल कर सकते हो, आप ही नहीं हो तो उथल-पुथल कैसे करोगे ? आप चाहे कितने ही तर्क कर लो, आप बातोंमें मेरेको नहीं जीत सकते हो (हास्य) !!! युक्तिसे बात करो आप । पृथ्वी न हो तो कितना ही चतुर नृत्यकार नाच सकता है क्या ? आधारके बिना कैसे बात चलेगी ? आधारका पता ही नहीं है ? बिना प्रकाश आप देख सकते नहीं, पर आप प्रकाशकी तरफ देखते ही नहीं हो, और सब कुछ देखते हो; उधर ध्यान जाता ही नहीं आपका !
क्षत्रिय विद्यालय कलकत्तामें है, उसमें एकबार जानेका काम पड़ा । एक बालकने कहा कि परमात्मा नहीं है । तो मैंने बोला भाई ! अपनी फ़जीती नहीं करानी चाहिए, बेइज्जती नहीं करानी चाहिए ! क्योंकि आपने सब जगह देख लिया, अनंत ब्रह्माण्डोंमें खोज लिया ? और यदि सब देखा है, जानते हो तो आप ही ईश्वर हो गये ! आप ईश्वर नहीं है, ऐसा कैसे कह सकते हो ? और यदि आप सब जानते नहीं हो, देखा नहीं; तो आपकी बातको मानें वह डबल मुर्ख है ! आप जानते तो हो नहीं, और कहते हो कि ईश्वर है ही नहीं ! आप जानते हो ? उसने कहा — ‘मैं जानता हू’ ! तो तेरे सिरके केश कितने है बताओ ? तो उसने कहा, वह तो आप ही नहीं बता सकते ! तो मैंने कहा कि मैं तो सब जाननेका दम भरता ही नहीं हूँ ! आप कहते हो कि मैं सब जानता हूँ, तो आप पर लागु होगा ! अच्छा यह नहीं सही ! आप इस स्कुलमें छोटेपनसे पढते-पढते बड़े हो गये, बताओ यह स्कुलकी सीढियों कितनी है ? आपने ध्यान ही नहीं दिया है, रोजाना चढ़ते-उतरने पर भी ! जब इतनी स्थूल चीज भी ध्यान दिए बिना नहीं बता सकते, तो परमात्माको कैसे बता सकते हो ?
मेरेको दुःख इस बातका है कि आप जानना चाहते ही नहीं ! इधर द्रष्टि देना चाहते ही नहीं ! आप जान सकते नहीं, ऐसा मैं नहीं कहता हूँ । आप सबलोग जान सकते हो, पर चाहते ही नहीं तो क्या करें आपको ? परिवार नियोजनमें कितना बड़ा भारी नुकसान है, पता ही नहीं ! किसीने मुझे सुनाया कि विदेशोमें बड़े-बड़े बुद्धिमान है, वह भारतीय है । उनका तो आप जन्मना बंद कर देते हो ! भारतीय दर्शन जितना गहरा है, उतना गहरा दर्शन किसी देशका हो तो बताओ ? आपको चेलेंज देता हूँ, खोजके लाओ, मेरेको बताओ ! इतने बुद्धिमानका तो नाश कर देते हो, जन्म ही नहीं लेने देते हो ! थोड़ेसे आरामके लिए कितना नुकसान करते हो । सुखासक्ति ही पतनका मूल कारण है, संतोंकी कृपासे मिली है यह बात मुझको ! यहीं संसारके भोगोमें अटके हो आप, महान पतन होगा । वही सुखके पीछे पड़े हो, क्या दशा होगी देशकी, जनताकी ? महान पतन होगा ।
—दि.१९/१२/१९९४ प्रातः५ बजे,प्रार्थनाकालीन प्रवचनसे
http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijicontent/95/19-11-94_23-1-95/cdrom/html/aa.php?file=../dec1994/19941219_0518.mp3


|
।। श्रीहरिः ।।
परमात्मप्राप्ति सरल है

देहिनोऽस्मिन्यथा यथा देहे कौमारं यौवनं जरा, तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति’ — यह संसार नित्य परिवर्तनशील है, बदलता ही रहता है । एक क्षण ही स्थिर नहीं रहता है । तो बदलना बहुत आवश्यक है और बदलनेसे अंत में नाशकी तरफ जाता है । अविनाशी बदलता नहीं और नाशकी तरफ जाता नहीं, अविनाशी ही रहता है । संसारका काम तो बदलनेसे ही होता है और परमात्मतत्वकी प्राप्ति न बदलनेसे ही होती है । वही है जो रहता है । ‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं ज्ञास्यसि पाण्डव’, शरीर, विचार, वस्तु बदलती रहती है,यह सब बदलनेवाले है और खतम होनेवाले है । और संसारमें जो अच्छापन है, वह बदलनमें ही है । न बदलनेमें नहीं है, नहीं तो धान, फल, वृक्ष, शरीर भी कैसे होगा ? बिना बदले कैसे होगा फुलमें से फल ? तो इसकी बदलनेसे ही सुंदरता है । और जो बदलता है वह नित्य रह सकता ही नहीं कभी ! क्योंकि ‘नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः’ । असत् का भाव विद्यमान नहीं रहता है, नित्य-निरंतर बदलता रहता है और सत् का अभाव नहीं होता है, हो सकता नहीं है । इस आधे श्लोकमें सम्पूर्ण शास्त्रोंका, वेदोंका सार भरा हुआ है, बहुत गहरा भाव भरा हुआ है । सब संसार नाशवान है और स्वयं चेतन, अविनाशी है । यह अविनाशी होकर नाशवानके द्वारा सुख चाहता है, आराम, उन्नति चाहता है; बड़ी भारी गलती करता है । यह कभी होनेवाला नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं, प्रत्यक्ष बात है । शरीर द्वारा आप कैसे सुखी हो सकते हो ? पदार्थ, भोग, रुपयें द्वारा आप कैसे सुखी हो सकते हो ? आपमें तो परिवर्तन होता नहीं, इसमें तो परिवर्तन ही परिवर्तन है, बिलकुल विरुद्ध स्वाभाव है । आप अपरिवर्तनशील हो तो अपरिवर्तनशील के साथ ही शांतिसे रह सकते हो । परिवर्तनशीलके साथ कैसे आनंद हो सकता है ? असंभव बात है । बहुत सीधी और सरल बात है , विचार करोगे तो आपको साफ दिखेगी, प्रत्यक्ष अनुभव है । आपने कितने ही व्याख्यान,कथा सुनी है, परन्तु कभी ऐसा सुना है कि परमात्म बदलते है ? वे परमात्मा और हो गए है और पहले परमात्म और थे ? कभी किसी शास्त्र, पुराण, मत-मतान्तर, मजहब, धर्ममें सुना है ? वह सब जगह है, और सबका है । जो सबका हो, वही हमारा हो सकता है । किसीका हो और किसीका न हो, वह हमारा नहीं हो; वह हमारा कैसे हो सकता है ? कभी हो और कभी न हो, वह सदा कैसे हो सकता है ? कहीं हो और कहीं न हो, वह सब जगह कैसे मिल सकता है ? आप विचार ही नहीं करते हो, सोचो तो सही ! जिसके लिए भयंकर पाप करते हो वह रहेगा क्या ? गर्भपात जैसे भयंकर पाप करते हो ...राम राम राम ...!!! महान, भयंकर कष्ट पाना पड़ेगा ! सत्संग करनेवाले भी इस बातको समजते नहीं ? गहरा उतरना चाहते ही नहीं ! समझना चाहो तो आपके समझमें बहुत बातें आ सकती है ।
श्रोता — ‘मन्मना भव’ ऐसा कहनेमें भगवानका क्या तात्पर्य है ? ‘मेरे में मन लगा’ तो मेरी कल्पनाके अनुसार ही मन लगाऊंगा ! तो भगवान मेरी कल्पना ही हुए !
स्वामीजी — ‘मेरे में मन लगा’ इसमें आप जो समजो वह सब तात्पर्य है । भगवानको सगुण मानो तो सगुणमें तात्पर्य है, निर्गुण समझो तो निर्गुणमें तात्पर्य है । निराकार, साकार, समझो तो उसीमें तात्पर्य है । परमात्माका कोई भी रूप हो, नित्य है वह ! आपने आज दिन तक जो पढ़ा हो, समझा हो, माना हो; वही रूप, उसीमें मन लगाओ — यह तात्पर्य है । साकार, निराकार, सगुण, निर्गुण वही है, उसमें भेद मानना गलती है ।
परमात्माका जो भी चिंतन किया जायेगा, सब-का-सब कल्पित ही होगा किसीकी भी ताकत नहीं है कि भगवानके असली रूपको पकड़ सकें ! तो हम पकड़ नहीं सकते परन्तु हमारी पकड़में वे आ जाते है ! हम पकड़ नहीं सकते मगर वे पकड़में आ जाता है ! हम साकारको नहीं जानते, पर वो साकार हो सकते है ! हम आँख, कानसे नहीं पकड़ सकते पर वे देखने, सुननेमें आ जाते है; मानो हम उनतक नहीं पहुँच सकते पर वे हमारे तक पहुँच सकते है, वे सर्व-समर्थ है । हम जो भाव रखते है, वे उस भावको स्वीकार कर लेते है । क्योंकि हमारी कमजोरीको वे जानते है । नहीं जानते तो ईश्वर, भगवान कैसे हुए ? ब्रह्म,निराकार ..आदि जोर लगाके कर लो, सिवाय आपकी कल्पनाके कुछ नहीं है । जैसे सगुण माया है, वैसे ही निर्गुण भी माया है । बराबर है, कोई फर्क नहीं है दोनोंमें ! परन्तु हमारा लक्ष्य परमात्मा है, उस लक्ष्यको परमात्मा जानते है और मान लेते है । हम परमात्माका ध्यान करते है तो हम परमात्माको ध्यानसे पकड़ नहीं सकते, परन्तु भगवान हमारे भावको स्वीकार कर लेते है; ‘भावग्राही जनार्दनः’ । जैसे बालक माँको माँ, जननी, मधर; कोई बालक माँको भाभी, मासी, बाई कहता है तो क्या माँ भाई या देवर समझती है क्या ? कोई नाम लेकर बोलता है तो भी माँ समझती है उस बालक के भाव को ! ऐसे सर्व-वित् है भगवान ! भाषा बादमें प्रगट होती है । उसके मन, बुद्धि, प्रेरणामें भाव होते है, उसको परमात्मा जानते है । इस वास्ते हमारा लक्ष्य परमात्मा है, उसीसे हमें परमात्माकी प्राप्ति होती है । प्रकृति परमात्माको नहीं पकड़ सकती है, फिर यह प्रकृतिजन्य यह साकार, सगुण; उत्पन्न और नष्ट होनेवाला कैसे पकड़ सकता है ? पर परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है वैसे-के-वैसे ही ! सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटनामें वैसे के वैसे ही है; पर लक्ष्य होनेसे परमात्मा प्राप्त हो जाते है । तो तत्वज्ञान, दर्शन उनकी कृपासे ही होता है — यह सिद्धांत है । मेरेको गीताजीसे बहुत विचित्र बातें मिली है, बड़ा सरल दिखता है । मुझे परमात्मप्राप्ति जितनी सरलतासे, सुगमतासे प्राप्त होती है, ऐसी कोई वस्तु सरलतासे, सुगमतासे प्राप्प्त होती नहीं, हो सकती नहीं, है नहीं ऐसा साफ दिखता है ! इतना सुगम है परमात्मा; ऐसा सुननेसे मन तो करता है पर अपनी जिद छोड़ते नहीं, अब छोड़े बिना कैसे हो ??

(शेष आगेके ब्लोगमें)
दि.१९/१२/१९९४; प्रातः ५ बजे प्रार्थनाकालीन प्रवचनसे
|
।। श्रीहरिः ।।

साधक कौन है ?

श्रोता — कर्तृत्व ही नहीं है, वह करता ही नहीं है फिर उसके लिए कार्य ही क्या है? उसके लिए करणकी भी क्या आवश्यकता है; पर महाराजजी यह किस स्थितिकी बात है ?
स्वामीजी — जबसे परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिकी इच्छा होती है, तबसे ही यह बात समझ लेनी चाहिये कि परमात्मतत्त्वमें कर्तृत्व नहीं है और करणकी अपेक्षा नहीं है । यह बात पहलेसे ही मान लेनी चाहिए तो उद्देश्य करणनिरपेक्षताका हो जायेगा । करणकी सहायता लेते हुए साधन करते है तो भी उसके ध्यानमें यह आ जायेगी कि वास्तवमें तत्त्व करणनिरपेक्ष है और करणनिरपेक्ष तत्वका साधन भी करणनिरपेक्ष ही है । जबतक असाधन साथमें रहता है तबतक करणसापेक्षता साथमें दिखती है । परमात्मतत्वमें करणकी अपेक्षा नहीं है । ‘निर्द्वन्द्वो ही महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते’; जबतक सत्-असत् का, साधन-असाधनका द्वंद्व रहता तबतक करणकी अपेक्षा रहती है, निर्द्वन्द्व होने पर करण नहीं रहता । अतः वास्तवमें असधानमें ही करणकी अपेक्षा रहती है । मानो उद्देश्य निष्काम भावका होनेसे सर्वथा निष्काम उनके(स्वयं) होनेसे होता है । इस वास्ते लोकमान्य तिलकजी महाराजने कर्मयोग सिद्धपुरुषके द्वारा ही होता है — यह माना है । जबतक सर्वथा कर्मसे सम्बन्ध विच्छेद नहीं होता है; पूर्णता नहीं होती; तबतक निष्कामभावका उद्देश्य रहता है, निष्कामभाव पूरा नहीं रहता परन्तु ‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्’ । इसमें यह बात आयी है कि निष्कामभावसे जितना भी अनुष्ठान हो गया उसका फल परमात्मप्राप्ति ही होगी, दूसरा नहीं होगा । क्रिया जीतनी भी है, प्रकृतिमें होती है तो प्रकृतिसे अतीत होनेका पहले उद्देश्य होता है । अतः उद्देश्यमें करणसापेक्षता नहीं रहती पहलेसे ही ! उद्देश्यको ठीक समझ ले तो उसका साधन बढ़िया होगा । नहीं तो कभी सकाम, कभी निष्काम, कभी धन, मान, बड़ाईका उद्देश्य — यह साथमें बनते रहेंगे ।उद्देश्य सांसारिक न रहनेसे ही वह साधक होता है, वरना वह साधक नहीं है । आंशिक साधन तो सबमें रहता है, परमात्माका अंश होनेसे । आज साधन करते है, सत्संग करते है फिर भी उन्नति नहीं होती, कारण क्या है ? साथमें असाधन रहता है ! मानो जूठ-कपट भी कर ले, बेईमानी भी कर ले, ठगी, धोखेबाजी भी कर ले धनके लिए ! और मनमें यह रहता है कि हम बाबाजी थोड़े ही है ! हम तो गृहस्थ है !! हमारे तो यह करना ही पडता है, हमारे तो जरुरी है; तो जबतक यह जरुरी रहता है तबतक वह साधक नहीं होता, सांसारिक आदमी है; भले ही अपने को साधक मान लें ! सत्संग करते है अच्छी बात है, फायदेकी बात है, परन्तु साधक नहीं है । साधक तो वह है, जिसका साधन ही उद्देश्य है । असाधन हो जाय तो चिंता, दुःख होता है, भीतर में जलन होगी । अतः एक-दो बार असाधन हो जाय पर आगे नहीं होगा । उसका उद्देश्य पारमार्थिक है, वह विधिरुपसे कैसे कर सकता है कि जूठ-कपट करना पडता है, हम गृहस्थ है !! तो गृहस्थकी ही मुख्यता रहती है । साधन करते हुए और व्यवहार करते हुए भी संसारकी मुख्यता रहेगी । और साधन करने में तत्पर हो जाने पर मुख्यता साधककी ही रहती है । साधकके उद्देश्यमें साधकपना अखंड रहेगा, मैं साधक हूँ, मैं ऐसे कैसे कर सकता हूँ । सत्संग होने पर असत् का संग रहना नहीं चाहिए, नहीं तो तबतक सत् कर्म है,सत् चिंतन है,सत् चर्चा है !
करणसापेक्षता रहेगी तबतक कर्तृत्व रहेगा और कर्तृत्व रहेगा तबतक भोक्तृत्व रहेगा ही । कर्तृत्व-भोक्तृत्व ही तो संसार है । परमात्मप्राप्ति न गृहस्थको होती है, न साधुको होती है; परमात्मप्राप्ति तो साधक को ही होती है ।साधक न गृहस्थ होता है, न साधु होता है । उसमें न गृहस्थपनेका अभिमान होता है, न साधुपनेका अभिमान होता है ! इसपर सोचो, विचार करो ! नहीं तो तबतक सत्संग एक शुभकर्म है, शुभकर्मसे लाभ है; पर अपनी मुक्ति चाहता है, वह बात कहाँ है ? जैसे एक धन कमानेवाला होता है और एक बेफिक्र होता है कि कभी नुकशान हो जाय,खर्च भी कर दे कभी । तो वह असली लोभी नहीं है ।असली लोभी होगा तो थोडा चल लेगा पर चार पैसे खर्च नहीं करेगा । वह कठिनता सह लेगा पर पैसा खर्च नहीं करेगा ! ऐसे ही साधनका लोभी हो वह असाधन कैसे करेगा ? विचार करते है तो मालूम पडता है कि करणसापेक्ष साधक होता ही नहीं ! तो साधक मात्र करणनिरपेक्ष होता है । प्रायः साधक मन-बुद्धिकी आवश्यकता समझते है और मन-बुद्धिके द्वारा ही साधन करते है । आवश्यकता जडकी समझेंगे तो जडताका त्याग कैसे करेंगे ? उनको करणनिरपेक्षता समझमें आती ही नहीं ! उनको साधनमें सहायक मानता है फिर उनसे सम्बन्ध विच्छेद कैसे होगा ? यह तब होगा कि जब प्रकृतिका सम्बन्ध किसी भी तरह से किन्चित् मात्र भी बाधक है, ऐसा समझने पर ही यह करणनिरपेक्षताकी बात समझमें आएगी । जैसे रथके आगे घोड़े जाते है, घोड़े के आगे लगाम जाती है, उसके आगे सारथी जाता है और महलमें तो रथी स्वयं ही जाता है, क्रम है यह ! इस तरहकी करणनिरपेक्षताकी बात शास्त्रोमें भी विस्तार से आयी है । इसलिए साधक पहलेसे ही उद्देश्य करणनिरपेक्षताका रखें ।
नारायण..... नारायण......... नारायण........... नारायण.............. नारायण
—दि॰१६/०१/१९९१ प्रातः ५ बजे प्रार्थनाकालीन प्रवचनसे
http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijicontent/91/2-1-91_8-4-91/cdrom/html/aa.php?file=../jan_1991/16jan1991_0518hrs.mp3
|
।। श्रीहरिः ।।

करणनिरपेक्षसाधनमें विवेककी मुख्यता

हम साधन करते है उसके कई प्रकार है, उसमे दो प्रकार मुख्य है — (१) विवेकप्रधान (२) करणप्रधान । इस दो प्रकारके अंतर्गत सब साधन आ जाते हैं ।
विवेक नाम किसका है ? सत्-असत्, नित्य-अनित्य, सार-असार आदि दोनोंको ठीक तरहसे जाननेका नाम विवेक है । करणप्रधानमें विवेक नहीं है, ऐसी बात नहीं है और विवेकप्रधानमें करण नहीं है, ऐसी बात भी नहीं है । मैं प्रधानताको लेकर कहता हूँ, रहितकी बात नहीं कहता हूँ । विवेकप्रधानमें विवेककी प्रधानता होगी और करणप्रधानमें करणकी प्रधानता होगी । विवेकके बिना तो कोई काम नहीं होगा । गृहस्थकार्य, व्यवहार भी नहीं होगा । विवेक तो पशुओंमें भी होता है । यदि मनुष्यमें विवेक न हो तो पशुपना, असुरपना, राक्षसपना है । विवेक के कारण ही मनुष्य कहलाता है ।
करणप्रधानमें मनको, बुद्धिको लगायेंगे; मन, बुद्धि द्वारा परमात्माका चिंतन करेंगे, दूसरी बातें मन, बुद्धिके द्वारा हटायेंगे । काम करनेसे होगा — यह सब करणप्रधान है । विवेकप्रधान क्या है ? यह संसारमें परिवार, धन, मकान, जमीन-जायदाद मिली हुई है और बिछुडनेवाली है । यह शरीरकी उम्र भी प्रतिक्षण खत्म हो रही है । मैं ५० वर्षका बड़ा हो गया — यह तो अविवेक है और ५० वर्ष तो मर ही गए, मौत उतनी नजदीक आ गई उतना तो पता है पर बाकी कितना है पता नहीं ? — यह विवेक बताता है, करण नहीं बता सकता । मन, बुद्धि, शरीर नहीं बता सकता, यदि मन, बुद्धि में विवेक लगेगा तो मन, बुद्धि भी बता देगी ।
विवेकप्रधानसाधनमें जडताका त्याग होगा । करणप्रधानसाधनमें समय बहुत लगेगा । ‘साधकतममं करणम्’ क्रियाकी सिद्धिमें जो खास आवश्यक हो, नितांत आवश्यक हो उसको करण कहते है । जैसे लिखनेमें कलम(पेन)की आवश्यकता होती है, पर उसमें भी विवेकके बिना काम नहीं चलेगा कि क्या लिखें, कैसे लिखें ? लेकिन विवेकप्रधानमें करणकी आवश्यकता नहीं है । सांसारिक कार्य तो करनेसे ही होगा, परन्तु परमात्मतत्व करने से नहीं मिलेगा । परमात्मतत्व करनेसे अतीत है । प्रकृतिमें क्रिया और पदार्थ है । करणप्रधानसाधनमें श्रवण करो, मनन करो, निदिध्यासन करो, ध्यान करो, समाधीमें भी सविकल्प, निर्विकल्प फिर सबीज और अंतमे जाकर निर्बीज समाधी करो — यह क्रम है । विवेकमें जडताका त्याग है । जितना भी मिला हुआ है उसका वियोग जरुर होगा । मिली हुईको संसारके काममें लगाओ, उदारतासे लगाओगे तो अन्तःकरण शुद्ध होगा, परमात्मप्राप्तिमें सहायता होगी ।
संग्रह करना और सुख भोगना यह महान पतन करनेवाला है, ऐसा व्यक्ति साधन कर ही नहीं सकता । नामजप करो, सत्संग करो, कीर्तन करो, स्वाध्याय करो, पुस्तक पढ़ो, परन्तु जहाँ प्रधानता करणकी होगी वहाँ करना प्रधान होगा और पदार्थ प्रधान रहेगा । इनके द्वारा होगा तो यह संसार में ही उलझेगा और अन्तमें उससे ऊपर उठनेके लिये उसे छोड़ना ही पड़ेगा । जैसे सविकल्प से निर्विकल्प और सबीजको छोडोगे तभी निर्विकल्प समाधीमें पहुँचेंगे और अन्तमें उसमे भी विवेक ही होगा । करणप्रधानमें भी अन्तमें विवेकके बिना तत्वकी प्राप्ति होगी नहीं और विवेक होनेपर करणकी जरुरत रहेगी नहीं । विवेक हो गया, असत् का त्याग कर दिया । व्यसन करनेमें तो चाय, बीडी, तम्बाकु, हाथ आदिकी जरुरत होगी परन्तु व्यसनका त्याग करनेमें किसकी जरुरत पड़ेगी ? विवेक त्याग करता है । संयोगका तो वियोग होगा ही अतः संयोगमें सेवा कर लो । माँ-बापकी सेवा कर लो, समाजमें अच्छे काम कर लो — इसमे करणकी प्रधानता होगी पर विवेक साथमें रहेगा तब अपना लोभ छुटेगा वरना पैसेका महत्व बढ़ जायेगा । वास्तवमें पैसेसे काम नहीं चलता पर पैसेके खर्चसे काम चलता है । पर लोभी आदमी समझ नहीं सकता, अक्लमें नहीं आती यह बात कि पैसा खर्चसे ही काम आता है । तो करणप्रधानमें सामग्रीकी प्रधानता रहेगी और विवेकमें त्यागकी प्रधानता रहेगी । पैसा आपको और दुसरोंको खर्च करनेसे ही काम आएगा; नहीं तो चोर, डाकूको लूटनेके काम आयेगा, वकीलको काम आएगा लड़ाई करोगे तो ! मुक्ति, कल्याणके काम नहीं आयेगा ।
विवेकप्रधानसाधनसे बहुत जल्दी उन्नति होती है । विवेक ही तत्वज्ञान, मुक्तिमें बदल जायेगा । संसारमें करनेकी धुन लगी हुई है कि सब काम करनेसे होता है, वही बात परमात्मप्राप्तिमें लगाते है कि करने से ही होगा । करनेसे संसारका काम होगा, परमात्मप्राप्ति नहीं होगी; सहायता ले सकते है । क्रिया से अतीतमें करण कैसे चलेगा ? उसमें तो विवेक ही काम आएगा ।
मनुष्य शरीरकी जो शास्त्रोमें महिमा आती है, वह विवेकके कारण ही है । गीतामें विवेककी प्रधानता होनेसे पुरे संसारमें सभी आदर करते है । विवेक बुद्धिका धर्म नहीं है, विवेक आता है, प्रकट होता है बुद्धिमें । करणोंमें विवेकका निषेध करोगे तो पशुता आ जायेगी और विवेक में करणका निषेध होगा तो कल्याण हो जायेगा । करणकी प्रधानतामें जडता रहेगी और विवेककी प्रधानतामें चेतनता रहेगी ।
आपका ‘होनापन’ किसी कारणसे सिद्ध नहीं होता है । आपका होनापन स्वयंसिद्ध है । सुषुप्तावस्थामें कोई करण नहीं है पर हमारी सत्ता रहती है, तभी तो जगने पर कहते है कि मैं सुखसे सोया ! आपकी सत्ता स्वयंसिद्ध है, उसमें कोई करणकी आवश्यकता नहीं है । मेरी बातको समझो और प्रश्न करो तो मुझे बहुत आनंद आता है ! विवेक काममें लेंगे तो लोक-परलोकमें कहीं अटकाव नहीं आयेगा । वेदांत, अद्वैत सिद्धांतमें सबसे पहले विवेक है और अंत में भी विवेक ही है ।
दि॰ ०१/०८/१९९१ प्रातः ५ बजे प्रार्थनाकालीन प्रवचनसे
http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijicontent/91/28-6-91_16-9-91/cdrom/html/aa.php?file=../aug_1991/01aug1991_0518hrs.mp3

|
।। श्रीहरिः ।।


सीखना और अनुभव करना





बढ़िया बात दो तरह कि होती है । (१) जिसमें गहरा विवेचन हो, गहरा विवेचनसे सबको ज्ञान होता है और (२) जिसमें अपनी साधना में, अड़चन, रूकावट आती हो ।
श्रोता — गति किसकी होती है ? शरीरकी कि आत्माकी ? शरीर तो यहीं ही छूट जाता है और आत्मा तो नित्यमुक्त, सर्वत्र है ।
स्वामीजी — साधन करनेवाले सज्जनोंको चाहिए कि जो साधन करते है उस बातका अनुभव करें । एक सीखी हुई बात होती है और अनुभवकी बात और तरहकी होती है । तो सीखी हुई बातोंको पकड़कर जो करते है, उसका साधन ठीक नहीं होता । यह जो आत्मा शुद्ध, बुद्ध, मुक्त है —यह सीखी हुई बात है । अथवा आप जितने बैठे हो, वे बता दो कि आपका अनुभव है कि मै शुद्ध, बुद्ध, मुक्त हूँ ? मेरेको कोई बंधन नहीं है ? —क्या ऐसा अनुभव है ? किसी भाई-बहनको; हो तो बताओ ? कोई राग, द्वेष, हर्ष, शोक कोई बंधन नहीं है ? ऐसा कोई एक भाई हो तो बताओ ? तो यह सुनी हुई बात है । यह मेरी समझसे अनुभव नहीं है । अनुभव हो तो बोलो ? तो केवल सीखी हुई बातसे काम नहीं चलता । किसीका नाम लखपति हो तो क्या नाम होनेसे उसके पास लाखों रुपयें हो जायेंगे ? अगर ऐसा हो तो सब अपना नाम लखपति, करोड़पति,अरबपति धर दें ! तो शुद्ध, बुद्ध, मुक्त आत्मा है यह सुनी हुई बात है, अनुभव नहीं है ।
वरना शंका क्यों होती है ? गति किसकी होती है ? आत्मा मुक्त है और शरीर यहीं छूट जाता है ? सुनी हुई बात है, पर ठीक तरहसे बैठती नहीं, जचती नहीं । यदि आप अपना अनुभव करोगे तो आपमें अशुद्धि है, अनजानपना है और मेरेको कई तरहके बंधन है, राग, द्वेष, हर्ष, शोक, दिखावपना, दंभ, पाखंड है, छिपाव है —ऐसे कई दोष दिखते है । तो वह कैसे कह सकता है कि मै शुद्ध, बुद्ध, मुक्त हूँ ? यह सीखी हुई बात काममें नहीं ला सकते, काम आएगी नहीं ।
शरीरी कभी शुद्ध, बुद्ध, नहीं हो सकता, होगा नहीं, हो सकता नहीं ! ‘शरीरी’ शब्दका अर्थ है शरीरवाला, शरीरवाला कैसे मुक्त होगा ? मुक्त शरीरके सम्बन्ध विच्छेदसे ही होता है । शरीरका मालिक रहते हुए सदा बंधन ही रहेगा । शरीरी होकर वह मुक्त कैसे होगा ? स्वरुप शरीर रहित होता है । परमात्मा शरीरी कैसे हो सकता है ? शरीरको अपना मानना ही बंधन है । वह अपना स्वरुप कैसे होगा ? वह तो मिलता है और बिछुड जाता है ।
सरलतासे ठीक तरहसे कहेगा तो यही अनुभव होगा कि मै क्या हूँ ? तो यह अनुभव नहीं है कि मैं शुद्ध, बुद्ध, मुक्त हूँ, यह तो माना हुआ है । मायके वश होकर भूल गया है । अविनाशीका अनुभव हो जाय तो मरनेसे डरे क्यों ? चेतन क्या है ? हमलोग क्रियावालेको ही चेतन समझते है, लेकिन क्रिया तो जड़में ही होती है । चेतन नाम ज्ञान, जो अपने और दुसरोंको जानता है, समझता है । अमलका मतलब कोई मल नहीं, पर राग, द्वेष आदि दिखता है । सहज सुखराशी है पर सुख-दुःख, राजी-नाराजीका अनुभव होता है । ‘अहं ब्रह्मास्मि’ उपासना हो सकती है, अनुभव नहीं है । सच्चे ह्रदयसे कहेगा तो यही अनुभव होगा कि ईश्वर अंश सहज सुख्राशीका अनुभव नहीं है । अतः जिज्ञासा है तो जाननेकी चेष्टा करें, जाननेवाले पुरुषोंका संग करे, नहीं तो भगवानके भजनमें लग जाओ । ज्ञानमार्गमें जानो, सीखो नहीं । केवल कहना नहीं है, अनुभव होना चाहिए ।
तो इस वास्ते गीताजीमें कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग और अनुभवनीष्ट महात्माकी आज्ञा पालनसे भी कल्याण हो जाता है — यह पाँच उपाय बताये है । अतः जिसको जो मार्ग ठीक लगे वह पकडो इन पाँचमेंसे और उसके अनुसार चलो । यदि उसकी प्राप्तिकी तेज इच्छा नहीं है तो समय लगेगा और जिस इच्छाके आगे संसारकी कोई इच्छा न हो, जीनेकी इच्छा भी न हो तो जल्दी ही कल्याण हो जायेगा ।
भक्तिमार्गमें विश्वासकी मुख्यता है ।प्रह्लादजीको जैसे कुम्हारके मिट्टीके घड़े पकानेके लिए आग लगानेके बाद बिल्लिके बच्चें जिन्दा निकलनेकी घटनासे भगवानमें दृढ विश्वास हो गया, ऐसे दृढ विश्वाससे भगवानकी प्राप्ति हो जाती है । गोरखपुरकी घटना है, एकबार मैंने सत्संगमें कहा कि यदि आपका दृढ निश्चय हो जाय कि भगवान् आज ही मिल सकते है तो आपको जरुर मिल सकते है । मै बाद में भिक्षा लेने गया तो सेवारामजी नामके एक सज्जनने कहा कि मेरेको भगवानकी दिव्य सुगन्धि तो आयी परन्तु दर्शन नहीं हुए । तो पूछने पर पता चला कि भगवान् इतनी जल्दी कैसे मिल जायेंगे ? यह संदेहकी वजहसे ही दर्शन नहीं हुए । भीतरमें संदेह होगा तो बाधा लगा देगा । आपके मनमें ऐसा हो कि भगवान जल्दी कैसे आ जायेंगे ? तो भगवान कैसे आवें ? यदि ऐसा संदेह्की रेख ही न हो तो भगवानको आना ही पड़ेगा ! भक्ति में विश्वास ही मुख्य है ।
आप कैसे ही सदाचारी, दुराचारी पापी हो, कैसे ही हो; पर आप निसंदेह हो कि भगवानको आना ही पड़ेगा तो जरुर मिलेंगे ! भगवानको आपके पाप रोक नहीं सकते ! यदि हमारे पाप भगवानको अटका दे तो भगवान् मिलकर भी क्या निहाल करेंगे ? आपका विश्वास पक्का होना चाहिए, प्रह्लादजीकी तरह ! श्रद्धा, विश्वास अंधा होता है, संदेह नहीं होता है । मनुष्यों पर विश्वास किया और जगह-जगह धोखा खानेसे भगवानमें भी विश्वास नहीं करता है । विश्वास होना कठिन है, यदि विश्वास हो जाय तो फिर परमात्मप्राप्तिमें देरी नहीं है ।

—दि॰५/६/१९९८ प्रातः ८.३० बजेके प्रवचनसे
http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijicontent/98/23-5-98_6-7-98/cdrom/html/aa.php?file=../../june/19980605_0830.mp3
|
।। श्रीहरिः ।।

उद्देश्यकी दृढता

श्रोता — वास्तविक उद्देश्यकी दृढता कैसे हो ?
स्वामीजी — मानवजीवनका वास्तविक उद्देश्य परमात्मप्राप्ति, उद्धार, कल्याण करना और दूसरोंकी सेवा करना है । इसीके लिए ही खास मानवजीवन मिला है । साधनसे विरुद्ध, परमात्मप्राप्तिके विरुद्ध कोई काम कदापि नहीं करेंगे, नहीं करेंगे ।
अपना उद्धार, और दूसरोंकी सेवा — यह मानवजीवनके सिवाय कही नहीं कर सकता । जैसे पैसा पैदा करनेवाला, पैसा पैदा हो ऐसा काम करते है और पैसा नष्ट हो जाय ऐसा काम नहीं करते है । हमारा परमात्मप्राप्तिका लक्ष्य है, उसके सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं ! — यह है उद्देश्यकी द्रढताका उपाय । एक ही लक्ष्य और लक्ष्यविरुद्ध काम नहीं करेंगे, उसपर जोर लगाओ । नामजप, सत्संग, कीर्तन आदि तो करते है पर लक्ष्यविरुद्ध काम नहीं ही करेंगे । विरूद्धकामका त्याग करना सुगम है । नामजप आदिमें तो परिश्रम भी पडता है । झूठ, कपट, धोखेबाजी, दगा, ठगाई नहीं करेंगे । अन्न, वस्त्र, जल आदि नहीं मिलेगा तो भी पाप नहीं करना है, नहीं करना है । रोटी खाकर भी तो मरते है, तो धर्मका पालन करते हुआ क्यों न मरें !
अपनी जानकारीमें जिसको खराब जानते है, उसको नहीं करना है — इतनीसी तो बात है ! चाहे जो आफत आ जाय । यह सच्चा, पक्का उद्देश्य है । उसके बाद उन्नति, प्रगति स्वाभाविक ही होगी । असत् का त्याग करनेसे सत् की प्राप्ति स्वतः होगी । सत् को उद्योग करके पैदा नहीं करना है । साधन विरुद्ध काम हमें असह्य हो जाय, इस पर एकदम पक्के रहो; चाहे सो हो जाय ! तो फिर ठीक हो जायेगा ! विहित करनेमें तो जोर भी आता है, निषिद्ध नहीं करनेमें क्या जोर आता है ??
आजका कानून ज्यादा कमानेवालोंके लिए आफत है । थोड़े कमानेवालोंके लिए वैसा नहीं है । अपने रोटी कमाओ और खाओ ! निर्वाह मात्र करना है । किसीकी ताकत नहीं है कि आपसे कोई पाप करवा सके ! आप स्वयं स्वीकार करके फिर पाप करते हो । आप ही अपने विचारका नाश करते हो । अपनी बातका आप ही त्याग करते हो । अपने पतनमें आप ही हेतु हो, और कोई हो तो बताओ ? ‘ उद्धरेदात्मनात्मानं नान्तानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।। ’(भ.गी.५/६) आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है । द्रढतासे विचार कर लिया तो कर ही लिया, कर ही लिया...!!! कोई शंका, बाधा हो तो बोलो ?
निषिद्ध आचरण नहीं करेंगे तो आपके भीतर एक दैवीशक्ति प्रगट होगी, ताकत प्रगट होगी, विलक्षणशक्ति प्रगट होगी । वह आपको बहुत सहारा देगी, आपका उद्धार कर देगी । लोक और परलोकका — दोनों काम सिद्ध कर देगी । आप अपने विचार, उद्देश्य पर दृढ रहो । कच्चाइ मत आने दो । यह एकदम पक्की, सच्ची, सिद्धांतकी बात है । कोई आपका पतन नहीं कर सकता । किसीकी ताकत नहीं है कि आपका पतन कर दें ! कर ही नहीं सकता !!
विचार पर पक्के रहो चाहे सो हो जाय । आफत आवें, निरादर हो जाय, या चाहे मौत भी आ जाय, कुछ भी हो जाय !! ब्रह्मास्त्र होता है, नारायणास्त्र होता है और एक पाशुपतास्त्र होता है । ब्रह्मास्त्रके सामने ब्रह्मास्त्र छोडने पर उसका उपसंहार, शमन हो जाता है । नारायणास्त्रके शरण हो जानेसे उसका शमन हो जाता है लेकिन पाशुपतास्त्र तो खतम ही कर देता है । अर्जुनके पास था, वह चलाने पर तो संहार ही कर देता है और बिना चलाये ही पड़ा-पड़ा, बिना चलाये ही विजय करा देता है । वैसे ही ‘ मर जायेंगे पाप नहीं करेंगे ‘ —यह पाशुपतास्त्र है, मरना पड़ेगा नहीं । पाशुपतास्त्र रखो अपने पास ! मर जायेंगे पर अन्याय, पाप, शास्त्रविरुद्ध, लोकमर्यादा विरुद्ध नहीं ही करेंगे ! चाहे मर ही क्यों न जाय !! कोई और पाप, अन्याय नहीं करा सकता । सर्वसमर्थ भगवान् तो पाप, अन्याय कराते नहीं और दूसरे किसीकी सामर्थ्य है नहीं । अतः पाशुपतास्त्र रखो अपने पास भी कि मर जायेंगे पर अन्याय, पाप, शास्त्रविरुद्ध नहीं करेंगे, मरना पड़ेगा नहीं ! और हे नाथ ! हे नाथ !! पुकारो.... फिर तो प्रतिकूल रहनेवाले भी अनुकूल हो जायेंगे, वैर रखनेवाले भी सहाय करेंगे ! ‘ तन कर, मन कर, वचन कर देत न् काहूँ दुःख: तुलसी पातक जरत है देखत उसका मुख । ‘ इतनी माहिमा है निषिद्धके त्यागकी ! और विहित अपने आप होगा । आप कमर कसके पक्के रहो, तो सब काम ठीक होगा । स्वाभाविक आपकी सहायता होगी, स्वतः ही ! कर के देख लो !!
नारायण.........नारायण........नारायण...........नारायण................नारायण
दि.१२/१०/१९९० सायं ४.४५ बजेके प्रवचनसे
प्रवचन सुननेके लिए क्लिक करे
http://docs.google.com/leaf?id=0B7farYec_AYOZjFkODA0OTMtYWE5OC00NmJlLWJiZjUtYjcxOGI4ZWYyMTkx&hl=en

|
।। श्रीहरिः ।।


वस्तुओंका सदुपयोग और व्यक्तिओंकी सेवा


गत ब्लोगसे आगेका.....
स्वामीजी— बहुत वर्ष हो गए, बताऊ आपको ...जब मै कलकत्ते गया था । कोई विक्रम संवत १९९८९-९०-९२ की बात है, संवत्सर पूरा याद नहीं हैं, इन वर्षोंकी बात है । तो मेरे पास एक कपड़ा था ओढनेका । तो वहाँ मेरे पास एक सज्जन आये, उन्होंने कहा की मेरे पास ओढनेका कपड़ा नहीं है । तो मैंने दिया नहीं, तो पीछे मनमें आया की तेरेको तो मिल ही जाता, उसको दे ही देता । तो अभीतक वह बात चुभती है । मौके पर आदमी सदुपयोग नहीं करता तो वह मौक़ा चूक जाता है । वह मौक़ा थोड़े ही मिलता है पीछे !! अपरिचित आदमी मारवाडका वहाँ आया की मेरेको झाडा लगता है, ओढनेके लिए कपड़ा नहीं है । वह बात मेरेको कई बार याद आई । अभी यह बात कही की वस्तुका सदुपयोग करो । वो कर लो वख्त पर, नहीं तो पश्चाताप करना पड़ेगा । और फिर आपसे होगा नहीं । मेरेको बात याद है । बिलकुल दे ही देता, एक–दो दिन शियां मर जाता(ठण्ड लगती )और क्या होता ?
श्रोता— आपके पास एक ही था कपड़ा तो ?
स्वामीजी— हाँ ! ओढनेवाला एक ही था और तो थे कपडे । ओढनेके लिए धुसा था वो एक ही था ।
श्रोता— सर्दी उसको लग रही थी, फिर आपको लगती !
स्वामीजी— मेरे पास और कपड़ा नहीं था इस लोभसे तो नहीं दिया । नहीं दिया तो वह बात चुभती रही, आज याद आयी है । कई दिन वह बात चुभती रही भीतर में कि गलती की है । तो यह बात आपको इस वास्ते कही है की वख्त पर वो काम नहीं करनेसे फिर बड़ी मुश्किल होती है । ‘ समय चूक की हूक ‘, समय चूक की हूक भीतर में चुभती रहती है । इस वास्ते ‘ समय चुकी पुनि क्या पछिताने, क्या वर्षा कृषि सुखाने ‘ । तो चुको मत । सदुपयोग करनेमें चुको मत । अब वह बात थोड़े ही पीछे आ सकती है ? न वो वस्तु पीछे रहती है, न वह व्यक्ति मिलती है, न वह मौका मिल सकता है ? वह तो गया, हाथ से निकल गया । तो ‘ शुभस्य शीघ्रम् ‘, शुभ काम करना हो तो, सदुपयोग करना हो तो जल्दी कर लेना चाहिए ।
और जाना हुआ असत् यह है की उसका सम्बन्ध रहेगा नहीं । वह कपड़ा अभी मेरे पास नहीं है । कहाँ गया ? कैसे गया ? किसको दिया ? मेरेको याद नहीं है । वह तो नहीं है, यह बात सच्ची है । और पहले नहीं थी, वह बात भी सच्ची है । यह बात है महाराज ! तो आप वस्तुओंका सदुपयोग और व्यक्तिओंकी सेवा करें । न वस्तुयें रहेगी, न व्यक्तिए रहेगी और न आप रहोगे ! यह सेवा और सदुपयोग जितना बन जाय, उतना बन जाय । और कुछ कुछ नहीं रहेगा । वस्तु मिलती और बिछुडती रहती है । सदुपयोग हो जाय तो बढ़िया बात है । अच्छे विचार रखनेवाला यदि वख्त पर चूक जाता है तो उसको भीतर में चुभती है, और किसीको तो चुभती ही नहीं । बकरियोंका गला काट देते है ,टुकड़ा-टुकड़ा कर देते है, आदमी को काट दे, मार दे, उसको क्या याद आवे ? वस्तु मिलती और बिछुडती रहती है । सदुपयोग हो जाय तो बढ़िया बात है ।
जमनाजीके किनारे एक आदमी मरा पड़ा था, उस पर पूर्जा लिखा हुआ था की मैंने धन के लिए मार दिया; ६ आना की पैसे मिले । उसके पाससे ६ आना ही मिले ! और मार दिया मनुष्यको !! अ़ब उसको क्या याद आवे की मैंने तो मार दिया ! चुभेगी ? उसको क्या चुभेगी ! वह तो मार देता है, कतल कर देता है । परन्तु जिसके मनमें सद्भाव है और अच्छा उपयोग करना चाहता है, और वख्त पर नहीं हो तो वह चुभता है । गायको काट दे, मनुष्यको मार दे, उसको क्या चुभे ?
श्रोता— जिसने मार दिया, उसको पश्चाताप हुआ क्या ?
स्वामीजी— ना, कोई नहीं हुआ । उसने लिखा की वख्त पर ऐसा धोखा होता है, मैंने धनके लिए मार दिया और ६ आना-पैसे मिले । मानो मिला कुछ नहीं और अनर्थ कर दिया !! ऐसे आदमी से अगर मोके पर वस्तु देकर सेवा चूक जाय तो याद रहेगी ? चुभेगी क्या ?? जिसका विचार अच्छा है, साधन करता है, साधन परायण है; वह चुकता है तो उसको याद आती है । याद आती है तो उसको फायदा होता है , फिर आगे ऐसी चूक नहीं होती । और यदि भूल हो जाय तो उस भूलका पश्चाताप नहीं करना, परन्तु आगेके लिए सावधान हो जाना, यह भूल का सदुपयोग है । कही गलती हो गई तो...हाय ! हाय !! गलती हो गई ! गलतीकी चिंता नहीं करनी पर ऐसी गलती आगे नहीं करेंगे...ऐसी गलती आगे नहीं ही करेंगे..!! इस बात पर जोर लगाना चाहिए, जितना लगा सको उतना अधिक से अधिक !! तो काम पड़ते ही चट काम हो जायेगा, फिर गलती नहीं होगी; यह बात है । कोई गलती हो जाय तो गलतीकी चिंता करते है आदमी कि मेरे आज चूक हो गई, भूल हो गई । तो भूल हो गई, उसकी चिंता तो करते है, पर ऐसी भूल आगे न हो उसपर जोर नहीं लगाते ! और सदुपयोग यह है की ऐसी भूल आगे नहीं करेंगे, चाहे कुछ भी हो जाय ! तो उसका सुधार जरुर होगा । भूलसे भी सुधार होता है । सावधानीसे भी सुधार होता है । यह भूलसे एक शिक्षा मिलाती है ।
श्रोता— संग्रहका लोभ है, वह सदुपयोग नहीं करने देता ।
स्वामीजी — हाँ ! तो शिक्षा किस वास्ते है ? अपने इकठ्ठे होकर बात करते है, उसका क्या मतलब है ? इसका मतलब है की काम, क्रोध, लोभका त्याग करना । लोभके कारणसे यह बात होती है । अतः लोभका त्याग करना ही सिखना है । और क्या सिखाना है बताओ ? यहाँ हम इकट्ठे हुए है, किस वास्ते हुए है ? कोई धन मिलता नहीं, और कुछ मिलता नहीं । ऐसी जो भूलें होती है, उसका त्याग करो । लोभ नर्कोंका दरवाजा है । और मिलना कुछ नहीं है । जितना लोभ करोगे, संग्रह करोगे....मर जाओगे, वस्तुएँ छूट जायेगी; रह जायेगी यहाँ पर ही और नरक जाना पड़ेगा इसमें संदेह नहीं है । वस्तुयें तो साथमें रहेगी नहीं और नर्कोंका दुःख भोगना ही पड़ेगा ! मिला कुछ नहीं, अनर्थ हो गया —यह बात है । यह बात ठीक है कि लोभके कारणसे त्याग कर नहीं सकता, दे नहीं सकता, अतः लोभका त्याग करना है । आज से ही मनुष्य यह बात भीतरसे पकड़ ले कि अब लोभके वशीभूत होकर के दुरुपयोग नहीं करना है । मौका पड़े वहाँ ठीक तरहसे उपयोग कर देना है । मै यह नहीं कहता की सब कुछ छोड़ दो ! सब कुछ दे दो, यह नहीं कहता हूँ !! जैसे अपने लिए वस्तुओंको काम में लेते हो, ऐसे ही औरों के लिए भी काममें लेना चाहिए । उनको आवश्यकता हो तो वह देना चाहिए । अपने पास ज्यादा है और उसको आवश्यकता है तो उतनी चीज आप उसको दे दो । जैसे बहुतसा रसोईमें बना हुआ भोजन है । अपने जितना पेट भरें, उतना खाते है । ऐसे एक आदमी भूखा है, उसका पेट भर जाय उतना उसको दे दो । उसमें भी लोभ करते हो तो बहुत अनर्थ होगा । यह मनुष्य के लायक बात नहीं है । मनुष्यपणेकी बात है ही नहीं यह ! यह तो साधारण मनुष्यकी बात है कि हम भोजन करते है तो उसको भूखा कैसे रखे ? है अन्न हमारे पासमें । अगर हमारे पास अन्न थोडा है तो कहें, भाई ! आधा आप ले ले, आधा मै ले लूँ । दोनों पालें थोडा-थोडा, आधा तो हो जायगा न, ऐसा ! —यह सदुपयोग है वस्तुका । अतः इसमें सावधान रहो, वस्तुका सदुपयोग करो और व्यक्तियोंकी सेवा करो ।
नारायण..... नारायण......... नारायण............ नारायण............नारायण
—दि.२१/०६/१९९० प्रातः ५ बजे प्रार्थनाकालीन प्रवचनसे

|
।। श्रीहरिः ।।


उत्तम श्रद्धाका स्वरुप



श्रोता— उत्तम श्रद्धाका स्वरुप क्या है ?
स्वामीजी— उत्तम श्रद्धाका स्वरुप यह है की जिस पर आपकी श्रद्धा हो, वह यह कह दे कि यह सब भगवान है तो भगवान् ही दिखने लगे, साक्षात् परमात्मा दिखने लग जाय । मकान बना हुआ ईंट, चूना, पत्थरसे है और जिस पर आपकी श्रद्धा हो, उत्तम श्रद्धा हो, वह यह कह दे कि सोनेका मकान है; तो बिलकुल सोनेका दिखने लग जाय, मकान सोनेका दिखने लग जाय, साफ-साफ । संदेह किन्चित् मात्र भी न रहे । यह उत्तम श्रद्धा है । उत्तम श्रद्धालुके लिए कुछ करना नहीं रहता है । शास्त्रमें लिखा है, संत-महात्मा कहते है; वैसा ही अनुभव होने लगे । यह उत्तम श्रद्दा होती है ।
उत्तम श्रद्धा उत्पन्न होती है संसारके विश्वासका त्याग करनेसे । नाशवानका विश्वास मत करो । ठीक श्रद्दा हो जाएगी । नाशवानका भरोसा मत रखो, नाशवानका आश्रय मत लो, अगर उत्तम श्रद्दा चाहते हो तो ! नाशवानका भरोसा लो, नाशवानका विश्वास लो, नाशवानका आश्रय लो तो उत्तम श्रद्दा कैसे पैदा होगी ? बिलकुल जानते है, एक छोटीसी बात कहूँ मैं कि आप जिसको असत् मानते हो, नाशवान मानते हो, वह असत् को सत् मत मानो । इतनी ही बात है । हमने वचन पढ़ा है, बहुत विचित्र लगा, अपने जाने हुए असत् का त्याग । इतनी ही बात है । जिनको आप असत् जानते हो उनका त्याग कर दो । जाने हुए असत् के त्यागमें एक बात हमारे मनमें आयी, आप ध्यान दे, इस बात पर, कृपा करें । यह संसार सत् है कि असत् है कि सत्-असत् से विलक्षण है— ऐसा वर्णन आता है । कई तरह के मतभेद है । परन्तु इसमें सार बात एक है कि इसके साथ हमारा सम्बन्ध है, यह असत् है । बहुत बढिया बात मेरेको लगी है, वह बताई है आपको । मतभेद बहुत है । संसार कैसा है ? ईश्वर कैसा है ? जीव कैसा है ? क्या है ? इसमे बहुत मतभेद, मत-मतान्तर है, बड़ी-बड़ी पुस्तकें है । उनमें सार चीज है । मैंने देखा है, पढ़ा है, सुना है, समझा है, उनमें सार चीज यह है कि संसारके साथ जो हमारा सम्बन्ध है— यह असत् है । संसार चाहे सत् हो, चाहे असत् हो, चाहे सत्-असत् से विलक्षण हो । इसके साथ हमारा सम्बन्ध है, यह सत् नहीं है । सम्बन्ध— माता-पिताका है, स्त्री-पुत्रका है, भाई-भोजाईका है, संसारका है, रुपये-पैसोंका है, मकानका है; जो हमारा सम्बन्ध है इसके साथ, वह छूट जायेगा । अगर हिम्मत करके मान लो तो बहुत ही सार चीज है यह ! इसमें जीतनी शंका हो, वह बात कर लो । जो संदेह हो, आप पूछ लो और निश्चिन्त, निशंक हो जाय तो मान लो । कैसा ही हो संसार, हमारा सम्बन्ध था नहीं और रहेगा नहीं और अभी छूट रहा है — यह तीन बात है इसमें, विस्तार करें तो । और पहले कही वह कहे तो जाने हुए असत् का त्याग, कि यह असत् है उसका त्याग करो ।
उसमें यह बात विलक्षण बताई, मेरेको विलक्षण मालूम दी —संसारके साथ सम्बन्ध नहीं रहेगा । हमारा सम्बन्ध हमने मान रखा है, यह सम्बन्ध विवेक विरोधी है । आपका विवेक है, उससे विरोधी है । आपकी जो समझ है, आपका निर्णय है, आपकी समझदारी है, आपकी दलील है; इससे बिलकुल विरोध है इसका । सम्बन्ध टिकेगा कितना यह बताओ ? शरीरके साथ सम्बन्ध कितना टिकेगा ? कुटुम्बके साथ सम्बन्ध कितने दिन टिकेगा ? रुपयों-पैसोंके साथ कितने दिन सम्बन्ध रहेगा ? यह सम्बन्ध रहेगा क्या ? अतः वस्तुओंका सदुपयोग करो और व्यक्तियोंकी सेवा करो । वैसे आप छोडकर जा नहीं सकते है, छूटता आपसे है नहीं ! जहाँ जाओगे, वहाँ सम्बन्ध होगा या बना लोगे !!! दुसरोंका हित करो । ‘ सर्वे भवन्तुः सुखिनः ‘ ऐसा ह्रदयमें भाव रखो । धन-संपत्तिका उपार्जन करो, परन्तु सदुपयोग करो । और भीतरसे पक्की बात जची हुई हो कि यह सम्बन्ध रहनेवाला नहीं है । यह सम्बन्ध टिकनेवाला नहीं है । क्योंकि है ही नहीं !! केवल माना हुआ सम्बन्ध है । मात्र वस्तुके साथ जो सम्बन्ध है, वो केवल अपना माना हुआ है । अगर इसमें आपको नहीं जचती हो तो बोलो ? शंका करो ? मेरे विचारमें आयी है, वह बात कही है आपको । पुस्तकें पढनेसे, संतोंकी, बड़े-बड़े आचार्योंके मतभेद देखनेसे; जो कई तरहके मत है — संसारको कई तरहसे देखते है, प्रकृतिको कई तरहसे देखते है, परमात्माको कई तरहसे देखते है, जीवात्माको कई तरहसे देखते है !! किसका नाम जीव है ? जगत है ? परमात्मा है ? प्रकृति है ? संसार है ? — इनके बड़े मतभेद है । पर सार चीज यह है कि— इनके साथ अपना सम्बन्ध रहनेवाला नहीं है । यह सार है । सम्बन्ध अनित्य है । तो क्या करें ? उससे सुखकी चाहना न रखें, अपने हितकी चाहना न रखें । उनको सुख कैसे पहुँचें ? व्यक्तियोंके साथ ऐसे भावसे सेवा करें और वस्तुओंका सदुपयोग करें । ऊँचेसे-ऊँचे काममें, अच्छेसे अच्छे काममें वस्तुओंको लगाओ । अपनी मत मानो । अपने साथ रहनेवाली नहीं है । मौका है लगाने का,सदुपयोग कर दो । ‘ समय चुकी पुनि क्या पछिताने....। ’
(शेष आगेके ब्लोगमें )
— दि॰21/06/1990 के प्रातः5 बजे प्रार्थनाकालीन प्रवचनसे
सुननेके लिए लिंक को क्लिक करें-
|
।। श्रीहरिः ।।





नित्ययोगकी प्राप्ति




क्रिया मात्र प्रकृति में हो रही है और निरंतर, हरदम होती ही रहती है । परिवर्तन नाशकी तरफ ले जा रहा है । उत्पत्ति-विनाश-उत्पत्ति — यह विनाशका क्रम है । यह क्रम हमें स्थायिरुसे दीखता है । यह स्थायिरुसे देखना गलती है ।
प्रकृतिमें क्रिया होती रहती है, लेकिन पुरुष (स्वयं) में कभी क्रिया होती ही नहीं । संयोगकी रूचि स्वयंमें होती है । संयोगकालमें ही वियोगका अनुभव कर लें तो गीताजीके अनुसार योग सिद्ध हो जाय ।
हम जो भी क्रिया करते है— देखना, सुनना, बोलना आदि, वह हरदम निवृतिकी ओर जा रहा है । जैसे बोलना न बोलने की ओर, देखना न देखने की ओर ...बोलते, देखते थक जाओगे ओर कुछ न करनेकी स्थितिमें सहज जा रहे हो । लेकिन रागके कारण, संयोगकी आसक्ति के कारण हमारा जो सहज निवृत्ति हो रही है उसकी तरफ ध्यान न जाकर, हमें प्रवृत्ति ही दिखती है । उसी सहज निवृतिको लेकर ही गीताजीमें — ‘ गुणा गुणेषु वर्तन्ते ’, ‘ इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेषु ‘....आदि कहा है । और हमें इस हरदम विनाशके क्रममें भी ‘ विनश्यतषु अविश्यन्तम् ‘, ‘ समं पश्यन्हि सर्वत्र ‘ ... यह देखना है ।
संयोगकी रूचि होती है, फिर करनेकी रूचि होती है — यही कर्म बंधन कराती है । अपने आपमें अपनी स्थितिके लिए ही सब साधन है । यही नित्ययोग है । निवृत्ति सहज, स्वाभाविक है — इसीका आदर करना, ख्याल करना उद्धारका सही उपाय है ।
क्रिया विभाग और अक्रिय विभाग अलग-अलग है । बालकपन,युवानीमें, ‘ मैं वही हूँ ‘ – तो बालक,युवावस्थामें क्रिया हो रही है और ‘ मैं वही हूँ ’— यह अक्रिय विभाग – स्वरुपसे ‘ वही हूँ ‘, “ है “ रूपसे सदा है ।
अतः जो क्रिया हो रही है, वह स्वतः निवृत हो रही है; पर संयोगकी आसक्तिसे प्रवृत्ति दिख रही है, स्थायिपना दिखता है । करने और पानेकी रूचिसे बंधन होता है । संयोगकी रूचि सुखकी प्राप्तिके लिए ही करता है ।

-दि.२१/१०/१९९०, प्रातः प्रार्थनाकालिन प्रवचनसे

|
।। श्रीहरिः ।।
गीताजीकी महीमा
  1. गीता उपनिषदोंका सार है । पर वास्तवमें गीताकी बात उपनिषदोंसे भी विशेष है । कारणकी अपेक्षा कार्यमें विशेष गुण होते है; जैसे— आकाशमें केवल एक गुण 'शब्द' है, पर उसके कार्य वायुमें दो गुण 'शब्द और स्पर्श' हैं ।
  2. वेद भगवान् के निःश्वास है और गीता भगवान् की वाणी है । निःश्वास तो स्वाभाविक होते है, पर गीता भगवान् ने योगमें स्थित होकर कही है । अतः वेदोंकी अपेक्षा भी गीता विशेष है ।
  3. सभी दर्शन गीताके अर्न्तगत है, पर गीता किसी दर्शनके अर्न्तगत नहीं है । दर्शनशास्त्रमें जगत क्या है, जीव क्या है और ब्रह्म क्या है— यह पढाई होती है । परन्तु गीता पढाई नहीं कराती, प्रत्युत अनुभव कराती है ।
  4. गीतामें किसी मतका आग्रह नहीं है, प्रत्युत केवल जीवके कल्याणका ही आग्रह है ।
  5. मतभेद गीतामें नहीं है, प्रत्युत टिकाकारोंमें है ।
  6. गीतामें भगवान् साधकको समग्रकी तरफ ले जाते हैं ।
  7. सब कुछ परमात्माके ही अर्न्तगत है, परमात्माके सिवाय किंचिन्मात्र भी कुछ नहीं है— इसी भावमें सम्पूर्ण गीता है ।
  8. गीताका तात्पर्य ‘वासुदेव सर्वंम्’ में है । सबकुछ परमात्मा ही हैं— यह खुले नेत्रोंका ध्यान है । इसमें न आँख बंद करनेकी (ध्यान) जरुरत है, न कान बंद करनेकी (नादानुसंधान) की जरुरत है, न नाक बंद करनेकी (प्राणायाम) जरुरत है ! इसमें न संयोगका असर पङता है, न वियोगका; न किसीके आनेका असर पड़ता है, न किसीके जानेका । सब कुछ परमात्मा है ही तो फिर दूसरा कहाँसे आये ? कैसे आये ?
  9. गीता कर्मयोगको ज्ञानयोगकी अपेक्षा विशेष मानती है, कारणकी ज्ञानयोगके बिना तो कर्मयोग हो सकता है (गीता ३/२०), पर कर्मयोगाके बिना ज्ञानयोग होना कठिन है (गीता ५/६) ।
  10. अतः साधकोंको चाहिये कि वे अपना कोई आग्रह न रखकर परम् पूज्य स्वामीजी महाराजजी द्वारा लिखवाइ हुई श्रीगीताजीकी टीका साधक-संजीवनी, गीता-प्रबोधनी एवं गीता माधुर्य पढ़ें और इसपर गहरा विचार करें तो वास्तविक तत्व उनकी समझमें आ जायगा और जो बात टीकामें नहीं आयी है, वह भी समझमें आ जायेगी ! — ऐसा स्वामीजी महाराजका भाव है । अतःसभी साधकोंकी सेवामें श्रीस्वामीजी महाराजका गीताप्रेस-गोरखपुरसे प्रकाशित कल्याणकारी साहित्य एवं 1991 से 2005 के अन्तीम् प्रवचन इन्टरनेट पर उपलब्ध है, उसका लाभ उठाकर मनुष्य जन्म सफल बनायॅ ।
  11. सदा हृदयसे...आर्तभावसे पुकारते रहो......हे नाथ ! हे मेरे नाथ ! मैं आपको भूँलूँ नहीं !!

-साधक-संजीवनी परिशिष्टके नम्र निवेदनसे संकलित

http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/picture/list.htm
http://www.swamiramsukhdasji.org/html/pravachan.htm




|