(गत ब्लॉगसे आगेका)
देवता, पितर, ऋषि, मुनि, मनुष्य आदिमें भगवद्बुद्धि हो और निष्कामभावपूर्वक केवल उनकी पुष्टिके लिये, उनके हितके लिये ही उनकी सेवा-पूजा की जाय तो भगवान्की प्राप्ति हो जाती है । इन देवता आदिको भगवान्से अलग मानना और अपना सकामभाव रखना ही पतनका कारण है ।
भूत, प्रेत, पिशाच आदि योनि ही अशुद्ध है और उनकी पूजा-विधि सामग्री, आराधना आदि भी अत्यन्त अपवित्र है । इनका पूजन करनेवाले इनमें न तो भगवद्बुद्धि कर सकते हैं और न निष्कामभाव ही रख सकते हैं । इसलिये उनका तो सर्वथा पतन ही होता है । इस विषयमें थोड़े वर्ष पहलेकी एक सच्ची घटना है । कोई ‘कर्णपिशाचिनी’ की उपासना करनेवाला था । उसके पास कोई भी कुछ पूछने आता तो वह उसके बिना पूछे ही बता देता कि यह तुम्हारा प्रश्न है और यह उसका उत्तर है । इससे उसने बहुत रुपये कमाये ।
अब उस विद्याके चमत्कारको देखकर एक सज्जन उसके पीछे पड़ गये कि ‘मेरेको भी यह विद्या सिखाओ, मैं भी इसको सीखना चाहता हूँ ।’ तो उसने सरलतासे कहा कि ‘यह विद्या चमत्कारी बहुत है, पर वास्तविक हित, कल्याण करनेवाली नहीं है ।’ उससे यह पूछा गया कि ‘आप दूसरेके बिना कहे ही उसके प्रश्नको और उत्तरको कैसे जान जाते हो?’ तो उसने कहा कि ‘मैं अपने कानमें विष्ठा लगाये रखता हूँ । जब कोई पूछने आता है, तो उस समय कर्णपिशाचिनी आकर मेरे कानमें उसका प्रश्न और प्रश्रका उत्तर सुना देती है और मैं वैसा ही कह देता हूँ ।’ फिर उससे पूछा गया कि ‘आपका मरना कैसा होगा’‒इस विषयमें आपने कुछ पूछा है कि नहीं ? इसपर उसने कहा कि ‘मेरा मरना तो नर्मदाके किनारे होगा’ । उसका शरीर शान्त होनेके बाद पता लगा कि जब वह (अपना अन्त-समय जानकर) नर्मदामें जाने लगा,तब कर्णपिशाचिनी सूकरी बनकर उसके सामने आ गयी । उसको देखकर वह नर्मदाकी तरफ भागा, तो कर्णपिशाचिनीने उसको नर्मदामें जानेसे पहले ही किनारेपर मार दिया । कारण यह था कि अगर वह नर्मदामें मरता तो उसकी सद्गति हो जाती । परन्तु कर्णपिशाचिनीने उसकी सद्गति नहीं होने दी और उसको नर्मदाके किनारेपर ही मारकर अपने साथ ले गयी ।
इसका तात्पर्य यह हुआ कि देवता, पितर, आदिकी उपासना स्वरूपसे त्याज्य नहीं है; परन्तु भूत, प्रेत, पिशाच आदिकी उपासना स्वरूपसे ही त्याज्य है । कारण कि देवताओंमें भगवद्भाव और निष्कामभाव हो तो उनकी उपासना भी कल्याण करनेवाली है । परन्तु भूत, प्रेत आदिकी उपासना करनेवालोंकी कभी सद्गति होती ही नहीं, दुर्गति ही होती है ।
हाँ, पारमार्थिक साधक भूत-प्रेतोंके उद्धारके लिये उनका श्राद्ध-तर्पण कर सकते हैं । कारण कि उन भूत-प्रेतोंको अपना इष्ट मानकर उनकी उपासना करना ही पतनका कारण है । उनके उद्धारके लिये श्राद्ध-तर्पण करना अर्थात् उनको पिण्ड-जल देना कोई दोषकी बात नहीं है । सन्त-महात्माओंके द्वारा भी अनेक भूत-प्रेतोंका उद्धार हुआ है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘दुर्गतिसे बचो’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।
(गत ब्लॉगसे आगेका)
जिसके गलेमें तुलसी, रुद्राक्ष अथवा बद्ध पारदकी माला होती है, उसका भूत-प्रेत स्पर्श नहीं कर सकते । एक सज्जन प्रातः लगभग चार बजे घोड़ेपर बैठकर किसी आवश्यक कामके लिये दूसरे गाँव जा रहे थे । ठण्डीके दिन थे । सूर्योदय होनेमें लगभग डेढ़ घण्टेकी देरी थी । जाते-जाते वे ऐसे स्थानपर पहुँचे, जो इस बातके लिये प्रसिद्ध था कि वहाँ भूत-प्रेत रहते हैं । वहाँ पहुँचते ही उनके सामने अचानक एक प्रेत पेड़-जैसा लम्बा रूप धारण करके रास्तेमें खड़ा हो गया । घोड़ा बिचक जानेसे वे सज्जन घोडेसे गिर पड़े । उनके दोनों हाथोंमें मोच आ गयी । पर वे सज्जन बड़े निर्भय थे, अतः पिशाचसे डरे नहीं । जबतक सूर्योदय नहीं हुआ, तबतक वह पिशाच उनके सामने ही खड़ा रहा, पर उसने उनपर आक्रमण नहीं किया, उनका स्पर्श नहीं किया; क्योंकि उनके गलेमें तुलसीकी माला थी । सूर्योदय होनेपर पिशाच अदृश्य हो गया और वे सज्जन पुनः घोड़ेपर बैठकर अपने घर वापस आ गये ।
सूर्यास्तसे लेकर आधीराततक तथा मध्याह्नके समय भूत-प्रेतोंमें ज्यादा बल रहता है, उनका ज्यादा जोर चलता है । यह सबके अनुभवमें भी आता है कि रात्रि और मध्याह्नके समय श्मशान आदि स्थानोंमें जानेसे जितना भय लगता है,उतना भय सबेरे और संध्याके समय नहीं लगता । अगर रात्रि अथवा मध्याह्नके समय किसी एकान्त, निर्जन स्थानपर जाना पड़े और वहाँ पीछेसे कोई (प्रेत) पुकारे अथवा ‘मैं आ जाऊँ’‒ऐसा कहे तो उत्तरमें कुछ नहीं बोलना चाहिये, प्रत्युत चलते-चलते भगवन्नाम-जप, कीर्तन, विष्णुसहस्रनाम,हनुमानचालीसा, गीता आदिका पाठ शुरू कर देना चाहिये ।उत्तर न मिलनेसे वह प्रेत वहींपर रह जायगा । अगर हम उत्तर देंगे, ‘हाँ, आ जा’‒ऐसा कहेंगे तो वह प्रेत हमारे पीछे लग जायगा ।
जहाँ प्रेत रहते हैं, वहाँ पेशाब आदि करनेसे भी वे पकड़ लेते हैं; क्योंकि उनके स्थानपर पेशाब करना उनके प्रति अपराध है । अतः मनुष्यको जहाँ-कहीं भी पेशाब नहीं करना चाहिये ।
हमें दुर्गतिमें, प्रेतयोनिमें न जाना पड़े‒इस बातकी सावधानीके लिये और गयाश्राद्ध करके, पिण्ड-पानी देकर प्रेतात्माओंके उद्धारकी प्रेरणा करनेके लिये ही यहाँ प्रेतविषयक चर्चा की गयी है ।
सांसारिक भोग और ऐश्वर्यकी कामनावाले मनुष्य अपने-अपने इष्टके पूजन आदिमें तत्परतासे लगे रहते हैं और इष्टकी प्रसन्नताके लिये सब काम करते हैं; परन्तु भगवान्के भजन-ध्यानमें लगनेवाले जिस तत्त्वको प्राप्त होते हैं, उसको प्राप्त न होकर वे बार-बार सांसारिक तुच्छ भोगोंको और नरकों तथा चौरासी लाख योनियोंको प्राप्त होते रहते हैं । इस तरह जो मनुष्य-जन्म पाकर भगवान्के साथ प्रेमका सम्बन्ध जोड़कर उनको भी आनन्द देनेवाले हो सकते थे, वे सांसारिक तुच्छ कामनाओंमें फँसकर और तुच्छ देवता, पितर आदिके फेरेमें पड़कर कितनी अनर्थ-परम्पराको प्राप्त होते हैं । इसलिये मनुष्यको बड़ी सावधानीसे केवल भगवान्में ही लग जाना चाहिये ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘दुर्गतिसे बचो’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।
(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒ब्रह्मराक्षस- (जिन्न- ) से छुटकारा पानेके क्या उपाय हैं ?
उत्तर‒(क) जो भगवान्के भजनमें तत्परतासे लगे हुए हैं, साधनमें जिनकी अच्छी स्थिति है, जिनमें भजन-स्मरणका जोर है, उन साधकोंके पास जानेसे ब्रह्मराक्षस भाग जाते हैं; क्योंकि भागवती शक्तिके सामने उनकी शक्ति काम नहीं करती ।
(ख) अगर ब्रह्मराक्षससे ग्रस्त व्यक्ति किसी सिद्ध महापुरुषके पास चला जाय तो वह व्यक्ति उस ब्रह्म-राक्षससे छूट जाता है और उस ब्रह्मराक्षसका भी उद्धार हो जाता है ।
(ग) अगर ब्रह्मराक्षस गया श्राद्ध कराना स्वीकार कर ले तो उसके नामसे गयाश्राद्ध कराना चाहिये । इससे उसकी सद्गति हो जायगी ।
प्रश्न‒भूत-प्रेत किन लोगोंके पास नहीं आते ?
उत्तर‒भूत-प्रेतोंका बल उन्हीं मनुष्योंपर चलता है,जिनके साथ पूर्वजन्मका कोई लेन-देनका सम्बन्ध रहा है अथवा जिनका प्रारब्ध खराब आ गया है अथवा जो भगवान्के (पारमार्थिक) मार्गमें नहीं लगे हैं अथवा जिनका खान-पान अशुद्ध है और जो शौच-खान आदिमें शुद्धि नहीं रखते अथवा जिसके आचरण खराब हैं । जो भगवान्के परायण हैं, भगवन्नामका जप-कीर्तन करते हैं, भगवत्कथा सुनते हैं, खान-पान, शौच-खान आदिमें शुद्धि रखते हैं,जिनके आचरण शुद्ध हैं, उनके पास भूत-प्रेत प्रायः नहीं आ सकते ।
जो नित्यप्रति श्रद्धासे गीता, भागवत, रामायण आदि सद्ग्रन्थोका पाठ करते हैं, उनके पास भी भूत-प्रेत नहीं जाते । परन्तु कई भूत-प्रेत ऐसे होते हैं, जो स्वयं गीता, रामायण आदिका पाठ करते हैं । ऐसे भूत-प्रेत पाठ करनेवालोंके पास जा सकते हैं, पर उनको दुःख नहीं दे सकते । अगर ऐसे भूत-प्रेत गीता आदिका पाठ करनेवालोंके पास आ जायँ तो उनका निरादर नहीं करना चाहिये; क्योंकि निरादर करनेसे वे चिढ़ जाते हैं ।
जो रोज गंगाजलका चरणामृत लेता है, उसके पास भी भूत-प्रेत नहीं आते । हनुमानचालीसा अथवा विष्णुसहस्र-नामका पाठ करनेवालेके पास भी भूत-प्रेत नहीं आते । एक बार दो सज्जन बैलगाड़ीपर बैठकर दूसरे गाँव जा रहे थे । रास्तेमें गाड़ीके पीछे एक पिशाच (प्रेत) लग गया । उसको देखकर वे दोनों सज्जन डर गये । उनमेंसे एक सज्जनने विष्णुसहस्रनामका पाठ शुरू कर दिया । जबतक दूसरे गाँवकी सीमा नहीं आयी, तबतक वह पिशाच गाड़ीके पीछे-पीछे ही चलता रहा । सीमा आते ही वह अदृश्य हो गया । इस तरह विष्णुसहस्रनामके प्रभावसे वह गाडीपर आक्रमण नहीं कर सका ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘दुर्गतिसे बचो’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।
(गत ब्लॉगसे आगेका)
(५) प्रेतबाधावाले व्यक्तिको भागवतका सप्ताह-पारायण सुनाना चाहिये ।
(६) प्रेतसे उसका नाम आदि पूछकर किसी शुद्ध-पवित्र ब्राह्मणके द्वारा सांगोपांग विधि-विधानसे गया-श्राद्ध कराना चाहिये ।
(७) प्रेतबाधावाले व्यक्तिके पास गीता, रामायण,भागवत रख दे और उसको ‘विष्णुसहस्रनाम’ का पाठ सुनाता रहे ।
(८) जिस स्थानपर श्रद्धापूर्वक सांगोपांग विधिसे गायत्रीमन्त्रका पुरश्चरण, वेदोंका सस्वर पाठ, पुराणोंकी कथा हुई हो, वहाँ प्रेतबाधावाले व्यक्तिको ले जाना चाहिये । वहाँ जाते ही प्रेत शरीरसे बाहर निकल जाता है, क्योंकि भूत-प्रेत पवित्र स्थानोंमें नहीं जा सकते । प्रेतबाधावाले व्यक्तिको कुछ दिन वहीं रहकर भगवन्नामका जप,हनुमानचालीसाका पाठ, सुन्दरकाण्डका पाठ आदि करते रहना चाहिये, जिससे वह प्रेत पुनः प्रविष्ट न हो । अगर ऐसा नहीं करेंगे तो वह प्रेत बाहर ही घूमता रहेगा और उस व्यक्तिके बाहर आते ही उसको फिर पकड़ लेगा ।
(९) सोलह कोष्ठकका ‘चौंतीसा यन्त्र’ सिद्ध कर ले* । फिर मंगलवार या शनिवारके दिन अग्निमें खोपरा, घी, जौ,तिल और सुगन्धित द्रव्योंकी १०८ आहुतियाँ दे । प्रत्येक आहुति ‘स्थाने हृषीकेश.....’ (गीता ११ । ३६) ‒इस श्लोकसे डाले और प्रत्येक आहुतिके बाद चौंतीसा यन्त्रको अग्निपर घुमाये । इसके बाद उस यन्त्रको ताबीजमें डालकर प्रेतबाधावाले व्यक्तिके गलेमें लाल या काले धागेसे पहना दे ।
‒श्रद्धा-विश्वासपूर्वक कोई एक उपाय करनेसे प्रेत-बाधा दूर हो सकती है । इस तरहके अनुष्ठानोंमें प्रारब्धके बलाबलका भी प्रभाव पड़ता है । अगर प्रारब्धकी अपेक्षा अनुष्ठान बलवान् हो तो पूरा लाभ होता है अर्थात् कार्य सिद्ध हो जाता है, परन्तु अनुष्ठानकी अपेक्षा प्रारब्ध बलवान् हो तो थोड़ा ही लाभ होता है, पूरा लाभ नहीं होता ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘दुर्गतिसे बचो’ पुस्तकसे
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* चौंतीसा यंत्र और उसको लिखनेकी तथा सिद्ध करनेकी विधि इस प्रकार है‒
इस यन्त्रको सफेद कागज या भोजपत्रपर अनारकी कलमसे अष्टगन्ध (सफेद चन्दन, लाल चन्दन, केसर, कुंकुम, कपूर, कस्तुरी, अगर एवं तगर ) के द्वारा लिखना चाहिये । इस यन्त्रमें एकसे लेकर सोलहतक अंक आये हैं; न तो कोई अंक छूटा है और न ही कोई अंक दो बार आया है । यन्त्र लिखते समय भी क्रमसे ही अंक लिखने चाहिये; जैसे‒पहले १ लिखे, फिर २ लिखे, फिर ३ आदि ।
इस चौंतीसा यन्त्रको सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण या दीपावलीकी रात्रिको एक सौ आठ बार लिखनेसे यह सिद्ध हो जाता है । शीघ्र सिद्ध करना हो तो शनिवारके दिन धोबी-घाटपर बैठकर उपर्युक्त प्रकारसे एक-एक यन्त्र लिखकर धोबीकी पानीसे भरी नाँदमें डालता जाय । इस तरह एक सौ आठ यन्त्र नाँदमें डालनेके बाद उन सभी यन्त्रोंको नाँदमेंसे निकालकर बहते हुए जलमें बहा दे । ऐसा करनेसे यन्त्र सिद्ध हो जाता है । यन्त्र सिद्ध करनेके बाद भी प्रत्येक ग्रहणके समय और दीपावली-होलीकी रात्रिमें यह यन्त्र एक सौ आठ या चौंतीस बार लिखकर नदीमें बहा देना चाहिये । [इस यन्त्रको ‘चौंतीसा यन्त्र’ इसलिये कहा गया है कि इसको ६४ प्रकारसे गिननेपर कुल संख्या ३४ आती है । यहाँ चौंतीसा यन्त्रका एक प्रकार दिया गया है । इस यन्त्रको ३८४ प्रकारसे बनाया जा सकता है ।]
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।। श्रीहरिः ।।
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तुलसीदासजी महाराजको भगवद्दर्शनकी लगन लगी हुई थी; अतः उन्होंने कहा‒मेरेको भगवान् रामके दर्शन करा दो ! प्रेतने कहा‒दर्शन तो मैं नहीं करा सकता, पर दर्शनका उपाय बता सकता हूँ । तुलसीदासजीने कहा‒उपाय ही सही,बता दो । उसने कहा‒अमुक स्थानपर रातमें रामायणकी कथा होती है । वहाँपर कथाको सुननेके लिये हनुमान्जी आया करते हैं । तुम उनके पैर पकड़ लेना, वे तुमको भगवान्के दर्शन करा देंगे । तुलसीदासजीने कहा‒वहाँ तो बहुत-से लोग आते होंगे, उनमेंसे मैं हनुमान्जीको कैसे पहचानूँ ? प्रेतने कहा‒हनुमान्जी कोढ़ीका रूप धारण करके और मैले-कुचैले कपड़े पहनकर आते हैं तथा कथा समाप्त होनेपर सबके चले जानेके बाद जाते हैं । तुलसीदासजी महाराजने वैसा ही किया तो उनको हनुमान्जीके दर्शन हुए और हनुमान्जीने उनको भगवान् रामके दर्शन करा दिये‒
तुलसी नफा पिछानिये, भला बुरा क्या काम ।
प्रेतसे हनुमत मिले, हनुमत से श्री राम ॥
प्रेतोंके नामसे पिण्ड-पानी दिया जाय, ब्राह्मणोंको छाता आदि दिया जाय तो वे वस्तुएँ प्रेतोंको मिल जाती हैं । परन्तु जिसके नामसे छाता आदि दिया जाय, उसके साथी प्रेत अगर प्रबल होते हैं, तो वे बीचमें ही छाता आदि छीन लेते हैं, उसको मिलने ही नहीं देते । अतः बड़ी सावधानीसे,उसके नामसे ही उसके निमित्त ही पिण्ड-पानी आदि दे तो वह सामग्री उसको मिल जाती है ।
प्रश्न‒भूत-प्रेतकी बाधाको दूर करनेके क्या उपाय हैं?
उत्तर‒प्रेतबाधाको दूर करनेके अनेक उपाय हैं; जैसे‒
(१) शुद्ध पवित्र होकर, सामने धूप जलाकर पवित्र आसनपर बैठ जाय और हाथमें जलका लोटा लेकर‘नारायणकवच’ (श्रीमद्भागवत, स्कन्ध ६, अध्याय ८ में आये) का पूरा पाठ करके लोटेपर फूँक मारे । इस तरह कम-से-कम इक्कीस पाठ करे और प्रत्येक पाठके अन्तमें लोटेपर फूँक मारता रहे । फिर उस जलको प्रेतबाधावाले व्यक्तिको पिला दे और कुछ जल उसके शरीरपर छिड़क दे ।
(२) गीताप्रेससे प्रकाशित ‘रामरक्षास्तोत्र’ को उसमें दी हुई विधिसे सिद्ध कर ले । फिर रामरक्षास्तोत्रका पाठ करते हुए प्रेतबाधावाले व्यक्तिको मोरपंखोंसे झाड़ा दे ।
(३) शुद्ध-पवित्र होकर ‘हनुमानचालीसा’ के सात,इक्कीस या एक सौ आठ बार पाठ करके जलको अभिमन्त्रित करे । फिर उस जलको प्रेतबाधावाले व्यक्तिको पिला दे ।
(४) गीताके ‘स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या....’ (११ । ३६)‒इस श्लोकके एक सौ आठ पाठोंसे अभिमन्त्रित जलको भूतबाधावाले व्यक्तिको पिला दे ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
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