।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.–२०७१, बुधवार
सभी कर्तव्य कर्मोंका नाम यज्ञ है



गीताजीके श्लोकोंसे तो यही बात सिद्ध होती है किसब कर्मोंका नाम यज्ञ है । कैसे सिद्ध होती है इसपर विचार किया जाता है । यज्ञोंका विशेष वर्णन आता है गीताके चौथे अध्यायमें २४वें श्लोकसे ३२वें श्लोकतक । इनका प्रकरण आरम्भ होता है चौथे अध्यायके २३वें श्लोकसे । उसमें भगवान् कहते हैं‒
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।
यज्ञायाचरतः   कर्म   समग्रं   प्रविलीयते ॥

इसमें बतलाया गया है कि यज्ञके लिये आचरित सम्पूर्ण कर्म सर्वथा विलीन हो जाते हैं । अर्थात् वे शुभाशुभ फलका उत्पादन नहीं करतेफलदायक‒बन्धनकारक नहीं होतेजन्म देनेवाले नहीं होते । कर्मोंकी प्रविलीनताका यही अर्थ है ।

इसी बातको दूसरे ढंगसे भगवान् कहते हैं तीसरे अध्यायके ९वें श्लोकमें‒
यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।

यज्ञार्थ कर्मसे भिन्न कर्ममें लगनेपर यह लोकसमुदाय कर्मोंके बन्धनमें बँधता है ।

अर्थात् यज्ञके अतिरिक्त जो भी कर्म होते हैंवे सभी बन्धनकारक होते हैं । केवल यज्ञार्थ कर्म बन्धनकारक नहीं होते । उपर्युक्त दोनों ही स्थलोंमें यज्ञ’ शब्द आया है । चौथे अध्यायके २४वें श्लोकसे भगवान् यज्ञोंका वर्णन आरम्भ करते हैं‒
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन   गन्तव्यं   ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥

इस प्रकरणमें चौदह यज्ञोंका उल्लेख किया गया है,जिनमें प्राणायाम’ का नाम भी आया है‒
अपाने जुह्वति  प्राणं   प्राणेऽपानं  तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥
                                                          (४ । २९)

अपरे नियताहाराः प्राणान् प्राणेषु जुह्वति ।
                                                (४ । ३०)

ऊपर जुह्वति’ क्रिया दी गयी हैआगे और भी क्रियाएँ बतायी गयी हैं । जैसे उसी अध्यायके २८वें श्लोकमें भगवान् कहतै हैं‒
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा    योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥

दान-पुण्य आदि जितने भी कर्म पैसोंसे या पदार्थोंसे सिद्ध होते हैंउन्हींको द्रव्ययज्ञ’ कहा गया है । इसी प्रकार जिसमें इन्द्रियोंकामनकाशरीरका संयम किया जायउस तपस्याको भी यज्ञ’ कहा गया है । यमनियमआसन,प्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधि‒पातञ्जलयोगके ये आठ अंग तथा हठयोगलययोगमन्त्रयोग आदि जो अन्य योग हैंउन्हें भगवान्‌ने योगयज्ञ’ कहा है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे


।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख अमावस्या, वि.सं.–२०७१, मंगलवार
अमावस्या
कर्मयोग (भौतिक साधना)



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
मतलब यह है कि परधर्ममें गुणोंका बाहुल्य भी हो और उसका आचरण भी अच्छी तरहसे किया जाता हो तथा अपने धर्ममें गुणोंकी कमी हो और उसका आचरण भी ठीक तरहसे नहीं बन पाता होतब भी परधर्मकी अपेक्षा स्वधर्म ही श्रेयान्’‒अति श्रेष्ठ है । जैसे पतिव्रता स्त्रीके लिये अपना पति सेव्य हैचाहे वह विगुण ही हो । श्रीरामचरितमानसमें कहे हुए‒
वृद्ध  रोगबस  जड़  धनहीना ।
अंध बधिर क्रोधी अति दीना ॥

‒ये आठों अवगुण अपने पतिमें विद्यमान हों और उसकी सेवा भी सांगोपांग नहीं होती होतथा पर-पति गुणवान् भी हो और उसकी सेवा भी अच्छी तरह की जा सकती होतो भी पत्नीके लिये अपने पतिकी सेवा ही श्रेष्ठ है,वही सेवनीय हैपर-पति कदापि सेवनीय नहीं । उसी प्रकार स्वधर्म ही श्रेयान्’ (श्रेष्ठ) हैपरधर्म कदापि नहीं ।
स्वधर्मे निधन श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥

‒इससे भगवान्‌ने यह भाव बतलाया है कि कष्टोंकी सीमा मृत्यु है और स्वधर्म-पालनमें यदि मृत्यु भी होती हो तो वह भी परिणाममें कल्याणकारक है । तात्पर्य यह कि परधर्ममें प्रतीत होनेवाले गुणउसके अनुष्ठानकी सुगमता और उससे मिलनेवाले सुखकी कोई कीमत नहीं हैक्योंकि वह परिणाममें महान् भयावह है । बल्कि अपने धर्ममें गुणोंकी कमीअनुष्ठानकी दुष्करता और उसमें होनेवाले कष्ट भी महान् मूल्यवान् हैंक्योंकि वह परिणाममें कल्याणकारक है । फिर जिस स्वधर्ममें गुणोंकी कमी भी न होअनुष्ठान भी अच्छी प्रकार किया जा सकता हो तथा उसमें सुख भी होता होवह सर्वथा श्रेष्ठ है‒इसमें तो कहना ही क्या है ।

उपर्युक्त श्लोककी व्याख्याके अनुसार मनुष्योंको कर्तव्य-कर्मोंका निष्कामभावसे अनुष्ठान करनेमें लग जाना चाहिये ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे
○○○‒○○○‒○○○
अपनेमें विशेषता केवल व्यक्तित्वके अभिमानसे ही दीखती है ।
          वस्तुओंके बिना भी हम रह सकते हैं । जिनके बिना हम रह सकते हैं, उनके हम गुलाम क्यों बनें ?
          शरीर नजदीक दीखता है और परमात्मा दूर दीखते हैं‒यही अज्ञान है । कारण कि शरीर नित्य अप्राप्त है और परमात्मा नित्यप्राप्त है हैं । शरीरके साथ हमारा एक क्षण भी संयोग नहीं होता और परमात्माके साथ हमारा एक क्षण भी वियोग नहीं होता ।
          शरीरको संसारसे और स्वयंको परमात्मासे अलग मानना गलती है ।
          सच्चे धर्मात्मा मनुष्यको किसीकी भी गर्ज नहीं होती, प्रत्युत दुनियाको ही उसकी गरज (आवश्यकता) रहती है ।
‒‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे


।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.–२०७१, सोमवार
कर्मयोग (भौतिक साधना)


समतापूर्वक कर्तव्यकर्मोंका आचरण करना ही कर्मयोग कहलाता है । कर्मयोगमें खास निष्कामभावकी मुख्यता है । निष्कामभाव न रहनेपर कर्म केवल कर्म’ होते हैंकर्मयोग नहीं होता । शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म करनेपर भी यदि निष्कामभाव नहीं है तो उन्हें कर्म ही कहा जाता हैऐसी क्रियाओंसे मुक्ति सम्भव नहींक्योंकि मुक्तिमें भावकी ही प्रधानता है । निष्कामभाव सिद्ध होनेमें राग-द्वेष ही बाधक हैं‒‘तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ’ (गीता ३ । ३४)वे इसके मार्गमें लुटेरे हैं । अतः राग-द्वेषके वशमें नहीं होना चाहिये । तो फिर क्या करना चाहिये ?‒
श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे   निधनं    श्रेयः    परधर्मो   भयावहः ॥
                                                                                (गीता ३ । ३५)
‒इस श्लोकमें बहुत विलक्षण बातें बतायी गयी हैं । इस एक श्लोकमें चार चरण हैं । भगवान्‌ने इस श्लोककी रचना कैसी सुन्दर की है ! थोड़े-से शब्दोंमें कितने गम्भीर भाव भर दिये हैं । कर्मोंके विषयमें कहा है‒
श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः’

यहाँ श्रेयान्’ क्यों कहा इसलिये कि अर्जुनने दूसरे अध्यायमें गुरुजनोंको मारनेकी अपेक्षा भीख माँगना श्रेय’ कहा था‒‘श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके’ (२ । ५)किंतु यच्छेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे’ (२ । ७) में अपने लिये निश्चित श्रेय’ भी पूछा और तीसरे अध्यायमें भी पुनः निश्चित श्रेय’ ही पूछा‒‘तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्’ (३ । २) यहाँ भी निश्चित’ कहा और दूसरे अध्यायके सातवें श्लोकमें भी निश्चितम्’ कहा है । भाव यह है कि मेरे लिये कल्याणकारक अचूक रामबाण उपाय होना चाहिये । वहाँ अर्जुनने प्रश्न करते हुए कहा‒‘ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन’ (३ । १)यहाँ ज्यायसी’ पद है । इस ज्यायसीका भगवान्‌ने कर्मज्यायो ह्यकर्मणः’ (३ । ८) में ज्यायः’ कहकर उत्तर दिया कि कर्म न करनेकी अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है । यहाँ भगवान्‌ने भीख माँगनेकी बात काट दी । तो फिर कर्म कौन-सा करे इसपर बतलाया कि जो स्वधर्म हैवही कर्तव्य हैउसीका आचरण करो ।अर्जुनके लिये स्वधर्म क्या है युद्ध करना । १८वें अध्यायके ४३वें श्लोकमें भगवान्‌ने क्षत्रियके जो स्वाभाविक कर्म बतलाये हैंक्षत्रिय होनेके नाते अर्जुनके लिये वे ही कर्तव्यकर्म हैं । वहाँ भी भगवान्‌ने श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः’‒(१८ । ४७) कहा है । स्वधर्मका नाम स्वकर्म है । यहाँ स्वकर्म है‒युद्ध करना । स्वधर्मः’ के साथ विगुणः’ विशेषण क्यों दिया अर्जुनने तीसरे अध्यायके पहले श्लोकमें युद्धरूपी कर्मको घोर कर्म’ बतलाया है । इसीलिये भगवान्‌ने उसके उत्तरमें उसे विगुणः’ बतलाकर यह व्यक्त किया कि स्वधर्म विगुण होनेपर भी कर्तव्यकर्म होनेसे श्रेष्ठ है । अतः अर्जुनके लिये युद्ध करना ही कर्तव्य हैतथा दूसरे अध्यायके बत्तीसवें श्लोकमें भी भगवान्‌ने बतलाया कि धर्मयुद्धसे बढ़कर क्षत्रियके लिये दूसरा कोई कल्याणकारक श्रेष्ठ साधन है ही नहीं‒परधर्मात् स्वनुष्ठितात्’ ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे


।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.–२०७१, रविवार
अलौकिक साधन-भक्ति



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
भक्तमें ज्ञान और वैराग्य स्वतः आते हैंलाने नहीं पड़ते* । कारण कि ज्ञान और वैराग्य भक्तिके बेटे हैं और जहाँ माँ जायगीवहाँ बेटे जायँगे ही ! इसमें एक मार्मिक बात है कि भक्तमें जो ज्ञान और वैराग्य आते हैंवे ज्ञानीमें आनेवाले ज्ञान और वैराग्यसे भी विलक्षण होते हैं । जैसेज्ञान-मार्गमें तो निर्गुण ब्रह्मका ज्ञान होता हैपर भक्तिमार्गमें समग्रका ज्ञान होता हैक्योंकि भगवान् स्वयं भक्तको ज्ञान देते हैंइसी तरह ज्ञानमार्गमें वैराग्य होता है तो वस्तुके रहते हुए उसमें राग मिट जाता हैपर भक्तिमार्गमें वैराग्य होता है तो वस्तुकी स्वतन्त्र सत्ता ही मिट जाती है और वह भगवत्स्वरूप हो जाती है‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९),‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९ । १९) । कारण कि अधिभूत अर्थात् सम्पूर्ण पाञ्चभौतिक जगत् भी समग्र परमात्माका ही एक अंग है‒‘साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः’ (गीता ७ । ३०) ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
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 * भक्तिः  परेशानुभवो   विरक्तिरन्यत्र  चैष  त्रिक  एककालः ।
    प्रपद्यमानस्य यथाश्नतः  स्युस्तुष्टिः पुष्टिः क्षुदपायोऽनुघासम् ॥
    इत्यच्युताङ्‌घ्रिं  भजतोऽनुवृत्त्या   भक्तिर्विरक्तिर्भगवतबोधः ।
    भवन्ति वै भागवतस्य राजंस्ततः परां शान्तिमुपैति साक्षात् ॥
                                                                                           ( श्रीमद्भा ११ । २ । ४२-४३)
‘जैसे भोजन करनेवालेको प्रत्येक ग्रासके साथ ही तुष्टिपुष्टि और क्षुधा-निवृत्ति‒ये तीनों एक साथ होते जाते हैंवैसे ही जो मनुष्य भगवान्‌की शरण लेकर उनका भजन करने लगता हैउसे भजनके प्रत्येक क्षणमें भगवान्‌के प्रति प्रेमअपने प्रेमास्पद प्रभुके स्वरूपका अनुभव और प्रभुके सिवाय अन्य सब वस्तुओंसे वैराग्य‒इन तीनोंकी एक साथ ही प्राप्ति होती जाती है । राजन् ! इस प्रकार जो प्रतिक्षण एक-एक वृत्तिके द्वारा भगवान्‌के चरण-कमलोंका ही भजन करता हैउसे भक्तिवैराग्य और भगवत्प्रबोध‒ये तीनों अवश्य ही प्राप्त हो जाते हैं और वह भागवत हो जाता है तथा परमशान्तिका साक्षात् अनुभव करने लगता है ।’

  तेषां  सततयुक्तानां   भजतां   प्रीतिपूर्वकम् ।
    ददामि बुद्धियोगं तं     येन मामुपयान्ति ते ॥
    तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं           तमः ।
     नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥
                                                                                                (गीता १० । १०-११)
‘उन नित्य-निरन्तर मेरेमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करनेवाले भक्तोंको मैं वह बुद्धियोग देता हूँ, जिससे उनको मेरी प्राप्ति हो जाती है । उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही उनके स्वरूपमें रहनेवाला मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको देदीप्यमान ज्ञानरूप दीपकके द्वारा सर्वथा नष्ट कर देता हूँ ।’

अमृत-बिन्दु-प्रकीर्ण

          भगवान्‌के वियोगसे होनेवाला दुःख (विरह) संसारक सुखसे भी बहुत अधिक आनन्द देनेवाला होता है ।

          जिसको भगवान्‌, शास्त्र, गुरुजन और जगत्‌से भय लगता है, वह वास्तवमें निर्भय हो जाता है ।

          हमसे अलग वही होगा, जो सदासे ही अलग है और मिलेगा वही, जो सदासे ही मिला हुआ है ।

          दूसरेकी प्रसन्नतासे मिली हुई वस्तु दूधके समान है, माँगकर ली हुई वस्तु पानीके समान है और दूसरेका दिल दुःखाकर ली हुई वस्तु रक्तके समान है ।

          भूलकी चिन्ता, पश्चात्ताप न करके आगेके लिये सावधान हो जाओ, जिससे फिर वैसी भूल न हो ।

          मिटनेवाली चीज एक क्षण भी टिकनेवाली नहीं होती ।                                  
                                                                                         ‒ ‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे


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।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण द्वादशी, वि.सं.–२०७१, शनिवार
अलौकिक साधन-भक्ति



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रेमीमें अन्यके भावकी स्कुरणा ही नहीं है । अन्यकी तरफ प्रेमीकी दृष्टि कभी गयी ही नहींहै ही नहींजायगी ही नहींजा सकती ही नहींक्योंकि प्रेममें अन्यका अत्यन्त अभाव है । प्रेमीको सब जगह अपना प्रेमास्पद ही दीखता है‒‘जित देखौं तित स्याममयी है’ । इसलिये प्रेमका स्वरूप अनिर्वचनीय कहा गया है‒
अनिर्वचनीय प्रेमस्वरूपम् । मूकास्वादनवत् ।
                                                                        (नारदभक्तिसूत्र ५१ । ५२)

जबतक अन्यकी सत्ता हैतबतक वह साधन-प्रेम है,साध्य-प्रेम (परमप्रेम या पराभक्ति) नहीं । इसलिये ज्ञानमें ‘अनिर्वचनीय ख्याति’ है और प्रेममें ‘अनिर्वचनीय स्वरूप’ है । तात्पर्य है कि ज्ञानमें अन्यका निषेध है और प्रेममें अन्यका अत्यन्त अभाव है । कारण कि प्रेममें समग्र परमात्माकी प्राप्ति है । इसलिये प्रेमीका किसीसे भी वैर-विरोध नहीं होता । प्रेमीकी दृष्टिमें सभी समग्रका अंग होनेसे अपने प्रभु ही हैं,फिर कौन वैर करेगाकिससे करेगा और क्यों करेगा‒‘निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध’ ?

उदाहरणके लियेकोई रामकाकोई कृष्णकाकोई शिवका प्रेमी है तो वे सब परस्पर एक हो सकते हैंपर सब ज्ञानी परस्पर एक नहीं हो सकते । अगर प्रेमी और ज्ञानी परस्पर मिलें तो प्रेमी ज्ञानीका जितना आदर करेगाउतना ज्ञानी प्रेमीका नहीं कर सकेगा । इसलिये भक्तोंका लक्षण बताया है‒‘सबहि मानप्रद आपु अमानी’ (मानसउत्तर ३८ । २) । रामायणके आरम्भमें गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज सज्जनोंके साथ-साथ दुष्टोंकी भी वन्दना करते हैं और सच्चे भावसे करते हैं‒‘बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ ' (मानसबाल ४ । १) । ऐसा भक्त ही कर सकता हैज्ञानी नहीं ! यद्यपि ज्ञानीका किसीसे कभी किंचिन्मात्र भी वैर नहीं होतातथापि उसमें उदासीनतातटस्थता रहती है । विवेकमार्ग (ज्ञान) में वैराग्यकी मुख्यता रहती है और वैराग्य रूखा होता है । इसलिये ज्ञानीमें भीतरसे कठोरता न होनेपर भी वैराग्यउदासीनताके कारण बाहरसे कठोरता प्रतीत होती है ।

गीतामें कर्मयोगीके लक्षण भी आये हैं (२ । ५५‒७२,६ । ७‒९)ज्ञानीके लक्षण भी आये हैं (१४ । २२‒२५) और भक्तके लक्षण भी आये हैं (१२ । १३‒१९)परन्तु केवल भक्तके लक्षणोंमें ही भगवान्‌ने कहा है‒

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च । (१२ । १३)

 ‘भक्त सब प्राणियोंमें द्वेष-भावसे रहितसबका मित्र (प्रेमी) और दयालु होता है ।’

‒यह लक्षण (मैत्रः करुणः) न कर्मयोगीके लक्षणोंमें आया हैन ज्ञानीके लक्षणोंमेंप्रत्युत केवल भक्तके लक्षणोंमें आया है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे


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