।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
आश्विन शुक्ल षष्ठी, वि.सं.२०७१, मंगलवार
मानसमें नाम-वन्दना



(गत ब्लॉगसे आगेका)

          जगज्जननी जानकीजी भी पार्वतीजीका पूजन करती हैं । उनकी माँ सुनयनाजी कहती हैं‘जाओ बेटी ! सतीका पूजन करो ।’ सतीजीका पूजन करती हैं और अपना मनचाहा वर माँगती हैं । सतीका पूजन करनेसे श्रेष्ठ वर मिलता है । सती सब स्त्रियोंका गहना है । सतीका नाम ले तो पतिव्रता बन जाय, इतना उसका प्रभाव है । उस सतिको भगवान् शंकरने खुश होकर अपनी अर्धांगिनी बना लिया । आपने ‘अर्धनारीश्वर’ भगवान् शंकरका चित्र देखा होगा । एक तरफ आधी मूँछ है और दूसरी तरफ ‘नथ’ है । वाम भाग पार्वतीका शरीर और दाहिना भाग भगवान् शंकरका शरीर है । एक कविने इस विचित्ररूपके विषयमें बड़ा सुन्दर लिखा है ।

निपीय  स्तनमेकं    च     मुहुरन्यं  पयोधरम् ।
मार्गन्तं बालमालोक्याश्वासयन्तौ हि दम्पती ॥

बालक माँका स्तन चूँगता (पीता) है तो मुँहमें एक स्तनको लेता है और दूसरेको टटोलकर हाथमें पकड़ लेता है कि कहीं कोई दूसरा लेकर पी न जाय, इसका दूध भी मैं ही पिऊँगा । इसी प्रकार गणेशजी भी ऐसे एक बार माँका एक स्तन पीने लगे और दूसरा स्तन टटोलने लगे, पर वह मिले कहाँ ? उधर तो बाबाजी बैठे हैं, माँ तो है ही नहीं । अब वे दूसरा स्तन खोजते हैं दूध पीनेके लिये, तो माँने कहा‘बेटा ! एक ही पी ले । दूसरा कहाँसे लाऊँ ।’ ऐसे शंकरभगवान् अर्धनारीश्वर बने हुए हैं ।

भगवान् शंकरने ‘राम’ नाम जप करनेवाली सती पार्वतीको अपने-अंगका भूषण बना लिया ।राम’ नामपर उनका बहुत ज्यादा स्नेह हैऐसा देखकर पार्वतीजीने पूछा—

तुम्ह पुनि राम राम दिन राती ।
सदर   जपहु   अनँग   आराती ॥
                            (मानस, बालकाण्ड, दोहा १०८ । ७)

‘आप तो महाराज ! रात-दिन आदरपूर्वक ‘राम-राम-राम’ जप कर रहे हैं । एक-एक नाम लेते-लेते उसमें आपकी श्रद्धा, प्रेम, आदर उत्तरोत्तर बढ़ता ही जा रहा है । ‘दिन राती’न रातका खयाल है, न दिनका । वह नाम किसका है ? वह ‘राम’ नाम क्या है महाराज ? ऐसा पार्वतीजीके पूछनेपर शिवजीने श्रीरामजीकी कथा सुनायी ।

पहले भगवान् श्रीशंकरने राम-कथाको रचकर अपने मनमें ही रखा । वे दूसरोंको सुनाना नहीं चाहते थे, पर फिर अवसर पाकर उन्होंने यह राम-कथा पार्वतीजीको सुनायी ।

        भगवान् शंकरका ‘राम’ नामपर इतना स्नेह था कि ‘चिताभस्मलेपः’वे मुर्देकी भस्म अपने शरीरपर लगाते हैं । इस विषयमें एक बात सुनी हैकोई एक आदमी मर गया, लोग उसे श्मशान ले जा रहे थे और ‘राम-नाम सत् है’ऐसा उच्‍चारण कर रहे थे । शंकरने देखा कि यह कोई भक्त है, जो इसके प्रभावसे ले जानेवाले ‘राम’ नाम बोल रहे हैं । बड़ी अच्छी बात है, वे उनके साथमें हो गये । ‘राम’ नामकी ध्वनि सुने तो ‘राम’ नामके प्रेमी साथ हो ही जायँ । जैसेपैसोंकी बात सुनकर पैसोंके लोभी उधर खींच जाते हैं, सोनेकी बात सुनते ही सोनेके लोभीके मनमें आती है कि हमें भी सोना मिले और गहना बनवायें, इसी प्रकार भगवान् शंकरका मन भी ‘राम’ नाम सुनकर उन लोगोंकी तरफ खींच गया ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
आश्विन शुक्ल पंचमी, वि.सं.२०७१, सोमवार
मानसमें नाम-वन्दना



(गत ब्लॉगसे आगेका)

          इसी तरह भगवान्‌ने नारदजीके मनकी बात नहीं होने दी तो उन्होंने भगवान्‌को ही शाप दे दिया । छोटे बालक ही तो ठहरे ! काट गये । फिर भी माँ प्यार करती है और थप्पड़ भी देती है तो प्यारभरे हाथसे देती है । माँ गुस्सा नहीं करती है कि काटता क्यों है ! ऐसे ही पहले नारदजीने शाप तो दे दिया; परंतु फिर पश्चात्ताप करके बोले‒प्रभु ! मेरा शाप व्यर्थ हो जाय । मेरी गलती हुई, मुझे माफ कर दो ।’ भगवान्‌ने कहा‒मम इच्छा कह दीनदयाला’मेरी ऐसी ही इच्छा थी । भगवान् इस प्रकार कृपा करते हैं ।

पम्पा सरोवरपर भगवान्‌की वाणी सुनकर नारदजीको लगा कि भगवान् प्रसन्न हैं । अभी मौका है । तब बोले किमुझे एक वर दीजिये ।’ भगवान् बोले‒कहो भाई ! क्या वरदान चाहते हो?’ नारदजीने कहा‒
राम  सकल   नामन्हते  अधिका ।
होउ नाथ अध खग गन बधिका ॥
                                  (मानस, अरण्यकाण्ड, ४२ । ८)
आपका जो नाम है, वह सब नामोंसे अधिक हो जाय और बधिकके समान पापरूपी पक्षियोंका नाश करनेवाला हो जाय । भगवान्‌के हजारों नाम हैं, उन नामोंकी गणना नहीं की जा सकती । हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता’ (मानस, बालकाण्ड १४० । ५) भगवान् अनन्त हैं, भगवान्‌की कथा अनन्त है तो भगवान्‌के नाम सान्त (सीमित) कैसे हो जायँगे ?

राम अनंत अनंत गुनानी ।
जन्म कर्म अनंत नामानी ॥
                            (मानस, उत्तरकाण्ड, दोहा ५२ । ३)

विष्णुसहस्रनाममें आया है‒

यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः ।

          भगवान्‌के गुण आदिको लेकर कई नाम आये हैं । उनका जप किया जाय तो भगवान्‌के गुण, प्रभाव, तत्त्व, लीला आदि याद आयेंगे । भगवान्‌के नामोंसे भगवान्‌के चरित्र याद आते हैं । भगवान्‌के चरित्र अनन्त हैं । उन चरित्रोंको लेकर नाम भी अनन्त होंगे । गुणोंको लेकर जो नाम हैं, वे भी अनन्त होंगे । अनन्त नामोंमें सबसे मुख्य रामनाम है । वह खास भगवान्‌का रामनाम हमें मिल गया तो समझना चाहिये कि बहुत बड़ा काम हो गया ।

शिव-पार्वतीका नाम-प्रेम

हरषे   हेतु   हेरि  हर  ही  को ।
किय भूषन तिय भूषन ती को ॥
                                                 (मानस, बालकाण्ड, दोहा १९ । ७)

            ‘राम’ नामके प्रति पार्वतीजीके हृदयकी ऐसी प्रीति देखकर भगवान् शंकर हर्षित हो गये और उन्होंने स्त्रियोंमें भूषणरूप (पतिव्रत्ताओंमें शिरोमणि) पार्वतीजीको अपना भूषण बना लिया अर्थात् उन्हें अपने अंगमें धारण करके अर्धांगिनी बना लिया । किसी स्त्रीकी बड़ाई की जाय तो उसे ‘सती’ की उपमा देकर कहा जाता है कि यह बड़ी सती-साध्वी है । परन्तु ‘राम’ नाममें हृदयकी प्रीति होनेसे वे पतिव्रताओंमें शिरोमणि हो गयीं । जितनी कन्याएँ हैं, वे सब-की-सब सती (पार्वती) जीका पूजन करती है कि जिससे हमें अच्छा वर मिले, अच्छा घर मिले, हम सुखी हो जायँ ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
आश्विन शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.२०७१, रविवार
मानसमें नाम-वन्दना



(गत ब्लॉगसे आगेका)

          रामनाम सहस्रनामके समान है, भगवान् शंकरके इस वचनको सुनकर पार्वतीजी सदा उनके साथ रामनाम जपती रहती हैं । पद्मपुराणमें एक कथा आती है । पार्वतीजी सदा ही विष्णुसहस्रनामका पाठ करके ही भोजन किया करतीं । एक दिन भगवान् शंकर बोले‒पार्वती ! आओ भोजन करें ।’ तब पार्वतीजी बोलीं‒महाराज ! मेरा अभी सहस्रनामका पाठ बाकी है ।’ 

         भगवान् शंकर बोले‒
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने ॥

पद्मपुराणके उस विष्णुसहस्रनाममें यह श्लोक आया है । राम, राम, राम‒ऐसे तीन बार कहनेसे पूर्णता हो जाती है । ऐसा जो रामनाम है, हे वरानने ! हे रमे ! रामे मनोरमे, मैं सहस्रनामके तुल्य इस रामनाममें ही रमण कर रहा हूँ । तुम भी उसरामनामका उच्चारण करके भोजन कर लो । हर समय भगवान् शंकर राम, राम, राम जप करते रहते हैं । पार्वतीजीने भी फिर रामनाम ले लिया और भोजन कर लिया ।

नारद-राम-संवाद

अरण्यकाण्डमें ऐसा वर्णन आया है‒श्रीरामजी लक्ष्मणजीके सहित, सीताजीके वियोगमें घूम रहे थे । वे घूमते-घूमते पम्पा सरोवर पहुँच गये । तो नारदजीके मनमें बात आयी कि मेरे शापको स्वीकार करके भगवान् स्त्री-वियोगमें घूम रहे हैं । उन्होंने देखा कि अभी बड़ा सुन्दर मौका है, एकान्त है । इस समय जाकर पूछें, बात करें । नारदजीने भगवान्‌को ऐसा शाप दिया कि आपने मेरा विवाह नहीं होने दिया तो आप भी स्त्रीके लिये रोते फिरोगे । भगवान्‌ने शाप स्वीकार कर लिया, परंतु नारदजीका अहित नहीं होने दिया ।

यहाँ नारदजीने पूछा‒महाराज ! उस समय आपने मेरा विवाह क्यों नहीं होने दिया ?’ तो भगवान्‌ने कहा‒भैया ! एक मेरे ज्ञानी भक्त होते हैं और दूसरे छोटे  ‘दास’ भक्त होते हैं; परंतु उन दासोंकी, प्यारे भक्तोंकी मैं रखवाली करता हूँ ।’

करउँ  सदा  तिन्ह कै रखवारी ।
जिमि बालक राखइ महतारी ॥
मोरे  प्रौढ़  तनय  सम  ग्यानी ।
बालक सुत सम दास अमानी ॥
                      (मानस, अरण्यकाण्ड, दोहा ४३ । ५, ८)

            ज्ञानी भक्त बड़े बेटे हैं । अमानी भक्त छोटे बालकके समान हैं । जैसे, छोटे बालकका माँ विशेष ध्यान रखती है कि यह कहीं साँप, बिच्छू, काँटा न पकड़ ले, कहीं गिर न जाय । वह उसकी विशेष निगाह रखती है, ऐसे ही मैं अपने दासोंकी निगाह रखता हूँ । माँ प्यारसे बच्चेको खिलाती-पिलाती है, प्यार करती है, गोदमें लेती है । परंतु बच्चेको नुकसानवाली कोई बात नहीं करने देती । अपने मनकी बात न करने देनेसे बच्चा कभी-कभी क्या करता है कि गुस्सेमें आकर माँके स्तनको मुँहमें लेते समय काट लेता है, फिर भी माँ उसके मनकी बात नहीं होने देती । माँ इतनी हितैषिणी होती है कि उसका स्तन काटनेपर भी बालकपर स्नेह रखती है, गुस्सा नहीं करती । वह तो फिर भी दूध पिलाती है । वह उसकी परवाह नहीं करती और अहित नहीं होने देती ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे

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आजकी शुभ तिथि
आश्विन शुक्ल तृतीया, वि.सं.२०७१, शनिवार
मानसमें नाम-वन्दना



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          प्रवचन- २

भगवान् शंकरने रामनामके प्रभावसे काशीमें मुक्तिका क्षेत्र खोल दिया और इसी महामन्त्रके जपसे ईशसे महेश’ हो गये । अब आगे गोस्वामीजी महाराज कहते हैं‒
महिमा जासु जान गनराऊ ।
प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ ॥
                             (मानस, बालकाण्ड, दोहा १९ । ४)

सम्पूर्ण त्रिलोकीकी प्रदक्षिणा करके जो सबसे पहले आ जाय, वही सबसे पहले पूजनीय हो‒देवताओंमें ऐसी शर्त होनेसे गणेशजी निराश हो गये, पर नारदजीके कहनेसे गणेशजीनेरामनाम पृथ्वीपर लिखकर उसकी परिक्रमा कर ली । इस कारण उनकी सबसे पहले परिक्रमा मानी गयी । नामकी ऐसी महिमा जाननेसे गणेशजी सर्वप्रथम पूजनीय हो गये । आगे गोस्वामीजी कहते हैं‒
जान आदिकबि नाम प्रतापू ।
भयउ सुद्ध करि उलटा जापू ॥
                             (मानस, बालकाण्ड, दोहा १९ । ५)

सबसे पहले श्रीवाल्मीकिजीने रामायण’ लिखी है, इसलिये वे आदिकवि’ माने जाते हैं । उलटा नाम ( मरा-मरा) जप करके वाल्मीकिजी एकदम शुद्ध हो गये । उनके विषयमें ऐसी बात सुनी है कि वे लुटेरे थे । रास्तेमें जो कोई मिलता, उसको लूट लेते और मार भी देते । एक बार संयोगवश देवर्षि नारद उधर आ गये । उनको भी लूटना चाहा तो देवर्षिने कहा‒‘तुम क्यों लूट-मार करते हो ? यह तो बड़ा पाप है ।’ वह बोला‒‘मैं अकेला थोड़े ही हूँ, घरवाले सभी मेरी कमाई खाते हैं । सभी पापके भागीदार बनेंगे ।’ देवर्षिने कहा‒‘भाई, पाप करनेवालेको ही पाप लगता है । सुखके, पुण्यके, धनके भागी बननेको तो सभी तैयार हो जाते हैं; परंतु बदलेमें कोई भी पापका भागी बननेके लिये तैयार नहीं होगा । तू अपने माँ-बाप, स्त्री-बच्चोंसे पूछ तो आ ।’ वह अपने घर गया । उसके पूछनेपर माँ बोली‒‘तेरेको पाल-पोसकर बड़ा किया, अब भी तू हमें पाप ही देगा क्या ?’ उसने कहा‒‘माँ ! मैं आप लोंगोंके लिये ही तो पाप करता हूँ ।’ सब घरवाले बोले‒‘हम तो पापके भागीदार नहीं बनेंगे ।’

तब वह जाकर देवर्षिके चरणोंमें गिर गया और बोला‒‘महाराज ! मेरे पापका कोई भी भागीदार बननेको तैयार नहीं हैं ।’ देवर्षिने कहा‒भाई ! तुम भजन करो, भगवान्‌का नाम लो’, परंतु भयंकर पापी होनेके कारण मुँहसे प्रयास करनेपर भीरामनाम उच्चारण नहीं कर सका । उसने कहा‒यह मरा, मरा, मरा । ऐसा मेरा अभ्यास है, इसलिये  ‘मरा’ तो मैं कह सकता हूँ ।’ देवर्षिने कहा कि ‘अच्छा, ऐसा ही तुम कहो ।’ तो  ‘मरा-मरा’ करने लगा । इस प्रकार उलटा नाम जपनेसे भी वे सिद्ध हो गये, महात्मा बन गये, आदिकवि बन गये । रामनाम महामन्त्र है, उसे ठीक सुलटा जपनेसे तो पुण्य होता ही है, पर उलटे जपसे भी पुण्य होता है ।

उलटा नामु जपत जगु जाना ।
बालमीकि भए ब्रह्म समाना ॥
                                                 (मानस, अयोध्याकाण्ड, दोहा १९४ । ८)

सहस नाम सम सुनि सिव बानी ।
जपि   जेई   पिय  संग  भवानी ॥
                                                 (मानस, बालकाण्ड, दोहा १९ । ६)

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे

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