।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
कार्तिक कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.२०७२, शनिवार
गीता-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्नजैसे भागवतमें भगवान्‌ने उद्धवजीको जो उपदेश दिया, उसका नाम ‘उद्धवगीता’ है, ऐसे ही गीताका नाम भी ‘अर्जुनगीता' होना चाहिये, फिर इसका नाम 'भगवद्‌गीता' क्यों हुआ है ?

उत्तरभागवतमें तो स्वयं उद्धवजीने भगवान्‌से जिज्ञासापूर्वक प्रश्र किये हैं; अतः उनके संवादका नाम ‘उद्धवगीता’ रखना ठीक ही है । परंतु गीता कहनेकी बात तो स्वयं भगवान्‌के ही मनमें आयी थी; क्योंकि अर्जुन तो युद्ध करनेके लिये ही आये थे, उपदेश सुननेके लिये नहीं । गीता कहनेकी बात मनमें होनेसे ही तो भगवान्‌ने अर्जुनका रथ पितामह भीष्म और गुरु द्रोणाचार्यके सामने खड़ा करके अर्जुनसे ‘हे पार्थ ! इन कुरुवंशियोंको देख’‘कुरून् पश्य’ (१ । २५) ऐसा कहा । अगर भगवान्‌ ऐसा न कहकर यह कहते कि ‘धृतराष्ट्रके पुत्रोंको देख’ धार्तराष्ट्रान् पश्य’, तो अर्जुनके भीतर मोह जाग्रत् न होकर युद्ध करनेका जोश ही आता, जिससे गीता कहनेका अवसर ही नहीं आता । गीता कहनेका अवसर तो ‘कुरुवंशियोंको देख’ऐसा कहनेसे ही प्राप्त हुआ; क्योंकि कुरुवंशमें धृतराष्ट्रके पुत्र और पाण्डवदोनों एक हो जाते हैं । अतः अपने ही सम्बन्धियोंको देखकर अर्जुनका सुप्त मोह जाग्रत् हो गया और वे कर्तव्य-अकर्तव्यका निर्णय करनेमें असमर्थ होकर तथा भगवान्‌की शरण होकर अपने कल्याणकी बातें पूछने लगे । इसलिये भगवान्‌के द्वारा दिये गये उपदेशका नाम ‘भगवद्‌गीता’ रखना युक्तियुक्त, उचित ही है ।

प्रश्नजब युद्धकी तैयारी हो चुकी थी, ऐसे थोड़े समयमें भगवान्‌ने इतना बड़ा गीतोपदेश कैसे दिया ?

उत्तर‒जब भगवान्‌की माया भी अघटित-घटना-पटीयसी है, तो फिर स्वयं भगवान्‌ थोड़े समयमें बहुत कुछ कह दें, इसमें आश्चर्य ही क्या है ?

       महाभारतको देखनेसे मालूम होता है कि समय थोड़ा नहीं था । अर्जुनने भगवान्‌से दोनों सेनाओंके बीचमें अपना रथ खड़ा करनेके लिये कहा तो भगवान्‌ने अर्जुनके रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा कर दिया । जब दोनों सेनाओंके बीचमें रथ खड़ा हो और उसमें दोनों मित्र आपसमें बातचीत कर रहे हों, तब दोनों सेनाओंमें युद्ध कैसे हो ? अतः दोनों सेनाएँ बड़ी शान्तिसे खड़ी थीं ।

        गीताका उपदेश पूरा होनेके बाद युधिष्ठिर निःशस्त्र होकर कौरवसेनामें गये । उनके साथ भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी थे । कौरवसेनामें जाकर वे भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदिसे मिले और उनके साथ बातचीत भी की । फिर वहाँसे लौटते समय युधिष्टिरने घोषणा की कि यह सब कौरवसेना मरेगी, अगर कोई बचना चाहे तो वह हमारी सेनामें आ सकता है । युधिष्टिरकी ऐसी घोषणा सुनकर दुर्योधनका भाई युयुत्सु नगाड़ा बजाते हुए पाण्डवसेनामें चला आया । इसके बाद ही युद्ध आरम्भ हुआ । इससे भी यही सिद्ध होता है कि गीतोपदेश देनेके लिये पर्याप्त समय था ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे


|
।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
कार्तिक कृष्ण तृतीया, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
करवाचौथ
गीता-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्नमोह नष्ट होनेपर और स्मृति प्राप्त होनेपर फिर कभी उसकी विस्मृति नहीं होती, तो फिर अर्जुनने  ‘अनुगीता' में यह कैसे कह दिया कि मैं तो उस ज्ञानको भूल गया हूँ (महाभारत, आश्वमेधिक १६ । ६) ?

उत्तरभगवान्‌ने गीतोपदेशके समय अर्जुनको भक्तियोग और कर्मयोगका अधिकारी माना था और मध्यम पुरुषसे प्रायः भक्तियोग और कर्मयोगका ही उपदेश दिया था । अतः अर्जुन भक्तियोग और कर्मयोगकी बातें नहीं भूले, प्रत्युत ज्ञानकी बातें ही भूले थे । इसलिये अनुगीतामें भगवान्‌ने ज्ञानका ही उपदेश दिया ।

प्रश्र‒अनुगीतामें भगवान्‌ने कहा है कि उस समय मैंने योगमें स्थित होकर गीता कही थी, पर अब मैं वैसी बातें नहीं कह सकता (महाभारत, आश्वमेधिक १६ । १२-१३), तो क्या भगवान्‌ भी कभी योगमें स्थित रहते हैं और कभी योगमें स्थित नहीं रहते ? क्या भगवान्‌का ज्ञान भी आगन्तुक है ?
उत्तरजैसे बछड़ा गायका दूध पीने लगता है तो गायके शरीरमें रहनेवाला दूध स्तनोंमें आ जाता है, ऐसे ही श्रोता उत्कण्ठित होकर जिज्ञासापूर्वक कोई बात पूछता है तो वक्ताके भीतर विशेष भाव स्फुरित होने लगते हैं । गीतामें अर्जुनने उत्कण्ठा और व्याकुलता-पूर्वक अपने कल्याणकी बातें पूछी थीं, जिससे भगवान्‌के भीतर विशेषतासे भाव पैदा हुए थे । परंतु अनुगीतामें अर्जुनकी उतनी उत्कण्ठा, व्याकुलता नहीं थी । अतः गीतामें जैसा रसीला वर्णन आया है, वैसा वर्णन अनुगीतामें नहीं आया ।

प्रश्नजैसे गीतामें (दसवें अध्यायमें) भगवान्‌ने अर्जुनसे अपनी विभूतियाँ कही हैं, ऐसे ही श्रीमद्भागवतमें  (ग्यारहवें स्कन्धके सोलहवें अध्यायमें) भगवान्‌ने उद्धवजीसे अपनी विभूतियाँ कही हैं । जब गीता और भागवत‒दोनोंमें कही हुई विभूतियोंके वक्ता भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही हैं, तो फिर दोनोंमें कही हुई विभूतियोंमें अन्तर क्यों है ?

उत्तरवास्तवमें विभूतियाँ कहनेमें भगवान्‌का तात्पर्य किसी वस्तु, व्यक्ति आदिका महत्त्व बतानेमें नहीं है, प्रत्युत अपना चिन्तन करानेमें है । अतः गीता और भागवत‒दोनों ही जगह कही हुई विभूतियोंमें भगवान्‌का चिन्तन करना ही मुख्य है । इस दृष्टिसे जहाँ-जहाँ विशेषता दिखायी दे, वहाँ-वहाँ वस्तु, व्यक्ति आदिकी विशेषता न देखकर केवल भगवान्‌की ही विशेषता देखनी चाहिये और भगवान्‌की ही तरफ वृत्ति जानी चाहिये । तात्पर्य है कि मन जहाँ-कहीं चला जाय, वहाँ भगवान्‌का ही चिन्तन होना चाहिये‒इसके लिये ही भगवान्‌ने विभूतियोंका वर्णन किया है ( १० । ४१) ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे


|
।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
कार्तिक कृष्ण द्वितीया, वि.सं.२०७२, गुरुवार
गीता-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्न‒अर्जुनने जब पहले ही यह कह दिया था कि ‘मेरा मोह चला गया’–‘मोहोऽयं विगतो मम’ (११ । १), तो फिर दुबारा यह कहनेकी क्या आवश्यकता थी कि ‘मेरा मोह नष्ट हो गया’नष्टो मोहः’ (१८ । ७३) ?

उत्तरजब साधन करते-करते साधकको पारमार्थिक विलक्षणताका अनुभव होने लगता है, तब उसको यही मालूम देता है कि उस तत्त्वको मैं ठीक तरहसे जान गया हूँ; पर वास्तवमें पूर्णताकी प्राप्तिमें कमी रहती है । इसी तरह जब अर्जुनने दूसरे अध्यायसे दसवें अध्यायतक भगवान्‌के विलक्षण प्रभाव आदिकी बातें सुनीं, तब वे बहुत प्रसन्न हुए । उनको यही मालूम हुआ कि मेरा मोह चला गया; अतः उन्होंने अपनी दृष्टिसे ‘मोहोऽयं विगतो मम’ कह दिया । परंतु भगवान्‌ने इस बातको स्वीकार नहीं किया । आगे जब अर्जुन भगवान्‌के विश्वरूपको देखकर भयभीत हो गये, तब भगवान्‌ने कहा कि यह तेरा मूढूभाव (मोह) है; अतः तेरेको मोहित नहीं होना चाहिये‒‘मा च विमूढभावः’ (११ । ४९) । भगवान्‌के इस वचनसे यही सिद्ध होता है कि अर्जुनका मोह सर्वथा नहीं गया था | परंतु आगे जब अर्जुनने सर्वगुह्यतमवाली बातको सुनकर कहा कि आपकी कृपासे मेरा मोह नष्ट हो गया और मुझे स्मृति प्राप्त हो गयी‒‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत’ (१८ । ७३) तब भगवान्‌ कुछ बोले नहीं, मौन रहे और उन्होंने आगे उपदेश देना समाप्त कर दिया । इससे सिद्ध होता है कि भगवान्‌ने अर्जुनके मोहनाशको स्वीकार कर लिया ।

प्रश्नगीताके अन्तमें संजयने केवल विराट्‌रूपका ही स्मरण क्यों किया (१८ । ७७) चतुर्भुजरूपका स्मरण क्यों नहीं किया ?

उत्तर‒भगवानका चतुर्भुजरूप तो प्रसिद्ध है, पर विराट्‌रूप उतना प्रसिद्ध नहीं है । चतुर्भुजरूप उतना दुर्लभ भी नहीं है, जितना विराट्‌रूप दुर्लभ है, क्योंकि भगवान्‌ने चतुर्भुजरूपको देखनेका उपाय बताया है (११ । ५४), पर विराट्‌रूपको देखनेका उपाय बताया ही नहीं । अतः संजय अत्यन्त अद्‌भुत विराट्‌रूपका ही स्मरण करते हैं ।

प्रश्नअर्जुनका मोह सर्वथा नष्ट हो गया था और मोह नष्ट होनेपर फिर मोह हो ही नहीं सकता–‘यज्ज्ञात्वा न  पुनर्मोहमेवं यास्यसि’ (४ । ३५) । परंतु जब अभिमन्यु मारा गया, तब अर्जुनको कौटुम्बिक मोह क्यों हुआ ?

उत्तरवह मोह नहीं था, प्रत्युत शिक्षा थी । मोह नष्ट होनेके बाद महापुरुषोंके द्वारा जो कुछ आचरण होता है, वह संसारके लिये शिक्षा होती है, आदर्श होता है । अभिमन्युके मारे जानेपर कुन्ती, सुभद्रा, उत्तरा आदि बहुत दुःखी हो रही थीं; अतः उनका दुःख दूर करनेके लिये अर्जुनके द्वारा मोह-शोकका नाटक हुआ था, लीला हुई थी । इसका प्रमाण यह है कि अभिमन्युके मारे जानेपर अर्जुनने जयद्रथको मारनेके लिये जो-जो प्रतिज्ञाएँ की हैं, वे सब शास्त्रों और स्मृतियोंकी बातोंको लेकर ही की गयी हैं (महाभारत, द्रोण ७३ । २५-४५) । अगर अर्जुन पर मोह, शोक ही छाया हुआ होता तो उनको शास्त्रों और स्मृतियोंकी बातें कैसे याद रहतीं ? इतनी सावधानी कैसे रहती ? कारण कि मोह होनेपर मनुष्यको पुरानी बातें याद नहीं रहतीं और आगे नया विचार भी नहीं होता (२ । ६३), पर अर्जुनको सब बातें याद थीं, वे शोकमें नहीं बहे । इससे यही सिद्ध होता है कि अर्जुनका शोक करना नाटकमात्र, लीलामात्र ही था ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे


|
।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.२०७२, बुधवार
गीता-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्नईश्वर अपनी मायासे सम्पूर्ण प्राणियोंको घुमाता है (१८ । ६१), तो क्या ईश्वर ही प्राणियोंसे पाप-पुण्य कराता है ?

उत्तरजैसे कोई मनुष्य रेलमें बैठ जाता है तो उसको परवश होकर रेलके अनुसार ही जाना पड़ता है, ऐसे ही जो प्राणी शरीररूपी यन्त्रपर आरूढ़ हो गये हैं अर्थात् जिन्होंने शरीररूपी यन्त्रके साथ मैं-मेरापनका सम्बन्ध जोड़ लिया है, उन्हीं प्राणियोंको ईश्वर उनके स्वभाव और कर्मोंके अनुसार घुमाता है, कर्मोंका फल भुगताता है, उनसे पाप-पुण्य नहीं कराता ।

प्रश्न–भगवान्‌ने अर्जुनको पहले ‘तमेव शरणंगच्छ’ पदोंसे अन्तर्यामी परमात्माकी शरणमें जानेके लिये कहा (१८ । ६२) और फिर ‘मामेकं शरणं व्रज’ पदोंसे अपनी शरणमें आनेके लिये कहा (१८ । ६६) । जब अर्जुनको अपनी ही शरणमें लेना था, तो फिर भगवान्‌ने उन्हें अन्तर्यामी परमात्माकी शरणमें जानेके लिये क्यों कहा ?

उत्तर–भगवान्‌ने पहले कहा कि मेरा शरणागत भक्त मेरी कृपासे शाश्वत पदको प्राप्त हो जाता है (१८ । ५६), फिर कहा कि मेरे परायण और मेरेमें चित्तवाला होकर तू सम्पूर्ण विघ्रोंसे तर जायगा (१८ । ५७-५८) । भगवान्‌के ऐसा कहनेपर भी अर्जुन कुछ बोले नहीं, उन्होंने कुछ भी स्वीकार नहीं किया । तब भगवान्‌ने कहा कि अगर तू मेरी शरणमें नहीं आना चाहता तो तू उस अन्तर्यामी परमात्माकी शरणमें चला जा । मैंने यह गोपनीयसे गोपनीय ज्ञान कह दिया, अब तेरी जैसी मरजी हो, वैसा कर (१८ । ६३) । यह बात सुनकर अर्जुन घबरा गये कि भगवान्‌ तो मेरा त्याग कर रहे है ! तब भगवान्‌ अर्जुनको सर्वगुह्यतम बात बताते हैं कि तू केवल मेरी शरणमें आ जा ।

प्रश्नभगवान्‌ने गीतामें तीन जगह (३ । ३, १४ । ६ और १५ । २०में) अर्जुनके लिये ‘अनघ’ सम्बोधनका प्रयोग किया है, जिससे सिद्ध होता है कि भगवान्‌ अर्जुनको पापरहित मानते हैं, तो फिर ‘मैं तेरेको सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा’ (१८ । ६६)‒यह कहना कैसे ?

उत्तर‒जो भगवान्‌के सम्मुख हो जाता है, उसके पाप समाप्त हो जाते हैं । अर्जुन (२ । ७में) भगवान्‌के सम्मुख हुए थे; अतः वे पापरहित थे और भगवान्‌की दृष्टिमें भी अर्जुन पापरहित थे । परन्तु अर्जुन यह मानते थे कि युद्धमें   कुटुम्बियोंको मारनेसे मेरेको पाप लगेगा (१ । ३६, ३९, ४५) । अर्जुनकी इस मान्यताको लेकर ही भगवान्‌ कहते हैं कि ‘मैं तेरेको सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे


|