।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण तृतीया, वि.सं.–२०७०, सोमवार
दुःख-नाशका उपाय


सन्तोंसे, शास्त्रोंसे मेरेको ऐसी बातें मिली हैं, जिनसे इस वर्तमान जीवनमें मनुष्यमात्र महान्‌ आनन्दको प्राप्त कर सकते हैं । इसमें केश जितना भी सन्देह नहीं है । पुण्यात्मा हो, पापात्मा हो, बुद्धिमान्‌ हो, बुद्धि कम हो, पढ़ा-लिखा हो, अपढ़ हो, भाई हो, बहन हो, सनातनी हो, बुद्ध हो, मुसलमान हो, अँग्रेज हो, कोई क्यों न हो, वह इसी जीवनमें महान्‌ आनन्दको प्राप्त कर सकता है । उन बातोंमेंसे एक बात आज विशेषतासे कहता हूँ ।

हम जो सुखी-दुःखी होते हैं, यह हमारी गलती है । इसमें गलती क्या है ? लक्ष्मणजीने अध्यात्मरामायणमें निषादराज गुहसे कहा है‒
                         सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता
                                            परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।
                         अहं करोमीति वृथाभिमानः
                                           स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः ॥
                                                                          (२/६/६)
‘सुख-दुःखको देनेवाला दूसरा कोई नहीं है । दूसरा सुख-दुःख देता है‒यह समझना कुबुद्धि है । मैं करता हूँ‒यह वृथा अभिमान है । सब लोग अपने-अपने कर्मोंकी डोरीसे बँधे हुए हैं ।’

यही बात तुलसीकृत रामायणमें भी आयी है‒
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥
                                                                  (मानस २/९२/२)
सुख-दुःख देनेवाला दूसरा कोई नहीं है‒यह खास सूत्र है ! दूसरा दुःख देता है‒यह कुबुद्धि है, कुत्सित बुद्धि है, खोटी बुद्धि है । अमुक आदमीने मेरेको दुःख दे दिया‒यह सिद्धान्तकी दृष्टिसे गलत है । इस विषयमें एक बात तो यह है कि परमात्मा परम दयालु हैं, परम हितैषी हैं, अन्तर्यामी हैं और सर्वसमर्थ हैं । ऐसे परमात्माके रहते हुए, उनकी जानकारीमें कोई भी किसीको दुःख दे सकता है क्या ? दूसरी बात यह है कि अगर दूसरा दुःख देता है तो दुःख कभी मिटनेका है ही नहीं; क्योंकि दूसरा तो कोई-न-कोई रहेगा ही । कहीं जाओ, किसी भी योनिमें जाओ, देवता बन जाओ, राक्षस बन जाओ, असुर बन जाओ, भूत-प्रेत-पिशाच बन जाओ, मनुष्य बन जाओ, दूसरा रहेगा ही । फिर दुःख कैसे मिटेगा ? ये दोनों बातें बड़ी प्रबल हैं ।

हमारे सामने सुख और दुःख दोनों आते हैं । सुख-दुःख देनेवाला दूसरा कोई नहीं है, प्रत्युत सब अपने किये हुए कर्मोंके फलको भोगते हैं । पातञ्जलयोगदर्शनमें लिखा है‒‘सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः’ (२/१३) अर्थात्‌ पहले किये हुए कर्मोंके फलसे जन्म, आयु और भोग होता है । भोग नाम किसका है ? ‘अनुकूलवेदनीयं सुखम्’, ‘प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्’ और ‘सुखदुःख अन्यतरः साक्षात्कारो भोगः’ अथात् सुखदायी और दुःखदायी परिस्थिति सामने आ जाय और उस परिस्थितिका अनुभव हो जाय, उसमें अनुकूल-प्रतिकूलकी मान्यता हो जाय, इसका नाम ‘भोग’ है । अब एक बात बड़े रहस्यकी, बहुत मार्मिक और कामकी है । आप ध्यान दें । आपने अच्छा काम किया है तो सुखदायी परिस्थिति आपके सामने आयेगी और बुरा काम किया है तो दुःखदायी परिस्थिति आपके सामने आयेगी । यह तो है कर्मोंकी बात । अब परिस्थितिको लेकर सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता है । वह परमात्माका विधान है, जो हमारे कर्मोंका नाश करके हमें शुद्ध करनेके लिये हुआ है । वह परमात्मा कैसे किसीको दुःख देगा ?

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे