सन्तोंसे,
शास्त्रोंसे
मेरेको ऐसी
बातें मिली
हैं, जिनसे इस
वर्तमान
जीवनमें
मनुष्यमात्र
महान् आनन्दको
प्राप्त कर
सकते हैं ।
इसमें केश
जितना भी
सन्देह नहीं
है । पुण्यात्मा
हो, पापात्मा
हो, बुद्धिमान्
हो, बुद्धि कम
हो, पढ़ा-लिखा
हो, अपढ़ हो, भाई
हो, बहन हो, सनातनी
हो, बुद्ध हो,
मुसलमान हो,
अँग्रेज हो,
कोई क्यों न
हो, वह इसी
जीवनमें महान्
आनन्दको
प्राप्त कर
सकता है । उन
बातोंमेंसे
एक बात आज
विशेषतासे
कहता हूँ ।
हम
जो सुखी-दुःखी
होते हैं, यह
हमारी गलती
है । इसमें
गलती क्या है ? लक्ष्मणजीने
अध्यात्मरामायणमें
निषादराज
गुहसे कहा है‒
सुखस्य
दुःखस्य न कोऽपि
दाता
परो
ददातीति कुबुद्धिरेषा
।
अहं
करोमीति
वृथाभिमानः
स्वकर्मसूत्रे
ग्रथितो हि
लोकः ॥
(२/६/६)
‘सुख-दुःखको
देनेवाला
दूसरा कोई
नहीं है ।
दूसरा सुख-दुःख
देता है‒यह
समझना
कुबुद्धि है ।
मैं करता हूँ‒यह
वृथा अभिमान
है । सब लोग
अपने-अपने
कर्मोंकी
डोरीसे बँधे
हुए हैं ।’
यही
बात
तुलसीकृत
रामायणमें
भी आयी है‒
काहु
न कोउ सुख दुख
कर दाता ।
निज
कृत करम भोग
सबु भ्राता ॥
(मानस
२/९२/२)
सुख-दुःख
देनेवाला
दूसरा कोई
नहीं है‒यह
खास सूत्र है ! दूसरा दुःख
देता है‒यह
कुबुद्धि है,
कुत्सित
बुद्धि है,
खोटी बुद्धि
है । अमुक
आदमीने
मेरेको दुःख
दे दिया‒यह
सिद्धान्तकी
दृष्टिसे
गलत है । इस
विषयमें एक
बात तो यह है
कि परमात्मा
परम दयालु
हैं, परम
हितैषी हैं,
अन्तर्यामी
हैं और
सर्वसमर्थ
हैं । ऐसे
परमात्माके
रहते हुए,
उनकी
जानकारीमें
कोई भी
किसीको दुःख
दे सकता है
क्या ? दूसरी
बात यह है कि
अगर दूसरा
दुःख देता है
तो दुःख कभी
मिटनेका है
ही नहीं;
क्योंकि
दूसरा तो
कोई-न-कोई
रहेगा ही । कहीं जाओ,
किसी भी
योनिमें जाओ,
देवता बन जाओ,
राक्षस बन
जाओ, असुर बन
जाओ,
भूत-प्रेत-पिशाच
बन जाओ, मनुष्य
बन जाओ, दूसरा
रहेगा ही ।
फिर दुःख
कैसे मिटेगा ?
ये दोनों
बातें बड़ी प्रबल
हैं ।
हमारे
सामने सुख और
दुःख दोनों
आते हैं ।
सुख-दुःख
देनेवाला
दूसरा कोई
नहीं है,
प्रत्युत सब
अपने किये
हुए
कर्मोंके
फलको भोगते
हैं । पातञ्जलयोगदर्शनमें
लिखा है‒‘सति
मूले
तद्विपाको
जात्यायुर्भोगाः’
(२/१३) अर्थात्
पहले किये
हुए
कर्मोंके फलसे
जन्म, आयु और
भोग होता है ।
भोग नाम
किसका है ? ‘अनुकूलवेदनीयं
सुखम्’, ‘प्रतिकूलवेदनीयं
दुःखम्’ और ‘सुखदुःख
अन्यतरः
साक्षात्कारो
भोगः’ अथात्
सुखदायी और
दुःखदायी
परिस्थिति
सामने आ जाय
और उस
परिस्थितिका
अनुभव हो जाय,
उसमें
अनुकूल-प्रतिकूलकी
मान्यता हो
जाय, इसका नाम ‘भोग’
है । अब एक बात
बड़े रहस्यकी,
बहुत
मार्मिक और
कामकी है । आप
ध्यान दें ।
आपने अच्छा
काम किया है
तो सुखदायी
परिस्थिति
आपके सामने
आयेगी और
बुरा काम
किया है तो
दुःखदायी परिस्थिति
आपके सामने
आयेगी । यह तो
है कर्मोंकी
बात । अब परिस्थितिको
लेकर सुखी-दुःखी
होना केवल
मूर्खता है । वह
परमात्माका
विधान है, जो
हमारे
कर्मोंका नाश
करके हमें
शुद्ध
करनेके लिये
हुआ है । वह परमात्मा
कैसे किसीको
दुःख देगा ?
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘नित्ययोगकी
प्राप्ति’
पुस्तकसे
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