भलि
सोचहि सज्जन
जना, दिवी
जगतको पूठ ।
पीछे देखी बिगड़ती, पहले
बैठा रूठ
॥
जो
पीछे बिगड़
जायगा, उसको
पहले ही छोड़
दिया । अगर
कोई अपने
कुटुम्बको
सच्चे
हृदयसे
छोड़कर साधु
बन जाय, तो
सब-का-सब
कुटुम्ब एक
साथ मर जाय अथवा
कुटुम्बमें
बीसों-पचासों
आदमी हो जायँ, उसपर
कोई फरक नहीं
पड़ेगा ।
परन्तु
कुटुम्बमें
एक लड़का मर
जाय और वह
रोने लगे, तो
उस साधुने
कोरा कपड़ा ही
मिट्टी
लगाकर खराब
किया ! जैसे
साधु अपने
कुटुम्बकी
तरफसे मर
जाता है, ऐसे
ही आप भी सबसे
मर जाओ, तो
मुक्ति हो
जायगी । मरते
ही अमर हो
जाओगे । जहाँ
संसारसे मरे
कि अमर हुए !
जीते हुए ही मर
जाओ । सन्तोंके
पदमें आया है—‘अरे मन
जीवतड़ो ही
मर रे ।’ आजसे
ही मर जाओ । सब
काम ठीक हो
जायगा ।
घरवालोंसे
मर जाओ तो
उनकी भी आफत
मिट जायगी । न
तीजा करना
पड़े, न कोई
खर्चा करना
पड़े, सब आफत मिट
जाय ! घरवाले
भी मौजमें और
आप भी मौजमें !
भगवान्की,
सन्तोंकी,
शास्त्रोंकी
कृपा तो आपपर
सदासे ही है,
अब आप कृपा
करो तो निहाल
हो जाओ । आप
स्वयं कृपा
नहीं करोगे
तो उनकी कृपा
पड़ी रहेगी,
कुछ काम नहीं
करेगी । जिनको
पकड़ा है, उनको
छोड़ दो तो
मुक्ति हो
जायगी । अब
घरवालोंको
छोड़ दिया तो
गुरुजीको
पकड़ लिया कि
ये मेरे
गुरुजी हैं,
ये गुरुभाई
हैं, ये चाचा
गुरु हैं, यह
भतीजा चेला
है । एकको छोड़
दिया और
दूसरेको पकड़
लिया तो
मुक्ति नहीं
होगी,
ज्यों-के-त्यों
फँसे रहोगे । एक साधु
मिले थे । वे
कहते थे कि
गुरुजीने
हमें विद्या
सिखा दी कि
तुम
कुटुम्बको
छोड़ दो, तो
हमने
गुरुजीको भी
छोड़ दिया ! अब
न गुरु है, न
चेला है, न
चाचा गुरु है,
न भतीजा चेला
है । पहले
गृहस्थसे
साधु हुए, अब
साधुसे साधु
हो गये ।
कुटुम्बको
हमारा मानो
मत और उनसे
कुछ चाहो मत‒इतना
ही
कुटुम्बके
साथ सम्बन्ध
रखो । अपने पास
जो पैसा है,
सामर्थ्य है,
समय है, वह
उनकी
सेवामें लगा
दो । इससे सब
कुटुम्बी
राजी हो
जायँगे और
आपकी मुक्ति
हो जायगी । पहलेका
सम्बन्ध
सेवा करके
छोड़ दें और
नया सम्बन्ध
जोड़ें नहीं,
तो मुक्ति ही
रहेगी ।
मुक्तिके
सिवा और क्या
रहेगा ?
नारायण
!
नारायण !!
नारायण !!!
‒ ‘भगवत्प्राप्तिकी
सुगमता’
पुस्तकसे
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