(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
अब आप
बालक हो क्या ?
तो बालकपनसे
मुक्ति हो गयी
न ? मुक्ति तो
आपसे-आप हो
रही है;
क्योंकि
मुक्ति है ।
बन्धन
बेचारा है ही
नहीं ।
बन्धनको तो
आपने पकड़ा
हुआ है । आप
रखोगे तो
रहेगा, आप
छोड़ोगे तो
छूट जायगा ।
आप बन्धन
नहीं छोड़ोगे
तो वह नहीं
छूटेगा । बन्धनको
छोड़नेका
सुगम उपाय यह
है कि जो अपने
दीखते हैं,
उनकी सेवा कर
दो और उनसे
सेवा मत चाहो । दो बातें
मैंने बतायी
थीं कि उनकी
माँग
न्याययुक्त,
धर्मयुक्त
है और आपकी
उसको पूरा
करनेकी
शक्ति,
सामर्थ्य है,
आपके पास
वस्तु है, तो
उनकी माँग
पूरी कर दो । अपनी
न्याययुक्त
इच्छा भी मत
रखो; जैसे‒बेटा
हमारी सेवा
करे‒यह न्याययुक्त
होनेपर भी
इसकी
इच्छाको मत
रखो । इस
तरह खुद तो
सेवा चाहो
नहीं और
दूसरोंकी
सेवा करते
रहो, तो
मुक्ति हो
जायगी । सेवा चाहते
रहोगे तो
मुक्ति नहीं
होगी । और
दूसरा सेवा
करेगा भी नहीं ।
सेवा
चाहनेसे
दूसरा सेवा
नहीं करेगा
और सेवा नहीं
चाहोगे तो वह
सेवा करेगा;
आपकी
सेवामें
घाटा नहीं
पड़ेगा । आपके
पास रुपये
हैं, रोटी है,
कपड़ा है, तो आप
किस साधुको
देना चाहते
हैं ? जो लेना
नहीं चाहता ।
जो लेना नहीं
चाहता, उसको
दोगे या जो
लेना चाहता
है, उसको दोगे ?
जो चोरी करता
है, डाका
डालता है,
छीनता है,
उसको आप देना
चाहते हो क्या
? आप उसीको
देना चाहते
हैं, जो लेना
नहीं चाहता ।
संसारसे कुछ
नहीं चाहोगे
तो संसार
ज्यादा सुख देगा
। आपको सुख कम
नहीं पड़ेगा,
घाटा नहीं
लगेगा । जो
कुछ नहीं
चाहता, उसको सब देना
चाहते हैं, तो फिर
उसके सुखमें
घाटा कैसे
पड़ेगा । घाटा तो सुख
चाहनेसे
पड़ता है ।
मान-बड़ाई भी
उसको देते
हैं जो इसको
नहीं चाहता ।
फिर चाहना
करके
दरिद्री
क्यों बनें ?
श्रोता‒अनादिकालसे
पड़े हुए
ममताके
संस्कार
मिटें कैसे ?
स्वामीजी‒अनादिकालका
अँधेरा
दियासलाई
जलाते ही भाग
जाता है ।
किसी
गुफामें
लाखों
वर्षोंसे
अँधेरा हो और
वहाँ जाकर
प्रकाश करें
तो वह यह नहीं
कहेगा कि मैं
यहाँ इतने
वर्षोंसे
हूँ, इसलिये
मैं जल्दी
नहीं जाऊँगा ।
जब प्रकाश
हुआ तो वह मिट
गया । ऐसे ही
जो भूल है,
गलती है, वह
मिटनेवाली
होती है ।
ममताको
मिटानेका
उपाय है‒देनेकी
इच्छा रखो ।
लेनेकी आशा
रखो ही मत कि
हमें कुछ
मिले । वस्तु
अपने पासमें
है और दूसरा
चाहता है, तो बिना
किसी शर्तके
उसको दे दो । देते रहोगे
तो स्वभाव
देनेका पड़
जायगा ।
लेनेका
स्वाभाव
होनेसे
नयी-नयी ममता
पैदा होती है ।
इसलिये
भीतरसे ही
लेनेकी
इच्छा छोड़ दो ।
संसारकी
सेवा-ही-सेवा
करनी है, लेना
कुछ नहीं है‒यह
‘कर्मयोग’ हो
गया ।
संसारके साथ
हमारा
सम्बन्ध है
ही नहीं‒यह
‘ज्ञानयोग’ हो
गया । भगवान्
ही मेरे हैं
और कोई मेरा
नहीं है‒यह
‘भक्तियोग’ हो
गया । मेरा
सम्बन्ध
संसारके साथ
है, संसार
मेरा है और
मेरे लिये है‒यह
‘जन्म-मरणयोग’
या ‘बन्धनयोग’
हो गया !
बार-बार जन्मो
और मरो ! अब
जिसमें आपको
फायदा लगे,
उसको कर लो ।
परमात्माके
साथ तो आपका सम्बन्ध
स्वतः है और
संसारके साथ
सम्बन्ध
आपका माना
हुआ है । संसारसे
कितना ही
सम्बन्ध जोड़
लो, वह टिकता
ही नहीं । जो टिके
नहीं, उसको
पहले ही छोड़
दो ।
(शेष
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‒ ‘भगवत्प्राप्तिकी
सुगमता’
पुस्तकसे
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