Jul
31
(गत ब्लॉगसे आगेका)
सज्जनो ! मेरे मनमें बहुत बातें आती हैं । आप विशेष ध्यान दें । आप सब-के-सब योग्य
हैं,
बुद्धिमान् हैं, पात्र
हैं । मैं ऐसा नहीं
मानता
हूँ कि आप पापी
हैं,
अयोग्य
हैं, अल्प-बुद्धि
हैं,
नीच हैं‒किन्तु
आप इधर ध्यान
नहीं
देते, लक्ष्य
नहीं
करते‒यही कमी है । आपकी
केवल
इस तरफ उत्कण्ठा
नहीं
है । अन्यथा
वह तत्त्व
बहुत
सुगमतासे
प्राप्त हो जाय । जो महान् विभूति, महान् गुण, महान् अवस्था है; जिसकी
शास्त्रोंमें, वेदोंमें, पुराणोंमें बड़ी भारी महिमा गायी गयी है, ऐसे तत्त्वको आप सब-के-सब प्राप्त कर सकते हैं, कब ? केवल इतना लक्ष्य हो जाय कि ‘मैं उस तत्त्वको कैसे प्राप्त करूँ ?’ अर्थात् आप उस तत्त्वके लिये उत्कण्ठित हो जाओ । अपनी जिद, अपनी बुद्धिमानीके अभिमानको छोड़ो, जिससे आपकी उत्कण्ठा देखकर सन्त-महात्मा द्रवित हो जायँ, खुश हो जायँ तथा सोचें कि यह तत्त्वको चाहता है । सन्तोंकी
खुशी
और प्रसन्नतामें बहुत विलक्षणता
भरी हुई रहती
है । इस प्रकारके
कोई सन्त-महात्मा
मिल जायँ
तो उनके
सामने
हमें
मेहनत
नहीं
करनी
पड़ती
।
केवल शिष्य बननेसे इतना लाभ नहीं होता, जितना कि अधीन होनेसे, शरण होकर उत्कण्ठित होनेपर होता है । अर्जुनने भी भगवान्से‒‘शिष्यस्तेऽहम्’
‘मैं आपका शिष्य हूँ’‒कहकर ‘शाधि
मां त्वां
प्रपन्नम्’‒मैं आपकी शरण हूँ, मेरेको शिक्षा दीजिये‒ऐसा कहा है । अर्थात् शिष्य बननेसे
भी अधिक
विलक्षणता शरण होनेमें है । उत्कण्ठा होनेपर
ही वह विलक्षण
चीज मिलती
है ।
जैसे छोटा बच्चा केवल माँका ही दूध पीता है, जल-अन्न आदि कुछ नहीं लेता; अगर वह रोगी हो जाय तो माँको दवा लेनी पड़ती है; उससे बालक ठीक हो जाता है; क्योंकि वह केवल माँका ही दूध पीता है । इस प्रकार केवल परमात्म-तत्त्वको जाननेकी उत्कण्ठावाले साधक सन्त-महात्माओंकी कृपाके आश्रित रहते हैं, अपनी कुछ भी बुद्धिमानी नहीं लगाते, अपना कुछ भी अभिमान नहीं रखते । ‘मेरा क्या और कैसे होगा’‒ऐसी कुछ भी चिन्ता नहीं करते । वे सन्त-महात्मा जो कुछ कहें, समझावें-उसीके अनुसार जीवन बनाना है, ऐसा जिनका भाव हो जाता है; उन साधकोंके उद्धारके लिये उन सन्त-महात्माओंको उद्योग करना पड़ता है अर्थात् उन साधकोंको मुफ्तमें वह तत्त्व प्राप्त हो जाता है । जिस प्रकार केवल माँका दूध पीनेवाले बच्चेको न भोजनकी और न दवाईकी आवश्यकता है; उसी प्रकार केवल सन्त-महात्माओंकी कृपाके आश्रित रहना ही उनकी चरण-रज्जी लेना है । उनके चरणोंकी रज्जीका, धूलका माहात्म्य नहीं है; प्रत्युत उनके अनुकूल बननेका माहात्म्य है ।
‘हम धूलसे भी नीचे हैं’‒इस भावको लेकर उन (सन्त-महात्माओं) से हम बड़ी भारी (महान्) वस्तु ले सकते हैं । हम छोटे बनकर, जिज्ञासु बनकर, अपनी बुद्धिमानी, हठ छोड़कर केवल सन्त-महात्माओंके अधीन हो जावें तो वे हमें सन्त बना देते हैं, कहा गया है‒
पारस में अरु सन्त में,
बड़ो अन्तरो
जान ।
वो लोहा कंचन करे,
वो करे आप समान ॥
पारस और सन्तमें बड़ा अन्तर है । पारस लोहेको सोना तो बना सकता है । किन्तु वह सोना दूसरे लोहेको सोना नहीं बना सकता; परन्तु सन्त-महापुरुषोंकी कृपा प्राप्त किये हुए पुरुष तो ऐसे सन्त बन जाते हैं कि वे दूसरे लोगोंको भी सन्त बना देते हैं । वहाँ सोना ही नहीं, पारसकी खान खुल जाती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगकी विलक्षणता’ पुस्तकसे
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