Apr
30
(गत ब्लॉगसे आगेका)
हमारेको संसारसे कुछ लेना ही नहीं है । जीये तो भी आनन्द है,
मर जायँ तो भी आनन्द है । कोई खिलाना चाहे तो खा लें, सुनना
चाहे तो सुना दें और मिलना चाहे तो मिल लें । अपना काम कोई है ही नहीं । खानेमें इतना
ध्यान रखना है कि वह वस्तु शास्त्रविरुद्ध और शरीरविरुद्ध (कुपथ्य) न हो । कोई न खिलाये
अथवा कम खिलाये या ज्यादा खिलाये तो उसकी मरजी । अपनी कोई चिन्ता नहीं । कोई कहे कि
हम सुनना नहीं चाहते, चुप हो जाओ तो चुप हो जायँ । कोई मिलना नहीं चाहे तो हमारेको
मिलना है ही नहीं ।
एक सन्त थे । उनको एक आदमीने निमन्त्रण दिया कि महाराज,
कल आप हमारे यहाँ भिक्षा लें । सन्तने कहा‒अच्छी बात है । दूसरे
दिन सन्त उसके घर पहुँचे । वहाँ खड़े एक दूसरे आदमीने देखा तो बोला कि कैसे आये यहाँपर
? निकल जाओ, नहीं तो मारेंगे ! सन्त चले गये । दूसरे दिन वह आदमी पुनः उनके
पास गया और बोला कि महाराज, कल आप आये नहीं ? सन्त बोले कि भाई, आया तो था, पर वहाँ खड़े एक आदमीने कह दिया कि चले जाओ तो वापिस आ गया ।
वह बोला कि महाराज, कल आप जरूर पधारो । दूसरे दिन फिर वे सन्त गये । उनको देखकर
वहाँ खड़ा आदमी फिर बोला कि तेरेको शर्म नहीं आती ?
कल कहा था न कि मत आना,
फिर आ गया ! शर्म है ही नहीं । जाओ,
निकलो यहाँसे ! सन्त वापिस चले आये । दूसरे दिन फिर उसने जाकर
कहा कि महाराज, कल पधारे नहीं ? वे बोले कि भाई,
आया तो था । वहाँ ना मिल गयी तो चला गया । वह बोला कि महाराज,
मैं वहाँ था नहीं, मेरेसे बड़ी भूल हुई,
कृपा करके कल आप जरूर पधारो । वे सन्त फिर गये । उस आदमीने बड़ा
सम्मान किया और बोला कि महाराज, आपने आकर बड़ी कृपा की ! भोजन कीजिये । भोजन करानेके बाद वह बोला
कि महाराज, आप बहुत बड़े सन्त हो ! आपका कितना तिरस्कार हुआ,
फिर भी आप आ गये ! वे सन्त बोले‒इसमें
बड़प्पन क्या है ? कुत्तेको भी तु-तु करो, पुचकारो
तो वह आ जाता है और दुत्कारो तो वह चला जाता है । यह बात तो कुत्तेकी है, मनुष्यकी
थोड़े ही है ! ऐसा भाव हमारेमें भी होना चाहिये ।
कोई सुनना चाहे तो सुना दें । वह बोले कि क्यों बकता है,
चुप रह तो चुप रह जायँ । वह बोले कि रामायण सुनाओ,
गीता सुनाओ तो जो जानते हैं,
वह सुना दें । वह बोले कि बाइबिल सुनाओ,
कुरान शरीफ सुनाओ तो कह दें कि भाई,
यह हमें आता नहीं, कैसे सुनायें ? ऐसे ही कोई मिलना चाहे तो मिल लें । कोई मिलना नहीं चाहे तो
बड़ी अच्छी बात है, आनन्दसे बैठे रहें । ऐसा करनेमें क्या कठिनता है ?
इसमें कोई तपस्या नहीं करनी पड़ती,
कहीं जाना नहीं पड़ता,
कोई पढ़ाई नहीं करनी पड़ती,
कोई शास्त्र नहीं पढ़ना पड़ता,
कोई गुरु नहीं बनाना पड़ता,
कोई दीक्षा नहीं लेनी पड़ती । दूसरा जैसे राजी हो,
वैसे कर दिया । हमारी न खानेकी मरजी है,
न सुनानेकी मरजी है,
न मिलनेकी मरजी है । कोई खिलाना चाहे तो खा लिया,
सुनना चाहे तो सुना दिया और मिलना चाहे तो मिल लिया । कितनी
सुगम बात है ! इसमें हमारा क्या खर्च हुआ ?
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे
|
|