Jun
30
।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ कृष्ण एकादशी, वि.सं.२०७३, गुरुवार
योगिनी एकादशी-व्रत (सबका)
जाति जन्मसे मानी जाय या कर्मसे ?





(गत ब्लॉगसे आगेका)

ब्राह्मणको विराट्‌रूप भगवान्‌का मुख, क्षत्रियको हाथ, वैश्यको ऊरु (मध्यभाग) और शूद्रको पैर बताया गया है । ब्राह्मणको मुख बतानेका तात्पर्य है कि उनके पास ज्ञानका संग्रह है, इसलिये चारों वर्णोंको पढ़ाना, अच्छी शिक्षा देना और उपदेश सुनाना‒यह मुखका ही काम है । इस दृष्टिसे ब्राह्मण ऊँचे माने गये ।

क्षत्रियको हाथ बतानेका तात्पर्य है कि वे चारों वर्णोंकी शत्रुओंसे रक्षा करते हैं । रक्षा करना मुख्यरूपसे हाथोंका ही काम है; जैसे‒शरीरमें फोड़ा-फुंसी आदि हो जाय तो हाथोंसे ही रक्षा की जाती है; शरीरपर चोट आती हो तो रक्षाके लिये हाथ ही आड़ देते हैं, और अपनी रक्षाके लिये दूसरोंपर हाथोंसे ही चोट पहुँचायी जाती है; आदमी कहीं गिरता है तो पहले हाथ ही टिकते हैं । इसलिये क्षत्रिय हाथ हो गये । अराजकता फैल जानेपर तो जन, धन आदिकी रक्षा करना चारों वर्णोंका धर्म हो जाता है ।

वैश्यको मध्यभाग कहनेका तात्पर्य है कि जैसे पेटमें अन्न, जल, औषध आदि डाले जाते हैं तो उनसे शरीरके सम्पूर्ण अवयवोंको खुराक मिलती है और सभी अवयव पुष्ट होते हैं, ऐसे ही वस्तुओंका संग्रह करना, उनका यातायात करना, जहाँ जिस चीजकी कमी हो वहाँ पहुँचाना, प्रजाको किसी चीजका अभाव न होने देना वैश्यका काम है । पेटमें अन्न-जलका संग्रह सब शरीरके लिये होता है और साथमें पेटको भी पुष्टि मिल जाती है; क्योंकि मनुष्य केवल पेटके लिये पेट नहीं भरता । ऐसे ही वैश्य केवल दूसरोंके लिये ही संग्रह करे, केवल अपने लिये नहीं । वह ब्राह्मण आदिको दान देता है, क्षत्रियोंको टैक्स देता है, अपना पालन करता है और शूद्रोंको मेहनताना देता है । इस प्रकार वह सबका पालन करता है । यदि वह संग्रह नहीं करेगा, कृषि, गौरक्ष्य और वाणिज्य नहीं करेगा तो क्या देगा ?

शूद्रको चरण बतानेका तात्पर्य है कि जैसे चरण सारे शरीरको उठाये फिरते हैं और पूरे शरीरकी सेवा चरणोंसे ही होती है, ऐसे ही सेवाके आधारपर ही चारों वर्ण चलते हैं । शूद्र अपने सेवा-कर्मके द्वारा सबके आवश्यक कार्योंकी पूर्ति करता है ।

उपर्युक्त विवेचनमें एक ध्यान देनेकी बात है कि गीतामें चारों वर्णोंके उन स्वाभाविक कर्मोंका वर्णन है, जो कर्म स्वतः होते हैं अर्थात् उनको करनेमें अधिक परिश्रम नहीं पड़ता । चारों वर्णोंके लिये और भी दूसरे कर्मोंका विधान है, उनको स्मृति-ग्रंथोंमें देखना चाहिये और उनके अनुसार अपने आचरण बनाने चाहिये । यही बात गीताजीने कही है‒

तस्माच्छास्त्र प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं    कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥
                                                    (१६ । २४)

‘अतः तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है‒ऐसा जानकर तू इस लोकमें शास्त्रविधिसे नियत कर्तव्य-कर्म करनेयोग्य है ।’

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे





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Jun
29
।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ कृष्ण नवमी, वि.सं.२०७३, बुधवार एकादशी-व्रत कल है
जाति जन्मसे मानी जाय या कर्मसे ?






(गत ब्लॉगसे आगेका)

जन्म तो पूर्वकर्मोंके अनुसार हुआ है ।[1] इसमें वह बेचारा क्या कर सकता है ? परन्तु वहीं (नीच वर्णमें) रहकर भी वह अपनी नयी उन्नति कर सकता है । उस नयी उन्नतिमें प्रोत्साहित करनेके लिये ही शास्त्र-वचनोंका आशय मालूम देता है कि नीच वर्णवाला भी नयी उन्नति करनेमें हिम्मत न हारे । जो ऊँचे वर्णवाला होकर भी वर्णोचित काम नहीं करता, उसको भी अपने वर्णोचित काम करनेके लिये शास्त्रोंमें प्रोत्साहित किया है; जैसे‒

ब्राह्मणस्य हि देहोऽयं क्षुद्रकामाय नेष्यते ।
                                                           (श्रीमद्भा ११ । १७ । ४२)
 
जिन ब्राह्मणोंका खान-पान, आचरण सर्वथा भ्रष्ट है, उन ब्राह्मणोंका वचनमात्रसे भी आदर नहीं करना चाहिये‒ऐसा स्मृतिमें आया है (मनु ४ । ३०, १९२) । परन्तु जिनके आचरण श्रेष्ठ हैं, जो भगवान्‌के भक्त हैं, उन ब्राह्मणोंकी भागवत आदि पुराणोंमें और महाभारत, रामायण आदि इतिहास-कथोंमें बहुत महिमा गायी गयी है ।

भगवान्‌का भक्त चाहे कितनी ही नीची जातिका क्यों न हो, वह भक्तिहीन विद्वान् ब्राह्मणसे श्रेष्ठ है ।[2]

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे


[1] सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः ।
                                                         (योगदर्शन २-१३)

[2] १.अहो बत श्वपचोऽतो गरीयान् यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम् ।
       तेपुस्तपस्ते जुहुवुः   सस्नुरार्या    ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते ॥
                                                       (श्रीमद्भा ३ । ३३ । ७)

अहो ! वह चाण्डाल भी सर्वश्रेष्ठ है, जिसकी जीभके अग्रभागपर आपका नाम विराजता है । जो श्रेष्ठ पुरुष आपका नाम उच्चारण करते हैं, उन्होंने तप, हवन, तीर्थस्नान, सदाचारका पालन और वेदाध्ययन‒सब कुछ कर लिया ।’

२. विप्राद् द्विषड्‌गुणयुतादरविन्दनाभपादारविन्दविमुखाच्छ्‌वपचं     वरिष्ठम् ।
मन्ये तदर्पितमनोवचनेहितार्थप्राण पुनाति स कुलं न तु भूरिमानः ॥                              
                                                      (श्रीमद्भा ७ । १ । १०)

‘मेरी समझसे बारह गुणोंसे युक्त ब्राह्मण भी यदि भगवान् कमलनाभके चरण-कमलोंसे विमुख हो तो वह चाण्डाल श्रेष्ठ है, जिसने अपने मन, वचन, कर्म, धन और प्राणोंको भगवान्‌के अर्पण कर दिया है; क्योंकि वह चाण्डाल तो अपने कुलतकको पवित्र कर देता है; परन्तु बड़प्पनका अभिमान रखनेवाला भगवद्विमुख ब्राह्मण अपनेको भी पवित्र नहीं कर सकता ।’

३. चाण्डालोऽपि मुनेः श्रेष्ठो विष्णुभक्तिपरायणः ।
    विष्णुभक्तिविहीनस्तु द्विजोऽपि श्वपचोऽधमः ॥
                                                     (पद्मपुराण)

‘हरिभक्तिमें लीन रहनेवाला चाण्डाल भी मुनिसे श्रेष्ठ है और हरिभक्तिसे रहित ब्राह्मण चाण्डालसे भी अधम है ।’

४. अवैष्णवाद् द्विजाद् विप्र चाण्डालो वैष्णवो वरः ।
    सगणः  श्वपचो   मुक्तो   ब्राह्मणो  नरकं   व्रजेत् ॥
                                  (ब्रह्मवैवर्त, ब्रह्मा ११ । ३९)

‘अवैष्णव ब्राह्मणसे वैष्णव चाण्डाल श्रेष्ठ है; क्योंकि वह वैष्णव चाण्डाल अपने बन्धुगणोंसहित भव-बन्धनसे मुक्त हो जाता है और वह अवैष्णव ब्राह्मण नरकमें पड़ता है ।’

५. न शूद्रा भगवद्भक्ता विप्रा भागवताः स्मृताः ।
    सर्ववर्णेषु  ते  शूद्रा   ये   ह्यभक्ता   जनार्दने ॥
                                               (महाभारत)

‘यदि भगवद्भक्त शूद्र है तो वह शूद्र नहीं, परमश्रेष्ठ ब्राह्मण है । वास्तवमें सभी वर्णोंमें शूद्र वह है, जो भगवान्‌की भक्तिसे रहित है ।’



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Jun
28
।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ कृष्ण अष्टमी, वि.सं.२०७३, मंगलवार
जाति जन्मसे मानी जाय या कर्मसे ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)

तीसरी बात, जिसका उद्देश्य परमात्माकी प्राप्तिका है, वह भगवत्सम्बन्धी कार्योंको मुख्यतासे करते हुए भी वर्ण-आश्रमके अनुसार अपने कर्तव्य-कर्मोंको पूजन-बुद्धिसे केवल भगवत्‌-प्रीत्यर्थ ही करता है । इसलिये भगवान्‌ने कहा है‒

यतः  प्रवृत्तिर्भूतानां    येन  सर्वमिदं  ततम् ।
स्वकर्मणा तमभर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
                                             (गीता १८ । ४६)
        इस श्लोकमें भगवान्‌ने बड़ी श्रेष्ठ बात बतायी है कि जिससे सम्पूर्ण संसार पैदा हुआ है और जिससे सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्माका ही लक्ष्य रखकर, उसके प्रीत्यर्थ ही पूजन-रूपसे अपने-अपने वर्णके अनुसार कर्म किये जायँ । इसमें मनुष्यमात्रका अधिकार है । देवता, असुर, पशु, पक्षी आदिका स्वतः अधिकार नहीं है; परन्तु उनके लिये भी परमात्माकी तरफसे निषेध नहीं है । कारण कि सभी परमात्माका अंश होनेसे परमात्माकी प्राप्तिके सभी अधिकारी हैं । प्राणिमात्रका भगवान्‌पर पूरा अधिकार है । इससे भी यह सिद्ध होता है कि आपसके व्यवहारमें अर्थात् रोटी, बेटी और शरीर आदिके साथ बर्ताव करनेमें तो जन्म’ की प्रधानता है और परमात्माकी प्राप्तिमें भाव, विवेक और कर्म’ की प्रधानता है । इसी आशयको लेकर भागवतकारने कहा है कि जिस मनुष्यके वर्णको बतानेवाला जो लक्षण कहा गया है, वह यदि दूसरे वर्णवालेमें भी मिले तो उसे भी उसी वर्णका समझ लेना चाहिये ।[1] अभिप्राय यह है कि ब्राह्मणके शम-दम आदि जितने लक्षण हैं, वे लक्षण या गुण स्वाभाविक ही किसीमें हों तो जन्ममात्रसे नीचा होनेपर भी उसको नीचा नहीं मानना चाहिये । ऐसे ही महाभारतमें युधिष्ठिर और नहुषके संवादमें आया है कि जो शूद्र आचरणोंमें श्रेष्ठ है, उस शूद्रको शूद्र नहीं मानना चाहिये और जो ब्राह्मण ब्राह्मणोचित कर्मोंसे रहित है, उस ब्राह्मणको ब्राह्मण नहीं मानना चाहिये[2] अर्थात् वहाँ कर्मोंकी ही प्रधानता ली गयी है, जन्मकी नहीं ।

शास्त्रोंमें जो ऐसे वचन आते हैं, उन सबका तात्पर्य है कि कोई भी नीच वर्णवाला साधारण-से-साधारण मनुष्य अपनी पारमार्थिक उन्नति कर सकता है, इसमें संदेहकी कोई बात नहीं है । इतना ही नहीं, वह उसी वर्णमें रहता हुआ शम, दम आदि जो सामान्य धर्म हैं, उनका सांगोपांग पालन करता हुआ अपनी श्रेष्ठताको प्रकट कर सकता है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे



[1] यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम् ।
यदन्यत्रापि दृश्येत तत्   तेनैव विनिर्दिशेत् ॥
                                      (श्रीमद्भा ७ । ११ । ३५)

[2] शूद्रे तु यद् भवेल्लक्ष्म    द्विजे तच्च न विद्यते ।
न वै शूद्रो भवेच्छूद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मणः ॥
यत्रैतल्लक्ष्यते सर्प     वृत्तं स ब्राह्मणः स्मृतः ।
यत्रैतन्न भवेत् सर्प   तं   शूद्रमिति निर्दिशेत् ॥
                                   (महाभारत, वनपर्व १८० । २५-२६)


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Jun
27
।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि

आषाढ़ कृष्ण सप्तमी, वि.सं.२०७३, सोमवार

जाति जन्मसे मानी जाय या कर्मसे ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)

ऊँच-नीच योनियोंमें जितने भी शरीर मिलते हैं, वे सब गुण और कर्मके अनुसार ही मिलते हैं ।[*] गुण और कर्मके अनुसार ही मनुष्यका जन्म होता है; इसलिये मनुष्यकी जाति जन्मसे ही मानी जाती है । अतः स्थूलशरीरकी दृष्टिसे विवाह, भोजन आदि कर्म जन्मकी प्रधानतासे ही करने चाहिये अर्थात् अपनी जाति या वर्णके अनुसार ही भोजन, विवाह आदि कर्म होने चाहिये ।

दूसरी बात, जिस प्राणीका सांसारिक भोग, धन, मान, आराम, सुख आदिका उद्देश्य रहता है, उसके लिये वर्णके अनुसार कर्तव्य-कर्म करना और वर्णकी मर्यादामें चलना आवश्यक हो जाता है । यदि वह वर्णकी मर्यादामें नहीं चलता तो उसका पतन हो जाता है ।[†] परन्तु जिसका उद्देश्य केवल परमात्मा ही है, संसारके भोग आदि नहीं, उसके लिये सत्संग, स्वाध्याय, जप, ध्यान, कथा, कीर्तन, परस्पर विचार-विनिमय आदि भगवत्सम्बन्धी काम मुख्य होते हैं । तात्पर्य है कि परमात्माकी प्राप्तिमें प्राणीके पारमार्थिक भाव, आचरण आदिकी मुख्यता है, जाति या वर्णकी नहीं ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे



[*] कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ।
                                              (गीता १३ । २१)

कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस्तु फलं   दुःखमज्ञानं   तमसः फलम् ॥
                                                (गीता १४ । १६)

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्था     अधो  गच्छन्ति तामसाः ॥
                                                (गीता १४ । १८)

[†] आचारहीनं न पुनन्ति वेदा यदप्यधीताः सह षड्‌भिरङ्गैः । छन्दांस्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव जातपक्षाः ॥ (वसिष्ठस्मृति)

‘शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छन्द, व्याकरण और ज्योतिष‒इन छहों अंगोंसहित अध्ययन किये हुए वेद भी आचारहीन पुरुषको पवित्र नहीं करते । पंख पैदा होनेपर पक्षी जैसे अपने घोंसलेको छोड़ देता है ऐसे ही मृत्युसमयमें आचारहीन पुरुषको वेद छोड़ देते हैं ।’



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