Nov
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कर्म तीन
प्रकारके होते हैं‒शुक्ल (पुण्यकर्म), कृष्ण (पापकर्म) और मिश्रित । साधारण
मनुष्योंके तो ये तीन तरहके कर्म होते हैं, पर कर्मफलका त्याग करनेवाले योगीको
किसी भी कर्मका भोग नहीं होता‒ ‘कर्माशुक्लाकृष्णं
योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्’ (योगदर्शन ४/७), ‘न तु सन्न्यासिनां क्वचित् (गीता
१८/१२) । उसके पास सांसारिक सुख-दुःख पहुँचते ही नहीं । जब ये पहुँचते ही
नहीं, तो फिर वह सुखी-दुःखी कैसे होगा ? परिस्थिति कर्म-निर्मित
है । जैसे कर्म किये, वैसी परिस्थिति सामने आ जाती है, पर वह सुखी-दुःखी नहीं करती ।
भागवतमें एक कथा आती है । बाल्यावस्थामें नारदजी महाराजकी माँ मर गयी । बालककी माँ
मर जाय तो वह बड़ा दुःखी हो जाता है, पर नारदजी दुःखी
नहीं हुए, प्रत्युत उन्होंने इसको भगवान्का मंगलमय विधान ही माना ।
नारदजीकी भगवान्में रुचि थी । भजनमें माँ बाधक थी; अतः वह मर गयी तो भजनकी बाधा
मिट गयी । इसलिये नारदजी राजी हो गये । तात्पर्य है कि
परिस्थिति आदमीको दुःखी नहीं करती । वह मूर्खतासे ही दुःख पाता है ।
सुख-दुःखसे सब-के-सब ऊँचे उठ सकते हैं, इसमें सन्देहकी बात नहीं है ।
दो
बातें मूर्खतासे होती हैं कि दुःख तो दूसरेने दे दिया‒‘परो
ददातीति’ और सुख मैं अपने उद्योगसे कर लेता हूँ ‒‘अहं
करोमीति’ । अगर अपने उद्योगसे सुख होता तो आज कोई
दुःखी नहीं होता । दूसरेको दुःख देनेवाला कभी सुखी नहीं हो सकता‒यह सिद्धान्त है ।
श्रोता‒कोई आदमी किसीके पीछे ही पड़ जाय दुःख
देनेके लिये तो वह दुःखमें निमित्त हुआ कि नहीं ?
स्वामीजी‒वह तो मूर्खतामें
निमित्त हुआ, दुःख तो उसको मिलनेवाला ही मिलेगा । जो दुःख देनेके लिये पीछे पड़ा
है, उसको भयंकर पाप लगेगा और भयंकर दुःख भोगना पड़ेगा । परन्तु जिसको दुःख मिलता
है, उसका तो प्रारब्ध है । सर्वसमर्थ और परम सुहृद्
परमात्माके जीते-जी कोई दुःख दे सकता है ? मैंने पहले भी एक बात सुनायी थी
कि एक नगरके किनारे जंगलमें एक बाबाजी बैठे भजन कर रहे थे । वहाँसे कई आदमी धन लूट
करके भाग रहे थे । पुलिस पीछे पड़ी थी । उन्होंने देखा कि मारे जायँगे तो बाबजीके
पास धन रखकर छिप गये । पुलिस वहाँ आयी और धन देखकर बाबाजीको मारने लगी । बाबाजी
बोले‒ ‘बधूं तू जाणे छे’ ‘हे नाथ ! सब आप जानते हो’ । इसका अर्थ यह हुआ कि
मैंने अपनी जानकारीमें किसीको दुःख दिया नहीं और मार पड़ रही है तो मैं जानता नहीं
कि किस कर्मका फल है । हे भगवन् ! आप ही जानो, हमारेको इसका पता नहीं है । बिना कसूर मार पड़ती है, इतनेपर भी उन्होंने किसीको दोष नहीं
दिया । अतः जिसको मार पड़ती है, उसमें ऐसा धैर्य चाहिये । दूसरा बेचारा दुःख
दे नहीं सकता, हम अपनी मूर्खतासे दुःख पा रहे हैं । एक बात मैं और कहता हूँ । दुःख
देनेवाला दुःख दे नहीं सकेगा, प्रत्युत सुख देगा ! मैंने ऐसा देखा है । दूसरा करना चाहता है अनिष्ट और हमारा होता है इष्ट । यह मेरे
अनुभवकी बात है ।
श्रोता‒महाराजजी ! सुख-दुःख माना हुआ है, है तो
नहीं !
स्वामीजी‒बिलकुल माना हुआ
है, तभी तो मिटता है, नहीं तो मिटे कैसे ? सत्का कभी अभाव नहीं होता । यदि
सुख-दुःखकी सत्ता होती तो वह कभी मिट सकता ही नहीं । अतः
सुख-दुःख है नहीं, केवल माना हुआ है । इस मान्यताको छोड़ना है ।
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