Jan
31
संसारका आकर्षण रखनेवाले ‘आर्त’ और ‘अर्थार्थी’
भी भगवान्के ही भक्त होते हैं । परन्तु धनके लिये भगवान्का नाम लेनेसे उसे
‘अर्थार्थी’ या ‘आर्त’ भक्त नहीं कहा जाता । ‘अर्थार्थी’ और ‘आर्त’ भक्त तो वे कहलाते हैं, जो धनके
लिये केवल भगवान्के ऊपर ही भरोसा रखते हैं । धन प्राप्त करेंगे तो केवल भगवान्से
ही, दूसरे किसीसे नहीं—ऐसा उनका
दृढ़ निश्चय होता है ।
जैसे, ध्रुवजी महाराजको नारदजीने कहा कि ‘तुम वापस घरपर चलो । हम राजासे कहकर
तुम्हारा और तुम्हारी माँका प्रबन्ध करवा देंगे । तुम्हें राज्य भी दिलवा देंगे ।’
ध्रुवने जब इस बातको स्वीकार नहीं किया तो उसे डराया कि देख ! जंगलमें बाघ, चीते,
सर्प आदि बड़े-बड़े भयंकर जन्तु हैं, वे तुझे खा जायेंगे, पर न तो वह डरा और न धनके
लोभमें ही आया । ध्रुवजी तो नाम-जपमें लग ही गये, यद्यपि ध्रुवजीकी आरम्भमें शुद्ध
भावना नहीं थी । उस समय उनके मनमें राज्यका लोभ था । इस विषयमें
श्रीगोस्वामीजीमहाराज कहते हैं—
ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ ।
पायउ अचल अनुपम ठाऊँ ॥
(मानस,
बालकाण्ड २६/५)
ध्रुवजीने ग्लानिसे (विमाताके वचनोंसे दुःखी होकर सकामभावसे) ‘हरि’ नामका जप
किया । विमाताने पिताकी गोदसे उतारकर धक्का देकर निकल दिया कि ‘जा तू इस गोदमें बैठने लायक नहीं है ।
तू उस अभागिनीकी कोखसे जन्मा है, इसलिये राजाकी गोदमें बैठनेका अधिकारी नहीं है ।’
ध्रुव इस बातसे बड़ा दुःखी हुआ । ध्रुवने माँसे पूछा तो उसने भी कहा—‘तेरी छोटी माने जो बात कही है, वह सच्ची है । तुने और मैंने—दोनोंने ही भजन नहीं किया । तभी तो यह दशा हुई
है । नहीं तो हमारी ऐसी दशा क्यों होती !’ ऐसा सुनकर वे भगवान्से ही राज्य लेनेकी
इच्छाको लेकर भजनमें लग गये । नारदजीके प्रलोभन और भय दीखानेपर भी वे पीछे नहीं हटे, भजन करनेके लिये
जंगलमें चल दिये; क्योंकि वे ध्रुव अर्थात् पक्के थे । ऐसे भक्तोंको ‘अर्थार्थी’ कहा जाता है ।
आजकल भी लोग भगवान्से धन चाहते हैं, पर वे केवल
भगवान्के भक्त नहीं हैं । साथ-साथ वे भक्त बनते हैं—झूठ, कपट और बेईमानीके । वे कहते हैं—‘हे बेईमानी देवता ! हे झूठ देवता ! हे कपट
देवता ! हे ब्लैक देवता ! तुम हमें निहाल करो । आपकी कृपासे ही हम जीयेंगे, और
जीनेका कोई साधन है नहीं ।’ वे भी एक तरहसे अर्थार्थी भक्त हैं, पर हैं वे पापोंके
भक्त, भगवान्के नहीं हैं । जो भगवान्का भक्त होगा, वह पाप क्यों करेगा ! क्या
पाप जितनी भी ताकत भगवान्में नहीं है !
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