Listen मार्मिक बात स्थूलशरीर ‘विषय’ है, इन्द्रियाँ ‘बहिःकरण’ हैं और मन-बुद्धि ‘अन्तःकरण’ हैं । स्थूलशरीरसे इन्द्रियाँ पर (श्रेष्ठ,
सबल, प्रकाशक, व्यापक और सूक्ष्म) हैं तथा इन्द्रियोंसे बुद्धि पर है । बुद्धिसे
भी पर ‘अहम्’ है, जो कर्ता है । उस ‘अहम्’ (कर्ता) में ‘काम’ अर्थात् लौकिक इच्छा रहती है । अपनी सत्ता (होनापन) अर्थात् अपना स्वरूप चेतन,
निर्विकार और सत्-चित्-आनन्दरूप है । जब वह जड (प्रकृतिजन्य
शरीर)-के साथ तादात्म्य कर लेता है, तब ‘अहम्’ उत्पन्न होता है और स्वरूप ‘कर्ता’ बन जाता है । इस प्रकार कर्तामें एक जड-अंश होता है और एक चेतन-अंश
। जड-अंशकी मुख्यतासे संसारकी तरफ और चेतन-अंशकी मुख्यतासे परमात्माकी तरफ आकर्षण होता
है१ । १.जड-चेतनके तादात्म्य और
आकर्षणको समझनेके लिये एक दृष्टान्त दिया जाता है । चार कोनोंवाले किसी लोहेका अग्निसे
तादात्म्य अर्थात् सम्बन्ध होनेपर लोहेमें जलानेकी शक्ति न होनेपर भी वह जलानेवाला
हो जाता है; और अग्नि चार कोनोंवाली
न होनेपर भी चार कोनोंवाली हो जाती है । अग्निसे तादात्म्य होनेपर भी चुम्बककी ओर
लोहा ही आकर्षित होता है, अग्नि नहीं; क्योंकि चुम्बकके साथ लोहेकी सजातीयता
है । अग्नि अपने सजातीय निराकार अग्नि-तत्त्वकी ओर ही आकर्षित होती है, इसलिये वह
स्वतः शान्त हो जाती है । इसी प्रकार जड और चेतनके तादात्म्यमें जड-अंश संसारकी ओर
एवं चेतन-अंश परमात्माकी ओर आकर्षित होता है । चेतन-अंशके परमात्माकी ओर आकृष्ट होनेपर
जड-अंश छूट जाता है;
क्योंकि जड अनित्य है
। परन्तु जड-अंशके संसारकी ओर आकृष्ट होनेपर भी चेतन-अंश नहीं छूटता; क्योंकि चेतन नित्य है । तात्पर्य यह है कि उसमें जड-अंशकी प्रधानतासे लौकिक (संसारकी)
इच्छाएँ रहती हैं और चेतन-अंशकी प्रधानतासे पारमार्थिक (परमात्माकी) इच्छा रहती है
। जड-अंश मिटनेवाला है, इसलिये
लौकिक इच्छाएँ मिटनेवाली हैं और चेतन-अंश सदा रहनेवाला है, इसलिये
पारमार्थिक इच्छा पूरी होनेवाली है । इसलिये लौकिक इच्छाओं (कामनाओं)-की
निवृत्ति और पारमार्थिक इच्छा (संसारसे छूटनेकी इच्छा, स्वरूपबोधकी
जिज्ञासा और भगवत्प्रेमकी अभिलाषा)-की पूर्ति होती है । लौकिक इच्छाएँ उत्पन्न हो सकती हैं,
पर टिक नहीं सकतीं । परन्तु पारमार्थिक इच्छा दब सकती है,
पर मिट नहीं सकती । कारण कि लौकिक इच्छाएँ अवास्तविक और पारमार्थिक
इच्छा वास्तविक है । इसलिये साधकको न तो लौकिक इच्छाओंकी
पूर्तिकी आशा रखनी चाहिये और न पारमार्थिक इच्छाकी पूर्तिसे निराश ही होना चाहिये । वस्तुतः मूलमें इच्छा एक ही है,
जो अपने अंशी परमात्माकी है । परन्तु जडके सम्बन्धसे इस इच्छाके
दो भेद हो जाते हैं और मनुष्य अपनी वास्तविक इच्छाकी पूर्ति परिवर्तनशील जड (संसार)-के
द्वारा करनेके लिये जड-पदार्थोंकी इच्छाएँ करने लगता है,
जो उसकी भूल है । कारण कि लौकिक इच्छाएँ ‘परधर्म’ और पारमार्थिक इच्छा ‘स्वधर्म’ है । परन्तु साधकमें लौकिक और पारमार्थिक‒दोनों इच्छाएँ रहनेसे
द्वन्द्व पैदा हो जाता है । द्वन्द्व होनेसे साधकमें भजन,
ध्यान, सत्संग आदिके समय तो पारमार्थिक इच्छा जाग्रत् रहती है,
पर अन्य समयमें उसकी पारमार्थिक इच्छा दब जाती है और लौकिक (भोग
एवं संग्रहकी) इच्छाएँ उत्पन्न हो जाती हैं । लौकिक इच्छाओंके
रहते हुए साधकमें साधन करनेका एक निश्चय स्थिर नहीं रह सकता । पारमार्थिक इच्छा
जाग्रत् हुए बिना साधककी उन्नति नहीं होती । जब साधकका एकमात्र परमात्मप्राप्ति करनेका
दृढ़ उद्देश्य हो जाता है, तब यह द्वन्द्व मिट जाता है और साधकमें एक पारमार्थिक इच्छा
ही प्रबल रह जाती है । एक ही पारमार्थिक इच्छा प्रबल रहनेसे
साधक सुगमतापूर्वक परमात्मप्राप्ति कर लेता है (गीता‒पाँचवें अध्यायका तीसरा श्लोक)
। इसलिये लौकिक और पारमार्थिक इच्छाका द्वन्द्व मिटाना साधकके लिये बहुत आवश्यक
है । शुद्ध स्वरूपमें अपने अंशी परमात्माकी ओर स्वतः एक आकर्षण या
रुचि विद्यमान रहती है, जिसको ‘प्रेम’ कहते हैं । जब वह संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है,
तब वह ‘प्रेम’ दब जाता है और ‘काम’ उत्पन्न हो जाता है । जबतक ‘काम’ रहता
है, तबतक ‘प्रेम’ जाग्रत्
नहीं होता । जबतक ‘प्रेम’
जाग्रत् नहीं होता, तबतक ‘काम’ का
सर्वथा नाश नहीं होता । जड-अंशकी
मुख्यतासे जिसमें सांसारिक भोगोंकी इच्छा (काम) रहती है, उसीमें चेतन-अंशकी मुख्यतासे परमात्माकी इच्छा
भी रहती है । अतः वास्तवमें ‘काम’ का निवास जड-अंशमें ही है, पर वह भी चेतनके सम्बन्धसे ही है । चेतनका सम्बन्ध छूटते ही
‘काम’
का नाश हो जाता है । तात्पर्य यह हुआ कि चेतनद्वारा जडसे सम्बन्ध-विच्छेद
करते ही जड-चेतनके तादात्म्यरूप ‘अहम्’ का नाश हो जाता है और ‘अहम्’ का नाश होते ही ‘काम’ भी नष्ट हो जाता है । ‘अहम्’ में जो जड-अंश है, उसमें ‘काम’ रहता है‒इसकी प्रबल युक्ति यह है कि दृश्यरूपसे दीखनेवाला संसार,
उसे देखनेवाली इन्द्रियाँ तथा बुद्धि और उसे देखनेवाला स्वयं
भोक्ता‒इन तीनोंमें जातीय (धातुगत) एकताके बिना भोक्ताका भोग्यकी ओर आकर्षण हो ही नहीं सकता । कारण
कि आकर्षण सजातीयतामें ही होता है, विजातीयतामें नहीं; जैसे‒नेत्रोंका रूपके प्रति ही आकर्षण होता है,
शब्दके प्रति नहीं । यही बात सब इन्द्रियोंमें लागू होती है
। बुद्धिका भी समझनेके विषय (विवेक-विचार)-में आकर्षण होता है, शब्दादि विषयोंमें नहीं (यदि होता है तो इन्द्रियोंको
साथमें लेनेसे ही होता है) । ऐसे ही स्वयं (चेतन)-की परमात्मासे तात्त्विक एकता है,
इसलिये ‘स्वयं’ का परमात्माकी ओर आकर्षण होता है । यह तात्त्विक एकता जड-अंशका
सर्वथा त्याग करनेसे अर्थात् जडसे माने हुए सम्बन्धका सर्वथा विच्छेद करनेसे ही अनुभवमें
आती है । अनुभवमें आते ही ‘प्रेम’ जाग्रत् हो जाता है । प्रेममें जडता
(असत्)-का अंश भी शेष नहीं रहता अर्थात् जडताका अत्यन्त अभाव हो जाता है । प्रकृतिके कार्य महत्तत्त्व (समष्टि बुद्धि)-का अत्यन्त सूक्ष्म
अंश ‘कारणशरीर’ ही ‘अहम्’ का जड-अंश है । इस कारणशरीरमें ही ‘काम’ रहता है । कारणशरीरके तादात्म्यसे
‘काम’
स्वयंमें दीखता है । तादात्म्य मिटनेपर जिसमें ‘काम’ का लेश भी नहीं है, ऐसे अपने शुद्ध स्वरूपका अनुभव हो जाता है । स्वरूपका अनुभव
हो जानेपर ‘काम’ सर्वथा निवृत्त हो जाता है । ‘एवं
बुद्धेः परं बुद्ध्वा’‒पहले शरीरसे पर इन्द्रियाँ, इन्द्रियोंसे पर मन, मनसे पर बुद्धि और बुद्धिसे पर
‘काम’
को बताया गया । अब उपर्युक्त पदोंमें बुद्धिसे पर
‘काम’
को जाननेके लिये कहनेका अभिप्राय यह है कि यह ‘काम’ ‘अहम्’
में रहता है । अपने वास्तविक स्वरूपमें ‘काम’
नहीं है । यदि स्वरूपमें ‘काम’ होता
तो कभी मिटता नहीं । नाशवान्
जडके साथ तादात्म्य कर लेनेसे ही ‘काम’ उत्पन्न होता है । तादात्म्यमें भी ‘काम’ रहता
तो जडमें ही है, पर दीखता है स्वरूपमें । इसलिये बुद्धिसे परे रहनेवाले इस ‘काम’ को जानकर उसका नाश कर देना चाहिये । ‘संस्तभ्यात्मानमात्मना’‒बुद्धिसे परे ‘अहम्’ में रहनेवाले ‘काम’ को मारनेका उपाय है‒अपने द्वारा
अपने-आपको वशमें करना अर्थात् अपना सम्बन्ध केवल अपने शुद्ध स्वरूपके साथ अथवा अपने
अंशी भगवान्के साथ रखना, जो वास्तवमें है । छठे अध्यायके पाँचवें श्लोकमें ‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’
पदसे और छठे श्लोकमें ‘येनात्मैवात्मना जितः’
पदोंसे भी यही बात कही गयी है । स्वरूप (स्वयं) साक्षात् परमात्माका अंश है और शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि
संसारके अंश हैं । जब स्वरूप अपने अंशी परमात्मासे विमुख होकर प्रकृति (संसार)-के सम्मुख
हो जाता है, तब उसमें कामनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं । कामनाएँ अभावसे
उत्पन्न होती हैं और अभाव संसारके सम्बन्धसे होता है; क्योंकि
संसार अभावरूप ही है‒‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता
२ । १६) । संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद
होते ही कामनाओंका नाश हो जाता है; क्योंकि स्वरूपमें अभाव नहीं है‒‘नाभावो
विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) । परमात्मासे विमुख होकर संसारसे अपना सम्बन्ध माननेपर भी जीवकी
वास्तविक इच्छा (आवश्यकता या भूख) अपने अंशी परमात्माको प्राप्त करनेकी ही होती है
।
‘मैं सदा जीता रहूँ;
मैं सब कुछ जान जाऊँ; मैं सदाके लिये सुखी हो जाऊँ’‒इस रूपमें वह वास्तवमें सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप परमात्माकी ही
इच्छा करता है, पर संसारसे सम्बन्ध माननेके कारण वह भूलसे इन इच्छाओंको संसारसे ही पूरी करना चाहता
है‒यही
‘काम’
है । इस ‘काम’ की पूर्ति तो कभी हो ही नहीं सकती । इसलिये इस ‘काम’ का नाश तो करना ही पड़ेगा । जिसने संसारसे अपना सम्बन्ध जोड़ा है,
वही उसे तोड़ भी सकता है । इसलिये भगवान्ने अपने द्वारा ही संसारसे
अपना सम्बन्ध-विच्छेद करके ‘काम’ को मारनेकी आज्ञा दी है ।
अपने द्वारा ही अपने-आपको वशमें करनेमें कोई अभ्यास नहीं है;
क्योंकि अभ्यास संसार (शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि)-की सहायतासे ही होता है । इसलिये अभ्यासमें संसारके
सम्बन्धकी सहायता लेनी पड़ती है । वास्तवमें अपने स्वरूपमें
स्थिति अथवा परमात्माकी प्राप्ति संसारकी सहायतासे नहीं होती, प्रत्युत
संसारके त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद)-से, अपने-आपसे होती है । രരരരരരരരരര |