।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण पूर्णिमा, वि.सं.२०७७ सोमवार
रक्षाबन्धन, यज्ञोपवित पूजन, हयग्रीव-जयन्ती 
भगवद्भक्तिका रहस्य


उन सर्वेश्वर प्रभुमें भक्तका हृदय धारावाहिकरूपसे तन्मय हो जाता है । इस प्रकार हृदयकी तल्लीनता तो मारीच, कंस, शिशुपाल आदिकी भाँती भय और द्वेषके कारण भी हो सकती है । किन्तु वह तल्लीनता भक्तिमें परिणत नहीं हो सकती; क्योंकि उसे भक्तिरसके आनन्दका अनुभव नहीं होता । जैसे कोई व्यक्ति सर्वलोकपावनी गंगाजीमें वैशाखमासमें स्नान करता है तो गंगास्नानसे उसके पापोंका नाश होकर अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और उसे स्नान करनेमें भी प्रत्यक्ष ही अपूर्व रसानुभूति–आनन्दानुभव होता है, किन्तु जो माघमासमें गंगास्नान करता है, उसके पापोंका तो अवश्य नाश हो जाता है, पर शीतके कारण उसे स्नान करनेमें आनन्द नहीं आता, प्रत्युत उसका आनन्दांश तिरस्कृत होकर उसे कष्टका अनुभव होता है । इसी तरह भय-द्वेष आदिके कारण भगवदाकार अन्तःकरणवालोंका आनन्दांश तिरोहित होकर उनका हृदय दुःखित और चिन्तित रहता है । इसलिए उनके अन्तःकरणकी तदाकारता भक्तिमें शामिल नहीं है । अतः भगवान्‌के प्रति आत्मीयताको लेकर दृढ़ विश्वास और प्रेमपूर्वक जो अन्तःकरणका भगवदाकार हो जाना है, वही भक्ति है । किन्तु नास्तिकोंकी अपेक्षा तो भय-द्वेष आदिको लेकर भगवान्‌का चिन्तन करनेवाले भी अच्छे हैं । फिर उनका तो कहना ही क्या है जो भगवान्‌का श्रद्धा-प्रेमपूर्वक निरन्तर निष्काम अनन्य भजन करते हैं । जिस प्रकार गंगाकी चाल स्वाभाविक ही निरन्तर समुद्रकी ओर है, इसमें न तो उसका अपना कोई प्रयोजन है और न वह कहीं ठहरती ही है, इसी प्रकार अनन्य भक्त न तो कुछ चाहता ही है और न कहीं भगवत्स्मरणसे विराम ही लेते हैं; वे तो नित्य-निरन्तर निष्कामभावसे भजन ही करते रहते हैं । श्रीनारदजीने भी कहा है–‘भक्त एकान्तिनो मुख्याः’ (नारदभक्तिसूत्र-६७)

(४) एकमात्र भगवान्‌को इष्ट मानकर उन्हींकी अनन्य भक्ति करना ही सर्वश्रेष्ठ भक्ति है । इसलिए सम्पूर्ण जगत्‌को भगवान्‌का स्वरूप समझकर भी ऐसी भक्तिका साधन किया जा सकता है; क्योंकि स्वयं भगवान्‌ ही जगत्‌के रूपमें प्रकट हुए हैं, इसीलिये यह सारा ब्रह्माण्ड भगवान्‌का ही स्वरूप है एवं देवता आदिमें भी भगवान्‌की बुद्धि करके भी भक्ति की जा सकती है और इसका फल भी भगवत्प्राप्ति ही है । इस प्रकारकी भगवान्‌की भक्ति करनेवालेंमें दो बातें प्रधान होनी चाहिये–साधकमें हो निष्कामभाव और उपास्यमें हो भगवद्बुद्धि । इससे भगवान्‌की प्राप्ति निश्चय ही हो जाती है । किन्तु समस्त जगत्‌में भगवद्बुद्धि न होकर भी साधकमें पूर्ण निष्कामभाव हो तो भी उसकी सेवाका फल भगवत्प्राप्ति ही है । भगवान्‌की भक्ति तो सकामभावसे करनेपर भी ध्रुवकी भाँती भगवत्कृपासे अभीष्ट फलकी सिद्धिपूर्वक भगवान्‌की प्राप्ति हो जाती है । यदि कोई देवताओंको देवता मानकर भी निष्कामभावसे केवल भगवद् आज्ञापालनपूर्वक भगवान्‌को प्रसन्न करनेके लिए ही उसकी भक्ति करता है तो उसका फल भी भगवत्प्राप्ति ही होता है । फिर जो स्वयं भगवान्‌की ही निष्कामभावसे नित्य-निरन्तर अनन्य भक्ति करते हैं, उन अनन्य भक्तोंको भगवान्‌ मिलें–इसमें तो बात ही क्या है । भगवान्‌ने गीतामें कहा है–

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥
                                                    (८/१४)


‘हे अर्जुन ! जो पुरुष मुझमें अनन्यचित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तमको स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ ।’

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.२०७७ रविवार
भगवद्भक्तिका रहस्य


भगवान्‌ने यहाँ ज्ञानी, जिज्ञासु, आर्त, अर्थार्थी–ऐसा अथवा अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु, ज्ञानी– ऐसा क्रम न बतलाकर आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी ऐसा कहा है । यहाँ आर्त और अर्थार्थीके बीचमें जिज्ञासुको रखनेमें भगवान्‌का यह एक विलक्षण तात्पर्य मालूम देता है कि जिज्ञासुमें जन्म-मरणके दुःखसे दुःखी होना और अर्थोंके परम अर्थ परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिकी इच्छा–ये दोनों हैं । इस प्रकार आर्त और अर्थार्थी दोनोंके आंशिक धर्म उसमें आ जाते हैं । इसी तरह आर्त और अर्थार्थी भक्तोंमें आर्तिनाश और पदार्थ-कामनाके अतिरिक्त मुक्तिकी भी इच्छा रहती है, इसलिए भगवान्‌से जो कष्ट-निवृत्ति तथा सांसारिक भोगोंकी प्राप्तिकी कामना की गयी, उस कामनारूप दोषको समझनेपर उनके हृदयमें ग्लानि और पश्चात्ताप भी होता है । अतः आर्त और अर्थार्थी–इन दोनोंमेंसे कोई तो जिज्ञासु होकर भगवान्‌को तत्त्वसे जान लेते हैं और कोई भगवान्‌के प्रेमके पिपासु होकर भगवत्प्रेमको प्राप्त कर लेते हैं एवं अन्ततोगत्वा वे दोनों सर्वथा आप्तकाम होकर ज्ञानी भक्तकी श्रेणीमें चले जाते हैं । ज्ञानी सर्वथा निष्काम होता है, इस सर्वथा निष्कामभावका द्योतन करनेके लिए ही भगवान्‌ने ‘च’ शब्दका प्रयोग करके उसे सबसे विलक्षण बतलाया है । ऐसे ज्ञानी भक्तोंकी भगवद्भक्ति सर्वथा निष्काम–अहैतुकी होती है । श्रीमद्भागवतमें भी कहा है–

आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे ।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः ॥
                                                   (१/७/१०)

‘ज्ञानके द्वारा जिनकी चिज्जड-ग्रन्थि कट गयी है, ऐसे आत्माराम मुनिगण भी भगवान्‌की हेतुरहित भक्ति किया करते हैं, क्योंकि भगवान्‌ श्रीहरि ऐसे ही अद्भुत दिव्य गुणवाले हैं ।’

भगवान्‌ तो उपर्युक्त सभी भक्तोंको उदार मानते हैं–‘उदाराः सर्व एवैते’ (गीता ७/१८) । अर्थार्थी और आर्त भक्त उदार कैसे ? इसका उत्तर यह है कि अपनेसे माँगनेवालों और दुःखनिवारण चाहनेवालोंको भी उदार कहना तो वस्तुतः भगवान्‌की ही उदारता है, परन्तु भगवान्‌ इस दृष्टिसे भी उन्हें उदार कह सकते हैं कि वे मेरा पूरा विश्वास करके मुझे अपना अमूल्य समय देते हैं । दूसरी बात यह है कि वे फलप्राप्तिको मेरे भरोसे छोड़कर मेरा आश्रय पहले लेते हैं, तब पीछे मैं उन्हें भजता हूँ (गीता ४/११) । तीसरी बात यह है कि वे देवता आदिका पूजन करके अपना अभीष्ट फल शीघ्र प्राप्त कर सकते थे (गीता ४/१२) और मेरी भक्ति करनेपर तो मैं उनकी कामना पूर्ण करूँ या न भी करूँ, तब भी वे उन देवातओंकी अपेक्षा मुझपर विशेष विश्वास करके मेरा भजन करते हैं । इसलिए वे उदार हैं ।

इससे सिद्ध हुआ कि चाहे जैसे भी हीन जन्म, आचरण और भाववाला मनुष्य क्यों न हो, वह भी भगवद्भक्तिका अधिकारी हो सकता है ।


भगवान्‌के साथ अपनेपनको लेकर उनपर दृढ़ विश्वासका होना–यह भक्त-हृदयका प्रधान चिह्न है । भक्तोंका हृदय सम्पूर्ण जगत्‌में अव्यक्तरूपसे परिपूर्ण रहनेवाले परमात्माको आकर्षित करके साक्षात् मूर्तरूपमें प्रकट कर लेता है, जैसे भक्त ध्रुव और प्रह्लादके लिये भगवान्‌ साक्षात् प्रकट हो गये थे ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.२०७७ शनिवार
भगवद्भक्तिका रहस्य


श्रीमद्भागवतमें बतलाया है कि कोई भी कामना न हो या सभी तरहकी कामना हो अथवा केवल मुक्तिकी ही कामना हो तो भी श्रेष्ठ बुद्धिवाला मनुष्य तीव्र भक्तियोगसे परम पुरुष भगवान्‌की ही पूजा करे–

अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः ।
तीव्रेण  भक्तियोगेन   यजेत   पुरुषं  परम् ॥
                                                  (२/३/१०)

यहाँ ‘अकाम’ से ज्ञानी भक्त, ‘मोक्षकाम’ से जिज्ञासु तथा ‘सर्वकाम’ से अर्थार्थी और आर्त भक्त समझना चाहिये । ज्ञानीभक्त वह है जो भगवान्‌को तत्त्वतः जानकर स्वाभाविक ही उनका निष्कामभावसे नित्य-निरन्तर भजन करता रहता है । जिज्ञासु भक्त उसका नाम है, जो भगवत्तत्त्वको जाननेकी इच्छासे उनका भजन करता है । अर्थार्थी भक्त वह होता है, जो भगवान्‌पर भरोसा करके उनसे ही संसारी भोग-पदार्थोंको चाहता है और आर्त भक्त वह है, जो संसारके कष्टोंसे उन्हींके द्वारा त्राण चाहता है ।

गीतामें इन्हीं भक्तोंके सकाम और निष्काम भावोंके तारतम्यसे चार प्रकार बतलाये हैं–

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी  ज्ञानी  च  भरतर्षभ ॥
                                                  (७/१६)

‘हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! उत्तम कर्म करनेवाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी ऐसे चार प्रकारके भक्तजन मुझको भजते हैं ।’

इनमें सबसे निम्नश्रेणीका भक्त अर्थार्थी है, उससे ऊँचा आर्त, आर्तसे ऊँचा जिज्ञासु और जिज्ञासुसे ऊँचा ज्ञानी भक्त है । भोग और ऐश्वर्य आदि पदार्थोंकी इच्छाको लेकर जो भगवान्‌की भक्तिमें प्रवृत्त होता है, उसका लक्ष्य भगवद्भजनकी ओर गौण तथा पदार्थोंकी ओर मुख्य रहता है; क्योंकि वह पदार्थोंके लिये भगवान्‌का भजन करता है, न कि भगवान्‌के लिये । वह भगवान्‌को तो धनोपार्जनका एक साधन समझता है, फिर भी भगवान्‌पर भरोसा रखकर धनके लिए भजन करता है, इसलिए वह भक्त कहलाता है ।


जिसको भगवान्‌ स्वाभाविक ही अच्छे लगते हैं और जो भगवान्‌के भजनमें स्वाभाविक ही प्रवृत्त होता है, किन्तु सम्पत्ति-वैभव आदि जो उसके पास हैं, उनका जब नाश होने लगता है अथवा शारीरिक कष्ट आ पड़ता है; तब उन कष्टोंको दूर करनेके लिये भगवान्‌को पुकारता है, वह आर्त भक्त अर्थार्थीकी तरह वैभव और भोगोंका संग्रह तो नहीं करना चाहता, परन्तु प्राप्त वस्तुओंके नाश और शारीरिक कष्टको नहीं सह सकता, अतः इसमें उसकी अपेक्षा कामना कम है और जिज्ञासु भक्त तो न वैभव चाहता है न योगक्षेमकी ही परवाह  करता है; वह तो केवल एक भगवत्तत्त्वको ही जाननेके लिये भगवान्‌पर ही निर्भर होकर उनका भजन करता है ।

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