।। श्रीहरिः ।।
परमात्मप्राप्तिमें देरी क्यों?-२

(गत् ब्लोगसे आगेका)
अगर परमात्माकी प्राप्ति करना चाहते हो तो अपनेको स्त्री या पुरुष न मनाकर अपना सम्बन्ध परमात्मके साथ जोड़ो । शरीर तो मिला है और बिछुड जायगा । इस शरीरमें ही आप अटक जाओगे तो फिर परमात्माकी प्राप्ति कैसे होगी ? परमात्माकी प्राप्ति तब होगी, जब परमात्माके साथ सम्बन्ध जोड़ोगे । कोई कपूत हो या सपूत हो, पूत तो वह है ही । कपूत भी बेटा है, सपूत भी बेटा है । अतः हम कैसे ही हों, अच्छे हों या मंदे हों, परमात्माके ही है । परमात्माकी प्राप्ति न स्त्रीको होती है, न पुरुषको होती है । विवाह करना हो तो अपनेको स्त्री-पुरुष मानो । स्त्रीको पुरुष मिलेगा, परमात्मा कैसे मिलेंगे ? पुरुषको स्त्री मिलेगी, परमात्मा कैसे मिलेंगे ? परमात्मा तो साधकको मिलेंगे । साधक स्वयं होता है, शरीर नहीं होता । मुक्ति भी स्वयंकी होती है, शरीरकी नहीं होती । अतः हम न स्त्री हैं, न पुरुष हैं, प्रत्युत हम परमात्माके हैं । परमात्मा हमारे हैं । हम और किसीके नहीं हैं । और कोई हमारा नहीं है । जिसको प्राप्त करना हो, उसके साथ अपना घनिष्ठ सम्बन्ध जोड़ो । परमात्माकी प्राप्तिमें स्त्रीपना और पुरुषपना—दोनों ही बाधक हैं । अपनेको स्त्री या पुरुष माननेवाला तो शरीरमें ही बैठा है, फिर उसको परमात्मा कैसे मिलेंगे ? मैं भगवान् का हूँ, भगवान् मेरे हैं—यह मान लो तो बड़ा भारी काम हो गया ! यह मामूली साधन नहीं हुआ है । भगवान् की और आपकी जाति एक हो गयी, जो कि वास्तवमें है ।

जाति, कुल, विद्या, सम्प्रदाय आदिका अभिमान परमात्माकी प्राप्तिमें बाधक है । भगवान् जिस जातिके हैं, उसी जातिके हम हैं । भगवान् के साथ हमारा असली सम्बन्ध है, बाकी सब सम्बन्ध नकली हैं । हम भगवान् के अंश हैं—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७) । हम संसारके अंश नहीं हैं । हम साक्षात् भगवान् के बेटा-बेटी हैं । सांसारिक स्त्री-पुरुष तो हम बादमें बने हैं—‘सो मायाबस भयउ गोसाई’ (मानस, उत्तर.११७/२)

यहाँ शंका हो सकती है कि ‘मैं भगवान् की बेटी हूँ’—ऐसा माननेसे अपनेमें स्त्रीभाव रह जायगा ! वास्तवमें ऐसी बात नहीं है । अगर भगवान् के साथ सम्बन्ध माननेसे स्त्रीभाव रह भी जाय तो वह मिट जायगा । भगवान् का सम्बन्ध ऐसा विलक्षण है कि सभी सम्बन्धोंको काट देता है । कारण कि सब सम्बन्ध झूठे हैं, पर भगवान् का सम्बन्ध सच्चा है । भगवान् ने कहा है कि जीव केवल मेरा ही अंश है—‘ममैवांशो जीवलोके’ । सच्ची बातके आगे झूठी बात कैसे टिकेगी ? परन्तु आप ‘मैं स्त्री हूँ या मैं पुरुष हूँ’— इस बातको ही महत्त्व देते रहोगे तो यह कैसे मिटेगा ? ‘जदपि मृषा छूटत कठिनई’ । इसलिए एक भगवान् के सिवाय दूसरेका सर्वथा निषेध कर दो—‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरों न कोई’ । भगवान् मिलें चाहे उम्रभर न मिलें, दर्शन दें चाहे न दें, पर हम तो भगवान् के ही हैं । भरतजी कहते हैं—

जानहुँ रामु कुटिल करि मोही । लोग कहउ गुर साहिब द्रोही ॥
सीता राम चरन रति मोरें । अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें ॥
(मानस, अयोध्या. २०५/१)

हम जैसे हैं, भगवान् के हैं । अच्छे हैं तो भगवान् के हैं, बुरे हैं तो भगवान् के हैं । जैसे विवाहित स्त्री भीतरसे अपनेको कुँआरी नहीं मान सकती, इसी तरह भक्त भगवान् के सिवाय दुसरेको अपना मान सकता ही नहीं । झूठी बात कैसे माने ? भगवान् को हरेक आदमी अपना मान सकता है । पापी-से पापी, दुष्ट-से–दुष्ट आदमी भी भगवान् को अपना मान सकता है । कारण कि यह मान्यता सच्ची है, दूसरी सब मान्यताएँ झूठी हैं । आपको हजारों आदमी कह दें कि तुम भगवान् के नहीं हो तो उनसे यही कहें कि आपको पता नहीं है । भगवान् भी कह दे कि तुम हमारे नहीं हो तो उनसे कहें कि आपको भूल हो सकती है, पर मेरेको भूल नहीं हो सकती ! इतना पक्का विचार होना चाहिये !
अस अभिमान जाइ जनि भोरे । मैं सेवक रघुपति पति मोरे ॥
(मानस, अरण्यकाण्ड ११/११)

इस तरह दृढतासे भगवान् में अपनापन हो जाय तो फिर परमात्मप्राप्तिमें देरी नहीं लगेगी ।
—‘सब साधनोंका सार’ पुस्तकसे
http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/sab%20sadano%20ka%20sar/ch5_33.htm