।। श्रीहरिः ।।

सब जग
ईश्वररूप है-४

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
एक वैरागी बाबा थे । वे गणेशजीका पूजन किया करते थे । एक बार उनको रामेश्वरम् जाना था, पर पासमें पैसे नहीं थे । वे सुनारके पास गए और और उससे बोले की भैया ! ये मेरे गणेशजी और उनका चूहा है । इनको लेकर तुम मुझे पैसे दे दो । सुनारने तौलकर बताया कि इतना मूल्य तो गणेशजीकी मूर्तिका है और इतना मूल्य चूहेकी मूर्तिका है । वैरागी बाबा बोले कि ‘क्या बात करते हो मूर्ख कहींके ! चूहा तो वाहन है और गणेशजी उसके मालिक हैं, दोनोंका एक मूल्य कैसे हो सकता हुआ ? सुनार बोला कि ‘बाबाजी ! मैं गणेशजी और चूहेकी बात नहीं करता हूँ, मैं तो सोनेकी बात कहता हूँ ।’

एकनाथजी महाराजने भागवत्, एकादश स्कन्धकी टीकामें लिखा है कि एक सोनेसे बनी हुई विष्णुभगवान् की मूर्ति है और एक सोनेसे बनी हुई कुत्तेकी मूर्ति है । विष्णुभगवान् श्रेष्ठ और पूज्य हैं, कुत्ता नीच (अस्पृश्य) एवं अपूज्य है । परंतु तौलमें बराबर होनेके कारण दोनोंका बराबर मूल्य है । बाहरी रूपको देखें तो दोनोंमें बड़ा भारी फर्क है, पर सोनेको देखें तो दोनोंमें कोई फर्क नहीं ! इसी तरह संसारमें कोई महात्मा है, कोई दुरात्मा है; कोई सज्जन है, कोई दुष्ट है; कोई सदाचारी है, कोई दुराचारी है; कोई धर्मात्मा है, कोई पापी है; कोई विद्वान है, कोई मूर्ख है—यह सब तो बाहरी दृष्टिसे है, पर तत्त्वसे देखें तो सब-के-सब एक भगवान् ही हैं । एक भगवान् ही अनेक रूप बने हुए हैं । जानकार आदमी उनको पहचान लेता है, दूसरा नहीं पहचान सकता । जैसे आमके बगीचेमें वृक्ष खड़े हैं । उनमें एक भी आम नहीं है । परन्तु जानकर आदमीकी दृष्टिमें वे सब आम हैं । वे उसको आमका ही बगीचा कहते हैं । तत्वज्ञ महात्माकी दृष्टि सम होती है—
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥
(गीता ५/१८)
‘महात्मालोग विद्या-विनययुक्त ब्राह्मणमें और चाण्डालमें तथा गाय, हाथी एवं कुत्तेमें भी समरूप परमात्माको देखनेवाले है ।’
ब्राह्मणे पुल्कसे स्तेने ब्रह्मण्येऽर्के स्फुलिंगके ।
अक्रुरे क्रूरके चैव समदृक् पण्डितो मतः ॥
(श्रीमद्भागवत ११/२९/१४)
‘जो ब्राह्मण और चाण्डालमें, ब्राह्मणभक्त और चोरमें, सूर्य और चिनागारीमें तथा कृपालु और क्रूरमें समान दृष्टि रखता है, वह भक्त ज्ञानी माना गया है ।’

ऐसे समरूप परमात्माको देखनेवाले महात्मा संसारको जीत लेते हैं—
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
(गीता ५/१९)
‘जिसका अन्तःकरण समतामें स्थित (राग-द्वेषसे रहित) है, उन्होंने इस जीवित-अवथामें ही सम्पूर्ण संसारको जीत लिया है ।’ अर्थात् उनमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि नहीं रहते । उनकी समबुद्धि स्वतः अटल बनी रहती है । जब एक भगवान् के सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं, तो फिर कौन द्वेष करे और किससे करे ?
उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध ।
निज प्रभुमय देखहिं जगत कही सन करहिं बिरोध ॥
(मानस, उत्तर. ११२ ख)
प्रश्न—जब सब कुछ भगवान् ही हैं तो फिर जड-चेतन, विनाशी-अविनाशीका भेद कहाँसे आ गया ?

उत्तर—यह भेद मनुष्यसे आया है अर्थात् मनुष्यने ही इस भेदको पैदा किया है और वही इसको मिटा सकता है तथा इसकी मिटानेकी जिम्मेवारी भी उसीपर है । भगवान् ने गीतामें कहा है कि इस जगत को जीवने ही धारण किया है—‘जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्’ (७/५) । राग-द्वेष न हों, समता हो तो संसार भगवत्स्वरूप ही दीखेगा ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे