।। श्रीहरिः ।।

वैराग्य-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
भयसे होनेवाला वैराग्य—दुःखसे होनेवाले वैराग्यकी अपेक्षा भयसे होनेवाला वैराग्य श्रेष्ठ है । स्वास्थ्यका भय, राज्यका भय, समाजका भय, मान-प्रतिष्ठाका भय, जन्म-मरणका भय और नरकोंका भय—इन अनेक प्रकारके भयोंसे होनेवाले रागके अभावको ‘भयसे होनेवाला वैराग्य’ कहते हैं ।

भोगोंके भोगनेसे शरीर शिथिल होता है,रोग बढ़ते हैं, शक्तिका ह्रास होता है, कार्य करनेका साहस नहीं होता—आदि-आदि क्लेशोंके भयसे जो हरेक चीजके खाने-पीने और स्त्रीसंग आदि भोगोंसे मनका हटना है, एवं इसी प्रकार रोगादिके हो जानेपर उनकी वृद्धि न हो जाय; अतः उनमें कुपथ्यरूप भोगोंसे मनका हटना है, यह ‘स्वास्थ्यनाशके भयके कारण होनेवाला वैराग्य’ है ।

जुर्माना,कारागार, फाँसी आदिके भयसे चोरी, व्यभिचार, डकैती, हिंसा आदि अत्याचार-अनाचारसे प्राप्त होनेवाले भोगोंसे जो मनका हट जाना है, यह ‘राज्यभयसे होनेवाला वैराग्य’ है ।

जाति-बहिष्कार, आर्थिक व्यय, लडके-लडकीके विवाहमें कठिनता; समाजमें बदनामी आदिके भयसे जो जातिके नियमोंका भंग करके भोगोंको भोगनेकी इच्छाका त्याग कारण है, यह ‘समाज-भयसे होनेवाला वैराग्य’ है ।

वेश्यागमन, मदिरापान, हिंसा आदिसे कुलपरम्परागत मानका नाश होगा तथा लोग हमें नीची दृष्टिसे देखेंगे—ऐसे विचारसे लौकिक मर्यादाको छोडकर भोगोपभोगके त्यागका जो भाव है, यह ‘मान-प्रतिष्ठाके भयसे होनेवाला वैराग्य’ है ।
जन्म-मरणका प्रधान कारण है—पदार्थ, क्रिया, भाव और व्यक्ति आदिमें आसक्त रहना । अतः इन पदार्थोंका चिन्तन होगा तो मरनेके समय भी इन्हींका स्मरण होगा और अन्तकालीन स्मरणके अनुसार ही आगे जन्म होगा—इस भयसे पदार्थ-क्रिया आदिमें जो रागका न रहना है, यह ‘जन्म-मरणके भयसे होनेवाला वैराग्य’ है ।
काम, क्रोध, लोभ आदि वृत्तियोंके वश होकर शास्त्रके विपरीत पदार्थोंका अन्यायपूर्वक सेवन करनेसे वैतरणी, असिपत्रवन, लालाभक्ष्य, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक आदि नरकोंकी प्राप्ति होगी, वहाँ अनेक भयानक कष्ट भोगने पड़ेंगे; यहाँका विषय-सुख तो क्षणिक होगा परन्तु इसके परिणाममें प्राप्त होनेवाली नारकीय पीड़ा अत्यन्त भयानक और बहुत समयतक रहनेवाली होगी—इस भयके कारण मनके काम-क्रोधादिसे हटनेको ‘नरकोंके भयसे होनेवाला वैराग्य’ कहते हैं ।

इस प्रकार भयसे होनेवाले वैराग्यके कई रूप हैं । इनमें नरकोंके भयसे होनेवाला वैराग्य अन्य भयोंसे होनेवाले वैराग्यकी अपेक्षा स्थायी और श्रेष्ठ है, पर वह भी असली वैराग्य नहीं है । इनमें भी पदार्थोंसे सूक्ष्म राग नहीं छूटा है । केवल भयके कारण पदार्थोंसे मन हटा है—यह भयसे होनेवाला वैराग्य है; भय न रहे तो इस वैराग्यका रहना भी कठीन है ।

विचारसे होनेवाला वैराग्य—भयसे होनेवालेकी अपेक्षा विचार-विवेकसे होनेवाला वैराग्य ऊँचा है । विचारका अर्थ है—सत्-असत्, सार-असार, हेय-उपादेय और कर्तव्य-अकर्तव्य आदिका विवेक । इस विवेकसे जो असत्, असार, हेय और अकर्तव्यका मनसे परित्याग है अर्थात् इनके प्रति मनके रागका जो अभाव हो जाना है, उसको विचारसे होनेवाला वैराग्य कहते हैं । विषय-सेवन करनेसे परिणामतः विषयोंमें राग-आसक्ति बढ़ती है, जो कि सम्पूर्ण दुःखोंका कारण है और विषयोंमें वस्तुतः सुख है भी नहीं । केवल आरम्भमें सुख प्रतीत होता है । गीताजीमें कहा है—

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥
विषयेन्द्रियसंयोगाद् यत्तदग्रेमृतोपमम्
परिणामे विषमिव तत् सुखं राजसं स्मृतम् ॥
(५/२२,१८/३८)


‘जो ये इन्द्रिय तथा विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले सब भोग हैं, वे यद्यपि विषयी पुरुषोंको सुखरूप भासते हैं तो भी दुःखके हेतु ही होते हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात् अनित्य हैं । इसलिये हे अर्जुन ! बुद्धिमान्—विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता ।’

‘जो सुख विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे होता है, वह पहले—भोगकालमें अमृतके तुल्य प्रतीत होनेपर भी परिणाममें विषके तुल्य है इसलिये वह सुख राजस कहा गया है ।’

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे